जीवंत लोकतंत्र और प्रधानमंत्री: आइये नरेंद्र मोदी जी प्रेस कांफ्रेंस करिये !

“एक छोटा-सा मोड़ जवाहरलाल को तानाशाह बना सकता है, जो धीमी गति से चलने वाले लोकतंत्र के विरोधाभास को भी पार कर सकता है। वह अभी भी लोकतंत्र, समाजवाद की भाषा और नारे का उपयोग कर सकता है, लेकिन हम सभी जानते हैं कि इस भाषा की आड़ में फासीवाद कितना फ़ैल चुका है… ”

(नेहरू ने कोलकता से प्रकाशित मॉडर्न रिव्यू के नवंबर 1937 के अंक में छद्म नाम चाणक्य से स्वयं का मूल्यांकन किया था और लोगों को चेतावनी दी थी कि उनमें सीज़र (तानाशाह) की सभी प्रवृत्तियां हैं। अतः उन्हें लगातार तीसरी दफे कांग्रेस का अध्यक्ष न चुनें और अपने नेताओं से लगातार सवाल करते रहें।)

देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की चेतावनी और स्वयं का मूल्यांकन आज़ के आज़ाद भारत में भी उतना ही प्रासंगिक है जितना कि 15 अगस्त, 1947 के पूर्व ग़ुलाम भारत में था। तब नेहरू भावी सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष थे और आज़ाद देश के प्रथम प्रधानमंत्री भी बने। इस पद पर वे 27 मई, 1964 को निधन तक रहे। प्रधानमंत्री नेहरू अपनी प्रेस कॉन्फ्रेंस या प्रेस सम्मेलन या वार्ता के लिए हमेशा चर्चित रहे हैं। देश-विदेश के पत्रकारों को प्रधानमंत्री की प्रेस वार्ता का इंतज़ार रहा करता था। उनकी प्रेस वार्ता में उपस्थित रहने के लिए अक्सर विदेश से भी पत्रकार आया करते थे।

वे प्रेस वार्ता और इंटरव्यू के प्रति सजग व गंभीर रहते थे। इस संबंध में तत्कालीन भारत के बहुचर्चित व बहुभाषी साप्ताहिक अख़बार ‘ब्लिट्ज’ के विख्यात संपादक आर. के. करंजिया ने बेहद दिलचस्प अनुभव मुझे सुनाया था। किस्सा 1985 का है। तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी की प्रेस पार्टी के हम दोनों भी सदस्य थे। क्यूबा की राजधानी हवाना की एक होटल में रुके हुए थे। करंजिया साहब ने नेहरू जी के साथ अपने प्रेस अनुभवों को शेयर करते हुए बताया कि उनकी प्रधानमंत्री के साथ भेंटवार्ता पहले से तय थी। लेकिन, इसी बीच अगले दिन ही संसद की मानहानि के प्रकरण में उन्हें सदन में फटकार और दंड सुनने के लिए उपस्थित भी रहना था। फोन पर उन्होंने प्रधानमंत्री को नई परिस्थिति से अवगत कराया और पूछा, “क्या अब भी मुझे आप इंटरव्यू देना चाहेंगे? तपाक से उत्तर मिला ‘बिल्कुल’। तुम्हारे अखबार में प्रकाशित संसद की अवमानना और मेरा इंटरव्यू, दोनों का परस्पर कोई संबंध नहीं है। दोनों अलग-अलग बातें हैं। निश्चित समय पर पहुंच जाना जाना और बेहिचक सवाल करना’, ऐसे थे प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू।”

