महत्वाकांक्षाओं के पर संभालने और बहेलियों के वैभव के डर से बाहर निकलने का समय

पिछले दिनों, खासकर दस साल में जीवन का पैराडाइम, प्रतिमान बदल चुका है। भारत की राजनीति की धुरी भी बदल चुकी है। आज के समय में ‘अपडेट’ बहु प्रयुक्त शब्द बन गया है। भारत के राजनीतिक दलों ने अपने राजनीतिक प्रकल्पों को कितना अपडेट किया है, कहना मुश्किल है।

जिस तरह से कांग्रेस ने खुद को रिस्टार्ट करने की कोशिश की है, उस से लगता है कि उसने अपनी प्रोग्रामिंग के अपडेशन का काम किया है, यह सफल हुआ या नहीं यह तो मई महीने में मॉनिटर के डिस्प्ले होने पर पता चलेगा।

फिलहाल, कांग्रेस जिस तरह से विपक्षी गठबंधन के लिए राजनीतिक विनम्रता की नीति के साथ अपनी विचारधारा के सातत्य पर मजबूती से बने रहने का धैर्य दिखा रही है, उसकी तारीफ की जानी चाहिए। 

भारत जोड़ो न्याय यात्रा के दौरान नगालैंड से गुजरते हुए राहुल गांधी ने प्रेस के सवालों का जवाब जिस साफगोई से दिया है, वह सराहनीय है। उनकी समझ बिल्कुल निष्कलुष है। हिंदू होने का, अपने हिंदू होने का अर्थ जिस अंदाज में सामने रखा है, वह होने का सामाजिक सारांश है।

हिंदू बहुसंख्यक देश में अपने हिंदू होने के सार्वजनिक प्रदर्शन में धर्म के इस्तेमाल से राजनीतिक फायदे लूटने की मंशा छिपी रहती है। यह भी साफ किया कि व्यक्तिगत स्तर पर कांग्रेसजन या कोई भी फैसला लेने के लिए स्वतंत्र है। कांग्रेस समझती है कि 22 जनवरी 2024 को होनेवाला प्राण-प्रतिष्ठा कार्यक्रम हिंदुत्वादी राजनीति के चुनावी फायदे के लिए आयोजित किया है।

जिस विचारधारा के खिलाफ कांग्रेस संघर्ष कर रही है, उस विचारधारा के फायदे के लिए आयोजित राजनीतिक कार्यक्रम में कांग्रेस क्यों शामिल हो! उत्तर प्रदेश के कुछ कांग्रेसी नेता अयोध्या गये भी थे, जिनके साथ भद्र व्यवहार का दृश्य भी मीडिया में दिखा। कुछ कांग्रेसजनों को स्नान करते भी दिखाया गया। ध्यान रहे उनका अयोध्या जाने को राजनीतिक कार्यक्रम का हिस्सा नहीं माना जा सकता है।

इधर, बहुजन समाज पार्टी ने ‘अकेले दम पर’ 2024 का आम चुनाव में उतरने का फैसला किया है। दल की सुप्रीमो बहन मायावती ने अपने जन्मदिन पर इस फैसला को सार्वजनिक किया। उन्हें 2007 के आम चुनाव जैसे परिणाम की उम्मीद है।

राजनीति में महत्वाकांक्षाओं के पर लगे होते हैं तो जमीन पर बहेलियों के वैभव का पिंजरा भी मुंह बाये घूमता रहता है। किस्सा महत्वाकांक्षाओं के पर का है या बहेलियों के वैभव के डर का कहना मुश्किल है। क्या पता, समझना आसान हो! बहन जी के ‘अकेले दम’ का भारत की राजनीति पर क्या असर पड़ेगा यह तो आगामी चुनाव नतीजों से ही साफ हीगा।

