इजराइल, अमेरिका और मिलिट्री इंडस्ट्रियल कॉम्प्लेक्स को बेनकाब करते दो अमेरिकी

नई दिल्ली। इजराइल को समझने के लिए हमें दो ऐसे अमेरिकियों के परिप्रेक्ष्य से भी देखना होगा, जिनके विचार इजराइल-फिलिस्तीन संघर्ष और भू-राजनीतिक नीति से बिल्कुल भिन्न नजरिया पेश करते हैं। भारतीय मीडिया पश्चिम के उधार पर सांस लेता है, और उसके पास अब खुद का कोई मौलिक विचार या नजरिया नहीं बचा है।

या तो उसके पास घरेलू राजनीति के मुताबिक जंचने वाली बहुसंख्यक नीति की नजर से दुनिया को देखने की आदत है, या फिर पश्चिम से पूंजी निवेश पर टकटकी लगाये देश के क्रोनी पूंजीपतियों के हितों के हिसाब से उसे समाचार पेश करने की तलब है।

इजराइल-फिलिस्तीन संघर्ष की कवरेज के लिए इस समय भारत की ओर से भी कई मीडिया समूह इस समय अरब के हिस्से में मौजूद हैं। लेकिन इनमें से एक भी आपको गाजापट्टी से लाइव कवरेज करता नहीं मिलेगा। सभी भारतीय और पश्चिमी मीडिया एकतरफा इजराइल की धरती से उसके और अमेरिकी चश्मे से खबरें परोस रहे हैं। हाँ, यह सही है कि हमले की शुरुआत गाजापट्टी से हमास की ओर से की गई है, लेकिन यह तो शनिवार की बात है। इसके बाद से तो युद्ध क्षेत्र पूरी तरह से गाजापट्टी बना हुआ है। फिर दिखाना है तो वहां के हालात दिखाएं।

लेकिन 5 दिन बीत जाने के बाद भी मीडिया में हमास की आतंकी कार्रवाई को उस समय भी दिखाया जा रहा है, जब पूरे अरब वर्ल्ड में इजराइल के आधुनिकतम हथियारों, खूंखार सैनिकों, मिसाइल और ख़ुफ़िया एजेंसी मोसाद की उपस्थिति के बावजूद महाबली अमेरिका ने न सिर्फ हथियारों की पूरी खेप ही इजराइल को भेंट की है, बल्कि खुद भी एयरक्राफ्ट कैरियर शिप को भूमध्यसागर पर रख छोड़ा है।

ऊपर से आज अमेरिकी विदेश मंत्री एंथोनी ब्लिंकन खुद इजराइल की धरती पर पधार चुके हैं। कल राष्ट्रपति जो बाइडेन के मुंह से पूरी दुनिया सुन चुकी है कि उन्होंने खुद अपनी आंखों से हमास द्वारा इजरायली बच्चों की हत्या का वीडियो देखा है, जिसके बारे में अब सार्वजनिक हो चुका है कि यह झूठी खबर थी। इसके बावजूद यह महाबली ईरान को दोबारा धमका रहा है कि सावधान! कुछ किया तो ठीक नहीं होगा।

बहरहाल, दुनिया के संचार माध्यमों पर चूंकि पश्चिमी देशों का ही कब्जा है, और वे छोटी सी घटना को बहुत बड़ा और किसी विभीषिका को बेहद मामूली दिखाने की क्षमता उसी तरह से रखते आये हैं, जैसा कि हमारे देश का मीडिया विशेषकर 2014 के बाद करना शुरू कर चुका है। ऐसे में देश में मौजूद बौद्धिक वर्ग, भले ही वह बेहद मामूली संख्या में हो और बेहद सीमित प्रभाव रखता हो, की अत्तिरिक्त जिम्मेदारी बनती है कि वह स्वयं पूरे सच को समझने की कोशिश करे और स्थितियों का नीर-क्षीर विवेक से आकलन करे।