मैंने नेहरू जी को किशोरावस्था तक देखा है, लेकिन उन्हें पत्रकार के रूप में कवर करने का अवसर नहीं मिला। उत्तर नेहरू काल से अब तक ग्यारह प्रधानमंत्री (लालबहादुर शास्त्री, इंदिरा गांधी, मोरारजी देसाई, चौधरी चरण सिंह, राजीव गांधी, विश्वनाथ प्रताप सिंह, चंद्रशेखर, नरसिम्हा राव, एचडी देवगौड़ा, इंद्रकुमार गुजराल, अटलबिहारी वाजपेयी, डा. मनमोहन सिंह और नरेंद्र मोदी) हो चुके हैं। गुलज़ारीलाल नंदा भी दो दफ़े कार्यवाहक प्रधानमंत्री रहे थे।

यह जानना दिलचस्प है कि वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी को छोड़ कर शेष सभी प्रधानमंत्री धमाकेदार प्रेस वार्ता करते रहे हैं, इंटरव्यू देते रहे हैं और अपनी देश -विदेश यात्राओं में बारी बारी से पत्रकारों को अपने साथ ले जाते रहे हैं। यहां तक कि विमान यात्रा में भी हवाई प्रेस वार्ता करते रहे हैं, ज़रुरत पड़ने पर इंटरव्यू भी दिया करते थे। मुझे दोनों का पुख्ता अनुभव है। एक जानकारी बतलाती है कि मोदीजी ने दक्षिण भारत में एक प्रेस वार्ता की थी। लेकिन, दिल्ली समेत किसी भी महानगर और नगर में औपचारिक प्रेस वार्ता की जानकारी नहीं है। अलबत्ता अभिनेता अक्षय कुमार सहित कतिपय चहेते पत्रकारों को मनभावन इंटरव्यू ज़रूर दिए हैं। सारांश में, इस क्षेत्र में उनकी ‘उपलब्धि शून्य’ ही मानी जाएगी।

इस लेख में कुछ अवसरों का उल्लेख मौज़ूं रहेगा। 1968 से 1971 का कालखंड इंदिरा जी के लिए बेहद चुनौतीपूर्ण था। कांग्रेस का विभाजन हुआ और इंदिरा सरकार अल्पमत में आ गई थी। लेकिन, वामपंथी और समाजवादी सांसदों के समर्थन से सरकार चलती रही। इंदिरा जी के साथ पत्रकारों की नियमित मुठभेड़ें होती रहती थीं। औरंगज़ेब रोड स्थित तत्कालीन प्रधानमंत्री निवास के सामने चौराहे पर अनौपचारिक प्रेसवार्ता हुआ करती थीं।

1971 के भारत -पाक युद्ध के दौरान पत्रकार-मुठभेड़ों की गति बढ़ गयी थी। एक दफ़ा अगरतला दौरे के समय सर्किट हाउस में आयोजित खचाखच भरे प्रेस कॉन्फ्रेंस में इंदिरा जी ने सवालों के हमलों का सहजता के साथ सामना किया था। मैं भी एक प्रश्नकर्त्ता था। अल्पतम अवधि के लिए ही सही, चरण सिंह जी भी प्रेस से परहेज़ नहीं किया करते थे। 1980 में सत्ता में पुनर्वापसी के बाद भी इंदिरा जी ने प्रेस के साथ मुठभेड़ों को जारी रखा। प्रेस वार्ता के आयोजन होते रहे।

दिल्ली में ही 31 अक्टूबर, 1984 को इंदिरा जी की हत्या के बाद उनके बड़े पुत्र राजीव गांधी ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली थी। उन्होंने भी अपने नाना नेहरू और मां इंदिरा गांधी की प्रेस वार्ता परंपरा को जारी रखा था। यहां तक कि वे अपने निवास स्थान पर पत्रकारों के साथ-साथ आम जनता से भी उत्साह के साथ मिला करते थे।

