ईडी को गिरफ्तारी और हिरासत मामलों में पुलिस अफसर की शक्तियां प्राप्त हैं या नहीं?

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जब भी किसी राज्य में ऑपरेशन लोटस या जोड़तोड़ के कारण सत्ता का परिवर्तन होता है तो अक्सर ईडी यानी प्रवर्तन निदेशालय खबरों में आ जाता है। पिछले सालों में यदि किसी जांच या कानून इंफोर्समेंट एजेंसी की साख पर सबसे अधिक सवाल उठा है तो वह ईडी ही है। यह सवाल विपक्ष के नेताओं और जागरूक नागरिकों द्वारा ही नहीं उठाया गया है, बल्कि उच्चतर न्यायालयों में भी ईडी से जुड़े विभिन्न मामलों की सुनवाई के दौरान उठा है।

चाहे मामला ईडी प्रमुख के अप्रत्याशित सेवा विस्तार का हो, या विपक्षी नेताओं के खिलाफ, उनके द्वारा किए गए कथित घोटालों की जांच में कार्यवाही करने का, ईडी के हर कदम को विवादित दृष्टिकोण से देखा जाने लगा है। इसका राजनीतिक परिणाम जो भी हो, उसे दरकिनार करते हुए यह कहा जा सकता है कि ऐसी घटनाओं से ईडी की साख बुरी तरह प्रभावित हो रही है और दुर्भाग्य यह भी है कि ईडी इस बिगड़ती साख को सुधारने के लिए कोई ऐसा कदम भी नहीं उठा रही है, जिससे उस संस्था का पेशेवराना चेहरा सामने आए और वह किसी राजनीतिक अभियान के एक अंग के रूप में न दिखे।

ईडी से जुड़ा ताजा मामला मद्रास हाईकोर्ट का है। इसी हफ्ते मद्रास उच्च न्यायालय ने 4 जुलाई 2023 को प्रवर्तन निदेशालय द्वारा तमिलनाडु के मंत्री सेंथिल बालाजी की गिरफ्तारी के खिलाफ सेंथिल बालाजी की पत्नी एस मेगाला द्वारा दायर एक हैबियस कॉर्पस (बंदी प्रत्यक्षीकरण) याचिका पर एक खंडित फैसला सुनाया। फैसले पर जज साहबान एकमत नहीं हैं, इसलिए अब यह केस हो सकता है बड़ी बेंच को संदर्भित हो जाए। मामला इस प्रकार है कि प्रवर्तन निदेशालय ने 14 जून को सेंथिल बालाजी को कैश-फॉर-जॉब्स घोटाले से जुड़े मनी लॉन्ड्रिंग के मामले में गिरफ्तार किया था, जिसमें वह 2011 और 2016 के बीच परिवहन मंत्री के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान कथित तौर पर शामिल बताए जाते हैं।

इस खंडपीठ की एक जज जस्टिस जे. निशा बानू ने यह स्वीकार किया कि यह बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका विचार योग्य है, क्योंकि प्रधान सेशन जज द्वारा पारित हिरासत का आदेश न्यायालय के क्षेत्राधिकार और न्यायिक अधिकार के बाहर जाकर दिया गया है, इसलिए वह एक अवैध आदेश है। न्यायमूर्ति बानू ने यह भी कहा कि, “चूंकि प्रवर्तन निदेशालय के अधिकारी के पास धन शोधन निवारण अधिनियम (PMLA कानून) के तहत पुलिस के एसएचओ, स्टेशन हाउस ऑफिसर की शक्तियां नहीं हैं, इसलिए वे मंत्री की हिरासत के लिए आवेदन नहीं कर सकते थे।

अधिनियम के प्रावधान के अनुसार, “मौजूदा योजना के तहत, पीएमएलए, 2002 की धारा 19 के अंतर्गत गिरफ्तारी का अधिकार रखने वाले अधिकारियों को गिरफ्तारी के 24 घंटे के भीतर आरोपी को सक्षम अदालत में पेश करना होगा और केवल न्यायिक रिमांड की मांग करनी होगी और इसके तहत न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा आदेश दिया जा सकता है।” इसे व्याख्यायित करते हुए, जास्तिस बानू ने कहा, “वास्तव में, ईडी किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तारी के पहले 24 घंटों से अधिक हिरासत में नहीं रख सकता है।”

हालांकि, सुनवाई कर रही डबल बेंच के ही एक अन्य जज जस्टिस डी. भरत चक्रवर्ती अपने सहयोगी जज न्यायमूर्ति बानो के तर्कों और निष्कर्ष से असहमत थे। न्यायमूर्ति चक्रवर्ती ने इस मामले में एक अलग फैसला सुनाया।

यहां एक कानूनी सवाल उठता है कि, क्या ईडी के पास गिरफ्तार किए गए व्यक्तियों की हिरासत मांगने की शक्ति है?

