बनभूलपूरा: लाठी, पत्थर और गोलियों के घाव की दास्तां  

नई दिल्ली। 8 फरवरी को, उत्तराखंड के हल्द्वानी नगर निगम के अधिकारियों ने एक मस्जिद और मदरसे को यह दावा करते हुए बुलडोज कर दिया था कि वे अवैध ढांचे थे। इसके विरोध में इस इलाके के निवासियों एवं पुलिस के बीच हुई झड़प में पांच लोगों की जान चली गई और 100 से भी अधिक लोग घायल पाए गए। इस दुःखद घटना और उसके बाद की बर्बादियों की कहानियां अब एक-एक कर सार्वजनिक हो रही हैं। ऐसी ही प्रकाशित द हिंदू की एक रिपोर्ट को हम हिंदी में अपने पाठकों के लिए साभार प्रस्तुत कर रहे हैं।

8 फरवरी के अपराह्न का वक्त रहा होगा, जब अमन हुसैन का छोटा भाई अनस (8वीं जमात का छात्र), अपने घर पर मौजूद नहीं था, उसी दौरान उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र के सबसे बड़े शहर और नैनीताल शहर का प्रवेश द्वार कहे जाने वाले शहर हल्द्वानी में हिंसा भड़क उठी थी। इस चिंता में कि कहीं अनस इस दंगे में न फंसा हो, उसके 48 वर्षीय पिता जाहिद हुसैन, जो कंस्ट्रक्शन मटेरियल की सप्लाई के काम से जुड़े हैं, उसकी खोज-खबर के लिए निकल पड़ते हैं।

अमन उस घटना को याद करते हुए बताते हैं, “इसके कुछ मिनट बाद ही हमारे पड़ोसियों ने हमें बताया कि मेरे पिता खून से लथपथ पड़े हुए हैं। मैं उन्हें पास के ही एक क्लीनिक में ले गया। जब मैंने क्लीनिक में निगाह दौड़ाई तो देखा कि अनस भी एक स्ट्रेचर पर पड़ा हुआ है और उसकी कमर के नीचे के हिस्से पर गोली लगी है, जिसे देख मेरा जी मितलाने लगा और मुझे उल्टी आ गई।”

उसी शाम, खून से सने अनस और ज़ाहिद दोनों की मौत हो गई। उस दिन की हिंसा में मारे गए चार लोगों में से ये वे दो लोग थे। इस हिंसा में गोली से मारे गये पांचवे पीड़ित ने भी चोटों की वजह से कुछ दिन बाद दम तोड़ दिया।

आइये उस एकमात्र घटना के बारे में भी कुछ बात कर लेते हैं, जिसकी वजह से ये मौतें हुईं। इस वाकये से कुछ घंटे पहले, हिमालय की तलहटी में बसे हल्द्वानी में उस ठंडी दोपहर में, नगर निगम के अधिकारी बनभूलपूरा क्षेत्र के मरियम मस्जिद और अब्दुल रज्जाक ज़कारिया मदरसा को ध्वस्त करने के लिए बुलडोजर एवं अन्य भारी मशीनरी के साथ बढ़ते हैं। इस तोड़फोड़ के विरोध में उस इलाके के बच्चों समेत बड़ी संख्या में गुस्साई भीड़ भी मौके पर जमा हो जाती है। इन दोनों ढांचों को दशकों पहले मलिक का बागीचा के नाम से मशहूर इलाके में सरकारी जमीन पर निर्मित किया गया था, जिसके बारे में अधिकारियों का आरोप था कि इस पर अब्दुल मलिक नामक एक ठेकेदार ने अतिक्रमण किया हुआ था।

अधिकारियों की ओर से दावा किया गया कि ध्वस्तीकरण की प्रकिया “अतिक्रमण विरोधी अभियान” के हिस्से के रूप में की जा रही थी, जिसे शहर के अन्य इलाकों में भी चलाया जा रहा है। इस अभियान का घोषित उद्देश्य, शहर की सड़कों को चौड़ा करने, स्कूल और बस स्टॉप बनाने के लिए कई एकड़ नजूल की भूमि को मुक्त कराना है। नजूल भूमि जो कभी राजाओं की हुआ करती थी, जिसे बाद के दौर में अंग्रेजों ने कब्जा कर लिया था। आजादी के बाद, अंग्रेजों ने इन जमीनों को खाली कर गये, लेकिन चूंकि कई पुलिंदों के बारे में कोई उचित दस्तावेज मौजूद नहीं थे, जिसके चलते वे सरकार के स्वामित्व में आ गए। सार्वजनिक प्रयोजनों के तहत नज़ूल भूमि को अक्सर 15 से लेकर 99 वर्षों के लिए विभिन्न संस्थाओं को पट्टे पर दिए जाने का प्रावधान है। उत्तराखंड में देखें तो करीब 2.42 करोड़ वर्ग मीटर से भी अधिक नजूल की जमीन का रिकॉर्ड है।

जिला प्रशासन का दावा है कि उनकी जांच के दायरे में आने वाले ढांचे मस्जिद और स्कूल के रूप में पंजीकृत नहीं थे, और इस प्रकार वे अवैध ढांचे थे। उनकी ओर से यह भी दावा किया गया है कि उन्होंने इस बारे में “अतिक्रमणकारियों” को नोटिस भेजा था, ताकि उन्हें इस भूमि के मालिकाने को साबित करने का मौका मिल सके। जब उनके द्वारा मालिकाने को साबित नहीं किया जा सका, तब प्रशासन ने “उचित प्रक्रिया का पालन करते हुए” ध्वस्तीकरण करने का फैसला लिया था।

निगम अधिकारियों के साथ मौजूद पुलिस ने किसी तरह भीड़ को तितर-बितर करने में सफलता हासिल की। ढांचे को जमींदोज करने का काम शुरू हुआ और कुछ देर में ही एक हरे रंग और दूसरी क्रीम से रंगी हुई इमारत मलबे के ढेर में तब्दील हो गई। इसके कुछ मिनट बाद ही हिंसा भड़क उठी। पुलिस का दावा है कि पहले यहां के बाशिंदों की ओर से पथराव शुरू हुआ, जबकि दूसरी तरफ इलाके के पुरुष और महिलाओं का आरोप है कि पुलिस ने उन पर लाठीचार्ज करना शुरू कर दिया था। इसके बाद हिंसा बढ़ गई और भीड़ ने कथित तौर पर एक पुलिस स्टेशन में आग लगा दी। सरकारी और निजी दोनों तरह के दर्जनों वाहन जला दिए गए और करीब 100 पुलिसकर्मी चोटिल हो गए। कई नागरिकों को भी गोली, पत्थर और बेंत की चोटें आईं।

प्रशासन की ओर से कानून और व्यवस्था बनाए रखने के लिए क्षेत्र में कर्फ्यू लगा दिया गया, जिसके दायरे में कम से कम 8,000 घर और 50,000 लोग आ गये। प्रशासन की ओर से उपद्रवियों को देखते ही गोली मारने के आदेश जारी कर दिया गया था। अर्धसैनिक बलों की तैनाती के बीच, उन लोगों को भी अपने-अपने घरों के भीतर रहने के लिए मजबूर होना पड़ा था, जिनके रिश्तेदार अस्पतालों में भर्ती थे। इस मामले में तीन एफआईआर रिपोर्ट दर्ज की गईं और 5,000 अज्ञात लोगों पर दंगा और आगजनी का मामला दर्ज किया गया। इसमें मलिक को मुख्य आरोपी बनाया गया था।

‘उन्हें पीठ पर गोली मारी गई थी’

जब उसके पिता 55 वर्षीय मोहम्मद इसरार को उस दिन गोली लगी थी, और उन्हें सुशीला तिवारी सरकारी मेडिकल कॉलेज में भर्ती कराया गया था, तो 23 वर्षीय मोहम्मद सुहैल लगातार पांच दिनों तक उनके साथ साए की तरह मौजूद था। कर्फ्यू की वजह से उसकी मां नसीमा, छोटी बहन और पत्नी घर पर ही रहने को मजबूर थीं। चूंकि इलाके में इंटरनेट को पूरी तरह बंद कर दिया गया था, इसलिए परिवार एक-दूसरे के साथ वीडियो कॉल पर बात भी कर पाने की स्थिति में नहीं था। पांचवें दिन इसरार की मौत हो गई, जो वाहन चालक का काम करते थे।

इसरार का छोटा बेटा अमान बदहवासी की हालत में है। उसका कहना था, ”मेरी मां को सिर्फ मेरे पिता के शव को आखिरी बार दिखाने के लिए अस्पताल लाया गया था।” अमान का आरोप है कि पुलिस के द्वारा चलाई गई गोली उसके पिता की खोपड़ी में जाकर लगी थी।