बहुजन समाज पार्टी (बसपा) सुप्रीमो बहन मायावती के इस फैसला का असर तो पड़ेगा, खुद उन पर उनके समर्थक मतदाताओं भी पड़ेगा। इस समय इतना तो कहना ही होगा कि जिस तरह की राजनीतिक परिस्थितियों के बीच 2024 का आम चुनाव होने जा रहा है उसमें संवैधानिक लोकतंत्र की चिंता करने वाले और परेशान हाल लोग दलीय सुविधाओं की राजनीतिक चंचलता से दुखद दुविधा में पड़ते जा रहे हैं।

इस समय भारत की राजनीति हिंदुत्वमय है। हिंदू धर्म में अंतर्निहित जातिवादी पदानुक्रमिक व्यवस्था है। यह व्यवस्था असंवैधानिक सामाजिक असमानताओं की नैतिक स्वीकृति देता है। नैतिक स्वीकृति की असंवैधानिक विकट स्थिति से अविलंब बाहर निकल आने में ही सामाजिक शुभ है। इस विकट स्थिति के कारण अर्थ-व्यवस्था में उपलब्ध अवसरों का भी भेद-भाव पूर्ण प्रबंधन होता है।

आरक्षण की समकारक (इक्वलाइजर) व्यवस्था न तो स्थायी है, न पर्याप्त, न सम्मानजनक और संतोषप्रद है। आरक्षण व्यवस्था के अंतर्गत रोजगार पानेवालों के साथ उनके कार्य-स्थल पर होने वाले सलूक को ध्यान में लिया जा सकता है।

हिंदुत्वादी राजनीतिक दल समकारक (इक्वलाइजर) को खंडित किये बिना नैतिक स्वीकृति की असंवैधानिक विकट स्थिति से अविलंब बाहर निकलने के बारे में क्या सोचता है, हिंदुत्वमय माहौल में यह सवाल जायज है। कांग्रेस से भी यह सवाल पूछा जा सकता है।

डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर के नेतृत्व में कांग्रेस ने समकारक (इक्वलाइजर) व्यवस्था के संवैधानिक प्रावधान के लिए ‘बाहर-भीतर’ के विरोध के बावजूद राजनीतिक माहौल बनाया। संसदीय लोकतंत्र की राजनीतिक परिस्थितियों में ‘सामाजिक तांडव’ से बचने की नीति के कारण हिंदू धर्म में अंतर्निहित जातिवादी व्यवस्था को तोड़ने के लिए सीधे-सीधे कोई राजनीतिक प्रयास का साहस नहीं किया, यह सच है।

कांग्रेस ने इसके लिए ‘उचित समय’ का इंतजार करने की नीति अपनाया। जवाहरलाल नेहरू की धारणा थी कि विज्ञान और बड़े कारखानों के लगने तथा औद्योगिक शहरों के विकास के साथ आधुनिकता के माहौल में प्रगतिशील सामाजिक चेतना का प्रभाव बढ़ेगा जिस से यह समस्या स्वतः समाप्त हो जायेगी।

जवाहरलाल नेहरू की धारणा सही साबित नहीं हुई। आज जब माहौल हिंदुत्वमय है इस सवाल को उठाने का उचित समय आ गया है, साहस आना बाकी है। हिंदुत्ववादी राजनीति में जातिगत आधार पर सामाजिक भेद-भाव को समाप्त करने के लिए क्या उपाय किया जा सकता है!

राजनीतिक माहौल को हिंदुत्वमय बनानेवालों से यह पूछा जाना चाहिए। कांग्रेस पार्टी पूछ सकती है। कांग्रेस को ही क्यों, लोकतंत्र, न्याय और मान्य नैतिक सिद्धांतों को महत्त्व देनेवाले हर शख्स को यह सवाल पूछना चाहिए। 

धर्म और राजनीति के बारे में डॉ. राममनोहर लोहिया के विचार आज बहुत प्रासंगिक हैं। वे मानते थे कि धर्म और राजनीति एक ही वृक्ष के अलग-अलग फूल हैं। लंबे समय तक चलनेवाली राजनीति धर्म है और अल्प समय का धर्म राजनीति है। धर्म भलाई की स्तुति और कामना करता है, बुराई की निंदा करता है। राजनीति बुराई और अन्याय से लड़ती है।