इस महत्वपूर्ण और दूरगामी परिणाम वाले कानूनी सवाल, हिरासत मांगने की ईडी की शक्तियों पर, न्यायमूर्ति बानू ने कहा कि “चूंकि पीएमएलए के तहत अधिकारियों को पुलिस अधिकारी की शक्तियां नहीं दी जाती हैं, इसलिए वे पुलिस हिरासत की मांग नहीं कर सकते। पीएमएलए की धारा 19 के तहत गिरफ्तारी का अधिकार रखने वाले अधिकारियों को गिरफ्तारी के 24 घंटे के भीतर आरोपी को सक्षम अदालत में पेश करना होता है और वे केवल न्यायिक रिमांड की मांग कर सकते हैं।”

न्यायमूर्ति बानू ने कहा कि हालांकि आम तौर पर सीआरपीसी गिरफ्तारी, तलाशी और जब्ती की शक्तियों को नियंत्रित करती है, लेकिन ये शक्तियां एनडीपीएस, सीमा शुल्क, फेरा, पीएमएलए आदि जैसे विशेष अधिनियमों को लागू करने वाले अधिकारियों को भी दी जाती हैं।”

आगे जस्टिस बानू का कथन है, “आमतौर पर, जो अधिकारी जांच पूरी होने के बाद सीआरपीसी की धारा 173 के तहत अंतिम रिपोर्ट दाखिल करते हैं, वे पुलिस अधिकारी होते हैं। विशेष कानूनों के तहत अधिकारी आमतौर पर जांच के बाद सीआरपीसी की धारा 200 के तहत शिकायत (निजी) दर्ज करते हैं। हालांकि, यह केस केवल यह निर्धारित करने के लिए नहीं है कि किसी विशेष अधिकारी के पास पुलिस अधिकारी की शक्तियां हैं या नहीं। अधिकारियों को सौंपी गई शक्तियों का स्वरूप यह निर्धारित करेगा कि विशेष अधिनियम लागू करने वाले अधिकारियों को पुलिस अधिकारी कहा जाता है।”

अदालत यहां मौलिक अधिकारों से जुड़ा एक महत्वपूर्ण सवाल उठाती है। जस्टिस बानू ने आगे कहा कि, “चूंकि हिरासत ,नागरिकों के मौलिक अधिकार पर भारी पड़ती है, इसलिए सीआरपीसी की धारा 167 एकमात्र ऐसा प्रावधान है जिसके तहत पुलिस को यह शक्ति दी जा सकती है और उसे यह शक्ति प्रदान भी की गई है।”

न्यायाधीश ने इसे और स्पष्ट करते हुए कहा, “किसी भी विशेष अधिनियम का उद्देश्य सीआरपीसी की धारा 167 के प्रावधानों के अतिरिक्त जांच अधिकारियों को “मुल्जिम की हिरासत मांगने के लिए सशक्त बनाना नहीं है।

जहां भी अधिकारियों को जांच करने का अधिकार दिया जाता है, वहां सीआरपीसी के प्रावधान लागू हो जाते हैं। यदि उपरोक्त किसी भी प्रावधान का उल्लंघन किया जाता है तो वह हिरासत अवैध हो जाती है। इस प्रकार संसद ने स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार और कानूनों के साथ संघर्ष करने वाले व्यक्तियों को रोकने की आवश्यकता और जांच करने के लिए, हिरासत में हिरासत (न्यायिक कस्टडी रिमांड और पुलिस कस्टडी रिमांड) की आवश्यकता के बीच सचेत रूप से संतुलन बनाए रखा है।”

न्यायमूर्ति बानू ने इसी मामले में कहा है कि, “केंद्रीय उत्पाद शुल्क अधिनियम 1944, सीजीएसटी अधिनियम, 2017 और फेरा, 1973, यह इंगित करता है कि सीआरपीसी की धारा 167 की शक्तियां केवल उन अधिकारियों के पास होंगी, जो प्रभारी अधिकारी के रूप में कार्य करने के लिए सशक्त होने के कारण पुलिस के स्टेशन हाउस अधिकारी की शक्तियों का उपभोग करते हैं।” सीआरपीसी और संबंधित विशेष अधिनियमों के तहत इसका अर्थ, एक ‘पुलिस स्टेशन’ हुआ।