इसी सिलसिले में ऐसे दो व्यक्तित्वों के माध्यम से हम इजराइल-फिलिस्तीन संघर्ष के इतिहास और मौजूदा विवाद के मूल को समझने की कोशिश करेंगे।

2009 में अमेरिकी संसद के भीतर सांसद रोन पॉल का भाषण वर्तमान में इजराइल-हमास के बीच छिड़े भीषण संघर्ष के पीछे की कहानी की परतें खोलने में मदद करता है। अपने भाषण में रोन पॉल का कहना था, “गाजापट्टी में चल रहे संघर्ष में हमें और ज्यादा जिम्मेदारी से काम लेना चाहिए क्योंकि हम इजराइल और अरब दोनों को फंडिंग प्रदान करते हैं। विशेषकर इसलिए भी क्योंकि अमेरिकी आर्थिक और हथियारों की मदद आज बड़े पैमाने पर फिलिस्तीनियों की हत्या में काम आ रही है।

रोन पॉल कहते हैं कि “इसी प्रकार यदि हम हमास के बारे में देखें तो, पहले पहल इजराइल द्वारा ही इसे बढ़ावा दिया गया था, क्योंकि तब इजराइल को यासर अराफात के खिलाफ ऐसे संगठन की जरूरत महसूस हो रही थी। तब हम अमेरिकियों ने क्या सोचा? हमने सोचा कि हमारे पास कितनी शानदार व्यवस्था है, हमने इराक पर हमला किया और विश्व को लोकतंत्र का पाठ पढ़ाया। इसके बाद हमने फिलिस्तीनी इलाकों में निष्पक्ष चुनाव कराने की बात कही, और हमास को जिताने के लिए काम किया। इसके लिए हमने इजराइल की मदद से चुनाव में हमास को जिताया ताकि उसकी प्रभुत्वकारी भूमिका बन सके, फिर हम उसे खत्म कर दें।”

रोन पॉल आगे कहते हैं, “इसी प्रकार 80 के दशक में हमने ओसामा बिन लादेन का साथ दिया और सोवियत रूस के खिलाफ उसका इस्तेमाल किया। फिर सीआईए ने सोचा कि यदि हम मुसलमानों में कट्टरपंथी विचारों को पनपाते हैं, तो यह हमारे लिए काम करेगा, जिसके बाद हमने सोवियत का मुकाबला करने के लिए उनके मदरसों में कट्टरपंथ को बढ़ाने का काम किया। बहुत से प्रस्ताव इसके खिलाफ लाये गये कि यह न तो संयुक्त राज्य अमेरिका और न ही इजाराइल के हित में है, लेकिन इस पर ध्यान नहीं दिया गया।”

1976 से लेकर 2013 तक रिपब्लिकन पार्टी के सासंद के रूप में अपनी सेवाएं प्रदान करने के साथ-साथ रोन पॉल ने कई बार अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव की उम्मीदवारी भी रहे। अमेरिकी राजनीतिज्ञ एवं यूट्यूबर रोन पॉल का कहना है कि अमेरिका के लिए युद्ध बेहद मुफीद रहा है। अमेरिकी सेना के 80 फीसदी जनरल हथियारों का निर्माण करने वालों के लिए काम करते हैं।

लंबे समय से अमेरिकी मध्यवर्ग और गरीबों के हिस्से में युद्ध का बोझ, महंगाई और लड़ाई में भाग लेने की जिम्मेदारी आती रही है, जिसे अब धीरे-धीरे लोग समझने लगे हैं। यूक्रेन-रूस संघर्ष में अमेरिका की ओर से यूक्रेन की मदद के लिए 45 बिलियन डॉलर के हथियार दिए जा चुके हैं, और अब खबर है कि इजराइल के खिलाफ हमास ने जिन हथियारों का इस्तेमाल किया है, उसमें से कुछ हथियार अमेरिकी हैं, जिसे यूक्रेन से हमास के लड़ाकों ने हासिल किया है।

आरोप है कि हमास के लड़ाकों ने इन अमेरिकी हथियारों को ब्लैक मार्केट से हासिल किया है, और उसी की बदौलत आज इजराइल के खिलाफ इतने बड़े हमले को 75 वर्षों में पहली बार अंजाम देने में सफल रहा है। आरोप तो ये भी हैं कि अफगानिस्तान में दो दशकों की अमेरिकी सेना की उपस्थिति के बाद बुरी तरह से हताश और निराशा की स्थिति में जब अमेरिकी सेना ने काबुल छोड़ा तो वहां भी अरबों डॉलर के हथियार छोड़ दिए गये थे, और बहुत संभव है कि हमास के हाथों ये हथियार भी लगे हों।

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से अमेरिकी मिलिट्री इंडस्ट्रियल कॉम्प्लेक्स आज इतना ताकतवर हो चुका है कि दुनिया में शांति की कल्पना से ही वह सिहर उठता है। दुनियाभर में अशांति और किसी न किसी में हर समय युद्ध की स्थिति उसके अपने अस्तित्व के लिए अनिवार्य बन चुकी है। हथियारों के अलावा भाड़े के हत्यारों का चलन भी इन्हीं प्राइवेट आर्म मैन्युफैक्चरर्स के द्वारा इजाद किया गया है। यूक्रेन युद्ध के दौरान रूस के लिए लड़ने वाली वाग्नर आर्मी का उदाहरण हम देख चुके हैं।

लेकिन इराक, लीबिया और अफगानिस्तान युद्ध से अमेरिका इसी प्रकार की प्राइवेट आर्मी का बड़े पैमाने पर उपयोग कर चुका है। इसका अर्थ हुआ, आज भले ही भू-राजनीतिक जरूरत न भी हो तो भी युद्ध से मुनाफा कमाने वाले बड़े-बड़े मिलिटरी इंडस्ट्रियल कॉम्प्लेक्स की लॉबी अमेरिका, नाटो सहित तमाम वैश्विक नेताओं और उनके राजनीतिक दलों को भारी-भरकम चुनावी फंड और सुरक्षित राजनीतिक भविष्य का लालच दिखाकर युद्ध की कृत्रिम जरूरत को पैदा करने की हैसियत रखते हैं।

अमेरिका में रिपब्लिकन पार्टी की सांसद टेलर ग्रीन ने सवाल उठाया है कि हमास द्वारा हमले में इस्त्तेमाल किये गये हथियारों के सीरियल नंबर से आसानी से पता लगाया जा सकता है कि उसे ये हथियार यूक्रेन या अफगानिस्तान में से कहां से हासिल हुए हैं। हाल के युद्धों के बारे में रोन पॉल कहते हैं कि इन्हें अब युद्ध के बजाय व्यवसाय कहना ज्यादा उचित होगा, शायद एक तरह से रैकेट कहना सटीक होगा।

हमास के बर्बर हमले में इजरायली सेना के बजाए बड़ी संख्या में आम इजरायली, विदेशी नागरिकों की मौत हुई है, और इसके जवाब में गाजापट्टी पर इजराइल के हवाई हमले से ध्वस्त होने वाली इमारतों से कुचलकर मरने वालों में भी निर्दोष फिलिस्तीनी बच्चों, महिलाओं और बूढों की ही संख्या बहुतायत से देखने को मिल रही हैं।

लेकिन रोन पॉल इसके साथ ही सवाल उठाते हैं कि इस सबके लिए हमें हमास को दोषी करार देने से पहले इजराइल द्वारा फिलिस्तीनियों की वैध भूमि से उन्हें बेदखल कर गाजापट्टी और वेस्ट बैंक तक सीमित रखने, पिछले 15 वर्षों से गाजापट्टी को बाड़े में कैद रखने और समय-समय पर हवाई बमबारी कर अपनी ताकत का नमूना पेश करने की हवस का कोई न कोई जवाब तो पीड़ित देगा ही।

दूसरे अमेरिकी हैं, नार्मन गैरी फिनकेलस्टीन, जो स्वयं उस यहूदी माता-पिता की संतान हैं, जिन्होंने पोलैंड में रहते हुए द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान नाजीवाद का कुफ्र झेला था। उनकी मां ने मज्दानेक कंसंट्रेशन कैंप और पिता ने ऑशविट्ज़ यातना शिविर में रहते हुए यहूदियों के साथ होने वाली यातनाओं का सामना किया था, लेकिन यह उनका सौभाग्य था कि वे जिंदा बच गये। ऑस्ट्रिया में उनकी मुलाकात हो पाई और वहां से वे पलायन कर अमेरिका में बस गये।

1953 में जन्में फिनकेलस्टीन का कहना है कि ‘उनके माता-पिता ने हमेशा दुनिया को नाजी नरसंहार के चश्मे से देखा। उन्होंने अपने जीवन के लिए सदैव सोवियत संघ का आभार माना (वे मानते थे कि नाज़ियों की हार के लिए मुख्य रूप से सोवियत संघ जिम्मेदार था) और इसलिए जो कोई भी सोवियत विरोधी था, वे उसके प्रति बेहद कठोर थे’।

प्रिंसटन विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान से पीएचडी की डिग्री हासिल करने वाले फिनकेलस्टीन के शोध प्रबंध का विषय इजरायल-फिलिस्तीनी संघर्ष और प्रलय की राजनीति रही है। उन्होंने ब्रुकलिन कॉलेज, रटगर्स यूनिवर्सिटी, हंटर कॉलेज, न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी और डेपॉल यूनिवर्सिटी में संकाय पदों पर कार्य किया है, जहां वे 2001 से 2007 तक सहायक प्रोफेसर के पद पर रहे, लेकिन बिना किसी लाग-लपेट के सच कहने और सच की राह पर चलने के कारण जिंदगी में पग-पग पर उन्हें हमेशा बाधाओं का सामना करना पड़ा है।

फ़िंकेलस्टीन को इज़राइल राज्य के तीखे आलोचक के रूप में जाना जाता है। अपनी पुस्तक बियॉन्ड चुट्ज़पा पर चर्चा करते हुए, इज़राइली इतिहासकार एवी श्लेम ने फ़िंकेलस्टीन की इज़राइल की आलोचना को बेहद विस्तृत और अच्छी तरह से दस्तावेजी एवं सटीक बताया है।

2009 में टुडेज़ ज़मान के साथ एक टेलीफोन साक्षात्कार में, फ़िंकेलस्टीन ने इजराइल के बारे में अपने विचार व्यक्त करते हुए बताया था, “मुझे लगता है कि इज़राइल, जैसा कि कई टिप्पणीकारों के अनुसार भी एक पागल राज्य बनता जा रहा है। और हमें इसके बारे में ईमानदार रहना होगा। जहां बाकी दुनिया शांति चाहती है, यूरोप शांति चाहता है, अमेरिका शांति चाहता है, लेकिन यह राज्य युद्ध, युद्ध और युद्ध चाहता है। नरसंहार के पहले हफ्ते में इजराइली प्रेस में खबरें आईं हैं कि इजरायल अपनी सारी जमीनी सेना गाजा में नहीं लगाना चाहता क्योंकि वह ईरान पर हमले की तैयारी कर रहा था। तब ऐसी खबरें आईं कि वह लेबनान पर हमले की योजना बना रहा है। यह एक पागल अवस्था नहीं तो क्या है।

अंडरस्टैंडिंग पावर नामक निबंध श्रंखला में चॉम्स्की ने लिखा है कि “फिंकेलस्टीन द्वारा उनके सहित 30 लोगों को अपने प्रारंभिक निष्कर्ष भेजे गये थे, लेकिन उनके अलावा किसी ने भी इसका जवाब नहीं दिया था। मैंने उससे कहा, हां मुझे लगता है कि यह एक दिलचस्प विषय है, लेकिन मैंने उसे साथ ही चेतावनी दी, कि यदि तुम इसका पालन करते हो तो मुसीबत में पड़ सकते हो। क्योंकि इसके जरिये कहीं न कहीं तुम अमेरिकी बौद्धिक समुदाय को धोखाधड़ी के एक गिरोह के रूप में उजागर करने जा रहे हो, और यह बात उन्हें नागवार गुजरेगी और वे तुम्हें बर्बाद कर देंगे। तुम्हारा करियर बर्बाद हो जाएगा। बहरहाल, उसने मुझ पर भरोसा नहीं किया। इसके बाद हम बेहद करीबी दोस्त बन गये, लेकिन इससे पहले मैं उसे नहीं जानता था।”

फ़िंकेलस्टीन के जीवन में नोम चाम्सकी की भविष्यवाणी सच साबित हुई है। एक ऐसे यहूदी माता-पिता जिन्होंने नाजी नरसंहार की नजर से दुनिया को देखा हो, भला वैसी ही परिस्थितियों में इजराइल देश में फिलिस्तीनियों के साथ हो रहे व्यवहार, उनके निर्वासन और प्रताड़ना को भला कैसे चुपचाप देख सकता था। फ़िंकेलस्टीन ने अपने शोध के लिए नियमित रूप से इजराइल की यात्रा की और यहूदियों के बजाय हर बार फिलिस्तीनी परिवारों के बीच रहना पसंद किया। वेस्ट बैंक में रहते हुए गहराई से वहां के अनुभवों को उन्होंने दुनिया के सामने रखा, लेकिन उनकी आवाज दबाकर रख दी गई।

हालिया इजराइल-फिलिस्तीन संघर्ष के बाद अपनी नवीनतम किताब “गाजा: इसकी शहादत की जांच” के साथ सच की लड़ाई को पिछले 40 साल से जारी रखने वाले फ़िंकेलस्टीन 8 अक्टूबर को अपने एक यूट्यूब इंटरव्यू का अंश X पर जारी करते हुए कहते हैं, “सबसे पहला कदम यह होना चाहिए कि गाजापट्टी पर अवैध, अमानवीय, अनैतिक नाकेबंदी को खत्म किया जाना चाहिए। क्योंकि लाखों की संख्या में बच्चों को वहां पर बंधक बनाकर रखा गया है। मेरा यही कहना है कि नाकेबंदी को खत्म करना पहला काम है, इसके बाद ही कोई अगला कदम उठाया जा सकता है, लेकिन पहला काम है नाकेबंदी को समाप्त किया जाये।” 

इन्हीं वजहों से 2008 में इजराइल में उनके प्रवेश को लेकर 10 वर्षों का प्रतिबंध लगा दिया जाता है, क्योंकि वे ऐसे चुनिंदा लोगों में से हैं, जो मानते हैं कि जिस मकसद को ध्यान में रखकर इजराइल का निर्माण किया गया था, वही उद्देश्य पूरी तरह से विफल साबित हुआ है। अमेरिका और इजराइल में वे ऐसी लॉबी की शिनाख्त करते हैं, जिन्होंने यहूदियों के खिलाफ अत्याचारों को भुनाकर खुद के लिए धन, वैभव और राजनीतिक ताकत जुटाई लेकिन जो नाजीवाद के वास्तविक शिकार थे, वे इस सबसे वंचित रहे। आज वही लोग स्वयं उसी स्वरूप को अपना चुके हैं, और फिलिस्तीनी जनता के लिए काल बन चुके हैं।

(रविंद्र पटवाल जनचौक की संपादकीय टीम के सदस्य हैं।)

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