सोचने-विचारने के बियाबान में एक दिया जला!

नई दिल्ली। संसद सदस्यों के लिए बनाए गए कांस्टीट्यूशन क्लब के डिप्टी स्पीकर हाल में शनिवार, 28 अक्टूबर को ‘संवैधानिक राष्ट्र भारत पर आसन्न संकट और चुनौतियों’ पर दिल्ली के समाजवादी समागम द्वारा एक कार्यक्रम आयोजित किया गया।

दिल्ली में फिल्मी गानों पर जन्म दिवस, शादी की सालगिरह के मौके पर बड़े-बड़े स्पीकरों के जारिए शोरगुल करते बेतहाशा तमाशों का इजाफा तो हो रहा है लेकिन दिल्ली की सड़कों पर पहले की तुलना में अब कामगार, मजदूरों, सामाजिक-राजनीतिक सवालों, सांप्रदायिकता, महंगाई, जोर-जुल्म, नागरिक आजादी के हक में जलूसों के जो जत्थे निकलते थे, अब नहीं निकल रहे हैं। उससे कहीं ज्यादा माथे पर बांधे गए पट्टे, ट्रकों, लारी, कारों, स्कूटर हाथों से धकेलने वाले ठेलों पर हाथ में डंडे, तीन-चार बड़े स्पीकर जिनकी आवाज को सहन करना कोई मामूली बात नहीं उसके बढ़ते हुए कारवां में इजाफा देखने को मिल रहा है। परंतु जम्हूरियत और संविधान जिसके कायदे-कानूनों की मुताबिक मुल्क चलना चाहिए उस पर सोचने-विचारने की रफ्तार लगातार गिरावट मुल्क की राजधानी में देखने को मिल रही है।

ऐसे में मुद्दत के बाद सोचने-विचारने के वास्ते दिल्ली में एक व्याख्यान माला का आयोजन हुआ। दिल्ली का नागरिक होने और तजुर्बे की बिना पर कह सकता हूं कि कल उसमें अपने-अपने फन, इल्म के, माहिर, मशहूर मारूफ पहली कतार के नायक शिरकत कर रहे थे। अशोक बाजपेई (रिटायर्ड आईएएस सचिव पद पर रहने के बावजूद) कला साहित्य संस्कृति के मर्मज्ञ होने के साथ इन सवालों पर जूझने, वैचारिक मुठभेड़ करने, सड़क पर हाथ में तख्ती लेकर चलने तथा आज के डर के माहौल में खुल्लम-खुल्ला सत्ताधीशों को ललकारने वाले वाजपेई जी का कल जो संबोधन हुआ, उसको चंद लाइनों में लिखकर समेटा नहीं जा सकता।

आज के ईडी और सीबीआई के खौफजदा माहौल में जब सूचना की दुनिया में एक तरफा माहौल बनाया जा रहा हो, सरकारी टेलीविजन से लेकर मालदार घरानों की मिल्कियत में चलने वाले चैनलो के एंकर मालिक की चाकरी और अपनी वफादारी दिखाने के लिए आंख मटका कर, नथुने फुलाकर, हाथों को फटकारते हुए सरकारी तरफदारी के लिए मुखालिफ विचारों वालों पर झपटने की इस दौड़ में अव्वल आने के लिए चीख रहे होते हैं। तो उसी शोर गुल में तथ्यों, तर्कों, सर्वे, राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय रपटों, बुलेटिनों मुख्तलिफ राज्यों की आम जनता से बातचीत का सहारा लेने वाले हिंदुस्तान के हर तपके की परेशानियों को परत दर परत, उलटते पलटते हकीकत से रूबरू कराते, शांत, मगर फौलादी यकीन से भरी आवाज वाले रवीश कुमार ने कल के सेमिनार में प्रचार तंत्र के अंदरूनी और बाहरी पेचीदगियों, षड्यंत्र, साजिशों, एक तरफा सरकारी भोंपू प्रचार और उसके विरोधियों को मुल्क का गद्दार सिद्ध करने का जो प्रयास हो रहा है पर रोशनी डाली। सुनने वाले भौचक, आवाक, कभी गुस्से और कभी ठहाकों से सरोबार हुए। वह तो पूरी रिकॉर्डिंग सुनने पर ही जाना जा सकता है।