“ईडी अधिकारियों को स्टेशन हाउस अधिकारियों के रूप में सशक्त बनाने के समान प्रावधान, पीएमएलए, 2002 के अंतर्गत, प्रदान नहीं किए गए हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि संसद ने जानबूझकर पीएमएलए 2002 के तहत कार्य करने वाले ईडी अधिकारियों को स्टेशन हाउस ऑफिसर की शक्ति प्रदान करने का बिंदु छोड़ दिया है।” यह कहना है, जस्टिस बानू का।

आगे कहा गया है कि, “ईडी अधिकारियों को, यह अधिकार और शक्ति न देने का निर्णय,” पीएमएलए कानून के अंतर्गत, ईडी के अधिकारियों को दी गई व्यापक शक्तियों को देखते हुए, उन पर नियंत्रण हेतु, एक सचेत लगाम जैसा लगता है। हालांकि मनी लॉन्ड्रिंग के अपराध पीएमएलए 2002 के तहत किसी भी या सभी अनुसूचित अपराधों से अलग प्रकार के हैं। मनी लॉन्ड्रिंग के अपराध के लिए ईसीआईआर Enforcement Case Information Report (ECIR) दर्ज करने के लिए ईडी अधिकारियों पर एक प्रतिबंध है। ईसीआईआर, सीआरपीसी के अंतर्गत एफआईआर के प्राविधान से अलग है। पीएमएलए के तहत कार्यवाही शुरू करने के लिए किसी सक्षम प्राधिकारी द्वारा एफआईआर या शिकायत ईडी अधिकारियों द्वारा दर्ज करने की एक अनिवार्य शर्त दी गई है।”

न्यायमूर्ति बानू ने कहा कि “पीएमएलए 2002 के अध्याय IV के अनुसार बैंकिंग कंपनियां, वित्तीय संस्थान और मध्यस्थ बाध्य हैं, कि वे आम तौर पर लॉन्ड्र किए गए धन को सिस्टम में वापस लाने के मार्ग के रूप में जरूरी वैधानिक कदम उठाएं, ताकि प्रवर्तन निदेशालय के अधिकारियों को वांछित प्रारूप में यह सब जरूरी जानकारी मिल सके और इनका रिकॉर्ड ईडी में रखा जा सके। यह एक व्यापक शक्ति है जो आय के रास्तों और लूटे गए धन के रास्तों की पहचान करने में मदद कर सकती है ताकि अपराध से अर्जित संपत्ति को जब्त किया जा सके और साथ ही पर्याप्त सार्थक जांच पूरी की जा सके।

यह दृष्टिकोण, माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा भी व्यक्त किया जा चुका है। उदाहरण के लिए विजय मदनलाल चौधरी और अन्य बनाम यूओआई और अन्य के मामले में पीएमएलए 2002 के तहत कार्यवाही की प्रकृति पूछताछ की है, न कि जांच की। पीओसी और मनी लॉन्ड्रिंग ट्रेल को ट्रैक करने के लिए सबूतों का संग्रह मुख्यतः स्वाभाविक रूप से दस्तावेजों पर आधारित है। इसलिए ऐसा प्रतीत होता है कि संसद ने अपने विवेक से गिरफ्तारी के पहले 24 घंटों के बाद पीएमएलए 2002 के तहत कार्यवाही के लिए हिरासत में पूछताछ की आवश्यकता नहीं देखी।”

अपने कथन को और स्पष्ट करते हुए न्यायमूर्ति बानू ने यह भी कहा कि “यह मान लेना गलत होगा कि अगर मनी लॉन्ड्रिंग के अपराध की जांच को बढ़ावा देने के लिए ईडी अधिकारियों को सीआरपीसी की धारा 167 के तहत पुलिस हिरासत नहीं दी गई तो निष्पक्ष जांच के साधन विफल हो जाएंगे। संसद ने पीएमएलए 2002 की धारा 53 के तहत केंद्र सरकार या राज्य सरकार के किसी भी अधिकारी को पीएमएलए के तहत शक्तियां प्रदान करने के लिए व्यापक शक्तियां प्रदान की हैं, जो अपराध और उसके निशानों का पता लगाने, जब्त करने और जब्त करने के लिए पर्याप्त प्रतीत होती हैं।”