इस समय, सत्ताधारी दल ‘लंबे समय से चलनेवाली राजनीति’ का जैसा आक्रामक इस्तेमाल कर रहा है उससे ‘अल्प कालीन राजनीति’ या तो बिल्कुल ही दब्बू बन गई है या फिर ‘लंबे समय से चली आ रही राजनीति’ का ही हिस्सा बन गई है। ‘लंबे समय से चली आ रही राजनीति’ आज जोर-शोर से जारी है, जबकि लंबे समय से लंबित हिस्सेदारी का सवाल अपनी जगह ठस बना हुआ है।

हिंदुत्व की राजनीति के कारण बने सामाजिक भेद-भाव के वर्चस्व को डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर चुनौती दे रहे थे, तो उन्हें हिंदुत्व के लिए चुनौती मानकर उनके विचारों से किनारा कर लिया गया। हालांकि, सामाजिक भेद-भाव के वर्चस्व को समाप्त करने के लिए पर्याप्त संवैधानिक प्रावधान मौजूद हैं। इसके बावजूद सामाजिक भेद-भाव की प्रवृत्ति बदस्तूर जबर ही होती गई है।

उधर, राम मंदिर में प्राण-प्रतिष्ठा के मामले में धार्मिक कर्मकांडों के विधि-विधान के उल्लंघन पर धर्मगुरू मुखर हैं। यह सरकार संवैधानिक प्रावधानों या विधि-विधानों का भी लगातार उल्लंघन करती रही है। असल में, अपने एक व्यक्तिवादी निरंकुश अहंकार के चलते इस सरकार को पहले से स्थापित कोई भी विधि-विधान या प्रावधान मान्य नहीं है।

हिंदू धर्म सत्ता और हिंदुत्ववादी राजसत्ता में मतभेद उभर रहा है। हिंदुत्ववादी राजसत्ता चाहती है वह जो भी करे हिंदू धर्म सत्ता उसका समर्थन करे। हिंदू धर्म सत्ता चाहती है कि हिंदुत्ववादी राजनीति संवैधानिक प्रावधानों को बदले या ताक पर रखे, हिंदू धर्म के वर्णवाद सहित शास्त्रीय विधि-विधान पर चलने और चलाने का अभ्यास देश के लोगों को कराये।

मुश्किल यह है कि सवर्ण हिंदू वर्चस्व हिंदू धर्म सत्ता की पारंपरिक वैधता को साबूत रखने में मददगार बना रह सकता है, लेकिन हिंदुत्ववादी राजनीति की वैधता बहाल नहीं रख सकता है। सामने हिंदू धर्म और हिंदुत्ववादी राजनीति का द्वंद्वात्मक फांस है। हिंदुत्ववादी राजनीति आगे बढ़े तो हिंदू धर्म के विभिन्न पंथ के व्यग्र और उग्र हो जाने का डर है, न बढ़े तो अपने होने के अर्थ को ही दांव पर लगाने के जोखिम में पड़ जायेगा।

इस दुर्भावनापूर्ण परिस्थिति में बहुजन हिंदू समाज बहुत उदार हुआ तो बहु-सांस्कृतिक सद्भाव का रास्ता अख्तियार करेगा। अन्यथा, आशंका निर्मूल नहीं है कि बहुजन हिंदू समाज हिंदू धर्म के परिसर से बाहर होकर पारंपरिक रीति-रिवाजों का सामाजिक पालन अपने-अपने पंथों की मान्यताओं के अनुसार ही करेगा।