हिंसा के चौथे शिकार 22 वर्षीय मोहम्मद शब्बन की किराने की दुकान थी। उनके बहनोई रियाज़ मोहम्मद बताते हैं कि जिस प्रकार से हिंसा वाले दिन, हुसैन अपने बेटे अनस की तलाश में निकले थे, ठीक उसी तरह शब्बन भी अपने भाई शादाब की तलाश में घर से बाहर निकला था। रियाज़ कहते हैं, ‘शब्बन को पीठ में गोली मारी गई थी।”

पीड़ितों के रिश्तेदारों का कहना है कि प्रशासन ने उन इंटेलिजेंस इनपुट्स को नजरअंदाज कर दिया, जिनमें बताया गया था कि अगर ढांचों को बुलडोज किया गया तो इलाके में तनाव भड़क सकता है।

उसी दिन ड्राइवर फहीम कुरेशी की भी मौत हो गई थी। लेकिन उनके बेटे जावेद का इस बारे में साफ़ कहना है कि इस हत्या का मकसद बदला लेना था। वे बताते हैं, “मेरे भाई को पुलिस या दंगाइयों ने नहीं मारा। हमारे पड़ोसी संजय सोनकर का हमारे परिवार के साथ एक दीवार के निर्माण को लेकर काफी लंबे अर्से से विवाद चल रहा था। उस दिन चूंकि हर तरफ से गोलियां चल रही थी, इसलिए उसे अपना बदला लेने का मौका मिल गया।”। इसके साथ ही जावेद का दावा है कि उसके परिवार की ओर से सोनकर के खिलाफ पुलिस को लिखित शिकायत भी की गई है, लेकिन अभी तक कोई कार्रवाई नहीं की गई है।

वहीं हल्द्वानी वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक, प्रह्लाद नारायण मीना का इस बारे में कहना है कि सभी मौतों की जांच की जा रही है। इसी जांच के दौरान पुलिस को एक चौंकाने वाली जानकारी हाथ आई है कि हिंसा के दिन पीड़ितों की सूची में शामिल प्रकाश सिंह की मौत की वजह हिंदू-मुस्लिम दंगा नहीं बल्कि उसकी हत्या की गई है।

जांच में शामिल एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी का कहना है, ”प्रकाश असल में एक पुलिस कांस्टेबल की पत्नी के साथ रिलेशनशिप में लिप्त था। हिंसा वाले दिन वह उससे मिलने के लिए हल्द्वानी पहुंचा था। सिपाही ने गोली मारकर उसकी हत्या कर दी और उसके शव को उसने बनभूलपुरा से करीब एक किलोमीटर दूर रेलवे ट्रैक के पास फेंक दिया। शुरु-शुरू में ऐसा लगा कि हिंसा की वजह से ही उसकी भी मौत हुई है। सबने बहती गंगा में हाथ धोया है।”

एक वीरान शहर

हिंसा के कुछ दिनों बाद तक बनभूलपुरा की हर दूसरी गली में जले हुए वाहन नजर आ रहे हैं। ज्यादातर छोटे, एक मंजिला और जैसे-तैसे से बने घरों की खिड़कियां टूटी हुई हैं या तोड़ी गई हैं। गलियां सुनसान हैं। नालों की कई दिनों से सफाई नहीं की गई है, जिनसे उठने वाली दुर्गंध से हर कोई अपने चेहरे को ढकने के लिए मजबूर है। जबकि जिला प्रशासन का कहना है कि इलाके को साफ करा दिया गया है और लोगों को जरूरी सामान उपलब्ध कराया जा रहा है।

ज्यादातर घरों पर बाहर से ताला लगा हुआ है; हिंसा भड़कने के बाद से वहां रहने वाले लोग हल्द्वानी से पलायन कर गए। कई लोगों को या तो पुलिस पूछताछ के लिए उठाकर ले गई है या अपनी गिरफ्तारी के डर से वे अपने घरों से भाग गए हैं। महिलाएं रुकी हुई हैं।

24 वर्षीय हिना बीबी छह महीने की गर्भवती हैं। वे रसोई गैस की तलाश में गली-गली भटक रही हैं। अर्धसैनिक बल हर नुक्कड़ पर पहरेदारी कर रहे हैं, और उसके लिए कर्फ्यू का उल्लंघन करने का जोखिम संभव नहीं है, क्योंकि घर पर उसने अपने दो साल के बच्चे को छोड़ रखा है।

28 वर्षीय अनम अली का रो-रोकर बुरा हाल है। एक बच्चे का हाथ पकड़े उसने दूसरे को गोद में लिया हुआ है। अनम का आरोप है कि हल्द्वानी में हिंसा भड़कने के दो दिन बाद 10 फरवरी को पुलिस उसके घर में घुस आई और उसके पति रिजवान को मारने-पीटने के बाद अपने साथ ले गई। उसके बाद से उसने न तो उसे देखा है और न ही उसके बारे कोई जानकारी है। सुबकते हुए वह विनती करती है, “कृपया उनसे कहो कि मुझे भी ले जाये। “मेरे पति निर्दोष हैं। मैं उसके बिना नहीं रह सकती।”

फ़िरोज़ा, जिनके भतीजे मोहम्मद शोएब की पुलिस ने पिटाई की थी, का दावा है कि हिंसा में भाग लेने वाले बनभूलपुरा के निवासी नहीं थे।

डेमोलिशन स्थल से 200 मीटर की दूरी पर स्थित आबिद सिद्दीकी के एक मंजिला घर के दरवाजे पर के कागज चिपकाया गया है, जिसमें घोषणा की गई है कि उन्होंने लक्ष्मी नामक एक पुलिस कांस्टेबल की जान बचाने का काम किया है, जिसके उपर 8 फरवरी को भीड़ ने हमला कर दिया था। इसमें उक्त कांस्टेबल का फोन नंबर भी दिया गया है। 

आबिद कहते हैं, “जब भीड़ उस महिला कांस्टेबल को पीट रही थी, तब मैंने उसकी जान बचाई थी। उसका बहुत सारा खून बह रहा था। मैंने उसे अपने घर के भीतर खींच लिया, और उसका प्राथमिक उपचार किया, और हालात नियंत्रण में आने के बाद उसे अपने दस्ते में वापस शामिल होने में मदद की। इस कागज को मुझे दीवार पर चिपकाने की जरूरत इसलिए पड़ी क्योंकि पुलिस मुझे भी उठाने की कोशिश कर रही थी।” उनका आरोप है कि हिंसा के बाद भी कई दिनों तक पुरुषों, महिलाओं और बच्चों के खिलाफ पुलिस की कार्रवाई जारी है।

सांप्रदायिक मोड़ 

हिंसा से कुछ दिन पहले ही उधम सिंह नगर स्थानांतरित कर दिए गए हल्द्वानी के नगर आयुक्त पंकज उपाध्याय का इस बारे में कहना है कि अतिक्रमण विरोधी अभियान जारी रहेगा। उनका मानना ​​है कि हिंसा का उद्देश्य राज्य मशीनरी को चुनौती देना था। वे कहते हैं, “जो लोग डिमोलीशन को एक विशेष समुदाय पर हमला बता रहे हैं, उन्हें पता होना चाहिए कि नजूल भूमि को मुक्त कराने का हमारा अभियान मई 2023 से ही चल रहा है। हमने मंदिरों, दुकानों एवं घरों सहित करीब 250 से अधिक ढांचों को ध्वस्त किया है। हमने जनवरी में ही प्रसिद्ध रोखरिया बाबा मंदिर को ध्वस्त किया था। मेट्रोपोल में हमने नजूल भूमि पर निर्मित 164 मकानों को ध्वस्त कर दिया था। हम दंगाइयों के सामने नहीं झुकने जा रहे हैं।”

हिंसा की निंदा करते हुए हल्द्वानी से कांग्रेस विधायक, सुमित हृदयेश का कहना है कि हिंसा में शामिल सभी लोगों को सजा हर हाल में मिलनी चाहिए। उनका आरोप है कि जिला प्रशासन और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के नेतृत्व वाली राज्य सरकार इस घटना पर बेवजह राजनीति कर रही है।