इस बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका की विचारणीयता के सवाल पर न्यायमूर्ति बानू ने कहा कि “हालांकि इस संदर्भ के कानूनों के अनुसार ऐसा प्रतीत होता है कि कानूनी रिमांड आदेश पारित होने के बाद बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका सुनवाई योग्य नहीं है, यह इसके प्रकार पर निर्भर करेगा।”

हिरासत कानून पर एक महत्वपूर्ण टिप्पणी करते हुए, निवारक हिरासत (preventive arrest) और किसी अपराध के खिलाफ हिरासत के बीच अंतर बताते हुए न्यायमूर्ति बानू ने कहा कि “हालांकि पूर्व में वैध न्यायिक रिमांड के बाद प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपायों का उल्लंघन कोई परिणाम नहीं देता है, बाद में गिरफ्तारी के समय प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपायों का पालन करने में विफलता होती है। इस मामले में प्रधान सत्र न्यायाधीश ने 16 जून को सेंथिल बालाजी को 8 दिनों की अवधि के लिए पुलिस हिरासत में भेज दिया, जबकि 15 जून को अपने अंतरिम आदेश में उच्च न्यायालय ने विशेष रूप से उल्लेख किया था कि वह न्यायिक हिरासत में ही रहेंगे। चूंकि ईडी अधिकारियों के पास हिरासत मांगने के लिए पुलिस अधिकारी की शक्तियां नहीं थीं, अतः प्रधान सत्र न्यायाधीश द्वारा पारित हिरासत का आदेश अधिकार क्षेत्र के बाहर और कानून के अधिकार के बिना था और इस प्रकार वह एक अवैध आदेश है।”

इसे और स्पष्ट करते हुए, अदालत ने कहा, “यह आदेश कानून की वैधता और न्यायिक अनुशासन का पालन करने में चूक, दोनों के परीक्षण में विफल रहा और हमें यह मानने में कोई हिचकिचाहट नहीं है कि बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका की सुनवाई के समय हिरासत अवैध है। तदनुसार, हम मानते हैं कि बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका इस मामले के तथ्यों और परिस्थितियों में सुनवाई योग्य है।”

समय के बहिष्कार के सवाल पर न्यायमूर्ति बानू ने कहा कि “चूंकि ईडी हिरासत में पूछताछ का हकदार नहीं है, इसलिए समय के बहिष्कार का सवाल ही नहीं उठता है और इस प्रकार समय के बहिष्कार की मांग करने वाली ईडी द्वारा इस संबंध में दायर की गई याचिका उत्तरदायी है, जो बर्खास्त की जाती है।”

न्यायमूर्ति बानो ने कहा कि “स्थापित कानून के अनुसार पुलिस हिरासत की अवधि प्रारंभिक रिमांड की तारीख से 15 दिनों से अधिक नहीं बढ़ाई जा सकती है।”

इस मामले में अदालत ने सेंथिल की बीमारी का भी उल्लेख किया और फैसले में कहा कि, “वर्तमान मामले में बंदी की बीमारी वास्तविक प्रतीत होती है और बंदी की बाय-पास सर्जरी हुई है और पहले ईडी अधिकारियों ने खुद विशेषज्ञ चिकित्सा राय के बाद सोचा था कि हिरासत में लिए गए बंदी की हिरासत लेना उचित नहीं है। उनकी स्थिति की जांच सरकारी डॉक्टरों, प्रवर्तन निदेशालय द्वारा प्रतिनियुक्त ईएसआईसी डॉक्टरों और उनका इलाज करने वाले निजी अस्पताल के डॉक्टरों ने की है।”

मद्रास हाईकोर्ट के मेगाला बनाम राज्य शीर्षक इस मुकदमे विशेष में जो मूल प्रश्न उठता है, वह यह है कि “क्या ईडी के जांच अधिकारियों के पास सीआरपीसी के प्रावधान के अनुसार किसी मुल्जिम को ईडी कस्टडी रिमांड दी जा सकती है या नहीं।” इस पर पीठ के दोनों जजों की अलग अलग राय है और इस खंडित फैसले के कारण इसका समाधान बृहत्तर पीठ द्वारा ही संभव है।

(विजय शंकर सिंह पूर्व आईपीएस अधिकारी हैं।)

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