रसोइया कर्मियों को महीनों से नहीं मिला मानदेय, लखनऊ में किया प्रदर्शन

लखनऊ। जरा सोचिये आप रोजाना आठ घंटे अपने कार्यक्षेत्र में काम करते हों और आपको महीनों वेतन न मिले तो आपकी आर्थिक और मानसिक हालात किस स्थिति में पहुंच जायेगी? सचमुच इसकी कल्पना भी मुश्किल है। उत्तर प्रदेश के मिड डे मील वर्कर्स (मध्याहन भोजन रसोइया) लंबे समय से इन्हीं हालातों का सामना करते हुए भी पूरी लगन से अपने काम में लगे हैं। लेकिन सरकार के पास इनका मामूली मानदेय देने का भी पैसा नहीं है।

महीने में मात्र 2000 पर काम करने वाली प्रदेश की करीब चार लाख रसोइयों के सामने जीवन जीने का संकट पैदा हो गया है। आठ महीने से इन रसोइयों को मानदेय नहीं मिला फिर भी इनसे आठ घंटे काम लिया जा रहा है। एक तरफ़ योगी सरकार सबका साथ, सबका विकास का नारा देती है लेकिन वहीं स्कीम वर्कर्स का काम और मानदेय के नाम पर हो रहे शोषण पर चुप्पी साधे हुई है।

अपने लंबित मानदेय का शीघ्र भुगतान करने के साथ न्यूनतम वेतन लागू करने, सामाजिक सुरक्षा की गारंटी के साथ दस सूत्री मांगो को लेकर 27 अक्तूबर को लखनऊ में मिड डे मील वर्कर्स का एक दिवसीय धरना प्रदर्शन हुआ। यह प्रदर्शन उत्तर प्रदेश मिड डे मील वर्कर्स (सम्बद्ध आल इंडिया सेंट्रल कमिटी ट्रेड यूनियन, एक्टू) के बैनर तले लखनऊ के ईको गार्डन में हुआ जिसमें लखनऊ, सीतापुर, गोंडा, रायबरेली, चंदौली, बनारस, सोनभद्र, श्रावस्ती, देवरिया, गोरखपुर, अमेठी आदि जिलों से सैकड़ों मध्याह्मन भोजन से जुड़ी रसोइयों का जुटान हुआ।

प्रदर्शन में आई रसोइयों ने अपनी तकलीफों, जीवन संघषों के बारे में बातें साझा की। प्रदर्शन में कुछ बुजुर्ग रसोइया  भी आई हुईं थीं जिन्हें यह काम करते हुए बीस साल से ऊपर हो चला था। इन्हीं में एक थीं सरजूदेई, जो रायबरेली से आई हुई थीं। बुजुर्ग सरजूदेई बताती हैं कि करीब दो दशक से वे रसोइया  का काम कर रही है। दूसरों का पेट भरते-भरते वे कभी अपने परिवार का पेट पूरा नहीं भर पाई।

वे कहती हैं अब तो रिटायरमेंट की उम्र पर पहुंच रही हूं लेकिन संघर्ष आज भी जारी है। वे चिंतित भाव से कहती हैं हमें उम्मीद थी कि योगी सरकार उनका दर्द समझेगी क्योंकि जब यह सरकार आई तो इसने बहुत वादे किये थे। सबका साथ सबका विकास का नारा दिया था। हर गरीब की स्थिति बेहतर करने की बात कही थी लेकिन ऐसा नहीं हो रहा। बहुत संघर्ष के बाद रसोइयों का मानदेय 2000 हुआ लेकिन आज तक वे कभी समय पर नहीं मिला।

सोनभद्र की पानमती की आंख का ऑपरेशन हुआ है। आंखों को कोई तकलीफ न हो इसलिए वे काला चश्मा लगाकर प्रदर्शन में आई हैं। उन्हें रसोइये का काम करते हुए 20 साल हो चले हैं। पति की मृत्यु काफी समय पहले हो चुकी थी। वे बताती हैं तब बच्चे छोटे थे काफी तकलीफों से बच्चों का पालन पोषण किया। खेती भी बहुत कम है। पानमती बताती है कि आधी जिंदगी गुजर गई रसोइये का काम करते करते लेकिन हालात सुधरने की बजाए और बिगड़ते जा रहे हैं।

सीतापुर से आई रामरति को अपनी उम्र का तो ठीक ठीक अंदाजा नहीं लेकिन उन्हें इतना याद है कि स्कूल में रसोइया का काम करते हुए उन्हें तकरीबन 23 साल हो चला हैं। तब 500 में न्युक्ति हुई थी और इन 23 सालों में इतना ही बदला की अब उन्हें 2000 मिलता है। उदासभाव से वह कहती है बस मिलता क्या है किसी तरह पेट पाल रहें हैं। आठ महीने होने को आये अभी तक मानदेय नहीं मिला और कब मिलेगा कुछ पता नहीं। वह कहती है त्यौहारों का समय है पैसा मिल जाता हम गरीब भी अपना त्यौहार खुशी से मना लेते।

रामरति सीतापुर स्थित मनकापुर की रहने वाली है। बुजुर्ग रामरति सेवानिवृत्त उम्र की दहलीज तक पहुंच चुकी है। बुढ़ापे की बीमारियां घेरने लगी है फिर भी वह मिड डे मील वर्कर्स के प्रदर्शन में भाग लेने लखनऊ के ईको गार्डन पहुंची है। वे कहती हैं महीनों से मानदेय नहीं मिला है। हालात बदत्तर हो चले हैं इसलिए सरकार तक अपनी आवाज़ पहुंचाने के लिए प्रदर्शन में आना जरूरी था।

मात्र 2000 मानदेय पर आठ घंटा खटने वाली इन रसोइयों को लंबे समय से मानदेय का भुगतान नहीं हुआ है। रायबरेली से आई रसोइया बिमला के पति की मृत्यु पांच साल पहले हो चुकी है। तीन बच्चे हैं खेती के नाम पर बस उतनी ही जमीन है जिससे थोड़ा बहुत पेट पल जाए। वह कहती है एक तो मानदेय इतना कम है उस पर कभी समय से पैसा मिलता ही नहीं है, आठ महीने का बकाया है अगर मिल भी गया तो सरकार मुश्किल से दो या तीन महीने का ही पैसा देगी।

बिमला 2008 से रसोइया का काम करती है। वह बताती है पहले प्रत्येक बच्चे पर तीस पैसा मिलता था। महीने के अंत में 200-300 ही मिल पाता था। तब भी सुनते थे कि सरकार 500 देती है लेकिन 500 कभी मिला नहीं। वह कहती हैं लेकिन पहले जितना भी मिलता था तो समय से मिल जाता था बकाया भी नहीं रहता था लेकिन पिछले 6-7 सालों में हालात बहुत खराब हो चले हैं। महीनों मानदेय नहीं मिलता और मिल भी जाए तो पूरा नहीं मिलता। आर्थिक तंगी के कारण बिमला का एक बेटा अपने रिश्तेदार के यहां रहता है।

अपने हालात बताते बिमला रोने लगती है। आंसू पोछते हुए वह कहती है अगर हालात खराब नहीं होते तो क्यों अपने बेटे को रिश्तेदार यहां रखती। वह कहती है सरकार को हमारे बच्चों के भविष्य की चिंता नहीं, अगर होती तो वो सोचती की क्या एक-दो हजार में जिंदगी की गाड़ी चलती है।

मऊ से रसोइया चंदा देवी कहती है लंबे समय से हमारी मांग है कि हमें चतुर्थ श्रेणि का राज्य कर्मचारी का दर्जा दिया जाए और न्यूनतम वेतन, 21000 लागू किया जाये। वह कहती है इतना वेतन न सही तो कम से कम जो राज्य सरकार का न्यूनतम वेतन का मापदंड है 8000 उसे ही भाजपा सरकार लागू कर दे लेकिन इतना भी लागू करने की इनकी नीयत नहीं।

वे कहती हैं कम से कम सरकार हमारे पक्ष में इतना तो कर सकती है कि विद्यालयों में खाना बनाने और परोसने के अतिरिक्त शिक्षक, प्रधानाचार्य जो हमसे चपरासी से लेकर सफाई कर्मी तक का अतिरिक्त काम लेते हैं उस पर रोक लगाई जाए साथ ही साथ ही आग लगने की स्थिति पर काबू पाने के सुरक्षा के पुख्ता इंतज़ाम हों।

गुस्से भरे लहजे में चंदा देवी कहती है सरकार न तो हमारी जिंदगी की सुरक्षा की गारंटी देती है और नाही हमें सम्मानजनक वेतन दिया जा रहा है। सरकार इतना तक सक्षम नहीं कि जो थोड़ा-बहुत दे भी रही है वो भी समय से देती रहे।

वहीं चंदौली से आई रसोइया अनीता कहती हैं कि जिन स्कूलों में हम रसोइया महिलाएं डेढ़-दो हजार रुपये महीने में खटती हैं, उन्हीं स्कूलों में शिक्षक 50 हजार से लेकर एक लाख रुपये तक पाते हैं। जबकि रसोइया भी आठ घंटे काम करती हैं। वे सुबह सात बजे घर से निकलती हैं और दोपहर बाद तीन बजे जाकर छुट्टी मिलती है। उसके बाद कई-कई महीनों तक खाते में एक पैसा नहीं आता। इतनी मेहनत के बावजूद रसोइया दाने-दाने को मोहताज हैं। वह बताती हैं कि खाना पकाने के अलावा रसोइयों से साफ-सफाई और अन्य काम भी कराये जाते हैं। और जरा भी चूक होने पर काम से निकालने की धमकी दी जाती है। हमारी स्थिति बंधुआ मजदूर जैसी है।

लखनऊ से आई रसोइया फूलमती कहती हैं कि प्रदेश में करीब चार लाख रसोइया हैं। उत्तर प्रदेश देश में सबसे बड़ी आबादी वाला राज्य है। सरकार हर बच्चे को दोपहर का खाना देने का श्रेय लेने में कोई कसर नहीं छोड़ती, लेकिन इसके पीछे हम रसोइयों के खून-पसीने को कोई नहीं देखता। अगर रसोइया काम छोड़न लगीं, तो पूरी मिड-डे मील व्यवस्था बैठ जायेगी। वह कहती है हमारे ऊपर खाना सही से न पकाए जाने का आरोप भी लगता है लेकिन जब हमें एक दिन का राशन, तेल, नमक देकर उससे चार दिन खाना बनाने के लिए कहा जाता है तो खाने की क्वालिटी कहां से अच्छी होगी।

उत्तर प्रदेश मिड-डे मील वर्कर्स यूनियन की प्रदेश अध्यक्ष कमला गौतम कहती हैं कि स्कूलों में अभी तक सुरक्षा के कोई इंतजाम नहीं किये गये हैं। आये दिने गैस रिसाव जैसी घटनाएं सामने आती हैं। पाइप और रेगुलेटर के रख-रखाव पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता। इसी लापरवाही के जलते कुछ जगहों पर रसोइया बहनों के आग से झुलस जाने की घटनाएं भी घट चुकी हैं। हाल ही में लखीमपुर में एक रसोइया को अपनी जान गंवानी पड़ी।

उन्होंने बताया कि दो साल पहले चंदौली के सकलडीहा के एक स्कूल में दो रसोइया खाना पकाते समय झुलस गयी थीं। इसके अलावा, आज भी कई स्कूलों में रसोइया लकड़ी के चूल्हे पर खाना पकाने को मजबूर हैं, जिसके लिए लकड़ी और कंडे उन्हें खुद जुटाने पड़ते हैं। धुएं के चलते रसोइया बहनों के स्वास्थ्य और आंखों पर विपरीत असर पड़ रहा है।

कमला गौतम कहती हैं चुनाव से लेकर कोरोना काल तक में इन्हें कड़ा श्रम करना पड़ा लेकिन उसका मेहनताना तक इन्हें नहीं मिला। वह कहती हैं ड्रेस के लिए हर रसोइया  को पांच सौ रुपए दिये गए। उसी पांच सौ में उन्हें साड़ी, ब्लाउज, पेटीकोट, और एप्रेन खरीदने को कहा गया है, जो किसी मज़ाक से कम नहीं।

उन्होंने बताया कि उनके संगठन की प्रमुख मांगों में से एक यह है कि हर स्कूल में पक्के रसोईघर का इंतजाम हो और वहां गैस पर खाना पकाने का समुचित प्रबंध हो। समय-समय पर गैस चूल्हे, रेगुलेटर और पाइप की सुरक्षा जांच करायी जाए और आग बुझाने की उचित व्यवस्था की जाए।

मजदूर संगठन एक्टू के राज्य अध्यक्ष विजय विद्रोही ने बताया कि सितंबर 2023 में लखीमपुर के कंपोजिट स्कूल में खाना पकाने के दौरान एक भयावह घटना घटी। आग लगने से 32 वर्षीय रसोइया की मौत हो गयी। जब आग लगी तो सभी लोग भाग खड़े हुए और कोई भी उसकी मदद के लिए आगे नहीं आया। जानकारी मिली कि रसोइया ने पाइप में लीकेज की शिकायत प्रधान शिक्षक से कई बार की, लेकिन उसे अनसुना कर दिया गया। इस घटना से आक्रोशित मिड-डे मिल वर्कर्स ने पूरे प्रदेश में प्रदर्शन किया और प्रधान शिक्षक, बीएसए व अन्य अधिकारियों के खिलाफ मुकदमा दर्ज किये जाने की मांग की। पीड़ित परिवार को 50 लाख रुपये के मुआवजे की मांग की जा रही थी, लेकिन लंबे आंदोलन के बाद महज पांच लाख रुपये दिये गये।

वहीं एक्टू के राज्य सचिव अनिल वर्मा कहते हैं नवीनीकरण के नाम पर मनमाने ढंग से निष्कासन आम बात हो गई है। धुंआ मुक्त प्रदेश में हम जुगाड़ की लकड़ी में खाना पकाने के लिए बाध्य हैं। गैस सिलेंडर नुमाइश की सामान भर है। खाना बनाने के साथ सफाई कर्मचारी से लेकर चपरासी तक के सारे काम करने पड़ते हैं। कोई आकस्मिक और बीमारी का कोई अवकाश नही मिलता।

उन्होंने कहा कि 99 फीसदी विद्यालयों में अग्निशमन विभाग की गाइडलाइन के मुताबिक अग्निशमन यंत्रों, बालू भरी बाल्टियों और आग से सुरक्षित रसोईघरों का इंतजाम नहीं है। इसके अलावा, सरकार ने रसोइयों के लिए न तो स्वास्थ्य बीमा की व्यवस्था है, न ही जीवन बीमा की। जबकि, 45वें श्रम सम्मेलन में रसोइयों को न्यूनतम वेतन के साथ ईपीएफ और ईएसआई का लाभ देने की बात कही गई थी।

दस सूत्री मांगों के साथ संगठन ने प्रदर्शन किया और मुख्यमंत्री के नाम ज्ञापन सौंपा

1. रसोइया कर्मियों के मानदेय में बढ़ोत्तरी कर न्यूनतम वेतन के बराबर किया जाय।

2. ईएसआई व ईपीएफ की सुविधा दी जाय।

3. सेवानिवृत्ति पर ग्रेच्युटी और पेंशन की सुविधा दी जाय। और नवीनीकरण के नाम पर वर्षो से कार्यरत रसोइया कर्मियों को निष्काशित करने की कार्यवाही पर स्थाई रोक लगाई जाए।

4. सभी रसोइया कर्मियों का स्थाईकरण किया जाय।

5. विगत 8 माह का बकाया तत्काल भुगतान किया जाय।

6. पूरे 12 माह का मानदेय अनुमान्य किया जाय।

7. पूरे जिले के सभी विद्यालयों को एक सर्कुलर जारी किए जाने वाले दुर्व्यवहार पर रोक लगाई जाए। और उत्पीड़न की घटनाओं और यौन दुर्व्यहार के विरुद्ध त्वरित न्याय के लिए जेंडर सेल गठित की जाय।

8. विद्यालयों में खाना बनाने के कार्य के अलावा कराई जा रही बेगार पर रोक लगाने के लिए आदेशित किया जाय।

9. वर्ष 2022 से 2023 में नवीनीकरण के नाम पर निष्कासित की गई समस्त रसोइया कर्मियों को सेवा में बहाल किया जाय।

10. सभी अल्प आयवर्ग से आने वाली रसोइया कर्मियों को प्रधान मंत्री आवास योजना का लाभ अनिवार्य रूप दिया जाय।

(सरोजिनी बिष्ट स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

4 1 vote
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments