महिलाओं के लिए सामाजिक न्याय की लड़ाई कौन लड़ेगा?

नई दिल्ली। बिहार में ओबीसी, अति पिछड़ों एवं दलितों के लिए सामाजिक न्याय की मुहिम के लिए नीतीश सरकार द्वारा जातिगत जनगणना की पहल एक मील का पत्थर साबित होने जा रही है। बिहार के सामंती मिजाज एवं बड़ी संख्या में व्यापक आबादी के देश के लगभग सभी हिस्सों में रोजगार की तलाश और कई मामलों में तमाम कष्टों के बावजूद सफल होने की जिजीविषा के अनगिनत किस्से देखे जा सकते हैं। लेकिन ये आंकड़े बिहार में 25% सवर्णों को भी जब मासिक 6,000 रुपये या उससे कम पर जीवनयापन करता दिखाते हैं, तो झूठे जातीय दंभ के पीछे की कड़वी हकीकत को ही बयां करते हैं।

यह मौका नीतीश कुमार के लिए बिहार ही नहीं बल्कि खुद को पूरे देश में सामाजिक न्याय के सबसे बड़े पुरोधा के रूप में लांच करने का था। जातिगत सर्वेक्षण और पिछड़ों, वंचितों को लक्षित मदद की बातें पूर्ववर्ती यूपीए सरकार एवं कर्नाटक में कांग्रेस की सिद्धारमैया सरकार ने भी की, लेकिन दोनों सरकार अपने सर्वेक्षण को सार्वजनिक करने का साहस नहीं जुटा सकी थीं।

आज कांग्रेस नेतृत्व केंद्र में सत्तारूढ़ होने पर जातिगत जनगणना कराने एवं पिछड़ों, अतिपिछड़ों, दलितों एवं अनुसूचित जनजातियों को केंद्र में रखकर सरकार की नीतियों एवं विकास कार्यक्रमों को तैयार करने के दावे कर रहा है। लेकिन इसकी शुरुआत का श्रेय नीतीश कुमार को जाता है, जिन्होंने अपना समूचा कार्यकाल ही भाजपा और कुछ समय राजद के सहयोग से चलाया है।

लेकिन यह क्या? नीतीश कुमार, जिनके बारे में मशहूर है कि वे कोई भी शब्द बिना गहराई से सोचे-समझे नहीं निकालते हैं, ने जनसंख्या नियंत्रण के मुद्दे पर बेहद आपत्तिजनक ढंग से विधानसभा के भीतर पेश कर दिया। इसमें भी महत्वपूर्ण बात यह है कि ये बातें उन्होंने जातिगत-आर्थिक सर्वेक्षण की रपट पेश करने के दौरान कहीं, जिसपर उनकी आगे की राजनीति का सारा दारोमदार था। फिर यह भी तथ्य है कि इस बात को उन्होंने राज्य के दोनों सदनों में कहा।

गर्भधारण और उससे बचने के उपायों की ग्राफिक डिटेलिंग को सदन में सभी वयस्क विधायकों के बीच में रखने की मुख्यमंत्री की मंशा के पीछे की वजह को आज तलाशा जा रहा है। उनके समर्थक भी आज इस बात को मान रहे हैं कि नीतीश कुमार ने ये बातें कहकर अपने पांव में ही कुल्हाड़ी मार दी है, जबकि कई लोग उनके पक्ष में बायोलॉजी की किताब के पन्ने सोशल मीडिया में साझा कर रहे हैं।

कई लोगों का मानना है कि बिहार की जनता को सेक्स एजुकेशन के बारे में शिक्षित करने के लिए क्या अंग्रेजी भाषा या संस्कृतिनिष्ठ भाषा या गूढ़ भाषा में बात कर समझाया जा सकता है?

उधर भाजपा आरएसएस समर्थकों ने इसे बड़ा मुद्दा बना डाला है। दिल्ली सहित तमाम जगहों पर नीतीश कुमार के खिलाफ प्रदर्शन आयोजित किये गये। सोशल मीडिया पर भाजपा नेत्रियों को अपनी जुबान खोलने का मौका मिल गया है। मणिपुर, कठुआ, बृजभूषण सिंह पर मुंह सिल चुके इन नेताओं और नेत्रियों की बांछें खिली हुई हैं।

सबसे हैरतअंगेज कारनामा तो राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्षा, रेखा शर्मा की प्रतिक्रिया में नजर आता है, जिन्होंने बिजली की रफ्तार से काम लेते हुए एएनआई के वीडियो को साझा करते हुए बिहार के मुख्यमंत्री के खिलाफ 7 नवंबर को ही मोर्चा खोल दिया था।