वे आगे कहते हैं, “मैंने कुछ अधिकारियों को यह कहते हुए सुना है कि इस हिंसा का मकसद राज्य को धमकाने का था, क्योंकि राज्य सरकार ने एक दिन पहले ही समान नागरिक संहिता (यूसीसी) विधेयक को पारित कराया था। मैं इसे कयास लगाने और गैर-जिम्मेदार मानता हूं। सिर्फ हल्द्वानी के बनभूलपुरा के लोगों को ही यूसीसी से समस्या हो सकती हैं, जहां पर बड़ी संख्या में हिंदू भी रहते हैं, जबकि राज्य के किसी अन्य स्थान में इससे कोई समस्या नहीं होगी?” हृदयेश मानते हैं कि प्रशासन की ओर से धार्मिक नेताओं को विश्वास में लिए बगैर ही मस्जिद के ध्वस्तीकरण की कार्रवाई को अंजाम देने की पहल असल में धार्मिक भावनाओं के साथ खिलवाड़ करना था।

हिंसा को लेकर प्रशासन का कहना है कि इसमें सांप्रदायिकता का पहलू नहीं है, लेकिन शहर के अन्य हिस्सों में इस घटना ने सांप्रदायिक रूप ले लिया है। उदहारण के लिए, चौपला चौराहा क्षेत्र में एक मकान किराए पर लेने वाले 48 वर्षीय नवाब खान का कहना है कि उन्हें मनु गोस्वामी नाम के एक निवासी, जो नेता बनने के ख्वाहिशमंद हैं, ने घर खाली करने की धमकी दी थी। खान ने बताया, “मनु ने मुझसे कहा कि मुसलमानों को हिंदू बहुल इलाकों में रहने की इजाजत नहीं दी जा सकती है। मेरे बच्चों की परीक्षा सिर पर है। इतने कम समय में मैं कहां जाऊंगा?” आखिरकार, खान को 15 फरवरी को अपने किराए का घर खाली करने के लिए मजबूर होना पड़ा, क्योंकि पुलिस ने उनके मकान मालिक के नाम चालान जारी कर दिया था।

गोस्वामी का इस मामले में कहना है कि उनके मन में खान के प्रति कोई दुर्भावना नहीं है, लेकिन अगर कोई मुसलमान हिंदु बहुल इलाके में रहता है, तो “इससे तनाव पैदा होगा”।

उत्तराखंड उच्च न्यायालय के वकील अहरार बेग का कहना है कि बनभूलपुरा कुछ अर्से से “निशाने” पर रहा है। पिछले साल बनभूलपुरा में रेलवे ट्रैक के किनारे 2 किमी तक की बसाहट में करीब 4,000 परिवारों, जिनमें से अधिकांश मुस्लिम थे, और साथ ही अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के परिवार रह रहे थे, को उच्च न्यायालय के आदेश पर भारतीय रेलवे द्वारा बेदखली नोटिस भेजा गया था। रेलवे का दावा था कि उसकी जमीन पर अवैध रूप से ये लोग मकान बनाकर कब्जा किये हुए हैं। कई हफ्तों के विरोध प्रदर्शन के बाद, यहां के निवासियों ने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया था। फिलहाल यह मामला अदालत में विचाराधीन है।

इस केस में बेग कई परिवारों का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। बेग कहते हैं, “तब सरकार ने हाई कोर्ट को बताया था कि हल्द्वानी में नजूल की कोई भूमि नहीं है। अब उसने यह कहते हुए मस्जिद और मदरसे को ध्वस्त कर दिया है कि यह तो नजूल की जमीन है।”

एसोसिएशन फॉर प्रोटेक्शन ऑफ सिविल राइट्स नामक एक एडवोकेसी ग्रुप द्वारा प्रकाशित एक अंतरिम फैक्ट-फाइंडिंग रिपोर्ट के मुताबिक, राज्य भर में मुसलमानों को निशाना बनाया जा रहा है। संस्था के सदस्यों ने 14 फरवरी को हल्द्वानी का दौरा कर निष्कर्ष निकाला है कि हिंसा के पीछे “हाल के वर्षों में सांप्रदायिक तनाव में उत्तरोत्तर वृद्धि” का हाथ है। इसमें आगे कहा गया है कि, “राज्य सरकार…और कट्टरपंथी दक्षिणपंथी नागरिक समूहों ने मिलकर एक बेहद ध्रुवीकरण नैरेटिव को खड़ा करने में अपना योगदान दिया है…इस डिस्कोर्स का एक पहलू उत्तराखंड को देवभूमि (हिंदुओं की पावन भूमि) के रूप में तैयार करने को लेकर है, जिसमें अन्य धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए कोई स्थान नहीं होने जा रहा है। इस विभाजनकारी डिस्कोर्स के अन्य पहलुओं में लव जिहाद, लैंड जिहाद, व्यापार जिहाद और मजार जिहाद सहित राज्य की मुस्लिम आबादी के द्वारा कथित तौर पर छेड़े गए जिहादों की एक पूरी मनगढ़ंत श्रृंखला के दावे को शामिल किया गया है। इस प्रकार के डिस्कोर्स की एक परिणति हमें मुस्लिमों के आर्थिक एवं सामाजिक बहिष्कार में देखने को मिलती है।

उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने पिछले वर्ष 2023 में वन भूमि से अतिक्रमण हटाने के लिए एक राज्यव्यापी अभियान चलाया था, जिसके तहत 500 से अधिक मजारों (मुस्लिम पवित्र स्थल) को ध्वस्त कर दिया गया। इस बारे में सरकार का कहना है कि बड़ी संख्या में मंदिर भी तोड़े गए हैं। धामी ने हल्द्वानी में घटना के कुछ दिन बाद यह बयान दिया था कि स्थिति अब  नियंत्रण में है और विध्वंस स्थल पर एक पुलिस स्टेशन बनाया जायेगा।

पीड़ितों का हाल 

सुशीला तिवारी सरकारी मेडिकल कॉलेज के मेडिसिन वार्ड में, शाहनवाज अहमद अपने 26 वर्षीय भाई सरफराज के बाजू में बैठे हैं, जिन्हें 8 फरवरी को सीने में गोली मार दी गई थी। जब यह घटना घटी, उस समय सरफराज (दर्जी) विध्वंस स्थल के पास एक ग्राहक को कपड़े देने गए हुए थे।

सरफराज को अस्पताल में भर्ती कराने के पांच दिन बाद भी शाहनवाज उन्हीं खून से सने कपड़े पहने हुए हैं। जल्दबाजी में वे अपने साथ अपना बटुआ लाना ही भूल गये थे। उनके पास कपड़े खरीदने या दो वक्त का भोजन करने लायक पैसा भी मुश्किल से है। वह रोज रात को बगैर कंबल के ही फर्श पर सो रहे हैं। वे कहते हैं, ”हर बार सिर्फ गरीब को ही सज़ा मिलती है, वो चाहे महामारी के दौरान हो या हिंसा की घटना के दौरान हो।” अंत में वे कहते हैं, “भारत में गरीबी में जीने से मर जाना ही बेहतर है।”

आखिर में, वह खबर जिसके बारे में एक दो समाचारपत्रों के सिवाय शायद ही कथित गोदी मीडिया में कोई चर्चा की जा रही है, जिसने हिंसा के अगले दिन से ही हल्द्वानी में मोर्चा संभाल लिया था, और उसकी ओर से बनभूलपूरा में हजारों की संख्या में रोहिंग्याओं और पीएफआई के एंगल को बेहद जोरशोर से उछाला जा रहा था। बिहार से हल्द्वानी आये एक लड़के की दुर्भाग्यपूर्ण मौत और मुस्लिम आतंकियों के द्वारा बेदर्दी से मार डालने की खबर को नोएडा मीडिया ने इतने गहरे तक करोड़ों लोगों के दिलोदिमाग में परोस दिया है, कि सच उनके सामने भी बड़े-बड़े अक्षरों में परोस दिया जाये, फिर भी उसे आसानी से निकाल पाना संभव नहीं है। इस खबर को सोशल मीडिया X पर भी शायद ही कोई खास पहचान मिल पा रही है।  

हल्द्वानी : वनभूलपुरा हिंसा के दौरान पुलिस को अलग-अलग स्थानों पर 6 डेड बॉडी रिकवर हुईं। इसमें एक बॉडी प्रकाश की थी। उसके सिर में 3 गोली लगी थीं। माना जा रहा था कि हिंसा के दौरान वो मारा गया।

अब खुलासा हुआ है कि प्रकाश का नैनीताल पुलिस के सिपाही वीरेंद्र की पत्नी से अफेयर था। इस चक्कर में सिपाही ने अपने साले और दोस्तों संग मिलकर प्रकाश को मार डाला और लाश फेंक दी, ताकि ये लगे कि वो हिंसा में मारा गया है।

(रविंद्र पटवाल जनचौक संपादकीय टीम के सदस्य हैं।)

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