अंग्रेजों के खिलाफ भारत के स्वाधीनता सेनानियों की अगुवाई में भारत की जनता द्वारा लड़ी गयी निर्णायक लड़ाई, ’’भारत छोड़ो आन्दोलन’’ की 81 वीं वर्षगांठ सारे देश में मनाई जा रही है। इस जश्न में इस क्रांति के असली नायकों का नाम लेने से परहेज और इसके विरोधियों का महिमामंडन तो किया ही जा रहा है। कृतघ्नता की इससे बड़ी मिसाल और क्या हो सकती कि जिस व्यक्ति यूसुफ मेहर अली ने अगस्त क्रांति का नाम ’’भारत छोड़ो’’ गढ़ा था उसे तो पूरी तरह भुला दिया गया। ’’साइमन कमीशन गो बैक’’ का नारा भी इसी व्यक्ति के दिमाग की उपज थी।
ईमानदारी इसी में है कि अगर हम तहेदिल से अगस्त क्रांति का जश्न मना रहे हैं तो हमें गुलामी से भारत की मुक्ति दिलाने वाले इस आन्दोलन के नायकों और खलनायकों का बिना राजनीतिक भेदभाव के स्मरण करना चाहिये। भारत मां को अंग्रेजों की गुलामी से आजाद कराने के लिए दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान 8 अगस्त 1942 को गांधी जी द्वारा भारत छोड़ो आंदोलन की शुरूआत की गई थी। इसके साथ ही अंग्रेजों को भारत छोड़ने पर मजबूर करने के लिए एक सामूहिक नागरिक अवज्ञा आंदोलन ’’करो या मरो’ आरंभ करने का निर्णय लिया।
हालांकि इस आन्दोलन का 1944 में पूरी तरह दमन कर दिया गया लेकिन इस आन्दोलन से उत्पन्न चेतना के परिणामस्वरूप ही 1946 में नौसेना का विद्रोह हुआ, जिसने भारत में ब्रिटिश शासन पर और भयंकर चोट की। इस आन्दोलन तथा कुछ अन्य गतिविधियों के परिणामस्वरूप ही युद्ध के बाद अमेरिका तथा इंग्लैण्ड में लोकमत भारत के पक्ष में इतना अधिक हो गया कि ब्रिटेन को विवश होकर भारत छोड़ना ही पड़ा।
जी गोपालस्वामी ने अपनी पुस्तक ’’गांधी एंड बम्बई’’ में शांति कुमार मोरारजी को उद्धृत करते हुये लिखा है कि ’’गांधी ने बंबई में अपने सहयोगियों से चर्चा की कि स्वतंत्रता के लिए सबसे बेहतर नारा क्या रहेगा। किसी ने कहा “गेट आउट” (चले जाओ) लेकिन गांधी का मानना था यह शिष्ट नहीं है। चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने “रिट्रीट” एवं ‘‘विदड्रा” सुझाया लेकिन गांधी जी को यह भी जमा नहीं। तब यूसुफ मेहर अली ने गांधीजी को एक धनुष भेंट किया जिस पर “क्विट इंडिया’’ यानी कि भारत छोड़ो गुदा हुआ था। गांधी ने कहा, “आमीन” (ऐसा ही हो)। और इसी से अगस्त क्रांति का नामकरण हो गया।
दरअसल सम्पूर्ण आजादी के लिये क्रिप्स कमीशन के प्रस्तावों को ठुकराने के बाद 14 जुलाई 1942 को वर्धा में कांग्रेस की कार्यसमिति की बैठक निर्णय हुआ था कि अंग्रेजों को तुरंत देश की बागडोर भारत वासियों को सौंप देनी चाहिए। जबकि क्रिप्स कमीशन न केवल भारत को एक उपनिवेश का दर्जा देने और रियासतों को मनमानी की आजादी का प्रस्ताव लाया था। कांग्रेस के सम्पूर्ण आजादी के इस निर्णय के एक महीने के भीतर ही यानी 7 अगस्त को मुंबई में कांग्रेस की कार्यसमिति की बैठक हुई और 8 अगस्त को गोवालिया टैंक मैदान में आयोजित ऐतिहासिक बैठक में भारत छोड़ो प्रस्ताव की घोषणा कर दी गयी।
