आखिर लोकायुक्त से इतना डरती क्यों हैं सरकारें?

पारदर्शिता, जवाबदेही और सुशासन के लिये एक सशक्त लोकपाल की व्यवस्था की मांग को लेकर 2011 में चले अन्ना हजारे के आन्दोलन के फलस्वरूप 1 जनवरी 2014 को अस्तित्व में आये भारत के लोकपाल एवं लोकायुक्त अधिनियम की धारा 63 में कहा गया था कि संसद द्वारा पारित इस अधिनियम के लागू होने के एक साल के अंदर सभी राज्यों की विधानसभाएं इस एक्ट के अनुरूप लोकायुक्त कानून बनायेंगी और उस कानून के आधार पर राज्यों में लोकायुक्त का गठन होगा। लेकिन 9 साल गुजर गये और देश के 28 राज्यों में से उत्तराखण्ड सहित 8 राज्यों ने लोकायुक्त का गठन नहीं किया।

कुछ राज्यों में लोकायुक्त संगठन में न्यायिक सदस्यों के पद खाली हैं। कुछ राज्यों ने अब तक कानून तक नहीं बनाये। जबकि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा भी लोकायुक्त का गठन न करने वाले राज्यों को फटकार लगायी जा चुकी है।

उत्तराखण्ड में संसद द्वारा पारित मजमून पर आधारित लोकायुक्त कानून 2014 से अस्तित्व में है मगर सरकारें उस कानून को लेकर अनजान बनी हुयी हैं और नया कानून बनाने के बहाने लोकायुक्त का गठन टालती रही हैं। राज्य में लोकायुक्त कार्यालय भी मौजूद है जो कि 2013 से लावारिश पड़ा है और उस पर सरकार बेवजह लगभग 20 करोड़ रुपये खर्च कर चुकी है। जबकि जिस समान नागरिक कानून की जरूरत ही नहीं उसके पीछे दीवानगी की हद तक पड़ी है। अगर केन्द्र सरकार का समान नागरिकता कानून बन जाता है तो राज्य का कानून निरर्थक हो जायेगा।

भ्रष्टाचार देश के सामने एक गंभीर चुनौती बन कर खड़ा है। सुप्रीम कोर्ट भी कह चुका है कि भ्रष्टाचार नागरिकों के समानता और जीवन के अधिकार संबंधी संविधान के अनुच्छेद 14 और 21 का उल्लंघन करता है। वास्तव में भ्रष्टाचार निष्पक्षता, समानता और पारदर्शिता के सिद्धांतों को कमजोर करता है जो नागरिकों के अधिकारों की सुरक्षा के लिए आवश्यक हैं। भ्रष्टाचार अक्सर सार्वजनिक संसाधनों के दुरुपयोग, रिश्वतखोरी, गबन और सत्ता के दुरुपयोग के साथ-साथ अन्य प्रकार के कदाचार को जन्म देता है।

यह सच्चाई छिपी नहीं है कि भ्रष्टाचार की गंगोत्री शासन और प्रशासन में बैठे उच्च स्थानों से शुरू हो रही है। यही नहीं भ्रष्टाचार राजनीति की सबसे बड़ी खुराक साबित हो रही है। क्योंकि इसके दायरे में नौकरशाही के साथ ही राजनीतिक शासक भी आते हैं, इसलिये संभवतः लोकायुक्त के गठन में संकोच होता है। अभी भ्रष्टाचार के मामलों में जांच कराना या न कराना शासन-प्रशासन के हाथ में है लेकिन लोकायुक्त व्यवस्था में कोई भी व्यक्ति सीधे लोकायुक्त से किसी के भी खिलाफ जांच की मांग कर सकता है।

लोकपाल का डर ही था कि 1968 से लेकर 2013 तक संसद लोकपाल का कानून पास नहीं कर सकी। लोकपाल कानून बनने के 5 साल बाद केन्द्र में पिनाकी चन्द्र घोष की लोकपाल के तौर पर नियुक्ति हो सकी मगर उनका कार्यकाल 27 मई 2022 को पूर्ण होने के बाद भी नये लोकपाल की नियुक्ति के बिना केन्द्र में प्रभारी लोकपाल से काम चलाया जा रहा है।

ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशल इंडिया की 2020 की रिपोर्ट के अनुसार संसद द्वारा पारित लोकपाल-लोकायुक्त कानून के अस्तित्व में आने के बाद भी 28 राज्यों और 3 केन्द्र शासित प्रदेशों में से 9 ने अभी तक केन्द्रीय कानून के अनुरूप या समरूप अपने लोकायुक्त कानून में संशोधन नहीं किया। देश के 28 राज्यों के साथ ही 3 केन्द्र शासित प्रदेशों से जुटाये गये इन आंकड़ों के अनुसार 8 ने लोकायुक्त का गठन नहीं किया। इन राज्यों में उत्तराखण्ड, असम, गोवा, हिमाचल प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान और पुडुचेरी हैं। जम्मू-कश्मीर में जो संस्था थी वह भंग है।

सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के हस्तक्षेप के बाद भी उत्तराखण्ड जैसे कुछ राज्यों ने लोकायुक्त के गठन की पहल नहीं की। 2018 में सर्वोच्च न्यायालय ने 12 राज्यों के मुख्य सचिवों को अपने यहां यथाशीघ्र लोकायुक्तों के गठन के निर्देश दिये थे।

ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशल की रिपोर्ट के अनुसार 22 राज्यों और केन्द्र शासित प्रदेशों में सभी आवश्यक उप लोकायुक्तों (सदस्य) की नियुक्ति नहीं हुयी। आज एक देश एक कानून की बात तो होती है मगर लोकायुक्त कानूनों में एक रूपता नहीं है। हिमाचल प्रदेश में जहां शिकायत दर्ज करने का शुल्क मात्र 3 रुपये है वहीं गुजरात और उत्तर प्रदेश में यह शुल्क 2000 रुपये रखा गया है।

कुछ राज्यों ने संसद द्वारा पारित लोकायुक्त कानून के मजमून को अपनाने के बजाय अपनी सुविधानुसार कानून बना दिये। उत्तराखण्ड जैसे राज्य में संसद द्वारा पारित मजमून के अनुसार बने कानून को नहीं माना जा रहा है और अपना अलग कानून बनाने का तर्क देकर मौजूदा कानून के अनुसार लोकायुक्त का गठन नहीं किया जा रहा है।

सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय के निदेर्शों के बावजूद लोकायुक्त का गठन करने के बजाय राज्य सरकार समान नागरिक संहिता को सर्वोच्च प्राथमिकता दे रही है जबकि केन्द्र सरकार स्वयं समान नागरिक संहिता बनाने जा रही है। अगर केन्द्र का कानून बनता है तो अनुच्छेद 254-क के अनुसार उत्तराखण्ड के कानून का अस्तित्व नहीं रह जाता है।

शासन-प्रशासन में सुचिता और सुशासन के लिये एक सशक्त भ्रष्टाचार विरोधी संस्था की वकालत 1960 के दशक से शुरू हो गयी थी। इस तरह की एक संस्था की कल्पना सबसे पहले 1963 में विख्यात न्यायविद डॉ एल.एम. सिंघवी ने की थी। 1967 में मोरारजी देसाई प्रशासनिक सुधार आयोग की सिफारिशों के आधार पर अगस्त 1968 में लोकपाल विधेयक संसद में पेश हुआ जो पारित नहीं हुआ। लोकपाल विधेयक 2001 में भी संसद में पेश किया गया था लेकिन बाद में वापस ले लिया गया।

तीसरा लोकपाल विधेयक 2011 में संसद में पेश किया गया था। इस विधेयक पर महत्वपूर्ण बहस और चर्चा हुई लेकिन पारित नहीं किया जा सका। लोकपाल और लोकायुक्त अधिनियम, 2013, विधेयक का अंतिम संस्करण था जो अंततः कानून बन गया। संसद द्वारा पारित इस विधेयक को 1 जनवरी 2014 को राष्ट्रपति की सहमति प्राप्त हुई।

केन्द्र में लोकपाल-लोकायुक्त कानून आने के बाद उड़ीसा पहला राज्य था जहां 14 फरबरी 2014 को संसद द्वारा पारित कानून के मुताबिक लोकायुक्त कानून बना था और उसके बाद उत्तराखण्ड दूसरा राज्य था जिसका लोकायुक्त कानून 26 फरबरी 2014 को अस्तित्व में आया था। लेकिन इतने साल बाद भी उस कानून के अनुसार उत्तराखण्ड को एक अदद लोकायुक्त नहीं मिल सका।

2017 में सत्ता परिवर्तन के बाद मौजूदा कानून को नकार कर 100 दिन के अंदर एक नया मजबूत लोकायुक्त कानून लाने के साथ ही लोकायुक्त के गठन का वायदा किया गया था लेकिन न तो नया कानून आया और ना ही सौ दिन के बजाय 6 साल गुजरने पर भी नया लोकायुक्त अस्तित्व में आया।

राज्य में जो कानून 2014 में पारित हुआ था उसका अभी तक निरसन नहीं हुआ। इसका मतलब है कि उत्तराखण्ड में अपना कानून मौजूद है जिसे संसद की स्वीकृति तक हासिल है, फिर भी लोकायुक्त के गठन को टालने के लिये बहाने बनाये जा रहे हैं। 2017 में तत्कालीन सरकार लोकायुक्त पर जो कानून बनाना चाहती थी उसका विधेयक ही कालातीत हो गया। इसलिये फिरहाल 2014 का कानून ही अस्तित्व में है।

(जयसिंह रावत की रिपोर्ट।)

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