क्या महिलाओं को आरक्षण 2029 में भी मिल सकेगा?

महिला आरक्षण विधेयक के पक्ष में 454 वोट पड़े, जबकि विरोध में केवल 2 वोट पड़े। इस तरह दिन भर की बहस के बाद महिला आरक्षण विधेयक पारित हुआ। पर उसके लागू होने के मामले में अनिश्चितता बनी हुई। यह अच्छी बात है कि नए संसद भवन में संसद का पहला सत्र, जो कि काफी हड़बड़ी और गोपनीयता के माहौल में बुलाया गया, किसी हिंदुत्व के ऐजेंडे को लेकर नहीं, महिलाओं के राजनीतिक सशक्तिकरण के प्रश्न पर केंद्रित रहा।

बिल पास हुआ। इसे नारी आंदोलन की बड़ी जीत माना जाना चाहिये, और इसका स्वागत किया जाना चाहिये। कमेटी ऑन द स्टेटस ऑफ वीमेन इन इंडिया रिपोर्ट 1974, ‘टुवर्ड्स इक्वाॅलिटी’ ने पहली बार महिलाओं के दोयम दर्ज़े पर प्रकाश डाला था, जिसके बाद ही 73वें और 74वें संविधान संशोधन विधेयक को लाया गया। आज 10 लाख महिलाएं ग्रामीण व शहरी स्थानीय निकायों को संभाल रही हैं। 

पर यह अजीब सी बात है कि इतने महत्वपूर्ण सवाल- महिला आरक्षण पर- विपक्ष को सत्र से पहले विश्वास में न लेकर उन्हें चौंकाने की कवायद की गई। डीएमके की कनिमोझी करुणानिधि ने सही ही इसे ‘जैक-इन-द-बाॅक्स’ की संज्ञा दी। लगता है यह एक चुनावी पासा है जो इस बार महिलाओं के वोट हथियाने के लिए फेंका गया है? आम चुनाव से पूर्व मृग-मरीचिका दिखाकर महिला वोट बैंक को सुदृढ़ करने पर फोकस ही प्राथमिक लगता है। वैसे तो भाजपा के पास अभी भी ऐसे कई हथकंडे हैं जो चुनाव में उसके काम आ सकते हैं, पर आम जनता पुराने सारे दांवों से थक और ऊब चुकी है।

वहीं हिंदू-मुस्लिम, मंदिर-मस्जिद, भारत-पाकिस्तान.. कितनी बार एक ही खेल खेला जाएगा? लोगों को भी ये खेल समझ में आने लगे हैं। तो इस बार जो दांव खेला गया उसका नाम है ‘नारी शक्ति वंदन अधिनियम’ जिसे 128वें संविधान संशोधन विधेयक के रूप में लाया गया है। अधिनियम का नाम भी काफी कुछ भाजपा के हिंदुत्व के ऐजेंडे के अनुरूप लगता है। अब देखने की बात यह है कि यह भी एक शिगूफा या जुमला बनकर न रह जाए।

संसद में पारित अधिनियम में क्या है?

विधि मंत्री अर्जुन राम मेघवाल द्वारा पेश महिला आरक्षण विधेयक 2023 में कहा गया है कि- संविधान के अनुच्छेद 239 एए में, खंड 2 में खंड बी के बाद, निम्नलिखित खंड जोड़े जाएंगे-

  • राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली की विधान सभा में महिला आरक्षण का प्रावधान होगा
  • अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित सीटों में से लगभग एक तिहाई सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित की जाएंगी
  • राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली की विधान सभा में प्रत्यक्ष चुनाव द्वारा भरी जाने वाली सीटों की कुल संख्या का लगभग एक तिहाई, जिसमें अनुसूचित जाति की महिलाओं के लिए आरक्षित सीटें भी शामिल हैं, संसद में इस तरह आरक्षित की जाएंगी जैसा विधि द्वारा निर्धारित किया जाएगा

