विश्व की तीसरी अर्थव्यवस्था और 80 करोड़ के हाथ में भीख का कटोरा!

नई दिल्ली। यह किस्सा 70 के दशक में रामगढ़ गांव के बारे में है, जिसे तब काफी संपन्न गांव माना जाता था। आलम यह था कि गांव पर डाकुओं की ओर से कई बार हमले तक बोले गये थे, लेकिन लूट के हिस्से में कोई ख़ास दौलत कभी हाथ नहीं लगी। हर बार डाकुओं को एक-दो महीने के राशन की लूट से संतोष करना पड़ा।

लेकिन गांव में ठाकुर की हवेली भी थी, और उनके पास गांव की आधी जमीन थी, और हवेली की सुरक्षा के लिए बंदूकधारी भी ठाकुर ने तैनात कर रखे थे। खेतीबाड़ी के अलावा ठाकुर का ईंट-भट्ठे और ब्याज पर उधार देने का भी धंधा काफी फल-फूल रहा था। 2,000 परिवारों में अकेले ठाकुर के खानदान की कमाई शेष 1,999 परिवारों के बराबर थी।

इस प्रकार कह सकते हैं कि गांव की सालाना 1 करोड़ रुपये की कमाई में अकेले 50 लाख रुपये पर ठाकुर का परिवार पलता था। इस प्रकार कह सकते हैं कि शेष 1,999 परिवारों की औसत कमाई मात्र 2,500 रुपये सालाना ही हुई।

इसमें भी 10 फीसदी गांव वाले 10,000 रुपये वार्षिक कमाकर मध्यवर्गीय जीवन बिता रहे थे, जबकि 40 फीसदी परिवारों को 2,500 रुपये वार्षिक आमदनी पर संतोष करना पड़ रहा था। ये लोग बेहद छोटी जोत के मालिक थे, और इनका पूरा परिवार दिन-रात खेत में जुटा रहता था, और अधिकांश परिवारों को जीवनयापन के लिए अधिया या बटाई पर खेत लेना हर साल की जरूरत बन गई थी।

लेकिन गांव में 50 फीसदी परिवारों के पास तो न तो खुद का स्वरोजगार या खेत नहीं होने से उनके लिए दिन में दो बार चूल्हा जलाने की भी नौबत कभी कभार ही बनती थी, और उनकी औसत कमाई 1,010 रुपये वार्षिक थी। 

2,000 परिवारों वाले रामगढ़ में ठाकुर की कमाई अकेले 50 लाख रुपये और 10 फीसदी परिवारों (199 परिवार) की कुल 19.90 लाख रुपये, 40 फीसदी परिवारों (800 परिवार) की कमाई 20 लाख रुपये और शेष 50 फीसदी भूमिहीन परिवारों (999 परिवार) की कुल सालाना कमाई 10.10 लाख कुल मिलाकर 1 करोड़ रुपये सालाना बैठती थी।

आंकड़ों के लिहाज से देखें तो रामगढ़ 70 के दशक में एक संपन्न गांव की तस्वीर पेश करता था, लेकिन जमीन पर यही आंकड़े बिल्कुल दूसरी हकीकत बयां करते थे। डाकुओं के लिए भी सरकारी आंकड़ों पर भरोसा करना नुकसानदेह साबित हुआ, और ठाकुर की जिला प्रशासन में मजबूत पकड़ होने के कारण पुलिसिया कार्रवाई में डाकुओं की फ़ौज का एक दिन एनकाउंटर हो गया था।

यह रिपोर्ट तथ्यात्मक नहीं है, लेकिन 70 के दशक में उत्तर प्रदेश और बिहार के कई जिलों में हालात इसी प्रकार के थे। आज के दिन ऐसे जमींदार और भू-स्वामियों ने चोला बदलकर खुद को समाज सेवा में खपा लिया है। आज इनके पास 1,000 एकड़ जमीन न मिले, लेकिन दर्जनों प्राइवेट स्कूलों, इंजीनियरिंग कॉलेजों या अस्पतालों और नर्सिंग होम के मालिक के रूप में पा सकते हैं।

इनके परिवार से कोई न कोई किसी राष्ट्रीय दल का सांसद या विधायक मिलेगा। गांव के बजाए अब इन लोगों ने शहरों में विवादित भूमि, सरकारी या सार्वजनिक सम्पत्ति पर कब्जा जमाकर रियल एस्टेट में पांव पसारकर खुद को अरबपतियों की सूची में पहुंचा दिया है।

दूसरी तरफ जो भूमिहीन और खेतिहर मजदूर या छोटी जोत के मालिक थे, के लिए 90 के दशक के बाद खेती के सहारे खुद के परिवार को गांव में टिकाये रखना दुष्कर होता चला गया। इसका कारण गांवों में पूंजीगत कृषि का बढ़ता दबाव, हल-बैल के स्थान पर ट्रैक्टर, बाजार के बीज और खाद एवं कीटनाशक दवाओं के सहारे मध्यम एवं बड़ी जोत के भू-स्वामियों की मजदूरों पर घटती निर्भरता को जाता है।

गांवों से शहरों की ओर पलायन ने इन बहुसंख्यक लोगों की जिंदगी में कोई बड़ा परिवर्तन नहीं लाया है। उल्टा बड़ी संख्या में अकुशल, अर्धकुशल श्रमिकों की बहुलता ने महानगरों और औद्योगिक क्षेत्रों में पूंजीपतियों के लिए स्थायी श्रमिकों की जरूरत/मजबूरी को खत्म कर दिया है। 2012 के बाद से ही भारत में नव-उदारवादी आर्थिक नीति की सीमाएं खुलकर सामने आने लगी थीं, नतीजतन लेबर मार्केट में बेरोजगारों की संख्या लगातार बढ़ी है। श्रमिकों की वास्तविक मजदूरी में गिरावट का रुख जारी है।

मध्य वर्ग के लिए अच्छे दिन 1995-2010 तक रहे 

90 के दशक से शुरू विश्व बैंक और आईएमएफ की नीतियों पर नव-उदारवादी अर्थनीति ने जो थोड़ी-बहुत तेजी अगले 20 वर्ष बरकरार रखी, उसमें गिरावट के लक्षण यूपीए के दूसरे कार्यकाल में ही दिखने लगे थे, जब आर्थिक सुस्ती और रियल एस्टेट में मंदी की मार ने रातोंरात कई गुना कमाने की चाह रखने वाले हजारों-लाखों उद्योगपतियों को रियल एस्टेट में कदम रखने के कुछ साल बाद ही भारी मंदी का सामना करना पड़ा था।

2014 में मोदी युग की शुरुआत ही एक तरफ कॉर्पोरेट टैक्स में भारी कटौती तो दूसरी तरफ बैंकों के ऋणों के एनपीए में तब्दील होने की दास्तां लेकर आया, जिसमें बहुसंख्यक आबादी के लिए पहले कुछ साल कड़वी दवाई पीकर धीरज रखने की सलाह पर भरोसा करने के अलावा कोई ओर चारा नहीं था।

2014 के बाद आम लोगों के लिए सिर्फ नारे बदले

लोगों ने कड़वी दवाई पी, और नेता पर भरोसा बनाये रखा, क्योंकि व्हाट्सअप से रोज संदेश आ रहे थे कि -40 डिग्री पर देश का जवान खड़ा है, आपको भी सब्र रखना होगा। मध्य वर्ग ने निम्न मध्यम और गरीबों को डांट पिलाते हुए झिड़का था कि तुम लोगों को अक्ल नहीं है, सब्र से काम लो। अच्छे दिन बस आने ही वाले हैं।

फिर नोटबंदी आई तो बताया गया कि देखो अमीर को भी 2,000 रुपये के लिए लाइन में लगना पड़ रहा है। नकली नोट जलाकर उन्हें असली बताया गया और गरीब इसी बात पर खुश था कि देखा, मोदी जी ने अमीरों की काली कमाई की लंका लगा दी। लेकिन कई महीनों बाद जब आरबीआई ने बताया कि 1,000 और 500 रुपये के सभी पुराने नोट करीब-करीब वापस बैंकों में जमा हो चुके हैं, तब तक गरीब और गरीब हो चुका था और उसकी आवाज में दम पहले से काफी कम हो चुका था। कई तो देश में जगह-जगह रोज गोकशी की कोशिश में मुस्लिम अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों के साथ माब-लिंचिंग की वायरल वीडियोज में मगन हो गये।

अगले कुछ वर्षों के दौरान देश में योजना आयोग, सांख्यिकी विभाग सहित लेखक-पत्रकार-साहित्यिक-कैम्पस सहित नागरिक समाज और एनजीओ के लिए भारी पड़ने वाले थे। इसी दौरान जीएसटी की शुरुआत के साथ राज्यों में विपक्ष ने भी केंद्र की अधीनता स्वीकार कर अपनी किस्मत के साथ-साथ राज्यों के माध्यम से स्थानीय स्तर पर आम लोगों के लिए राहत पहुंचाने की अपनी क्षमता से भी हाथ धो लिया था, जिसका अहसास उन्हें बाद के वर्षों में हुआ और अब 5 वर्ष बीत जाने के बाद केंद्र सरकार के ऊपर राज्यों की जिम्मेदारी खत्म हो जाने के बाद तो हाय-तौबा सी मच रही है।

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि अफीम के नशे में देश का मध्य वर्ग या अशिक्षित और मेहनत मजूरी करने वाले लोग ही नहीं थे, बल्कि विपक्ष और यहां तक कि वे राज्य सरकारें भी थीं, जिन्होंने स्वेच्छा से कराधान के अपने अधिकारों को केंद्र के हाथ में सौंपकर अब आम लोगों की बढ़ती मुसीबतों के समक्ष खुद को पेश कर दिया है। राज्य सरकारों के पास इतनी भी गुंजाइश नहीं है कि वे पेट्रोल, डीजल पर केंद्र सरकार द्वारा वसूले जाने वाले एक्साइज ड्यूटी को कई बार बढ़ाने के एवज में राज्यों द्वारा चार्ज किये जाने वाले वैट में कमी करने का साहस दिखा सकें।   

संक्षेप में कहें तो देश के आर्थिक हालात रोज-ब-रोज बद से बदतर होते जा रहे हैं, लेकिन मोदी सरकार के दावे की गूंज आज भी कुछ नई स्टोरी के साथ आगे बढ़ रही है। मोदी समर्थकों की संख्या और आक्रामकता में निश्चित रूप से कमी आई है, लेकिन गोदी मीडिया में भारतीय अर्थव्यवस्था की रंगीन तस्वीर से आम लोगों की चेतना को कुंद करने की कुचेष्टा कम होने के बजाय बढ़ती ही जा रही है।

आज भारत की अर्थव्यवस्था चंद कॉर्पोरेट घरानों की मुट्ठी में

अभी हाल ही में, शायद वन डे विश्वकप फाइनल वाले दिन अचानक से खबर आई कि भारत आज विश्व की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन चुका है, क्योंकि भारत की जीडीपी 4 ट्रिलियन डॉलर के आंकड़े को पार कर चुकी है। बाकायदा आंकड़ों के साथ सोशल मीडिया ही नहीं बल्कि अधिकांश समाचार पत्रों में झट से यह खबर चारों तरफ फैला दी गई। लेकिन अगले ही दिन भांडा फूटते ही इन अखबारों से ये खबर गायब कर दी गई।

असल में दावा तो 2023-24 में ही 5 ट्रिलियन डॉलर की इकोनॉमी बनाने का था, किसानों की आय को दोगुना और हर साल 2 करोड़ युवाओं को रोजगार देकर अब तक 18 करोड़ रोजगार देने थे, लेकिन अब हेडलाइंस में अमृतकाल और 2047 तक विश्वगुरु बनने पर केंद्रित कर दिया गया है।

अच्छी बात यह है कि देश में आज भी कुछ अर्थशास्त्री और आर्थिक-कृषि एवं राजनीतिक मामलों के विशेषज्ञ बचे रह गये हैं, जो एक बार फिर से जीडीपी, प्रति व्यक्ति आय और देश में बढ़ती असमानता की चर्चा को सार्वजनिक मंच पर लाने के लिए प्रयासरत हैं।

पिछले दो दिनों से द हिंदू अखबार ने अपने एडिटोरियल में अरुण मैरा और नलिनी सिंह के लेखों के जरिये 5 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था को लेकर कुछ बुनियादी प्रश्नों को पेश करने की कोशिश की है, जिसके बारे में नीति आयोग के प्रमुखों की ओर से आकर्षक लेकिन गैर-तथ्यात्मक नारों को बीच-बीच में उछाला जाता है, जिसको लेकर भारतीय विपक्षी दलों की ओर से कोई प्रतिवाद शायद ही कभी आता है।

नलिनी सिंह ने अपने लेख का आधार 2028 में भारतीय प्रधानमंत्री के विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था के दावे को बनाया है, जिसके 5 ट्रिलियन डॉलर के छूने की बात कही गई है। हालांकि नलिनी सिंह ने एक तरह से भाजपा के लिए 5 ट्रिलियन की बाधा को 2028 तक खिसकाकर काफी आसान बना दिया है, जो कि वास्तविकता में उसे 2023-24 में ही हासिल कर लेना था।

यूपीए सरकार के 10 वर्षों की रफ्तार के हिसाब से इसे हासिल किया जा सकता था, लेकिन अब इसके लिए 5 वर्ष और इंतजार करना होगा। लेकिन नलिनी सिंह ने तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाने और उसकी हकीकत को लेकर कुछ जरूरी सवाल, सरल शब्दों में पूछे हैं, जिसका निश्चित रूप से आम पाठकों पर असर पड़ेगा।

5 ट्रिलियन इकोनॉमी में ठाकुर का नया कुआं

मौजूदा समय में भारतीय अर्थव्यवस्था 3.8 ट्रिलियन डॉलर के साथ आगे बढ़ रही है, जो 5-6 फीसदी सालाना विकास दर के साथ आसानी से 2028 तक 5 ट्रिलियन डॉलर को छू लेगी। लेकिन यहां सवाल यह है कि इस 5 ट्रिलियन डॉलर में 120 करोड़ लोग के लिए क्या है? फिलहाल प्रति व्यक्ति आय तो 2,400 डॉलर प्रति वर्ष है, और 194 देशों की सूची में भारत का स्थान 149 वां है। 5 ट्रिलियन डॉलर इकोनॉमी बन जाने से क्या हम प्रति व्यक्ति आय के मामले में 149वें पायदान से दुनिया के पहले 10 देशों की पांत में खड़े हो सकते हैं? कोई सवाल ही नहीं उठता।

विश्व बैंक के अनुसार 2022 तक दुनिया में कुल जीडीपी 100.56 ट्रिलियन डॉलर थी। अमेरिका 25.46 ट्रिलियन डॉलर के साथ पहले, चीन 17.96 ट्रिलियन डॉलर के साथ दूसरे, जापान 4.23 ट्रिलियन डॉलर के साथ तीसरे, जर्मनी 4.07 ट्रिलियन डॉलर के साथ चौथे और भारत 3.38 ट्रिलियन डॉलर के साथ पांचवे स्थान पर काबिज था।

पिछले कुछ वर्षों में भारत की विकास दर विश्व में पहले स्थान पर है, जिसके पीछे चीन की घरेलू नीतियां जिम्मेदार हैं। आज भारत 5-6 फीसदी विकास दर के साथ चोटी पर बना हुआ है, जबकि यूपीए कार्यकाल में औसत वृद्धि दर 7-8% होने के बावजूद वह दूसरे स्थान पर था क्योंकि चीनी अर्थव्यवस्था दोहरे अंक के साथ छलांग लगा रही थी।

चीन ने पिछले 3 दशकों के दौरान बिना रुके अपनी अर्थव्यवस्था को रफ्तार दी थी, जो आज उस मुकाम पर पहुंच चुकी है, जिसमें उसे एक बार फिर से व्यापक बदलाव कर समूची आबादी को ही मध्य-वर्ग तक की श्रेणी में लाने की जिम्मेदारी है। इसके अलावा क्लाइमेट चेंज, आईए, रोबोटिक्स, 6जी, इलेक्ट्रॉनिक व्हीकल और चिप्स की रेस में आज उसका मुकाबला सीधे अमेरिका से है।

भारत 5 ट्रिलियन डॉलर इकोनॉमी में उन 80 करोड़ लोगों के साथ प्रवेश करने जा रहा है, जिनके लिए पीएम मोदी ने अगले 5 वर्षों तक 5 किलो मुफ्त अनाज देने का वादा किया है, जिसे मोदी की गारंटी कहा जा रहा है। इन 80 करोड़ लोगों को 10,000-15,000 रुपये मासिक कमाने का अवसर क्यों नहीं मुहैया कराया जा सकता? अगर ये 80 करोड़ लोग इतनी रकम कमाने लगें तो हम 5 की जगह 2030 तक 10 ट्रिलियन डॉलर के लक्ष्य को छू सकते हैं।

देशभर में भाजपा ही नहीं कांग्रेस और लगभग सभी क्षेत्रीय पार्टियां मुफ्त कैश वितरित करने की घोषणा कर रही हैं। याद कीजिये 2014 से पहले तक यही भाजपा जब विपक्ष में थी तो इनके नेता मनरेगा में ग्रामीण रोजगार को लोगों को भिखारी बनाये जाने की बात कह खिल्ली उड़ाती थी। लेकिन मनरेगा में तो काम के बदले में सरकार की ओर से पैसा दिया जाता था, लेकिन मोदी जी ने तो किसानों को 6,000 रुपये सालाना पीएम सम्मान निधि और 80 करोड़ लोगों को 5 किलो मुफ्त अनाज देकर बता दिया है कि देश की हालत किस कदर खराब कर दी गई है।

यह सही है कि कोविड-19 से पहले ही भारतीय अर्थव्यवस्था पटरी से उतर चुकी थी, जो कोरोना महामारी के बाद K-shape में बढ़ते हुए तेजी से देश के चंद अमीरों को और भी अधिक अमीर बनाने की राह पर सरपट दौड़ रही है। दूसरी तरफ 90 के दशक के बाद 20 वर्षों के दौरान जो कुछ करोड़ लोग गरीबी की रेखा से उठकर मध्यवर्ग के जीवन का आनंद उठाने लगे थे, उसमें से आधी संख्या फिर से गरीबी रेखा में समा चुकी है। लेकिन मोदी सरकार ही नहीं बल्कि भारतीय विपक्ष तक को इस बात की परवाह नहीं है, जो बताता है कि असल में 80 फीसदी लोगों के वास्तविक मुद्दों की लड़ाई लड़ने के लिए भी कोई नहीं खड़ा है।

लेकिन यदि हम अपने आसपास नजर दौड़ाएं तो पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल सहित श्रीलंका जैसे सभी देश आज विश्व बैंक और आईएमएफ सहित वल्चर कैपिटल के दरवाजे पर भीख का कटोरा लेकर खड़े हैं। ये संस्थाएं कुछ नहीं बल्कि संयुक्त राज्य अमेरिका की नव-साम्राज्यवादी नीतियों को आगे बढ़ाने के लिए ही बनाई गई थीं, जिनका काम एक और अर्जेंटीना खड़ा करने से अधिक नहीं है।

यूपीए शासन तक भारत सरकार के ऊपर 55 लाख करोड़ का कर्ज था, जो अब बढ़कर करीब 167 लाख करोड़ हो चुका है। देश की जीडीपी भले ही पिछले 9 वर्षों में दोगुनी न हुई हो, लेकिन सरकार ने कर्ज को तीन गुना अवश्य कर दिया है, जिसकी वसूली हर साल बजट में शिक्षा, स्वास्थ्य, शोध और सामाजिक कल्याण के विभिन्न मदों में कटौती करके किया जा रहा है। हाल के दिनों में भारत सरकार ने विदेशी संस्थागत संस्थाओं के लिए भी बांड के जरिये निवेश के रास्ते खोले हैं।

आज हम रिकॉर्ड आयात-निर्यात घाटे को अनिवासी भारतीयों द्वारा भेजे जाने वाले डॉलर से चुकता कर पा रहे हैं, लेकिन बिना किसी ठोस समावेशी आर्थिक नीति के उधार में घी पीकर कितने दिनों तक वोटबैंक के लिए रेवड़ी बांटी जायेंगी, और कब तक हम श्रीलंका, पाकिस्तान या अर्जेंटीना की तरह भारतीय संप्रभुता को ताक पर रखने से रोक पाने में सफल रहेंगे?

(रविंद्र पटवाल जनचौक की संपादकीय टीम के सदस्य हैं।)

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