समस्या आने पर शुतुरमुर्ग हो जाते हैं पीएम मोदी!

शायद ही किसी प्रधानमंत्री की विदेश यात्रा को लेकर इतने सवाल उठे होंगे। कोई यह नहीं कह रहा है कि प्रधानमंत्री को अमेरिका नहीं जाना चाहिए। कोई यह भी नहीं कह रहा है कि बदलती दुनिया में अमेरिका और भारत को एक साथ नहीं आना चाहिए। कुछ लोगों को छोड़कर इस बात की किसी को चिंता नहीं है कि योग-दिवस को विश्व-स्तर के कार्यक्रम में नेतृत्वकारी भूमिका नहीं निभाना चाहिए। लोगों की चिंताएं कुछ और हैं।

यह पहली बार हो रहा है जब कुछ ऐसे सवाल भारत में सुलग और जल रहे हैं, जिसका असर भारत की आंतरिक और संभव है कि अंतर्राष्ट्रीय स्थितियों पर आये, उसे दरकिनार कर भारत के प्रधानमंत्री विदेश यात्रा पर हैं। इसमें सबसे बड़ा सवाल मणिपुर का है। मणिपुर में जो चल रहा है, उसकी जद में अब नागालैंड भी है। मणिपुर की आग कभी भी वहां पहुंच सकती है। बर्मा की सीमा और वहां से कथित तौर पर हो रही घुसपैठ के दावे और आरोप से माहौल गर्म है। विभाजन और एक दूसरे दूरत्व की भावना कब आग बनकर आगे बढ़ने लगे कहना मुश्किल है। लोग अपील करते रह गये, लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की जबान नहीं खुली और वे अमेरिका चले गये।

यही स्थिति महिला खिलाड़ियों के साथ घटित हुई। अंतर्राष्ट्रीय खेल संगठन की ओर से चेतावनी जारी हो गई और देश के अंदर खेल स्थितियां बदतर होने की ओर बढ़ गई हैं। लेकिन, प्रधानमंत्री की चुप्पी नहीं टूटी। और, अमेरिका में गौरव हासिल करने की उनकी दावेदारी महिला पहलवानों की उम्मीदों के सामने फीकी पड़ गई। ऐसी ही उम्मीदें किसानों ने की थी और उस समय प्रधानमंत्री ने कहा भी था कि वे बस एक काॅल की दूरी पर हैं, लेकिन संपर्क होने में बहुत देर हो चुकी थी। हालांकि किसान दिल्ली की सीमा पर बैठे हुए थे, और कई बार वार्ता के लिए उनके मंत्रियों से मिलने के लिए उनके मंत्रालयों तक आये। लेकिन, प्रधानमंत्री की चुप्पी टूटने में बहुत देर हो चुकी थी।

यहीं हाल, एनआरसी के दौरान हुआ। उन्होंने रामलीला मैदान, दिल्ली में कहा कि वे इस बारे में जानते ही नहीं हैं। जबकि इसका परिणाम दंगों और समुदायगत विभाजनों में दिखा, चुनावों में खूब प्रयोग किया गया और समुदायों के भीतर जो गहरी अविश्वास की खाई रची गई, उसके परिणाम सामने आते जा रहे हैं। इस दौरान पिछले चार सालों में प्रधानमंत्री चुनावों, उद्घाटनों, विदेश यात्राओं और कई बार संसद में भी खूब बोले, लेकिन जब लोगों ने मांग किया कि अब इस पर आप जरूर बोलें तब उन्होंने बोलने के विकल्प के चुनाव में या तो देर किया या नहीं ही बोला।

एक ऐसा ही मसला चीन का था, जिस पर तथ्य कुछ और थे और बात कुछ और कही गई, लेकिन चीन का नाम नहीं लिया। एक ऐसा ही मसला अडानी का था, इस व्यक्ति का नाम उन्होंने नहीं लिया।

कोई यह कह ही सकता है कि प्रधानमंत्री के बोलने, न बोलने से क्या फर्क पड़ता है? लेकिन जब प्रधानमंत्री दावा करते हैं कि भारत लोकतंत्र की मां है, तब उसका न्यूनतम अर्थ दो संदर्भों में जरूर है। पहला, मां के प्रति नैतिक दायित्व और दूसरा उसके प्रति दिये वचन को पूरा करना। इसमें से दूसरा जो पक्ष है, उसे कुछ संदर्भों में अमित शाह ने चुनावी जुमला कहकर खारिज कर दिया। इस दिये वचन में कितने जुमले हैं और कितने वास्तविक वचन, इसका विभाजन उस पार्टी और सरकार के पास है। लेकिन, जो नैतिक दायित्व है उसका निर्वाह न करना, वादा खिलाफी से अधिक अर्थ रखता है।

यदि हम सीएसडीए-लोकनीति के 2019 के चुनावी आंकड़ों में देखें, तब इसका चित्र इस तरह से दिखता हैः पार्टी और नेतृत्व की गुणवत्ता के संदर्भ में जो वोट दिये गये, वह इस तरह से थे-

यह चुनाव हो जाने के बाद का सर्वेक्षण था। (देखेंः एनईएस-2019 पोस्ट पोल एन-683।)

