राजस्थान चुनाव: कल तक जीत के लिए आश्वस्त भाजपा का ग्राफ तेजी से क्यों गिरता जा रहा है?

नई दिल्ली। आगामी विधानसभा चुनावों के मद्देनजर राजस्थान में सत्तारूढ़ कांग्रेस और मुख्य विपक्षी पार्टी भाजपा की ओर से अपनी जीत के लिए लगातार रणनीति बनाई जा रही हैं, और विपक्ष के खिलाफ हमले बोले जा रहे हैं। राजस्थान का चुनावी इतिहास बताता है कि यहां के लोगों को अपने मुख्यमंत्री का चेहरा 5 वर्ष के भीतर अखरने लगता है, और वे दलों के राज को बदलकर दूसरे दल के लुभावने वायदों पर अधिक भरोसा कर उन्हें आजमाने के लिए मन बनाते आये हैं। कांग्रेस पार्टी के मौजूदा मुख्यमंत्री अशोक गहलोत भी इसी बारी-बारी वाले कार्यकाल में तीन बार राज्य की कमान संभाल चुके हैं।

भाजपा नेता वसुंधरा राजे सिंधिया भी 2003 और 2013 में राजस्थान के मुख्यमंत्री पद पर रह चुकी हैं, और नियम के मुताबिक दिसंबर 2023 में राजस्थान की जनता उन्हें तीसरी बार मौका देती। उधर अशोक गहलोत ने इस बार चुनावी व्यूह रचना में भारी उलटफेर कर, राजस्थान में कांग्रेस की सरकार को रिपीट करने के लिए पिछले कुछ माह से जी-जान से प्रयास करने शुरू कर दिए थे। सूत्रों की मानें तो अशोक गहलोत की दिली ख्वाहिश है कि वे आधुनिक राजस्थान की नींव रखने वाले मोहनलाल सुखाड़िया के 17 वर्षों के शासनकाल के पद-चिन्हों पर चलते हुए लगातार दूसरी बार जीत का सेहरा अपने नाम बांध लें।

लेकिन 3 महीने पहले तक जहां अशोक गहलोत के खेमे से दावा किया जा रहा था कि 2023 विधानसभा में कांग्रेस 150+ सीटों के साथ भारी बहुमत से जीतने जा रही है, के जवाब में भाजपा की ओर से साफ कहा जाता था कि कांग्रेस के इतने विधायक होंगे कि उन्हें एक कार में विदा किया जा सकेगा। भाजपा नेता वसुंधरा राजे ने प्रदेश में घूम-घूमकर लोगों से मुलाकातों का सिलसिला भी शुरू कर दिया था।

लेकिन शायद भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने इस बार राजस्थान के लिए निर्णायक फैसला लिया हुआ है, क्योंकि इस बार पार्टी का कहना है कि प्रदेश के लिए इस बार किसी व्यक्ति विशेष के चेहरे पर मुख्यमंत्री का चुनाव नहीं लड़ा जायेगा। ऐसे में जान पड़ता है कि अशोक गहलोत वाकई में किस्मत के धनी हैं, और उनके सितारे इधर बुलंदियों पर हैं।

वसुंधरा राजे बनाम मोदी-शाह की अघोषित लड़ाई

राजनीतिक हलकों में ऐसा माना जाता है कि मोदी-शाह और वसुंधराराजे के बीच में मधुर रिश्ते पहले भी कभी नहीं थे। 2003 में वसुंधरा राजे अपने चेहरे पर राजस्थान राज्य की मुख्यमंत्री बनी थीं, जबकि 2002 में नरेंद्र मोदी मनोनीत मुख्यमंत्री थे। इससे पहले उनके पास सार्वजनिक राजनीति का कोई अनुभव नहीं था।

वसुंधरा राजे खुद को मोदी के मुकाबले वरिष्ठ नेता मानती हैं, और राज परिवार से ताल्लुक रखने के चलते भी उनकी रुचि-अरुचि आम राजनीतिज्ञों से भिन्न हो सकती है, जो अपने राजनैतिक कैरियर की रक्षा के लिए दरबारी बनने के लिए सिर के बल कहीं भी हाजिर हो सकते हैं। मध्य प्रदेश इसका उदाहरण है, और वहां इसी वजह से शिवराज सिंह चौहान को मुख्यमंत्री के चेहरे के तौर पर खुद की दावेदारी को साबित करने के लिए क्या-क्या पापड़ बेलने पड़ रहे हैं, से सभी सुधी पाठक अच्छी तरह से परिचित हैं।

केंद्रीय नेतृत्व ने पहले कार्यकाल में इसे किसी तरह बर्दाश्त किया, लेकिन अब जबकि यूपी में भी कुछ इसी प्रकार की शक्सियत पहले से मौजूद है तो ऐसे में राजस्थान में भी हुक्म-उदुली करने वाला मुख्यमंत्री शायद ज्यादा हो जाता है, इसी को ध्यान में रखकर कर्नाटक की तरह राजस्थान में भी नए नेतृत्व को तरजीह देने का फैसला लिया गया। वसुंधरा राजे के लिए केंद्रीय नेतृत्व में शामिल होने के लिए राष्ट्रीय उपाध्यक्ष पद की पेशकश पिछले माह ही की जा चुकी थी।

लेकिन वसुंधरा राजे की ओर से 17 अगस्त तक का अल्टीमेटम दिया गया था। उन्हें अहसास है कि वे कम से कम 40 विधानसभा सीटों पर अपनी मजबूत पकड़ रखती हैं। कई राजनीतिक पर्यवेक्षकों का भी यह कहना है कि भले ही सिंधिया अपने दम पर चुनाव लड़कर राजस्थान में कुछ खास बदलाव लाने की हैसियत में नहीं हैं, और विद्रोह की सूरत में उनका भी वही हश्र होगा जैसा कि यूपी में पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह और मध्य प्रदेश में उमा भारती का हुआ था, लेकिन इतना तय है कि वे भाजपा को एक विधानसभा चुनाव तो हरवा ही सकती हैं।

अशोक गहलोत का राजनीतिक कौशल और किस्मत कनेक्शन

मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के बारे में चर्चा है कि अपने पूर्व के कामकाज की स्टाइल में उन्होंने इस बार बड़ा बदलाव किया है। संभवतः इस बार वे अपनी पिछली चुनावी शिकस्त (2013 में 200 सीटों वाले विधानसभा में कांग्रेस को 21 सीटें ही हासिल हुई थीं) के कारणों को पीछे छोड़ प्रो-एक्टिव तरीके अपना रहे हैं। वे राजस्थान की रोटी को अलट-पलट करने की परंपरा को बदलने के लिए कृत-संकल्प दिख रहे हैं।

इसके लिए अशोक गहलोत ने एक के बाद एक जन-कल्याणकारी योजनाओं को लागू करना शुरू कर दिया था। इसमें 1.40 करोड़ महिलाओं-बालिकाओं को स्मार्टफोन वितरण बेहद लोकप्रिय हो रहा है। इसके अलावा अन्नपूर्णा राशन किट योजना के तहत राज्य में 1.04 करोड़ परिवारों को हर माह एक-एक किलो चना दाल, चीनी, आयोडीन युक्त नमक और रिफाइंड खाद्य तेल दिया जा रहा है।

इसके अलावा, 100-100 ग्राम मिर्च और धनिया पाउडर के साथ-साथ 50 ग्राम हल्दी पाउडर का मुफ्त वितरण किया जा रहा है। इनमें से कुछ योजनायें दक्षिणी राज्यों में बेहद लोकप्रिय रही हैं, और खाद्य वितरण के बल पर उत्तर प्रदेश में बीजेपी ने गरीब मतदाताओं के बड़े हिस्से को अपने पक्ष में कर चुनाव में जीत दर्ज की थी।

लेकिन अशोक गहलोत ने इसके अलावा भी कई कदम चुनाव से ठीक पहले उठाकर कांग्रेस की स्थिति को लगभग अभेद्य बना डाला है। वर्ष 2020-21 के बजट में ‘मुख्यमंत्री चिरंजीवी स्वास्थ्य बीमा योजना’ की घोषणा की थी। इसमें राज्य के सभी परिवारों को पांच लाख रुपये तक का कैशलेस स्वास्थ्य बीमा दिया गया है। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का दावा है कि इस योजना के साथ राजस्थान देश का ऐसा पहला राज्य बन गया है, जहां प्रत्येक परिवार को प्रति वर्ष पांच लाख रुपये का स्वास्थ्य बीमा मिल रहा है।

इतना ही नहीं गिग वर्कर्स की बढ़ती संख्या को देखते हुए अशोक गहलोत सरकार ने विधानसभा में गिग वर्कर्स की सामजिक सुरक्षा के लिए विधेयक पारित कराया है, जिसे देश में न तो केंद्र सरकार और न ही किसी राज्य में लागू किया गया है।

इसके अलावा एक और बात ध्यान आकर्षित करती है, वह है पीएम मोदी की राजस्थान यात्रा के दिन अशोक गहलोत सरकार कोई न कोई ऐसी घोषणा करने लगी है, जिसके चलते मीडिया का ध्यान बंट जाता है, और पीएम मोदी के भाषणों के तीखे तेवर भोथरे हो रहे हैं, और आम लोगों का ध्यान कांग्रेस की नई कल्याणकारी घोषणा की ओर खिंच जाता है।

ऐसा माना जाता है कि अशोक गहलोत ने यह गुर पीएम मोदी की कमान से चुराया है, और बिना आक्रामक हुए वे इसे अब उन्हीं पर चला रहे हैं। इसके अलावा मीडिया में विज्ञापनों को लेकर भी कांग्रेस की राजस्थान सरकार ने इस बार व्यापक बदलाव किया है।

कांग्रेस की गुटबाजी का अंत, किंतु भाजपा में भारी उठापटक  

यह तो स्पष्ट है कि केंद्रीय नेतृत्व वसुंधरा राजे सिंधिया को राज्य की राजनीति में दरकिनार कर रहा है। 2 सितंबर से शुरू परिवर्तन यात्रा में वसुंधरा राजे की उपस्थिति औपचारिकता की सीमा से आगे नहीं बढ़ी है। वे अपने कोप भवन में हैं और उनके समर्थक भाजपा नेतृत्व के खिलाफ बयानबाजी कर रहे हैं।

पिछले दिनों वयोवृद्ध एवं बेहद प्रतिष्ठित नेता और अब भाजपा से निलंबित विधायक कैलाश मेघवाल ने केंद्रीय मंत्री अर्जुन मेघवाल के खिलाफ एक के बाद एक जिस प्रकार से मोर्चा खोल दिया था, उसने भाजपा खेमे में खलबली मचा दी थी, और जो बातें राजस्थान में दबी-छुपी जुबान से चर्चा की जाती थी, वह राष्ट्रीय चर्चा का विषय बन गई हैं।

इसी प्रकार एक अन्य वरिष्ठ विधायक सूर्यकांता व्यास की गहलोत की खुलकर तारीफ़ करना भी चर्चा का विषय बना हुआ है। राजस्थान में माना जा रहा है कि इस सबके पीछे वसुंधरा राजे का समर्थन है, और जैसे-जैसे चुनाव की तारीख नजदीक आने लगेगी, भाजपा के लिए मुसीबतों का पहाड़ खड़ा होने जा रहा है।

पायलट बनाम गहलोत की नूराकुश्ती का अंत

4 साल तक कांग्रेस शासन में ये मतभेद व्यापक स्तर पर बने हुए थे, और एक बार तो मध्य प्रदेश की तर्ज पर सचिन पायलट बगावत भी कर चुके थे। इसके बाद भी लंबे समय तक अशोक गहलोत और सचिन पायलट के बीच की कड़ुवाहट जब-तब सार्वजनिक मंचों पर फूट पड़ती थी। हाल ही में सचिन पायलट ने पूर्ववर्ती सरकार के भ्रष्टाचार पर अशोक गहलोत सरकार के आंखें मूंदे होने का विरोध जताकर विरोध प्रदर्शन और धरना तक आयोजित किया।