सोशलिस्टों के पुरखों द्वारा नौजवान लड़के-लड़कियों को नवचेतना, समाजवाद, लोकतंत्र, देशभक्ति, जुल्म ज्यादती के खिलाफ लड़ने के साथ-साथ जाति, मजहब, क्षेत्रीयता जैसे मुल्क तोड़क साजिशों के इतिहास और उसके खिलाफ लामबंद होने के लिए जिस ‘राष्ट् सेवा दल’ की स्थापना की थी, उसके अध्यक्ष तथा फिल्म निर्माता, निर्देशक नितिन वैद ने आज के दौर की फिल्मों, उसमें खास तौर पर धन की भूमिका पर आज की आर्ट फिल्मों से लेकर कमर्शियल फिल्मों की पेचीदगियों पर जहां गहराई से रोशनी डाली वहीं, सरकारी सेंसर बोर्ड द्वारा पास फिल्मों पर सरकारी सांप्रदायिक कारनामे और धन पशुओं की लूट के कुछ नमूने सेंसर बोर्ड की नजर से जो छूट गए थे उसके पकड़ आते ही अपने शासित सूबों में फिल्मों के प्रसारण पर बंदिश लगाने का कच्चा चिट्ठा सभा में खोल दिया।

जहां कल के इस इजलास में इन तजुर्बेकार महारथियों की बानगी को सुनने का मौका श्रोताओं को मिला, वहीं नयी पीढ़ी के जागरूक संवेदनशील वैचारिकता से भरपूर दो नौजवान वक्ताओं आकृति भाटिया और कबीर श्रीवास्तव ने भी श्रोताओं को चौंकाया।

पीएचडी की सनदयाफ्ता आकृति ने मजदूर संगठनों आंदोलन पर गहरी रिसर्च के आधार पर अपना व्याख्यान केंद्रित किया। जो नई बात सुनने वालों को मिली की कैसे मोदी सरकार में बने श्रम कानूनों की आड़ में मजदूरों के बुनियादी अधिकारों को छीना जा रहा है उसको सिलसिलेवार प्रस्तुत किया।

सुप्रीम कोर्ट के नौजवान वकील कबीर श्रीवास्तव न केवल एक वकील हैं, वकालत के साथ-साथ हिंदुस्तान के संविधान उसके कानून पर मुसलसल हिंदुस्तान के प्रसिद्ध अखबारों, पत्र-पत्रिकाओं में अपनी समीक्षा लेख, लिखते रहते हैं। कानूनी जगत में उनकी पहचान एक पहरूये की बनी है। कल उन्होंने अपने व्याख्यान को जैसे यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर अपने छात्रों को भाषण, स्लाइड, किताबों के उदाहरण, कौन-कौन सी किताब इस विषय पर आयी है बताते हैं, उसी अंदाज में एक खुश्क पेचीदे मजमून पर अंग्रेजी हिंदी में मिली जुबान में प्रस्तुत किया। तथा उस दौरान हाल में पिन ड्रॉप साइलेंस रहा वह भी एक अचरज था। आकृति और कबीर के वक्तव्यो को सुनकर एक नई आशा जगी है, कि सरकारी प्रचार कितना भी हो परंतु उसकी हकीकत से रूबरू कराने वाली बेखौफ नस्ल भी साथ-साथ पैदा हो रही है।

कल के प्रोग्राम की एक और खासियत जो मुझे पता है की राजनीतिक सामाजिक जागरण का अलख जगाने वाले कभी स्टेज पर आसन्न होकर अपना ढिंढोरा नहीं पीटते। उसकी मिसाल रमाशंकर सिंह बने। इस सारे आयोजन की रूपरेखा, तैयारी, विषय तथा वक्ताओं का चयन उनकी सूझबूझ का नतीजा था। समाजवादी समागम की हिदायत से मजबूर होकर रमाशंकर को सभा का संचालन करना पड़ा। तथा जिस खूबी से उन्होंने वक्ताओं का तारूफ करवाया वह भी बेजोड़ था। अपने पद प्रतिष्ठा के अहंकार को दफन कर एक कार्यकर्ता की हैसियत से दर्शकों में बैठकर अपनी जिम्मेदारी को निभाया यह भी एक सबक बन गया।

सर के सफेद बाल, उम्रदराजी तथा सभा की रिवायत के कारण अध्यक्ष की कुर्सी पर बैठाये जाने के अलावा मेरी कोई भूमिका, योगदान इस आयोजन में नहीं था। दिल्ली में सोशलिस्टों के प्रोग्राम की एक तरफा जिम्मेदारी निभाने वाले नगर निगम के तीन बार के चुनिंदा पार्षद राकेश कुमार ने सभी का शुक्रिया अदा किया। खचाखच भरे तिकोनै हाल के हर कोने पर खड़े होकर भी लोग सुन रहे थे। मेरे लिए तो एक सुखद वजह यह भी थी की दिल्ली से बाहर के कर्नाटक, मुंबई, यूपी, बिहार, मध्य प्रदेश, हरियाणा और पंजाब के कद्दावर सोशलिस्टों ने भी भागीदारी करके हौसला अफजाई की।

(राजकुमार जैन समाजवादी नेता हैं।)

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments