जो सबका है, वही है ‘सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा’

ऐसे वक्त जबकि मुल्क में संवैधानिक संस्थाओं और प्रावधानों के साथ-साथ आजादी के समय की रवायतों-परम्पराओं पर हर तरफ से हमले हो रहे हैं। उस समय अपने आप को दलित और पसमांदा तबके का हितैषी कहने वाले कुछ नामनिहाद दानिश्वर (तथाकथित बुद्धिजीवी) खुले आम मौजूदा हुक्मरानों के हाथों खेलने लगे हैं।

मौजूदा निज़ाम किस ज़हनियत का और कितना बेदर्द-ओ-बेहिस है इसके लिए हर दिन, हर हफ्ते कोई न कोई वाकया सामने आ ही जाता है। होना तो यह चाहिए था कि संविधान और आज़ादी को इस मुल्क के मुस्तकबिल का समझने वाले मिलकर मौजूदा निज़ाम से लड़ते और संविधान और लोकतंत्र को बचाते जबकि वो हुक्मरानों के इशारों पर आपस में ही लड़ रहे हैं और लड़वाए जा रहे हैं।

अभी हाल में कुछ ऐसे वाकए सामने आए हैं जबकि इस बात को शिद्दत के साथ महसूस किया गया है। दलितों और आदिवासियों के साथ अल्पसंख्यकों (मुस्लिम ईसाई और सिख समाज) के ख़िलाफ़ मौजूदा हुक्मरानों के फैसले और उनके साथ हुक्मरानों के हिस्सेदार अनासिर (सत्ता के आनुषांगिक संगठन, असामाजिक तत्व) की हरकतें अब मुल्क की फ़िक्र से बाहर चली गई हैं (पिछले साल हुए नुपुर शर्मा के मामले में खुद भारत सरकार ने ऐसे तत्वों को असामाजिक तत्व कहा है)।

इस बात की चर्चा अब इंटरनेशनल फोरमों पर हो रही हैं। आज दुनिया मुट्ठी में आ गई है, आप एक कोने में अकेले में अपनी हंडिया नहीं पका सकते हैं, जहां कहीं भी किसी इंसानी तबके के हुकूक दबाए या कुचले जाते हैं तो दुनिया भर से आवाजें उठती हैं। ऐसे में हिन्दुस्तान के अकलियतों पर हो रहे जबरो ज़ुल्म पर चर्चा होना कोई गैर मामूली बात नहीं थी।

लेकिन भारत में मौजूदा निज़ाम से नजदीकी रखने वाले तबके (मीडिया से लेकर यूनिवर्सिटी के मास्टरों तक) ने इस बात पर हो हल्ला कर दिया कि यह मामला मुल्क का अंदरूनी है, इस पर किसी को बोलने का हक़ नहीं है। अमेरिका में अगली सरकार ट्रम्प सरकार कहने वाले और उनके समर्थक जब ऐसा कहते हैं तो हंसी आती है।

हमारा खुद का इतिहास बताता है कि दक्षिण अफ्रीका से लेकर अमेरीका तक में काले लोगों के होने वाले किसी ज़ुल्म के खिलाफ हम सब बोलते हैं, तिब्बत पर ज़ुल्म पर बाक़ायदा अभी भी हमारी आवाज़ उठती है। फिलिस्तीनियों की बात छोड़िए दुनिया के किसी मुल्क में कहीं भी हिन्दू समुदाय के हितों के ख़िलाफ़ होने वाली हर घटना पर वो बोलते हैं और इस मुल्क की सरकार स्टैंड लेती रहती है।

ऐसे में मुल्क में बढ़ रही बर्बरियत के खिलाफ अगर कोई अन्तर्राष्ट्रीय आवाज़ उठ रही है तो इस पर ठंडे दिमाग से सोचना चाहिए था और सरकार को इस पर काम करने के दबाव डालना चाहिए था न कि सरकार के पाले में खड़े होकर सरकार की काहिली को अपना समर्थन देना था। यह काम मीडिया के साथ अपने आप को समाज का अगुवा कहने वाले लोगों ने ख़ूब किया।

अक़लियतों ख़ासकर मुसलमानों पर होने वाली बर्बरियत पर जब अमेरिकी प्रशासन से आवाज उठी तो इस बारे में सबसे हास्यास्पद स्टैंड पसमांदा तबके का हीरो बनने की चाहत रखने वाले एक भूतपूर्व मीडिया मैन ने लिया, उसने सोशल मीडिया में अभियान चलाया कि यह मामला मुल्क का घरेलू मामला है इस पर अमेरिकी सरकार को मुदाख़लत/हस्तक्षेप करने का कोई हक़ नहीं है, मजे की बात है, यही दलित और पसमांदा लोग अमेरिकी समाज और प्रशासन की इसी वैश्विक सोच की तारीफ करते नहीं थकते थे।

लेकिन मुल्क के मामलों में बाहरी दख़ल न देने का उनका फार्मूला पेशाब काण्ड में बदल गया, वही पसमांदा हीरो बनने वाले महाराज पेशाब काण्ड पर पूरी दुनिया को सिर पर उठाने लगे। संयुक्त राष्ट्र संघ के मानवाधिकार आयोग से इस मामले में हस्तक्षेप की अर्जियां लगाने लगे। इस दोहरी मानसिकता पर जब सवाल उठाए तो उनके अंधभक्त ठीक उसी तरह का व्यवहार करने लगे जैसे मौजूदा सरकार के अंधभक्त करते हैं।

अगर बैकग्राउंड खोजेंगे तो पता लगेगा ऐसे फर्जी हीरो किसी न किसी तरह मौजूदा निज़ाम की नज़दीकी के ख़्वाहिशमंद हैं। ताकि उन्हें ऐजाज़ी तमगे मिल सकें, कहीं सदारत और कहीं कुर्सी मिल सके, विधान परिषद, राज्यसभा की मेम्बरी, मंत्री जैसा रुतबा या कहीं सरकारी इदारे की ठेकेदारी मिल सके।

आजकल सरकार के नजदीक आने का सबसे शार्ट फार्मूला अल्पसंख्यकों ख़ासकर मुसलमानों के ख़िलाफ़ लिखना, कहना और माहौल बनाना है, उनसे जुड़ी किसी ज़ुल्म और बर्बरियत पर आंख मूंदते हुए उनके धार्मिक-सांस्कृतिक और सामाजिक प्रतीकों को बदनाम करना उनको नीचा दिखाकर अपना आर्थिक और राजनैतिक हित साधना है। भले ही उनकी साख ख़त्म हो जाए। इसीलिए अपने आपको नम्बर वन बताने वाले दर्जनों भारतीय इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की अन्तर्राष्ट्रीय साख ज़ीरो पर पहुंच गई है उसके साथ उससे जुड़े मौजूदा पत्रकारवीरों की इमेज भी नहीं रही है।

अभी हाल में ही ऐसे ही इमेज वीर अन्तर्राष्ट्रीय मीडिया मैन ने भारत के नाम के साथ एक पोस्ट करके सरकारी चमचागिरी की हदें पार दी हैं। उसने अपनी पोस्ट में मुल्क को भारत और इंडिया कहने को तस्लीम किया है, हिन्दुस्तान कहने वाले को घृणित बताने के लिए हिन्दुस्तान नाम को मुगलों से जोड़कर फासिस्ट सरकार, भक्तों और अंधभक्तों को ख़ुश करने की कोशिश की है। इसके लिए उसने संविधान का सहारा लिया है। उसे यहां संविधान याद आ रहा है, जबकि संविधान की धीमी धीमी हत्या पर उसकी बोलती बंद रहती है। कहता है हिन्दुस्तान नाम का कोई मुल्क नहीं है, और सबसे बेवकूफी और हददर्जे की ज़हालत दिखाते हुए ऐसा फोटो शेयर किया है जिसमें हिन्दुस्तान कहने पर चांटा मारते हुए दिखाया गया है। यह ज़हनियत किसके लिए है और क्यों है यह सोचने की बात है।

खैर मुल्क को मुग़ल या मुस्लिम काल में हिन्दुस्तान कहा जाता होगा लेकिन मुग़ल चले गए यह लफ़्ज़ कहीं नहीं गया और ना ही कहीं जा सकता है, हिन्दुस्तान के माज़ी (विगत) और मुस्तकबिल के साथ जुड़ा रहेगा, कितने ही जाहिल आएंगे मिट्टी में मिल जाएंगे, हिन्दोस्तां बनता और बढ़ता रहेगा।