ऐसे में हिंदुत्ववादी राजनीति के पक्ष में मूलतः सवर्ण हिंदुओं के कमसंख्यक का ही राजनीतिक समर्थन बचा रह जायेगा। हिंदुत्ववादी राजनीति इस द्वंद्वात्मक फांस से निकलने के लिए क्या उपाय करती है, यह भारत की राजनीति के बहुपथात्मक मोड़ पर बहुत महत्त्वपूर्ण है। इंतजार तो करना होगा।

फिर से अपने-अपने राम का मुहावरा जाग उठा है! हिंदुत्व के धर्म के राम अलग, हिंदुत्व की राजनीति के राम अलग! हिंदुत्व के धर्म और हिंदुत्व की राजनीति के कारण भारत की राजनीति इन दिनों ‘धर्ममय कोलाहलों’ से घिर गया है।

पूंजी, पैसा और तकनीक के इस्तेमाल और प्रभाव का मसला अलग है। प्रसंगवश, पंजाब की बदलती राजनीतिक स्थिति पर जर डालनी चाहिए। प्रसंगवश, पंजाब की बदलती राजनीतिक स्थिति पर जर डालनी चाहिए।

हिंदू धर्म में अंतर्निहित जातिवादी पदानुक्रमिक व्यवस्था है। यह व्यवस्था असंवैधानिक सामाजिक असमानताओं की नैतिक स्वीकृति देता है। नैतिक स्वीकृति की असंवैधानिक विकट स्थिति से अविलंब बाहर निकल आने में ही सामाजिक शुभ है। इस विकट स्थिति के कारण अर्थ-व्यवस्था में उपलब्ध अवसरों का भी भेद-भाव पूर्ण प्रबंधन होता है।

आरक्षण की समकारक (इक्वलाइजर) व्यवस्था न तो स्थायी है, न पर्याप्त, न सम्मानजनक और संतोषप्रद है। आरक्षण व्यवस्था के अंतर्गत रोजगार पाने वालों के साथ उनके कार्य-स्थल पर होने वाले सलूक को संज्ञान में लिया जा सकता है।

हिंदुत्वादी राजनीतिक दल समकारक (इक्वलाइजर) को खंडित किये बिना नैतिक स्वीकृति की असंवैधानिक विकट स्थिति से अविलंब बाहर निकलने के बारे में क्या सोचता है, हिंदुत्वमय माहौल में यह सवाल जायज है। कांग्रेस से भी यह सवाल पूछा जा सकता है।

डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर के नेतृत्व में कांग्रेस ने समकारक (इक्वलाइजर) व्यवस्था के संवैधानिक प्रावधान के लिए ‘बाहर-भीतर’ के विरोध के बावजूद राजनीतिक माहौल बनाया। संसदीय लोकतंत्र की राजनीतिक परिस्थितियों में ‘सामाजिक तांडव’ से बचने की नीति के कारण हिंदू धर्म में अंतर्निहित जातिवादी व्यवस्था को तोड़ने के लिए सीधे-सीधे कोई राजनीतिक प्रयास का साहस नहीं किया, यह सच है।

कांग्रेस ने इसके लिए ‘उचित समय’ का इंतजार करने की नीति अपनाया। जवाहरलाल नेहरू की धारणा थी कि विज्ञान और बड़े कारखानों के लगने तथा औद्योगिक शहरों के विकास के साथ आधुनिकता के माहौल में प्रगतिशील सामाजिक चेतना का प्रभाव बढ़ेगा जिस से यह समस्या स्वतः समाप्त हो जायेगी।

जवाहरलाल नेहरू की धारणा सही साबित नहीं हुई। आज जब माहौल हिंदुत्वमय है इस सवाल को उठाने का उचित समय आ गया है, साहस आना बाकी है। हिंदुत्ववादी राजनीति में जातिगत आधार पर सामाजिक भेद-भाव को समाप्त करने के लिए क्या उपाय किया जा सकता है।

राजनीतिक माहौल को हिंदुत्वमय बनानेवालों से यह पूछा जाना चाहिए। कांग्रेस पार्टी पूछ सकती है। कांग्रेस को ही क्यों, लोकतंत्र, न्याय और मान्य नैतिक सिद्धांतों को महत्त्व देनेवाले हर शख्स को यह सवाल पूछना चाहिए। 

