झुक झुक कर सलाम कर अपनी रियासत बचाए रखने का दौर

एक हजार साल की गुलामी के दंश को रोती कौम, जिसने झुक झुक कर सलाम कर अपनी रियासत बचाये रखी।

●●

इतिहास में हम विदेशी आक्रमणकारियों के बारे में पढ़ते हैं। आर्यो का आक्रमण, सिकन्दर का हमला, शको, हूण, कुषाण, मुहम्मद बिन कासिम..

गजनवी और घोरी हों, खलजी या बाबर, तैमूर हो, अब्दाली या फिर अंग्रेज… कब हुआ कि हिंदुस्तान ने एक होकर सर उठाया हो?? मार भगाया हो??

●●

चंद्रगुप्त हो, स्कन्दगुप्त हो या, दाहिर, हेमू, सांगा और शिवाजी…

टीपू से सिराजूउद्दौला और लक्ष्मीबाई से हजरत महल तक, सब अकेले ही लड़े। राष्ट्र चेतना के नाम पर इक्का दुक्का छोड़, कौन साथ खड़ा हुआ? 

अंग्रेजी राज को लीजिए..

प्लासी और बक्सर के अलावे कितनी लड़ाइयां याद हैं आपको?? अगर कोई बड़ी लड़ाई नहीं हुई, तो कैसे 1757 से 1857 के बीच पूरा देश अंग्रेजों के शिकंजे में आ गया??

जवाब मिलेगा- सहायक संधि!!

●●

मुफ्त का राज मिलेगा, अय्याशी के तमाम साधन मिलेंगे। सेना, प्रशासन और सुरक्षा के झमेले ब्रिटिश के जिम्मे.. इस नीति से तमाम हिंदुस्तान अंग्रेजी राज के तले आया।

और यही नीति तो मुगलों की थी- मनसबदारी प्रथा! दिल्ली दरबार में ऊंचा रसूख और इलाके में अर्धस्वायत्त सत्ता।

यह चुग्गा मिला, तो मुगलिया हरम की सुरक्षा, बारी बारी से राजपूत करते।

जी हां-मुगलों को उज्बेक, ताजिक, अफगान, पठान औऱ ममलूकों का भरोसा न था। वे हरम की सुरक्षा में राजपूत राजाओं की सेना लगाते। और इस भरोसे की वजह..

मनसबदारी प्रथा!

●●

जिन महाराणा प्रताप को कागजी शेर बनाकर मेरी जाति वाले सोशल मीडिया पर वीरता का झन्डा लहराते हैं, इतिहास कहता है कि वे तो केवल मानसिंह से ज्यादा ऊंचा मनसब चाहते थे।

न मिला तो लड़ पड़े..

और जब बेटे को मनचाहा मनसब मिल गया, तलवार खूंटी पर टांग दी।

●●

अपना राजपाट धन दौलत बनी रहे, दिल्ली में कौन है, इससे क्या मतलब???…

मायावती पहले ही नतमस्तक हैं। केजरीवाल, या ममता सेटलमेंट मॉड में हैं। हो सकता है नीतीश भी इसमें जुड़ जाएं। गद्दी बनी रहे, रसूख बना रहे, तो अनावश्यक दांत और नाखून अड़ाने तक लड़ाई की जरूरत क्या है?

ये वही क्षेत्रीय क्षत्रप हैं, छोटे छोटे इलाकों, जातियों और तबकों के नायक हैं, जिनके विरुद्ध पे पन्ने लिखे गये; जो कभी मुगलिया दरबार के नवरत्न थे, और कभी किंग जॉर्ज के सामने दुम हिलाते थे!

ये वही मध्यकालीन साइकोलॉजी है।

●●

पर एक बार, हमने सर उठाया।

बस एक बार, जब हमने, हम भारत के लोगों ने नायकों का, कुलीनों का, राजाओं का मुंह ताकना बन्द किया।

एक कृशकाय बूढ़े की महीन सी आवाज सुनकर हम अपने घरों से निकल पड़े।

तीन हजार साल के इतिहास में एक बार हिंदुस्तान की प्रजा ने मामला अपने हाथ में लिया।

●●

और उस बार, बस एक बार हमने अपने गले से गुलामी का जुआ उखाड़ फेंका। हम प्रजा न रहे, हम नागरिक हुए।

आज ही के दिन, सदियों की कालिख हमने मुख से धो डाली थी। जय हिंद का नारा गुंजाया, तिरंगा लहरा, गणतंत्र के नाम का।

ये तीन पीढ़ी पुरानी बात है।

●●

कृशकाय बूढ़े की आवाज मद्धम हो चुकी है। क्षितिज पे युद्ध के नाद गूंज रहे हैं। एकमुखी सत्ता का शिकंजा कस रहा है। राम के मन्दिर में शहंशाह की गद्दी सजी है।

हमारे नायक झुक रहे हैं। मनसबदारी माथे से लगा रहे हैं। सारे एक एक कर दरबार में सलामी बजा रहे हैं। रण नहीं, याचना का दौर है।

यही इतिहास था, यही मौजूदा दौर है।

झुकने वाली कौम का दौर है…

(रिबॉर्न मनीष की टिप्पणी।)

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
1 Comment
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments
Sanjay Kumar
Sanjay Kumar
3 months ago

मनीष जी, आपका लेख बहुत दिनों बाद पढ़ने को मिला, वर्तमान की गहराई से समझ है, भविष्य की दृष्टि है, भाषा में प्रवाह है लय है, सोए हुए को जगाने का माद्दा है,
धन्यवाद, लिखते रहिए