किंतु बाद के दौर में कर्नाटक जीत और भारत जोड़ो यात्रा की सफलता और कांग्रेस सहित विपक्षी दलों के एकजुट होने की पृष्ठभूमि में दोनों नेताओं की सुलह ने अचानक से राजस्थान की राजनीति को पलट कर रख दिया है। भाजपा पिछले 4 वर्षों से इसी ताक में बैठी थी कि पंजाब, उत्तराखंड और मध्य प्रदेश की तुलना में राजस्थान में तो और घमासान मचने ही वाला है, ऊपर से सचिन पायलट ही मुख्य विपक्षी दल की भूमिका का निर्वहन कर रहे हैं। ऐसे में 2023 में भाजपा के हाथ में बंपर जीत के साथ सत्ता का हस्तांतरण कुछ उसी प्रकार से होगा, जैसा केंद्र में 2014 में हुआ था।

लेकिन अब हालात पूरी तरह से बदल गये हैं। अशोक गहलोत ने भी कुछ हलकों में इसे अपना अंतिम चुनाव बताकर कर्नाटक के सिद्धारमैया की तरह जताने की कोशिश की है कि इसके बाद सचिन पायलट के लिए मार्ग निष्कंटक रहने वाला है। सचिन पायलट के पास उम्र है और लंबा राजनैतिक कैरियर है, बगावत का हश्र वे पड़ोसी राज्य में सिंधिया के रूप में देख शायद सबक ले चुके हैं।

भाजपा के हाथ में क्या है?

ऐसा लगता है कि भाजपा के हाथ में फिलहाल पूर्व बसपा विधायक और बाद में कांग्रेस के पाले में आने वाले राजेंद्र गुढा की लाल डायरी ही रहने वाली है। इसे जब-तब राज्य और केंद्र के नेता अपनी राजस्थान यात्रा के दौरान दुहराते हैं, लेकिन इसको लेकर जो सनसनी राष्ट्रीय मीडिया के द्वारा बनाई गई थी, वह अब ठंडी पड़ने लगी है। 2 सितंबर से भाजपा की परिवर्तन यात्रा को हरी झंडी देने का काम भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा द्वारा किया गया था। इस मौके पर राजस्थान के प्रदेश प्रभारी अरुण सिंह, प्रदेश अध्यक्ष सीपी जोशी, नेता प्रतिपक्ष राजेंद्र राठौड़, पूर्व सीएम वसुंधराराजे समेत अन्य भाजपा नेता मौजूद थे।

पहले दौर की परिवर्तन यात्रा करीब 1854 किलोमीटर का सफर तय करते हुए 47 विधानसभा क्षेत्रों से गुजरी है। यात्रा का समापन 19 सितंबर को जयपुर में बड़ी जनसभा के साथ हुआ है, जिसमें लगभग 68 सभाओं का आयोजन किया गया। लेकिन सभा में बेहद कम भीड़ उमड़ने से भाजपा नेतृत्व उहापोह की स्थिति में है।

उसे अभी भी तय करना है कि क्या वह राजस्थान को भी कर्नाटक की राह में धकेलकर भी केंद्र में तीसरी बार भी नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता के बल पर 2024 का चुनाव जीत सकती है, या इस बीच इंडिया गठबंधन और भारत जोड़ो यात्रा-पार्ट 2 पिछले वर्ष आयोजित पार्ट-1 के भी रिकॉर्ड को तोड़ राहुल गांधी की छवि को कुछ उसी प्रकार से निर्मित करने जा रही है, जिसमें खुद नरेंद्र मोदी 2014 के मनमोहन सिंह वाले किंकर्तव्यविमूढ़ वाली गति को प्राप्त होने वाले हैं?

(रविंद्र पटवाल ‘जनचौक’ की संपादकीय टीम के सदस्य हैं।)

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