पितृसत्तात्मक समाज में लिंग के आधार पर होता है काम का बंटवारा

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लखनऊ। अंतराष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर 8 मार्च को लखनऊ के रानीपुर में ‘महिलाओं के संवैधानिक अधिकार और चुनौतियां’ विषय पर गोष्ठी का आयोजन किया गया। गोष्ठी में उपस्थित महिलाओं को संबोधित करते हुए लखनऊ विश्वविद्यालय की प्रो. प्रतिभा राज ने कहा कि हमारा देश आज भी पुरुष प्रधान देश है। जिसमें पुरुषों को समाज में उच्च स्थान दिया गया है। हम महिलाओं को आज़ादी के 75 साल बाद भी बराबरी नहीं मिल पाई है। आज भी लड़कियों के पास आगे बढ़ने के लिए बहुत कम अवसर दिए जाते हैं। पितृसत्तात्मक समाज में लड़की और लड़के के काम को लिंग के आधार पर बांट दिया गया है। यहां तक कि लड़की क्या खाएंगी, क्या पहनेगी, कहां पढ़ेगी, क्या पढ़ेगी- ये सब वो खुद तय नहीं कर सकती है।

उन्होंने कहा कि कामकाजी महिलाओं को आज भी दोहरी भूमिका निभानी पड़ती है। महिलाएं काम से लौटकर फिर काम पर ही आती है। जबकि पुरुषों पर ये लागू नहीं होता है। उन्होंने कहा कि हम महिलाओं को सचेत प्रयास करके अपने अंदर भी बदलाव लाना पड़ेगा। हमें लड़कों को भी घर के कामकाज में हाथ बटाने की शिक्षा देनी चाहिए। उन्हें ये बताना चाहिए कि खाना बनाना सिर्फ लड़कियों का काम नहीं है।

गोष्ठी को संबोधित करते हुए सामाजिक कार्यकर्ता नाइस हसन ने कहा कि महिलाओं ने जहां अपने संघर्षों से बहुत कुछ पाया है वहीं उसके सामने चुनौतियां कम होने का नाम नहीं ले रही। हम देख रहे है कि महिलाओं के ऊपर लगातार हिंसा की घटनाएं हो रही है। कठुआ, उन्नाव, हाथरस, BHU की घटना हो, देश के लिए मेडल लाने वाली कुश्ती खिलाड़ियों के साथ होने वाला शोषण हो, इन सभी घटनाओं को अंजाम देने वाले लोग सत्ता से जुड़े हुए थे जिसके कारण इनको सजा देने के बजाय उन्हें हर संभव बचाने की कोशिश की गई तो जब सत्ता द्वारा अपराधियों को संरक्षण दिया जाएगा तो महिलाएं कैसे सुरक्षित रहेंगी?

उन्होंने कहा कि महिला पहलवानों के संघर्ष ने बेटी बचाओ के छद्म नारे के ढोंग को बेनकाब किया और ऐसे समाज को सरकार अमृतकाल बता रही है। बहुमत वाली मोदी सरकार ने महिला आरक्षण बिल को पास करने के बजाय उसे अनिश्चित काल के लिए लटका दिया है। वहीं भाजपा-शासित राज्य उत्तराखंड में कॉमन सिविल कोड लागू किया गया जो कि संविधान की मूल भावना के खिलाफ है।

महिलाओं को सम्बोधित करते हुए लेखिका और पत्रकार सुनन्दा डे ने कहा कि अपने हक -अधिकार, बराबरी व आज़ादी के लिए महिलाओं को स्वयं जागरूक होना होगा। संविधान में स्त्री को जो अधिकार दिए गए हैं उनकी जानकारी के बिना हम उसका लाभ नहीं ले पाएंगे। संविधान में जाति के आधार पर, लिंग के आधार पर किसी को कम या किसी को ज्यादा अधिकार नहीं दिया गया है लेकिन क्या समाज में सबको बराबर का हक मिला है? मैं या हमारे जैसी कितनी ही वर्किंग महिलाएं आज़ादी के 75 साल बाद भी लिंगभेद की शिकार हो रही है।

गोष्ठी का संचालन कर रही ऐपवा नेता मीना सिंह ने कहा कि विश्व महिला दिवस का इतिहास वास्तव में महिला मुक्ति, समानता और सम्मान के लिए महिलाओं के आंदोलन का इतिहास है।

महिला दिवस के इतिहास पर रोशनी डालते हुए उन्होंने कहा 1857 में न्यूयॉर्क में महिलाओं ने अपने वोट के अधिकार के सवाल को उठाया। सरकार ने दमन की कोशिश की। लेकिन महिलाओं ने लड़ाई जारी रखी। वोट अधिकार आंदोलन के पचास वर्ष पूरे होने की याद में 8 मार्च 1907 में महिला मार्च निकाला गया। अंततः महिला-अधिकारों के लड़ाई को मान्यता देते हुए 1977 में संयुक्त राष्ट्र संघ जनरल असेंबली ने 8 मार्च को अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस घोषित किया। तब से अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाया जाने लगा।

उन्होंने कहा कि आज का दिन महिला आंदोलन की कुर्बानियों को याद करने तथा हर स्तर पर महिलाओं के अधिकारों के लिए चौतरफा लड़ाई तेज करने के संकल्प का दिन है। उन्होंने कहा कि देश की सत्ता और समाज में काबिज पितृसत्ता की पोषक ताकतें महिला-आंदोलन की ऐतिहासिक उपलब्धियों को मिटा देने पर आमादा हैं। उन्होंने इन महिला-विरोधी ताकतों को उखाड़ फेंकने का आह्वान किया, ताकि महिला-मुक्ति और बराबरी की लड़ाई अपने अंजाम तक पहुंच सके।

मीना रावत पुष्प देकर अतिथियों का स्वागत किया। गोष्ठी की अध्यक्षता अनीता रावत ने किया। गोष्ठी में सुषमा, रेनू सिंह, सपना, अंजू व विनीता, इंसाफ मंच के साथी राजेश, एएन सिंह, ओमप्रकाश राज व आरबी सिंह की उल्लेखनीय उपस्थिति रही।

(जनचौक की रिपोर्ट)

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