उर्दू के मशहूर शायर रघुपति सहाय फिराक गोरखपुरी ने मुल्क की एक हजार साल की तारीख बयां करते हुए भविष्य की तरफ भी इशारा करके कहा था,

‘सर-जमीन-ए-हिंद पर अक्वाम-ए-आलम के फिराक
काफिले बसते गए हिन्दोस्तां बनता गया’

इसलिए अल्लामा इक़बाल ने यूं ही नहीं कहा था कि

सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा।

इस लफ़्ज़ ने जंगे आज़ादी में हुब्बुल वतनी (देशभक्ति) को बहुत ऊंचाईयां दी थी।

जंगे आजादी के दौरान यह गाना गाया जाता रहा, उस वक्त अंग्रेजों के साथ संघी और मुसंघी इसे नापसंद करते थे, आजादी के बाद और अब अंग्रेजों के गुलाम काले अंग्रेज़ इसे नापसंद करते हैं।

सारे जहां से अच्छा या तराना-ए-हिन्दी उर्दू भाषा में लिखी गई देशप्रेम की वो ग़ज़ल है जो भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान ब्रिटिश राज के विरोध का प्रतीक बन गई थी, और जिसे आज भी देश-भक्ति के गीत के रूप में भारत में गाया जाता है। इसे अनौपचारिक रूप से भारत के राष्ट्रीय गीत का दर्जा प्राप्त है। इस गीत को प्रसिद्ध शायर अल्लामा इक़बाल ने 1905 में लिखा था और सबसे पहले सरकारी कॉलेज, लाहौर में पढ़कर सुनाया था। यह इक़बाल की रचना बंग-ए-दारा में शामिल है।

उस समय इक़बाल लाहौर के सरकारी कालेज में व्याख्याता थे। उन्हें लाला हरदयाल ने एक सम्मेलन की अध्यक्षता करने का निमंत्रण दिया। इक़बाल ने भाषण देने के बजाय यह ग़ज़ल पूरी उमंग से गाकर सुनाई। यह ग़ज़ल हिन्दुस्तान की तारीफ़ में लिखी गई है और अलग-अलग सम्प्रदायों के लोगों के बीच भाई-चारे की भावना बढ़ाने को प्रोत्साहित करती है।

1950 के दशक में सितार-वादक पण्डित रवि शंकर ने इसे सुर-बद्ध किया। जब इंदिरा गांधी ने भारत के प्रथम अंतरिक्षयात्री राकेश शर्मा से पूछा कि अंतरिक्ष से भारत कैसा दिखता है, तो शर्मा ने इस गीत की पहली पंक्ति कही… ‘सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा’।

जंगे आजादी के वक्त मौजूदा जाहिलों की जमात मेनस्ट्रीम नहीं थी। इसलिए ऐसी जाहिलाना बात नहीं उठती थी। तब हिन्दोस्तान की आजादी की जद्दोजहद करने वाले हसरत मोहानी जैसे मौलाना भी थे जो डॉ अम्बेडकर के साथ बैठकर खाना खाते थे। अम्बेडकर के हाथ का छुआ पानी तक न पीने वाले शलाका पुरुष को अपना आदर्श मानने वाले भक्तों के साथी को पता होना चाहिए कि मुल्क को हिन्दोस्तां कहने वाले नग़मे को संविधान बनाने वालों ने राष्ट्रगीत का दर्जा दिया था, इसको, अधिकारिक रूप से इस नग्मे को तराना-ए-हिन्द कहा जाता है।

इसलिए मुल्क को हिन्दोस्तां कहा गया था और कहा जाता रहेगा। जिस तरह भारत को स्वीकार किया गया है उसी तरह हिन्दोस्तां भी स्वीकार किया गया है। भारत और हिन्दोस्तां की बेकार बहस को उठाकर मूल मुद्दों से भटकाने वाले किसकी कठपुतलियां हैं यह कोई ढकी छिपी हुई बात नहीं है।

(इस्लाम हुसैन पत्रकार हैं और काठगोदाम में रहते हैं।)

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