मैंने ऐसे अवसरों को खूब कवर किया है। उनके साथ मुझे देश-विदेश की कई यात्राओं में शामिल होने का अवसर भी मिला था। वे बेहिचक पत्रकारों से मिला करते थे। इतना ही नहीं, 1987 में श्रीलंका यात्रा के दौरान राजधानी कोलम्बो में परेड का निरीक्षण करने के दौरान श्रीलंका के एक सैनिक ने उन पर हमला कर दिया था। वातावरण में तनाव भर गया था। वे बड़ी सहजता से एयरपोर्ट लौटे और भारतीय विमान में अंदर आ कर पत्रकारों से सुविधापूर्वक बतियाते रहे और निश्च्छल भाव से राइफल के बट से गले पर उभरी खरौंच को दिखाते रहे।

वे विज्ञान भवन में विदेशी शासनाध्यक्षों के साथ भी धड़ल्ले से प्रेस वार्ता किया करते थे। जम कर सवालों के मार सहते और ज़वाब भी देते। एक बार तो उन्होंने बड़ी मासूमियत के साथ विज्ञानभवन की प्रेसवार्ता में विदेश सचिव को बदलने की घोषणा तक कर डाली थी। नौकरशाही ने इस घोषणा शैली को पसंद नहीं किया था। कई दिनों तक विवाद बना रहा था। राव, गौड़ा, गुजराल और वाजपेयी के साथ भी ऐसे ही अनुभव हुए हैं; इंदिरा जी के ज़वाब पैने, नपे-तुले पर तेज़ हुआ करते थे; राजीव के सहज -सुबोध -मासूम से थे; राव के गंभीर व परिपक्व थे; गुजराल के बौद्धिक और अटलजी के मिश्रित भाव के थे।

एक दफ़ा तो उनके निवासस्थान पर आयोजित रात्रि-भोज प्रेस वार्ता में मेरी झड़प हो गयी थी। उन दिनों कालाहांडी में भूख से मौतें हो गयी थीं और कई टन गेहूं गोदामों में सड़ गया था। मुझसे रहा नहीं गया और सवाल दाग दिया। अटल जी बोले, “कुपोषण से हुई हैं, भूख से नहीं।” मैंने आक्रामक तर्ज़ के साथ पूरक प्रश्न किया, “जब आप विपक्ष में हुआ करते थे तब आप ही ऐसी मौतों को भूख से जोड़ा करते थे। आज कांग्रेस विपक्ष और आप सत्तापक्ष में, क्या भूख की परिभाषा भी पक्ष की अदला-बदली के साथ बदल जाती है?” ज़ोर का ठहाका लगा। अटलजी भी हंसे। जब मैं खाने की तरफ बढ़ रहा था तब अटलजी ने रोक कर हंसते हुए कहा, “पत्रकार महोदय, आज तो आप बड़े बरस रहे थे?” मैंने भी तपाक से ज़वाब दिया, “अटल जी, मैं तो आपकी ही भूमिका निभा रहा था जोकि पीछे छूट गयी है।” “अच्छा किया, याद दिला दिया। चलो, भोजन करो” अटलजी स्नेही लहज़े में बोले।

अटलजी पूर्णकालिक नेता बनने से पहले पत्रकार रह चुके थे। अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह भी गाहे-बगाहे प्रेसवार्ता को सम्बोधित कर लिया करते थे। विपक्ष ने एक व्यंग्य भरा जुमला उछाला था, “मनमोहन सिंह जी बाथरूम में भी छाता तान कर नहाते हैं।” यही मौनी सिंह जी मीडिया से पलायन नहीं करते थे। साल में एक-दो प्रेसवार्ता कर लिया करते थे। एक दफा मैंने क्रोनी पूंजीवाद और न्यायसंगत समता को लेकर सवाल किया था। वे कुछ अचकचा गए, लेकिन बाद में अपने उत्तर में उन्होंने कुछ बिंदुओं पर सहमति भी जताई थी।

वास्तव में, प्रेसवार्ता एक ऐसा मंच है जिस पर राजनेता के आत्मविश्वास, योग्यता, राजनीतिक व कूटनीतिक कौशल, शासन व राष्ट्र पर पकड़ और दूरदृष्टि का परीक्षण हो जाता है। इस मंच पर शासनाध्यक्षों, प्रमुखों और मुख्यमंत्रियों को एक ऐसा सुनहरा अवसर मिलता है जहां वे स्वयं में एकमेव अस्तित्व होते हैं और जनता के साथ कनेक्ट करने के लिए प्रेस या मीडिया को एक माध्यम बनाते हैं। इस मंच से शासन का वास्तविक चरित्र सामने आता है और योजना- नीति को प्रचारित भी किया जाता है। इसके साथ ही मीडिया को जनता और सरकार के बीच सेतु की भूमिका को निभाने का अवसर भी मिलता है। सवालों के माध्यम से पत्रकार ज्वलंत मुद्दों को उठाता है और शासन प्रमुख की प्रतिक्रिया को सामने लाने की कोशिश करता है।

चतुर नेता प्रेसवार्ता की प्रभावशीलता को जानते-समझते हैं। इसका भरपूर फायदा भी उठाते हैं। सवाल-ज़वाब प्रक्रिया से लोकतंत्र मज़बूत और गतिशील बनता है। आख़िर, प्रेस या मीडिया को राज्य का चौथा स्तम्भ क्यों कहा जाता है? कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के बाद इसका स्थान क्यों आता है? सिर्फ इसलिए कि मीडिया राज्य और सरकार के ‘होने या न होने’ के अस्तित्व को जनता तक पहुंचाता है। इस प्रक्रिया से जनता राज्य और सरकार में भरोसा करने लगती है। उसे विश्वास होने लगता है कि संविधानसम्मत कार्य हो रहा है। यदि मीडिया सुप्त रहेगा या उसे विलुप्त किया जायेगा तो नेहरू जी की आशंका में ‘रोमन तानाशाह सीज़र’ के जन्म लेने के खतरे बढ़ जायेंगे।

इस दौर में कुछ ऐसा ही हो रहा है। मोदी जी एक दशक से प्रधानमंत्री हैं। 2014 से लेकर 2024 तक उन्होंने किसी औपचारिक प्रेसवार्ता का सामना किया है, मुझे ज्ञात नहीं है। मैं इतना जानता हूं कि वे गोदी पत्रकारों को छोड़ स्वतंत्र चेतनासम्पन्न पत्रकारों से पलायन ही करते आ रहे हैं। वाशिंगटन में आयोजित एक प्रेसवार्ता में वे महिला पत्रकार के सवाल का जवाब नहीं दे सके थे। भारत में ही विख्यात टीवी एंकर करण थापर के इंटरव्यू को बीच में छोड़ कर चल दिए थे। तब वे गुजरात के मुख्यमंत्री हुआ करते थे। विदेश यात्राओं में अनुकूल या अनुकूलित पत्रकार साथ जाते हैं। इसके विपरीत पूर्व के प्रधानमंत्रियों की मीडिया पार्टी का चरित्र मिश्रित हुआ करता था। किसी एक मीडिया घराने पर केंद्रित नहीं था। प्रेस पार्टी का प्रधानमंत्री कार्यालय और प्रेस इनफार्मेशन ब्यूरो द्वारा लोकतान्त्रिक तरीके से चयन किया जाता था। खुलकर प्रधानमंत्री से सवाल ज़वाब हुआ करते थे। एक दफा तो अमेरिका की गुजराल- यात्रा के दौरान मेरी न्यूयॉर्क में विदेश सचिव से झड़प हो गई थी। किसी मुद्दे पर मामला गरमा गया था। प्रधानमंत्री गुजराल ने इस घटना को अन्यथा नहीं लिया।