गरीबों और वंचितों के सामने कठिन संघर्ष है। पितृसत्तात्मक समाज में गरीबों और वंचितों की स्थिति को एक रूपक के माध्यम से समझा जा सकता है। बेटा कुछ न बने तो एक समस्या, कुछ बन जाये तो एक दूसरी समस्या। आर्थिक-पंगु यानी बेरोजगार बेटा घर में क्या कोहराम मचाता है यह कोई भुक्त-भोगी ही जानता है।

बूढ़े मां-बाप के लिए कमाऊ बेटा-बहू के घर में जैसी जगह बनती है, सब को मालूम ही है! आंकड़ों में क्या जाना! आंसू ही सूख गये हों तो आंकड़ों को लेकर क्या करेगा कोई! ऐसे हालात में ‘पांच किलो’ की कृतज्ञता के तले दबे इतनी बड़ी आबादी की बात अपनी जगह। सामने 2024 का आम चुनाव अपनी जगह।

अपनी-अपनी डफली, अपने-अपने राम! ऐसे में, किंकर्त्तव्य विमूढ़ भारतीय लोकतंत्र करे तो क्या करे! धीरज और साहस के साथ महत्वाकांक्षाओं के पर सम्हालने और बहेलियों के वैभव के डर से बाहर निकलने का यह समय है।

हिंदी पट्टी में जाति और धर्म के सामाजिक असर पर सांस्कृतिक नजर से देखने के लिए, हिंदी के अमर कथाकार, फणीश्वरनाथ रेणु की दो कहानियों से साभार दो प्रसंग—

मनमोहन ने सहसा पूछ लिया– “पंडितजी, क्या आप कह सकते हैं, मां ने जो यह नई जमीन ली है उसके खरीदने में आपका कितना हाथ है?” “बबुआजी! मैंने ही तो सबकुछ किया”– वृद्ध मनमोहन के भावों को नहीं समझ सका। वह प्रसन्न होकर कहता गया– “विधवा तो जमीन बेचने के लिए राजी ही नहीं हो रही थी। बस मैंने धरम की वह लकड़ी फेरी कि सारी अकड़ जाती रही।”

“और कैलाशपति के विरुद्ध झूठी गवाही भी आपने ही दी थी?” “अरे क्या पूछते हो बबुआजी! तुम्हें तो सब मालूम है। नहीं रहे मालिक मेरे, वरना सारी लक्ष्मीपुर की जमींदारी अपनी होकर रहती। मैं तो सेवक हूं, बहूजी की आज्ञा पर..” “और आप ग्राम हिन्दू–सभा के सभापति भी हैं?” “अहा हा! तुम तो सब जानते हो बबुआजी। मालिक ने मुझे जो कुछ भी बनाया, वह हूं। अब तुम जमींदारी का भार तो सँभालो।..” — “इतिहास, मज़हब और आदमी”

बेटा’ कहते–कहते वह रुक गया।.. परमानपुर में उस बार एक ब्राह्मण के लड़के को उसने प्यार से ‘बेटा’ कह दिया था। सारे गांव के लड़कों ने उसे घेरकर मारपीट की तैयारी की थी– “बहरदार होकर ब्राह्मण के बच्चे को बेटा कहेगा? मारो साले बुड्ढे को घेरकर!.. मृदंग फोड़ दो।”

मिरदंगिया ने हंसकर कहा था, “अच्छा, इस बार माफ़ कर दो सरकार! अब से आप लोगों को बाप ही कहूंगा।” बच्चे खुश हो गये थे। एक दो–ढाई साल के नंगे बालक की ठुड्डी पकड़कर वह बोला था, “क्यों, ठीक है न बापजी?” — “रसप्रिया”

(प्रफुल्ल कोलख्यान लेखक और स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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