संविधान के अनुच्छेद 330 के बाद जोड़ा जाएगा-

  • 330 ए 1 लोकसभा में महिलाओं के लिए सीटें आरक्षित होंगी।
  • अनुच्छेद 330 के खंड 2 के तहत आरक्षित सीटों में से लगभग एक तिहाई सीटें अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति की महिलाओं के लिए आरक्षित होंगी।
  • लोकसभा में सीधे चुनाव द्वारा भरी जाने वाली सीटों की कुल संख्या में से लगभग एक तिहाई (अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति की महिलाओं के लिए आरक्षित सीटों की संख्या सहित) महिलाओं के लिए आरक्षित होंगी।

संविधान के अनुच्छेद 332 के बाद जोड़ा जाएगा-

  • प्रत्येक राज्य की विधान सभा में महिलाओं के लिए सीटें आरक्षित होंगी
  • अनुच्छेद 332 के खंड 3 के तहत आरक्षित सीटों में से लगभग एक तिहाई सीटें अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति की महिलाओं के लिए आरक्षित होंगी
  • प्रत्येक राज्य की विधान सभा में सीधे चुनाव द्वारा भरी जाने वाली सीटों की कुल संख्या में से लगभग एक तिहाई (अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति की महिलाओं के लिए आरक्षित सीटों की संख्या सहित) महिलाओं के लिए आरक्षित होंगी।

इन पर कई बार बहसें भी आ चुकी हैं। पर विधेयक को पेश करने से पहले इन बहसों के मद्देनज़र कोई मेहनत नहीं की गई न ही तमाम दलों से बातचीत कर उनके सवालों को संज्ञान में लिया गया। क्या श्रेय लेने की प्रतियोगिता में अव्वल आकर दिखाना था कि मोदी जी महिलाओं के सबसे बड़े हितैषी हैं? क्या इसीलिए बेटी बचाओ, टाॅयलेट, एलपीजी से लेकर तीन तलाक पर कानून को गिनाया जा रहा था, जिनका हश्र हम देख चुके हैं?

2024 में नहीं, तो महिला आरक्षण का प्रावधान कब तक टलेगा?

विधेयक में अनुच्छेद 334ए के माध्यम से पहले ही स्पष्ट कर दिया गया है अधिनियम के प्रारंभ होने के बाद की गई पहली जनगणना के प्रासंगिक आंकड़े प्रकाशित किए जाने के बाद और तत्पश्चात परिसीमन की प्रक्रिया को पूरा करने के बाद ही यह अधिनियम लागू होगा। अब यह भी समझ नहीं आता कि जब परिसीमन से केवल कुछ चुनाव क्षेत्र, यानि सीटें ही बढ़ेंगे और कुछ नहीं, तब परिसीमन को शर्त क्यों बनाया जा रहा है?

इतना लम्बा समय इस प्रक्रिया में लगेगा, तो अभी जल्दबाज़ी क्यों दिखाई गई? क्या परिसीमन से सीटें; दक्षिण की नगण्य और उत्तर की भारी संख्या में, खासकर उप्र और मप्र में) में ज्यादा बढ़ेंगी तो पुरुष सांसदों को खतरा नहीं होगा, यह बताने के लिए? क्या उत्तर भारत की बढ़ी सीटों से भाजपा को लाभ मिलेगा, इसलिए? क्या एक और उपलब्धि 2024 में गिनाने के लिए?