यदि आज विज्ञान भवन या अन्यत्र प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी प्रेसवार्ता को सम्बोधित करते हैं तो उन्हें स्वतंत्र पत्रकारों के निम्न सम्भावी सवालों की बौछार का सामना करना पड़ सकता है: 1. आप कब से एक देश-एक चुनाव प्रणाली को लागू करना चाहेंगे? 2. क्या आप भारतीय लोकतंत्र को विपक्षमुक्त बना रहे हैं? 3. क्यों चुनाव आयोग सत्ता समर्थक बनता जा रहा है? 4. देश में ईवीएम को लेकर अविश्वास क्यों है और बैलट पेपर से चुनाव कराने में क्या समस्या है? 5. क्या सरकारी एजेंसियों का दुरूपयोग नहीं हो रहा है? 6. क्या भाजपा के सभी नेता और दूसरे दलों से शामिल होने वाले नेता बेदाग़ी हैं? 7. बैंकों के हज़ारों करोड़ रूपये लेकर विदेश जानेवाले भगोड़ों के ख़िलाफ़ कार्रवाई ? 8. दलबदल रोकने के लिए सख्त कानून; 9. वित्तमंत्री के पति अर्थशास्त्री प्रभाकर ने चुनाव बांड को विश्व का सबसे बड़ा घोटाला बताया है। आपकी प्रतिक्रिया?10. विपक्षी नेताओं पर छापेमारी और दलों के बैंक खातों को बंद कर उन्हें प्रचार की दृष्टि से पंगु बना देना न्यायसंगत और लेवल प्लेइंग फील्ड है? 11. क्या आप प्रचार के लिए मणिपुर जाना चाहेंगे और अब तक क्यों नहीं गए? 12. क्या फिर से दो करोड़ नौकरियां देने की मोदी- गारंटी देंगे? 13. क्या आप देश को आश्वस्त कर सकते हैं कि संविधान का वर्तमान रूप यथावत बना रहेगा? 14. क्या आप भारत माता की शपथ के साथ कह सकते हैं कि चीन के कब्जे में भारत की एक इंच भूमि भी नहीं है, और यदि है तो उसे कब तक वापस लेंगे? 15. चुनाव के बाद विकास का रोड मैप क्या है? 16. दिल्ली के मुख्यमंत्री जेल में हैं। क्या राजधानी दिल्ली में राष्ट्रपति शासन लगेगा?और 17. कुछ क्षेत्रों की धारणा है कि देश में अघोषित इमरजेंसी और सेंसरशिप का राज है। आपकी प्रतिक्रिया? 18. पिछले बीस सालों में मीडिया का विस्तार हुआ है। क्या बहु आयामी मीडिया आयोग का गठन करेंगे? 19. हमास -इजराइल जंग के प्रति भारत की दृष्टि स्पष्ट नहीं रही है। ऐसा क्यों? और 20. विपक्षी नेताओं की धड़पकड़ कब रुकेगी? क्या इसके पीछे प्रतिशोध की राजनीति है। इस आरोप में कितनी सच्चाई है?

निश्चित ही मोदी जी के लिए सभी सवालों का ज़वाब देना आसान नहीं रहेगा। मोदी जी आत्मकथ्य या सोलीलोक में निष्णात हैं। सवालों के ज़वाब के लिए उन्हें नेपथ्य से प्रॉम्पटर की सहायता की आवश्यकता रहेगी। सभी जानते हैं कि जब पिछले वर्ष मोदीजी के सामने रखा टेलिप्रॉम्प्टर अचानक कुछ मिनटों के लिए ठप हो गया था तब वे भी कातर दृष्टि से इधर उधर देखते रहे। उन्होंने भी मौन रखा। वे स्वयं से कुछ नहीं बोल सके। इसके विपरीत कांग्रेस नेता राहुल गांधी अक्सर औपचारिक या औचक प्रेसवार्ता करते रहते हैं। इस चिंतनीय स्थिति से किस बात के संकेत मिलते हैं? यदि मोदी जी की ‘मन की बात’ के अलावा किसी छद्म नाम से उनकी ‘आत्ममंथन’ की बात प्रकाशित हुई है तो यह पत्रकार अपना ज्ञानवर्धन करने के लिए तत्पर है।

(रामशरण जोशी वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं)

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