ये वही रेखा शर्मा हैं, जिनके पास मणिपुर हिंसा के दौरान सबसे पहले यौन हिंसा की शिकायत दर्ज की गई थी। यहां तक कि देश से बाहर रह रहे कुकी समुदाय के लोगों ने ईमेल के माध्यम से मणिपुर में जातीय नरसंहार एवं महिलाओं के साथ हो रहे बलात्कार के बारे में महिला आयोग की अध्यक्ष को सूचित किया था, लेकिन उस बारे में उनकी ओर से कोई कार्यवाही नहीं की गई।

नीतीश कुमार के विधानसभा में दिए गये वक्तव्य को यदि आज भी कहीं बेहद आसानी से देखा जा सकता है तो वह, स्वंय भाजपा के ट्वीट सहित उनके समर्थकों के सोशल मीडिया हैंडल पर देखा जा सकता है।

यह ठीक उसी प्रकार से है, जैसे जेएनयू कैंपस के भीतर ज़ी न्यूज़ के कथित डॉक्टर्ड वीडियो में देश विरोधी नारों के बारे में कहा जाता है। इस घटना के दो साल बाद तक हर चैनल पर उस वीडियो का उद्धरण लेकर भाजपा आरएसएस समर्थक हर बार भारत विरोधी नारे को दुहराते थे, और बताते थे कि देखो, जेएनयू के भीतर वामपंथियों के द्वारा ये नारे लगाये जाते हैं।

आज नीतीश कुमार के वीडियो की सैकड़ों व्याख्या के साथ रस ले-लेकर यही तत्व पूरे देश में इसे वायरल करने में लगे हुए हैं, और बता रहे हैं कि कितनी घटिया सोच का मुख्यमंत्री है। उन्हें जरा भी इस बात का अहसास नहीं है कि नीतीश कुमार का राजनैतिक जीवन ही भाजपा की छांव तले बीता है। उन्हें तो अपने ही परम पूजनीय, प्रातः स्मरणीय नेता जी की जिह्वा से 50 करोड़ की गर्लफ्रेंड या जर्सी गाय कत्तई घटिया बात नहीं लगी।

इससे पहले गुजरात में एक महिला की राजकीय स्तर पर निगरानी को लेकर तमाम आलेख और ऑडियो रिकॉर्डिंग देश को पता है, लेकिन इनके ये बातें कोई मायने नहीं रखतीं।

ये तो रही किसी भी विषय पर मोदी समर्थक या विरोधी खेमे की बात, लेकिन ध्यान से देखें तो यह हमारे विवेक और सजग नागरिक बोध की हत्या का प्रयास है, जो दोनों तरफ से हो रहा है। हम समूचे देश को मोदी समर्थक या विरोधी की श्रेणी में विभक्त करते जा रहे हैं।

कई लिबरल बुद्धिजीवी नीतीश कुमार के साथ खड़े होने के पीछे यह तर्क पेश कर रहे हैं कि ऐसा नहीं करना भाजपा और मोदी अर्थात फासीवाद को ही मजबूत करना होगा। इंडिया गठबंधन में से किसी ने भी कोई गलती की तो भाजपा और गोदी मीडिया तत्काल तिल का ताड़ बनाकर उस मसले को लार्जर देन लाइफ बना देती है। फिर वे भाजपा नेताओं के एक दो नहीं बल्कि दर्जनों घटनाओं को दोहराने लगते हैं।

उनकी बातें सही हैं, लेकिन इसके नामपर वे भी तो कहीं न नहीं भाजपा-आरएसएस से उत्पन्न आसन्न संकट के नाम पर आपसे अपनी हर गलतियों को माफ़ किये जाने की मांग कर रहे हैं? यह तर्क आपको वहां तक ले जाएगा, जिसमें आप पायेंगे कि कल तो जो लोग अल्पसंख्यकों, दलितों और महिलाओं के खिलाफ सांप्रदायिक, जातिगत टिप्पणी या पित्रसत्तात्मक सोच रखते थे, वे सत्ता संतुलन में बदलाव की सूरत में इंडिया गठबंधन की शरण में आने लगेंगे। तेलंगाना में भाजपा से बड़ी संख्या में नेताओं की कांग्रेस वापसी को इस संदर्भ में देखा जा सकता है।

सोशल मीडिया पर ‘बिहार में का बा?’ फेम नेहा सिंह द्वारा नीतीश कुमार की आलोचना को आज बर्दाश्त नहीं किया जा रहा है। ये वही नेहा हैं, जिन्होंने भाजपा-जेडीयू गठबंधन सरकार के दौर में बेहद मुखरता से सोशल मीडिया पर बिहार की हकीकत को देश के सामने लाने का काम किया था। लेकिन आज वे सामाजिक न्याय के नीतीश कुमार नैरेटिव में फिट नहीं बैठ पा रही हैं, इसलिए उन्हें किनारे किया जा रहा है।

कल ही सीपीआई (एमएल) के महिला संगठन की ओर से पटना में एक प्रेस कांफ्रेंस कर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की अभद्र टिप्पणियों की आलोचना करते हुए बताया गया कि उन्हें इस संदर्भ में पत्र भेजा गया है।

हालांकि नीतीश कुमार ने सदन में अपनी टिप्पणियों के लिए माफ़ी मांग ली है, और उन्होंने कहा है कि वे स्वयं अपनी आलोचना करते हैं, लेकिन हमें देखना चाहिए कि हमारा हिंदी भाषी प्रदेश किस हद तक पित्रसत्तात्मक जकडबंदी में आज भी जकड़ा हुआ कि इसमें क्या सवर्ण और क्या पिछड़े या अति पिछड़े समुदाय के पुरुष हैं, सभी का मानस असल में आधी आबादी के प्रति संपत्ति/वस्तु की सोच से घिरा हुआ है।

शादीशुदा जीवन में पति-पत्नी के संबंधों में सेक्स एक महत्वपूर्ण तत्व है, लेकिन पति सिर्फ इसी एक काम के लिए पत्नी के पास आयेगा या जनसंख्या नियंत्रण के लिए पत्नी से ही आवश्यक सावधानी बरतने की अपेक्षा रखना किसी भी राज्य के मुख्यमंत्री के लिए शोभनीय नहीं है। पति-पत्नी के बीच के अंतरंग पल सिर्फ वैयक्तिक ही नहीं बल्कि गहन संवेदनात्मक भी होने चाहिये, संभवतः भारतीय समाज में अधिसंख्य पुरुषों के लिए यह अभी भी अकल्पनीय है।

भाजपा के ही उत्तराखंड के एक पूर्व मुख्यमंत्री की नजर एक महिला की फटी जींस पर अटक जाती है, और आज भी हमारे नेताओं को पुरुषों में अनैतिकता के पीछे महिलाओं द्वारा छोटे कपड़े पहनने को दिया जाता है। यही वह पित्रसत्तात्मक मानसिकता है जो महिलाओं के लिए सारे नियम, विधान तय करती है और समझती है कि वे कठपुतलियां थीं, हैं और उन्हें ऐसे ही रहना चाहिए।

बिहार में महिलाओं में शिक्षा का महत्व भी शायद नीतीश कुमार को यही लगता है कि पढ़-लिखकर वे जनसंख्या नियंत्रण में योगदान दे सकें, क्योंकि पुरुष तो शिक्षित होकर भी अनपढ़ ही रहता है?

यहां पर बड़ा सवाल यह उठता है कि सामाजिक न्याय में यदि सामाजिक एवं शैक्षिक पिछड़ापन को आधार माना जाता है तो क्या उसमें आधी आबादी (महिला) भी शामिल है या नहीं? क्या उनके सामाजिक सम्मान के लिए इसमें जगह है? यदि है तो क्या उन्हें उन पुरुषों से अपेक्षा नहीं करनी चाहिए कि वे अपने साथ-साथ उनकी मुक्ति-समता के लिए भी रास्ता छोडें? अपना स्थान तो वे बना सकती हैं, लेकिन जरूरत है घर के भीतर भी उन्हें समान दर्जा दिया जाये।

यह काम सिर्फ साक्षरता से हासिल नहीं किया जा सकता, इसके लिए समाज में महिला-पुरुष दोनों को शिक्षित भी करना होगा। उनके लिए आंगनबाड़ी, भोजनमाता जैसे काम दिए गये हैं, जिनमें पारिश्रमिक इतना कम है कि उससे कहीं अधिक भीख मांगकर कमाया जा सकता है।

इसके बावजूद देश में लाखों-लाख महिलाएं अपने-अपने घरों में बच्चों, पति, घर की देखभाल के साथ-साथ अपने गांव, स्कूल और समाज को बेहतर बनाने में जुटी हुई हैं। यह हमारी पित्रसत्तात्मक राज्यसत्ता ही है जो केंद्र से लेकर राज्यों तक बदले में उनका जमकर आर्थिक शोषण ही नहीं बल्कि अपने हक के लिए आवाज उठाने पर सभी राज्यों में निलंबन से लेकर दंडित करने में जुटा हुआ है।

बता दें कि जिस दौरान, बिहार विधानसभा के भीतर जातीय जनगणना के आंकड़े पेश किये जा रहे थे, सदन के बाहर सैकड़ों की संख्या में आंगनबाड़ी कार्यकर्ता प्रदर्शन कर रही थीं, जिनपर राज्य की पुलिस लाठीचार्च कर रही थी। देश में वास्तविक बदलाव के लिए हमें भी चाहिए कि सामाजिक न्याय की परिभाषा को संपूर्णता में अंगीकार करने के लिए खुद को तैयार करें और समाज को भी इसके लिए तैयार करें।

संवैधानिक आधार पर सामाजिक न्याय का हक एकांगी और अधूरा है, इसे संपूर्णता में हासिल करने के लिए समूचे समाज की वैचारिकी को नए धरातल पर लाना ही होगा।

(रविंद्र पटवाल जनचौक की संपादकीय टीम के सदस्य हैं।)

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