परिसीमन पर अपने भाषण में सोनिया गांधी ने भी सवाल किया। दूसरे, अब तक 2011 में की गई जाति जनगणना को प्रकाशित नहीं किया गया है। उसमें जो भी त्रुटियां हों, कम से कम उसे पब्लिक तो किया जाना चाहिये था, पर सरकार इससे लगातार बचती रही है। फिर 2021 में भी जनगणना नहीं की गई। इन स्थितियों को देखकर तो लगता है कि अधिनियम 2029 से पहले लागू नहीं हो सकेगा। यानि बिल पारित तो हुआ लेकिन तत्काल लागू भी नहीं हुआ। मतलब सांप मरा और लाठी भी नहीं टूटी।

334; 3 में यह भी कहा गया है कि महिलाओं के लिए आरक्षित सीटों का चक्रण परिसीमन के प्रत्येक अभ्यास के बाद प्रभावी होगा, जैसा कि संसद विधि द्वारा निर्धारित करे और कब तक महिला आरक्षण जारी रहेगा, यह भी संसद को विधि द्वारा तय करना होगा। यह एक अलग परेशानी है।

और कितनी देर?

सोनिया गांधी महिला आरक्षण विधेयक को लाने का श्रेय अपने पति राजीव गांधी और पूर्व प्रधानमंत्री नरसिंम्हा राव को दिलाने के लिए आतुर दिखाई पड़ीं। वह बोलीं ‘यह विधेयक हमारा है’। वह अगले चुनाव में महिला आरक्षण विधेयक को लाने पर जोर भी दीं। पर उन्हें इसका भी जवाब देना चाहिये कि यूपीए सरकार विधेयक को पारित कराने में क्यों नाकाम रही?

यदि इंडिया गठबंधन बनते ही इस मुद्दे को उठाया गया होता, तो उसकी साख बढ़ती और वह मोदी को मात दे सकता था। जब एनडीए के सत्ताधारी दल एकमत दिखाई पड़ रहे हैं, यहां तक कि भाजपा की बी टीम कहलाने वाली बसपा तक बिना शर्त समर्थन में आ गई, विपक्ष क्यों मोदी के गुब्बारे की हवा निकाल पाने में अक्षम नज़र आया?

एक जबरदस्त हस्तक्षेप के माध्यम से तृणमूल कांग्रेस की सांसद महुआ मोइत्रा ने कहा कि “यह बिल ‘अनिश्चित विलम्ब’ का बिल है, वरना टीएमसी की भांति 37 प्रतिशत महिला सांसद को भेजकर भाजपा को सीख लेनी चाहिये।” उन्होंने कहा कि “संसद में केवल 2 मुस्लिम महिलाएं हैं, वे भी तृणमूल कांग्रेस से हैं। ममता बनर्जी आज देश की एकमात्र महिला मुख्यमंत्री हैं और वह कहती हैं ‘हम सभी महिलाओं को सशक्त बनाने के किसी भी प्रयास के पक्ष में हैं, लेकिन विधेयक अब क्यों पेश किया गया’?”

महुआ कहती हैं कि “हमें आशंका है कि यह भाजपा द्वारा दिखावे के अलावा और कुछ नहीं है, जो महिलाओं को वोट बैंक के रूप में मान रही है। इसके कार्यान्वयन के बारे में कोई निश्चितता नहीं है, जिसमें कई औपचारिकताएं शामिल हैं।” ममता बनर्जी ने तो मोदी के शिगूफे को ‘संकेतवाद’ कहा। डीएमके की डॉ. टी सुमथी का भी कहना था कि यह ‘एक दिवालिया बैंक के नाम एक पोस्ट डेटेड चेक समान है’।

वामपंथी महिलाओं ने लड़ी थी सच्ची लड़ाई

लेकिन कुल मिलाकर सबसे लम्बा संघर्ष महिला आंदोलन की ओर से रहा, जिसमें वामपंथ की सबसे अहम भूमिका रही है। काॅ. गीता मुखर्जी ने इसे पारित करवाने के लिए संसद के भीतर व बाहर भीषण लड़ाई लड़ी। आंदोलन की बात करें तो अखिल भारतीय प्रगतिशल महिला एसोसिएशन की 10 हजार महिलाओं ने संसद का जुझारू घेराव किया और दर्जनों घायल हुईं, तब आई के गुजराल सरकार पर संसद में सवाल उठा था।

ऐडवा और एनएफआईडब्लू ने लगातार आन्दोलन किये और राज्यों में बिल के पक्ष में अभियान चलाए। सबसे ज्यादा तकलीफ उन्हें उठानी पड़ रही है, क्योंकि इन संगठनों ने काबिल महिलाओं को तैयार किया है, जो महिलाओं के हक के लिए जेल जा रही हैं और शहादत तक दे रही हैं, पर विधान सभाओं और संसद तक नहीं पहंच पाईं।

सीपीएम की वृन्दा करात ने सत्ता पर तीखा हमला करते हुए कहा, “लगभग 3 दशकों के बीतने के बाद अभी महिलाओं को और इंतजार कराया जाएगा? आखिर सरकार 2014 के वायदे को पूरा क्यों नहीं की और 2021 में जनगणना क्या नहीं करा सकी?”

एससी/एसटी/ओबीसी आरक्षण का सवाल

बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी ने एक बयान में कहा था, ‘भूलो मत, महिलाओं की भी जाति है’। उन्होंने एससी/एसटी आरक्षण के भीतर महिला आरक्षण के प्रावधान का विरोध किया। वह इसे उनके साथ किया जा रहा धोखा कहती हैं। सोनिया गांधी, कनिमोझी सहित अन्य सदस्यों ने भी यह मांग उठाई। मुस्लिम महिलाओं के प्रतिनिधित्व का प्रश्न भी उठा। पर सत्ता पक्ष की ओर से कोई संतोषजनक जवाब नहीं मिला। जबकि सत्तापक्ष राष्ट्रपति पद पर एक आदिवासी महिला को लाने का श्रेय बटोरने में लगी रही।

जेएमएम के विजय कुमार ने अपना रोष व्यक्त करते हुए सवाल किया कि “माननीय राष्ट्रपति को पुराने व नए संसद भवन में किसी कार्यक्रम में न बुलाकर पद का, महिलाओं का और आदिवासी समाज का अपमान क्यों किया गया?” राहुल गांधी ने भी एक जोरदार हस्तक्षेप करते हुए ओबीसी महिलाओं के लिए आरक्षण और जाति जनगणना का प्रश्न उठाया। इस प्रश्न को समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव ने भी उठाया और उसे ‘आधा-अधूरा बिल’ बताया। अब देखना यह है कि इस प्रश्न पर कैसे काम किया जाता है। 

पर सबसे दुखद बात यह है कि आज पूरे देश में महिलाओं, खासकर दलित महिलाओं के साथ जिस प्रकार हिंसा बढ़ी है; उनका अपमान हुआ है और आरोपियों को सत्ता का सम्मान और संरक्षण मिला है, उस विषय को टीएमसी की सांसद काकोली दास के अलावा किसी ने नहीं उठाया- चाहे वह बृजभूषण शरण सिंह का मामला हो या हाथरस, उन्नाव और यहां तक बिलकिस बानो का केस रहा हो। किसी ने मणिपुर में महिलाओं के साथ हुई दरिंदगी पर प्रश्न नहीं उठाया। अगर विपक्ष इन्हें जबरदस्त ढंग से उठाता तो गृहमंत्री अमित शाह के महिला योजनाओं की फेहरिस्त प्रस्तुत करने के बड़बोलेपन का भी पर्दाफाश होता।

कुल मिलाकर विपक्ष को अधिक से अधिक महिलाओं को सामने लाकर, और बड़ी संख्या में दलित, आदिवासी, ओबीसी, मुस्लिम व गरीब महिलाओं को टिकट देकर अपनी राजनीतिक नीयत को साबित करना होगा। तभी भाजपा के नारी सशक्तिकरण के जुमले की असलियत सामने आएगी।

(कुमुदिनी पति, सामाजिक कार्यकर्ता और इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्र संघ की पूर्व उपाध्यक्ष हैं।)

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