सीएसडीएस ने इसी तरह का एक सर्वेक्षण 2014 में किया था। उस समय नेतृत्व की गुणवत्ता को लेकर लोगों में किस तरह और कितना भरोसा था, उसका सर्वेक्षण किया गया था। इसमें नेतृत्व में जनता की चिंता करने वाला, भरोसेमंद, काम करने वाला, समस्या का हल निकालने वाला और अनुभवी होने को वर्गीकृत किया गया था। इसके लिए 45 अकों वाला एक चार्ट बनाया गया था और सांख्यिकी को इसी के आधार पर विश्लेषित किया गया था। उस चुनाव में राहुल गांधी 15 अंक से ऊपर नहीं जा सके थे। जबकि नरेंद्र मोदी 41 अंक से शुरू होकर 44 अंक की सीमा तक पहुंच गये थे। अनुभव में वह सर्वोच्च 44 अंक पर थे, और लोगों को साथ लेकर चलने की क्षमता में 43 अंक पर थे। लोगों को ख्याल करने और भरोसमंद नेता के बतौर वे 41 अंक के साथ थे। और, काम कर गुजरने वाली क्षमता में वे 42 अंक के साथ थे।

यदि हम एक छात्र द्वारा पाये जाने वाले अंकों के साथ तुलना करें तो लोकतंत्र की परीक्षा में जनता ने उन्हें लगभग 98 प्रतिशत अंक दिया था। उन्हें वोट देने वालों में धनी और मध्यवर्ग अपनी उच्च-जाति के साथ सबसे आगे और सर्वोच्च था। मीडिया का प्रभावपूर्ण समर्थन का असर दूर-दूराज के लोगों के वोट को नरेंद्र मोदी के पक्ष में लाने में दिखा। समुदायगत तौर पर दलित, मुस्लिम, आदिवासी का वोट का प्रतिशत नरेंद्र मोदी के पक्ष में बढ़ गया। वर्गीय तौर पर किसानों, मजदूरों और निम्नवर्ग ने नरेंद्र मोदी के पक्ष में जाकर भाजपा को वोट दिया। ऐसे में, आंकड़ों के हिसाब से भी भाजपा और नरेंद्र मोदी की नैतिक जिम्मेदारी बनती है कि वह कम से कम जिन कारणों से उन्हें समर्थन दिया, उसे न्यूनतम स्तर भी पूरा करे।

हम जानते हैं कि लोकतंत्र के कथित महापर्व में वोट को लेकर कई तरह की तकनीक और रुख अपनाए जाते हैं, इसमें जुमला से लेकर हिंसा तक का प्रयोग कोई छुपी हुई बात नहीं है। लेकिन, सबसे अधिक प्रभाव एक व्यक्ति को महान बनाकर सामने लाने और उसके साथ जनता की उम्मीदों को जोड़ देने का पड़ता है। इन उम्मीदों में कई बार जनता के बीच विभाजन बढ़ाकर उनके दुश्मनाना संबंधों को अंतर्राष्ट्रीय रंग में रंगकर देशभक्ति और धर्म का प्रयोग इस कदर किया जाता है कि पार्टियों के झंडे का जो भी रंग हो, जनता के बीच इंसान का खून बहना लाजिमी हो जाता है और इसे खूब उकसाया भी जाता है।

पिछले 20 सालों के चुनाव का इतिहास इन खूनी लड़ाइयों से भरा हुआ है। लेकिन, जैसा कि लोकतंत्र के अंतर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय विद्वान दावा करते हैं कि सारी कमियों के बावजूद भारत एक लोकतंत्र है, और खुद प्रधानमंत्री मोदी का दावा हैं कि भारत लोकतंत्र की मां है। ऐसे में वोट का जो प्रतिशत उनके हिस्से में जा रहा है, उसके प्रति उनका नैतिक दायित्व तय हो जाता है।

मोदी और उनकी पार्टी के नेतृत्व में चल रही सरकारों की नीतियों का यदि हम जायजा लें, और उनके प्रति वोट के झुकाव वाले समुदायों और वर्गों को देखें, तब हमें वहां वह नहीं दिखता है, जिसका आमतौर पर मोदी और उनकी पार्टी की सरकारें दावा करती हैं। चाहे वे युवा, छात्र और महिलाएं हों, दलित, मुस्लिम और आदिवासी हों या मजदूर, किसान और मध्यवर्ग हों। यह जनता का ही वोट में वो रूझान था जिसके आधार पर भाजपा दावा करती थी कि मोदी है तो मुमकिन है।

आज हम बैंकों की नीति देखें या विदेश नीति में होने वाले समझौते देखें, उसमें हम धनिकों के लिए जो अब तक मुमकिन नहीं था उसे तो मोदी मुमकिन कर गये लेकिन मजदूरों के लिए जो हासिल कानून थे उसे एक अधिनियम के तहत उत्तर-प्रदेश की सरकार एक झटके में खत्म कर नामुकिन लगने वाले काम को अंजाम दे गई और मोदी उस पर चुप रहे।

उपरोक्त वर्गो और समुदायों के मसलों पर मोदी की चुप्पी सिर्फ चुप्पी नहीं है। यह एक विकल्प का चुनाव है। मोदी इस मामले में स्पष्ट हैं। वह लोकतंत्र को एक बुर्जआ लोकतंत्र की परिभाषा में ही देखते हैं, और इसे वह चरम स्तर पर परिभाषित कर रहे हैं। लोकतंत्र की इस नई परिभाषा में चुप्पी सिर्फ चुप्पी नहीं है, यह एक तकनीक और आगामी कार्रवाई के लिए अपनाई जा रही रणनीति का हिस्सा है। लोकतंत्र की प्राथमिक इकाइयों को भी यह जान लेना जरूरी है।

(अंजनी कुमार पत्रकार हैं।)

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments