बढ़ रहे राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय दबाव के आगे सरकार भले ही झुक गई हो, पर 15 जून को चार्जशीट दाखिल होने पर ही समझ में आएगा सरकार की मंशा क्या है। क्या भाजपा अपने सबसे ‘भरोसेमंद’ राजपूत बाहुबली का बलिदान करेगी? क्या बाबरी मस्जिद विध्वंस में अहम् भूमिका निभाने वाले, रथ यात्रा में आडवाणी के सारथी और गोंडा, बलरामपुर, बहराइच और श्रावस्ती व अयोध्या तक राजनीतिक दबदबा रखने वाले बाहुबली माफिया बृजभूषण पर सख्त कार्रवाई सत्ताधारी दल को चुनाव पूर्व भारी पड़ेगी? इन सवालों पर अटकलें जो भी हों, संघर्ष को कई कठिन मोड़ों से गुज़रना पड़ेगा। फिलहाल तो नाबालिग बच्ची के पिता का बयान ही चौंकाने वाला है।
खेल मंत्री अनुराग ठाकुर से बातचीत में पहलवानों ने कुछ कठिन शर्तें रखी हैं- मसलन डब्लूएफआई के चुनाव तत्काल कराना, फेडरेशन के लिए महिला अध्यक्ष चुनना, बृजभूषण के परिवार को डब्लूएफआई से हटाना और खिलाड़ियों पर दायर फ़र्ज़ी मुकदमे वापस लेना। अब देखने की बात है कि सरकार चालाकी से उलझाव से अपने को किसी तरह निकालती है या डब्लूएफआई की पूर्ण सफाई कर स्वस्थ माहौल बनाती है, ताकि पहलवानों का विश्वास कायम रहे।
हर हाल में लड़ाई जारी रखनी होगी
पहलवानों की लड़ाई में पितृसत्ता को हमने नग्न और क्रूर रूप में देखा है। जब देश ने सुना था कि महिला खिलाड़ी अपने पदक गंगा में बहाने जा रहे हैं और सरकार इस काम को सुचारू रूप से संपन्न कराने के लिए सारे इन्तेजाम कर रही थी, सभी का मन विषाद से भर गया। तमाम राष्ट्रीय खिलाड़ी भी आक्रोषित हुए थे।
इस देश की सत्ता महिला खिलाड़ियों को किस हद तक अपमानित करना चाहती थी, इसका सबूत मिला। उन्हें झूठा ठहराया गया, उनके पदकों को ‘15 रु की चीज़’ बताया गया। उनसे पुरस्कार के पैसे वापस मांगे जाने लगे। नौकरी पर वापस जाने को भी मुद्दा बनाया गया- यानि ट्रोल ब्रिगेड चिल्लाने लगा “आंदोलन छोड़ दो या नौकरी, दोनों साथ नहीं चलेंगे” मानों नौकरी काबिलियत पर नहीं, सहानुभूति के आधार पर दी गई हो।
यहां तक कि झूठा प्रचार चलाया गया कि खिलाड़ी संघर्ष का मैदान छोड़कर नौकरी पर लौट गए और नाबालिग लड़की ने केस वापस ले लिया। कुल मिलाकर हम देख सकते हैं कि किस हद तक इन महिलाओं को मानसिक रूप से ध्वस्त करने की साजिश चलती रही। एक ओर लड़कियों को सड़कों पर घसीटा गया, उन्हें रुलाया गया तो दूसरी ओर बृजभूषण लगातार हीरो बनकर मीडिया में साक्षात्कार देता रहा और नारको टेस्ट की चुनौति देता रहा।
यह सब कैसे संभव हो रहा था? दिमाग में सवाल उठते हैं-क्या पुरुष प्रधान समाज को इन बेटियों द्वारा दी गई चुनौति कभी पची ही नहीं थी और आज उसे बदला लेने का मौका मिला है? क्या सत्ताधारी दल सचेत रूप से समाज में दबे हुए सामंती महिला-विरोधी सोच को फलने-फूलने का मौका दे रहा है? क्या महिलाओं को न्याय मिलना अब इतना ही कठिन होगा?
क्यों औरतों से डर रहे हैं तानाशाह?
वर्तमान सत्ताधरियों ने सीएए-एनआरसी विरोधी आंदोलन के समय अच्छी तरह समझ लिया कि महिलाएं नया इतिहास लिख रही हैं। शाहीनबाग के संघर्ष और उसके समर्थन में जगह-जगह चले आंदोलनों में छात्राओं और महिलाओं ने जो मिसाल पेश की उसने 21वीं सदी में नया इतिहास रचा है। कड़कड़ाती ठंड में औरतें अपने बच्चों को लेकर सड़क पर जिस क्रान्तिकारी जज़्बे के साथ रातें गुज़ार रही थीं, उसको देखकर विदेशी मीडिया तक दंग थी।
किसान आन्दोलन में भी महिलाओं ने कंधे-से-कंधा मिलाकर संघर्ष की मशाल जलाए रखी थी। शायद अब वह समय लद गया है जब युवतियों और महिलाओं को केवल कुछ साड़ी, मिक्सी, कंबल, स्कूटी और गैस कनेक्शन देकर लुभाया जा सकता है। औरतें भारी संख्या में राजनीतिक दंगल में प्रवेश चुकी हैं, और भले ही उन्हें संसद व विधान सभाओं में आरक्षण से वंचित रखा जाए, वे भारतीय राजनीति का स्वरूप और भविष्य को तय करने के लिए कमर कस रही हैं।
महिलाओं ने अपने दम पर जीत हासिल की
छात्राएं जब 10वीं और 12वीं में टाॅप करती हैं, जब पीसीएस व आईएएस में रैंक लाती हैं, या विज्ञान के क्षेत्र में नए अनुसंधान करती हैं, छोटे-बड़े कारोबार चलाती हैं, जब कंपनियों में सीईओ बनकर सफलता के नए मुकाम हासिल करती हैं, जब खेलों में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पदक जीतकर देश का नाम रोशन करती हैं, तो सुर्खियां बनती हैं। मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री उनके लिए पुरस्कार की घोषणा करते हैं या उनको चाय पर बुलाते हैं और साथ में फोटो खिंचाते हैं। फिर क्या कारण है कि वही लड़कियां या महिलाएं जब अपने हक के लिए आवाज़ बुलंद करती हैं, तो पितृसत्ता के अलंबरदार और उनके भक्त चींखने-चिल्लाने लगते हैं और अभिजात्य वर्ग चुप्पी साध लेता है?
आखिर जब देश की बेटियों और महिलाओं ने अपनी मेहनत के बल पर कामयाबी हासिल की है, तो उन पर टिप्पणी करने वाले और उन्हें कंट्रोल करने वाले ये होते कौन हैं? इसलिए महिला पहलवानों के संघर्ष के निहितार्थ को समझना होगा- ये महज कुछ खिलाड़ियों की एक उत्पीड़क के विरुद्ध लड़ाई नहीं है। यह संघर्ष उस सोच के खिलाफ है जो औरतों को अपनी कठपुतली समझती है- जब चाहा पुरस्कृत और महिमामंडित किया और जब चाहा अपमानित कर गर्त में ढकेल दिया।
इसी कहानी के कितने ही आयाम हम देख चुके हैं- धर्म में, राजनीति में- संसद, विधान सभाओं से लेकर स्थानीय निकायों में, फिल्म जगत में, खेल जगत में और आम समाज में। औरतें जब जब बोलीं हैं, उन्हें हिंसा का शिकार बनाया गया और उनकी हत्याएं हुई हैं। कभी-कभी तो अवसाद की स्थिति में पहुंचाकर उन्हें पागल घोषित किया गया, जिसके चलते वे आत्महत्या तक के लिए मजबूर हुईं।
हमारे धर्म ग्रंथों में भी अहिल्या, सीता, शकुंतला, गांधारी, द्रौपदी और सूर्पनखा उत्पीड़ित व अपमानित की गईं। मूल रूप में तब से अब तक कुछ बदला नहीं है। इसलिए औरतों की लड़ाई जारी है और रहेगी। बल्कि जैसे-जैसे लड़ाई तेज़ होगी पितृसत्ता भी अपने मुखौटे उतारकर और भी वीभत्स और नग्न रूप में प्रकट होगी। इसी को हम कह सकते हैं महिला दावेदारी के विरुद्ध एक ‘बैकलैश’।
भारत की महिला पहलवान और पितृसत्ता का दंश
विनेश फोगाट के ताऊ महावीर फोगाट ने एक साक्षात्कार में कहा था कि उनके पिता से उन्हें पहलवानी विरासत में मिली थी। पर वे इस विरासत को किसे सौंपते जबकि उनकी 4 बेटियां थीं और भाई की भी 2 थीं? उन्होंने तय कर लिया कि वे खुद अवसर के अभाव में भले ही अंतर्राष्ट्रीय खिलाड़ी न बन सके, अपना सपना अपनी बेटियों के जरिये पूरा करेंगे। क्या यह मर्दवादी समाज में, खासकर हरियाणा के समाज में आसान रहा होगा? फोगाट ने बताया कि पितृसत्ता की जड़ें बहुत गहरी हैं। एक तो उस समय पहलवानी में लड़किया नहीं थी तो अपोनेंट किसी पुरुष को ही बनाना पड़ता। उन्हें लड़की के साथ कुश्ती लड़ने में शर्म महसूस होती और लगता कि कहीं हार गए तो समाज के सामने मुंह दिखाने लायक नहीं रहेंगे।
एक समय नारी भ्रूण हत्या के लिए बदनाम रहा यह राज्य, जहां बेटी पैदा होना अभिशाप माना जाता था और 2011 के आंकड़ों के अनुसार 1,000 लड़कों में केवल 833 लड़कियां (जन्म के समय) होती थीं, आखिर महावीर को अपना सपना कैसे पूरा करने देता? उन्हें गालियां पड़ीं, उनका मज़ाक बना और उन्हें जलालत सहनी पड़ी। कोई भी पिता पीछे हट जाता पर महावीर का अपनी बेटियों के प्रति लगाव उन्हें पितृसत्ता से टक्कर लेने की ताकत प्रदान करता रहा।
वे बताते हैं कि विपक्षी खिलाड़ी को पता न लगे इसलिए वे अपनी बेटियों को लड़कों के पोषाक में और बाल कटवाकर रखते और उनसे कड़ी मेहनत करवाते। दंगल फिल्म में एक गीत है- “बापू तुम तो हमारी सेहत के लिए हानिकारक हो…।’’ हां, मर्दवादी व्यवस्था से टक्कर लेने के लिए वे अपनी बेटियों को कठोर और मेहनती बना रहे थे। वे बताते हैं कि “किसी पुरुष पहलवान को जब पता चलता कि वह एक महिला से हार गया, उसे इतनी ग्लानि होती कि वह रोने लगता और कुश्ती न लड़ने की प्रतिज्ञा करता। गांव-धर के लोग उसे ताने मारते।”
फिर भी महावीर अपने मिशन में कामयाब रहे। उन्होंने परिवार की छः बेटियों के साथ आस-पास के गांवों की कितनी लड़कियों को प्रशिक्षण और प्रेरणा दी। उन्होंने भारत की महिला पहलवानों को विश्व पटल पर खड़ा किया; भारत का झंडा ऊंचा किया। उन्हें किस कदर तकलीफ हुई होगी जब उनके शागिर्द नदी में पदक बहाने निकले होंगे, इसकी कलपना करना हमारे लिए मुश्किल है।
भारत की पहली महिला पहलवान को भी झेलनी पड़ी थी यातना
पर क्या लोग जानते हैं कि भारत की पहली महिला पहलवान को इससे भी अधिक यातना झेलनी पड़ी थी। मिर्जापुर की हमीदा बानो- 5 फुट 3 इंच का कद और 104 किलो वज़न- कैसे कुश्ती से गायब कर दी गई थीं? हमीदा बानो ने कम-से-कम 300 कुश्तियां जीती थीं। हमीदा ने घोषणा की थी कि जो उसे हरा सकेगा वही उसका शौहर बनेगा। लोग बताते हैं कि वह अपने कोच सलाम पहलवान के संग रहती थीं। लेकिन पुरुष उससे मुकाबला करना नहीं चाहते थे।
जब उन्होंने शोभा सिंह पंजाबी को परास्त किया, लोग बर्दाश्त नहीं कर पाए। पितृसत्ता की चूलें हिल गई थीं। हमीदा पर पत्थर बरसाए गए। बाद में जब कुश्ती प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेने वह यूरोप जाने की इच्छा ज़ाहिर करने लगीं, तो उनको लाठियों से पीट-पीटकर सलाम ने पैर-हाथ की हड्डियां तोड़ दीं। चल पाना तक मुश्किल हो गया। वह कोच सलाम की संपत्ति बन चुकी थीं- भला उनकी मर्ज़ी के बगैर कैसे जा सकती थीं? हमीदा के हाथ-पैर तो क्या, उनके मनोबल को तोड़ दिया गया था। द्रोणाचार्य और एकलव्य वाली कहानी दोहराई गई। इसके बाद हमीदा कुश्ती की दुनिया से गायब हो गई थीं।
क्या इतिहास दोहराया जा रहा है?
हमने अपनी इंटरनेशनल विजेता पहलवानों को जंतर-मंतर पर बिलख-बिलखकर रोते देखा है। हमने सुना कि ओवरसाइट कमेटी में बयान लेते समय विश्व बाॅक्सिंग चैंपियन मेरी काॅम खुद अपने साथ हुए यौन उत्पीड़न को याद कर रोती रहीं। इनके पास शारीरिक बल जरूर है पर राजनीतिक पैंतरे खेलने की ट्रेनिंग नहीं। शायद पहली बार अहसास कराया गया कि पहलवान खिलाड़ी नहीं, हरियाणा के जाट हैं जिनका साबका सत्ताधारी दल के एमपी और एक राजपूत बाहुबली से पड़ा है।
उन्हें बताया गया वे पहलवान नहीं, महिला हैं, जिनके साथ अभद्र व्यवहार विश्व के किसी भी जगह हो सकता है, किसी के भी द्वारा हो सकता है। और कानून बाहुबलियों के सामने पंगु रहेगा। क्या यह सब किसी के मनोबल को तोड़ने के लिए काफी नहीं है? क्या यह आधी आबादी को ज़लील करना नहीं है?
हम कैसे चुप बैठ सकते हैं?
अब आधुनिक महाभारत रचा जा रहा है। इस बार पितृसत्ता के हिमायती एक तरफ हैं- केवल बृजभूषण नहीं, बल्कि गृहमंत्री, प्रधानमंत्री, खेल मंत्री, यहां तक कि स्मृति इरानी, पीटी ऊषा और मेरी काॅम भी। साथ ही वे समस्त महिला सांसद, जिन्होंने महिला पहलवानों की चिट्ठी पढ़कर कूड़ेदान के हवाले कर दिया; भगवा आईटी सेल, ट्रोल ब्रिगेड से लेकर गोदी मीडिया भी। और दूसरी ओर वे सारे लोग हैं जो न्याय और लैंगिक बराबरी के पक्ष में खड़े हैं और जम्हूरियत की रक्षा करना चाहते हैं।
महाभारत की लड़ाई भी एक महिला के सम्मान के प्रश्न से आरंभ हुई थी। आज जाति-विभाजित समाज में जहां सत्ता के पास अकूत धन और काले कानूनों की ताकत है, और न जाने कितने हथकंडे हैं, हम महिलाओं की हैसियत दांव पर लगी है; हमको कमर कसनी होगी क्योंकि बृजभूषण पितृसत्ता के दम्भ का प्रतीक बना हुआ है। वह कुछ समय के लिए जेल चला भी जाए, फिर भी हमारे समाज में अनेकों बृजभूषण हैं। पितृसत्ता को शिकस्त देने की लड़ाई लंबी और जटिल होगी।
(कुमुदिनी पति, सामाजिक कार्यकर्ता हैं और इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्र संघ की उपाध्यक्ष रही हैं।)
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