यह प्रस्ताव पंडित जवाहर लाल नेहरू लाये थे जिसका समर्थन सरदार पटेल ने किया। अगले दिन चारों बड़े नेताओं, गांधी, नेहरू, पटेल और आजाद समेत नेतृत्व की पहली लाइन के नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया। यही नहीं अखिल भारतीय कांग्रेस और 4 प्रान्तीय कांग्रेस कमेटियों को क्रिमिनल लाॅ एमेडमेंड एक्ट 1908 के तहत गैर कानूनी घोषित कर दिया गया। डिफेंस ऑफ इंडिया रूल 56 के तहत सभाओं पर प्रतिबंध लगा दिया। इसके बावजूद करीब डेढ़ साल तक आंदोलन लगातार चलता रहा।
1857 के पश्चात देश की आजादी के लिए चलाए जाने वाले सभी आंदोलनों में 1942 का यह आंदेालन सबसे विशाल और सबसे तीव्र आंदोलन साबित हुआ। देशभर में कई जगहों पर आंदोलनकारियों ने अंग्रेजी सत्ता और उसके प्रतिष्ठानों के खिलाफ हिंसा का सहारा लिया। करीब 250 रेलवे स्टेशन, 150 पुलिस थाने और 500 से ज्यादा पोस्ट ऑफिस जला दिए गए। कांग्रेस भी इसे नियंत्रित नहीं कर पाई क्योंकि इसके सारे नेता जेल में थे।
कांग्रेस नेताओं के जेल के अन्दर होने के कारण समाजवादियों और नौजवानों ने आन्दोलन को और भड़काया। जबकि मोहम्मद अली जिन्ना के साथ ही दामोदर सावरकर ने आन्दोलन का विरोध कर अंग्रेजों का साथ दिया। भारतीय जनता पार्टी के संस्थापक डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने बंगाल के ब्रिटिश गवर्नर को खत लिखकर भारत छोड़ो आंदोलन को कुचलने के लिए कहा था। खत में उन्होंने लिखा, वह अंग्रेजी हुकूमत के साथ हैं।
‘श्यामा प्रसाद मुखर्जी, फ्रॉम ए डायरी ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी’ के अंश के मुताबिक, बीजेपी के संस्थापक ने बंगाल में भारत छोड़ो आंदोलन का विरोध किया था और उसे कुचलने के उपाय ब्रिटिश गवर्नर जॉन हरबर्ट को सुझाए थे। एजी नूरानी की किताब में भी इसका जिक्र है। सुमित गुहा ने इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित 17 अगस्त 1992 के अपने लेख ‘‘क्विट इंडिया मूवमेंट अपोनेंट अनमास्कड’’ में इस पत्र का जिक्र किया है।
उस समय वह मुस्लिम लीग-हिंदू महासभा की उस साझा सरकार के वित्त मंत्री थे, जिसके नेता लीग के एके फजलुल हक थे। हक ने ही भारत के दो टुकड़े कर अलग पाकिस्तान बनाने का प्रस्ताव मुस्लिम लीग की बैठक में पेश किया था। इस आन्दोलन में 1 लाख से अधिक भारतवासी गिरफ्तार कर जेलों में ठूंसे गये और सैकड़ों ने प्राणों की आहुति दी। भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान ही डॉ. राम मनोहर लोहिया, जय प्रकाश नारायण और अरुणा आसफ अली जैसे नेता उभर कर सामने आये।
केवल भारत छोड़ो ही नहीं बल्कि साइमन कमीशन का विरोध करने के लिये ऑल इंडिया कांग्रेस कमेटी ने जो अभियान शुरू किया था उसका नाम ’’साइमन कमीशन गो बैक’’ भी मेहर अली ने ही सुझाया था। दरअसल कांग्रेस दिसम्बर 1927 में साइमन कमीशन का बहिष्कार करने का फैसला कर चुकी थी। इसी आन्दोलन के दौरान 30 अक्टूबर 1928 को लाहौर में हुये बर्बर लाठी चार्ज के दौरान लाला लाजपत राय शहीद हुये थे।
लाला जी की मृत्यु से पूरे देश में इस दमन के खिलाफ रोष की लहर दौड़ गई। यूसुफ मेहर अली को इसके बाद ही पहली बार जेल में डाला गया, जो उनके जेल जाने की शृंखला की शरुआत थी। इसके बाद उन्होंने दांडी मार्च में योगदान दिया जिससे ब्रिटिश सरकार इतनी चिढ़ी कि उन्हें जेल ही नहीं भेजा, बल्कि उनसे वकालत करने का अधिकार भी छीन लिया गया।
भले ही आज यूसुफ मेहर अली गुमनामी में चले गये हों मगर वह भारत के प्रमुख स्वाधीनता संग्राम सेनानियों में से एक थे। इतिहास में मेहर अली को एक समर्पित स्वतंत्रता सेनानी, एक समाजवादी नेता और श्रमिकों के अधिकारों और सामाजिक न्याय के चैंपियन के रूप में याद किया जाता रहेगा। उनकी विरासत उन व्यक्तियों को प्रेरित करती रहती है जो न्यायसंगत और न्यायसंगत समाज के लिए काम करने के लिए समर्पित हैं। 1947 में भारत को आजादी मिलने के बाद भी मेहर अली ने सामाजिक और राजनीतिक उद्देश्यों के लिए काम करना जारी रखा।
दरअसल यूसुफ मेहर अली एक समाजवादी विचारधारा वाले राजनेता और स्वतंत्रता सेनानी थे। उन्हें 1942 में बॉम्बे का मेयर तब चुना गया था, जब वह एक स्वाधीनता सेनानी के रूप में यरवदा सेंट्रल जेल में कैद थे। वह नेशनल मिलीशिया, बॉम्बे यूथ लीग और कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के संस्थापक थे, और उन्होंने कई किसान और ट्रेड यूनियन आंदोलनों में भूमिका निभाई। मेहर अली का झुकाव वामपंथ और समाज में मजदूरों तथा किसानों के हितों को बढ़ावा देने की ओर हुआ। इसीलिए 1934 में जयप्रकाश नारायण, मीनू मसानी आदि के साथ उन्होंने कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना की।
यूसुफ मेहर अली का जन्म 23 सितम्बर 1903 को बॉम्बे (अब मुंबई), में हुआ था। वह एक सम्पन्न पृष्ठभूमि से आते थे। वह अपने व्यवसायी पिता के विचारों के विपरीत अंग्रेजी शासन के घोर विरोधी रहे। उन्होंने कलकत्ता और मुम्बई से अपनी शिक्षा प्राप्त की। यूसुफ ने सन 1920 में दसवीं की परीक्षा तथा 1925 में स्नातक की परीक्षा उत्तीर्ण की। उन्होंने बॉम्बे के विल्सन कॉलेज से कानून में स्नातक की उपाधि प्राप्त की।
मेहर अली महात्मा गांधी के अहिंसक प्रतिरोध और सामाजिक समानता के दर्शन से बहुत प्रभावित थे। स्वतंत्रता आंदोलन के प्रति अपने समर्पण के साथ-साथ, मेहर अली समाजवादी आदर्शों के प्रति भी प्रतिबद्ध थे। वह आर्थिक समानता में विश्वास करते थे और श्रमिक वर्ग और हाशिए पर रहने वाले समुदायों के सामने आने वाले मुद्दों के समाधान के लिए काम करते थे। वह इंडियन नेशनल ट्रेड यूनियन कांग्रेस (इंटक) से जुड़े थे और श्रमिकों के अधिकारों की वकालत करते थे। मेहर अली का 31 मई, 1950 को 47 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया।
(जयसिंह रावत वरिष्ठ पत्रकार हैं और उत्तराखंड में रहते हैं।)
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