प्रधानमंत्री बनने के बाद मोदी ने की राज्य निधि में बड़े पैमाने पर कटौती करने की कोशिश

नई दिल्ली। 2014 में प्रधानमंत्री बनने के तुरंत बाद नरेंद्र मोदी ने देश के राज्यों को आवंटित धन में बड़ी कटौती करने के लिए भारत के वित्त आयोग के साथ गुपचुप बातचीत की थी। लेकिन वित्त आयोग के कड़े विरोध के बाद मोदी को अपना कदम पीछे हटाना पड़ा था।

हालांकि, नए खुलासे से पता चलता है कि केंद्रीय टैक्स में राज्यों के हिस्से का फैसला करने वाली एक स्वतंत्र संवैधानिक संस्था के प्रमुख ने इसका विरोध किया और मोदी को पीछे हटना पड़ा। वित्त आयोग के सख्त रुख के कारण मोदी सरकार को अपना पहला पूर्ण बजट 48 घंटों में दोबारा तैयार करना पड़ा और कल्याणकारी कार्यक्रमों की फंडिंग में कटौती करना पड़ा क्योंकि आयोग केंद्रीय टैक्स के एक बड़े हिस्से को बनाए रखने में सफल नहीं हुआ। उसी समय पीएम मोदी ने संसद में झूठा दावा किया कि उन्होंने राज्यों को आवंटित किए जाने वाले टैक्स के हिस्सों पर वित्त आयोग की सिफारिशों का स्वागत किया है।

संघीय बजट बनाने में वित्तीय सौदेबाजी और पर्दे के पीछे की चालबाजी के ये खुलासे सरकारी थिंक-टैंक नीति आयोग के सीईओ बीवीआर सुब्रमण्यम ने किए हैं जो प्रधानमंत्री कार्यालय में संयुक्त सचिव के रूप में थे और मोदी और वित्त आयोग के अध्यक्ष वाईवी रेड्डी के बीच गुपचुप बातचीत में उनका अहम रोल था। ऐसा पहली बार हुआ है जब वर्तमान भारत सरकार के किसी शीर्ष सरकारी अधिकारी ने सार्वजनिक रूप से स्वीकार किया है कि प्रधानमंत्री और उनकी टीम ने शुरू से ही राज्यों के वित्त को निचोड़ने की कोशिश की थी जिसकी चिंता अब राज्यों ने बार-बार जाहिर की है।

सुब्रमण्यम ने इस बात का खुलासा एक सेमिनार में किया। सेमिनार का आयोजन भारत में वित्तीय रिपोर्टिंग पर हुआ था जहां वे पैनलिस्ट के तौर पर बुलाए गए थे। सेमिनार का आयोजन पिछले साल गैर-सरकारी थिंक-टैंक सेंटर फॉर सोशल एंड इकोनॉमिक प्रोग्रेस (सीएसईपी) की ओर से किया गया था।

अपनी टिप्पणी में उन्होंने बताया कि कैसे संघीय बजट सच्चाई को ढंकने की कोशिश करता रहा। उन्होंने आगे कहा कि उन्हें “यकीन है कि आपके पास भी एक हिंडनबर्ग होगा जो भारत सरकार की सच्चाई खोल कर रख देगा।”

उनका कहना था कि अगर खाते पारदर्शी होते तो सरकार की वित्तीय स्थिति की सच्चाई ठीक उसी तरह नजर आ जाती जिस तरह अमेरिका के हिंडनबर्ग रिसर्च ने अडानी समूह की वित्तीय संबंधी गड़बड़ियों को उजागर किया था। रिपोर्टर्स कलेक्टिव ने सुब्रमण्यम के दावों को सही ठहराया है। सुब्रमण्यम ने सरकार की ओर से वित्त पोषित बुनियादी ढांचा परियोजना में वित्तीय गड़बड़ी और धोखाधड़ी का ब्यौरा भी दिया।

उनके इतने बड़े खुलासों के बावजूद सेमिनार के यूट्यूब लाइवस्ट्रीम को सिर्फ 500 से कुछ अधिक बार देखा गया है। रिपोर्टर्स कलेक्टिव ने पीएमओ को कुछ विस्तृत प्रश्न भेजे जिसके कुछ घंटों बाद सीएसईपी यूट्यूब चैनल पर सेमिनार के वीडियो तक लोगों की पहुंच बंद कर दी गई।

सुब्रमण्यम, वित्त मंत्रालय और पीएमओ ने रिपोर्टर्स कलेक्टिव के विस्तृत प्रश्नों का जवाब नहीं दिया। भारत के संविधान के अनुसार एक स्वतंत्र वित्त आयोग यह तय करता है कि सरकार को अपने टैक्स कलेक्शन से राज्यों को कितना प्रतिशत पैसा साझा करना चाहिए।

14वें वित्त आयोग की स्थापना 2013 में की गई थी। लगभग उसी समय नरेंद्र मोदी गुजरात राज्य के मुख्यमंत्री के रूप में प्रधानमंत्री पद के लिए प्रचार कर रहे थे और आयोग से राज्यों केंद्रीय टैक्स का 50 प्रतिशत हिस्सा देने की बात कही थी।

आयोग ने दिसंबर 2014 में अपनी रिपोर्ट में राज्यों को केंद्रीय टैक्स का 42 प्रतिशत हिस्सा देने की सिफारिश की, जो उस समय तक उन्हें 32 प्रतिशत मिल रहा था। लेकिन मोदी और उनका वित्त मंत्रालय टैक्स में राज्यों की हिस्सेदारी को 33 प्रतिशत और सरकार के लिए एक बड़ा हिस्सा कम रखना चाहते थे।

संवैधानिक प्रावधानों के तहत सरकार के पास केवल दो रास्ते हैं या तो वित्त आयोग की सिफारिशों को मानें या ना मानें और एक नया आयोग स्थापित करें। नया आयोग औपचारिक या अनौपचारिक रूप से उनसे बहस नहीं कर सकता।
लेकिन प्रधानमंत्री ने वित्त आयोग के अध्यक्ष वाईवी रेड्डी से राजस्व हिस्सेदारी पर अपनी सिफारिशों को कम करने के लिए ऑफ-रिकॉर्ड बातचीत की कोशिश की। रेड्डी पहले भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर थे। अपनी टिप्पणी में सुब्रमण्यम ने कहा कि वह उस बातचीत में एकमात्र अन्य व्यक्ति थे।

यह संवैधानिक मर्यादा का उल्लंघन था। यदि सरकार सफल होती तो वह संवैधानिक निकाय, आयोग पर दोष मढ़ते हुए राज्यों की आय को कम करने में सक्षम होती। सुब्रमण्यम ने कहा कि आंकड़े को लेकर ”डॉ. रेड्डी, मेरे और प्रधानमंत्री के बीच त्रिपक्षीय चर्चा हुई।” उन्होंने जोर देकर कहा कि “कोई वित्त मंत्रालय शामिल नहीं था।“

सुब्रमण्यम ने कहा, बातचीत दो घंटे तक चली लेकिन रेड्डी जिद पर अड़े रहे। सुब्रमण्यम ने कहा कि “रेड्डी ने दक्षिण भारतीय अंग्रेजी में कहा कि ‘अप्पा (भाई), जाओ और अपने बॉस (प्रधानमंत्री) को बताओ कि उनके पास कोई रास्ता नहीं है।”

सरकार को वित्त आयोग की 42 प्रतिशत की सिफ़ारिशें माननी पड़ीं। रिपोर्टर्स कलेक्टिव ने एक अधिकारी से सत्यापित किया जो 14वें वित्त आयोग का हिस्सा था कि रिपोर्ट को स्वीकार करने और संभावित रूप से इसे बदलने के बारे में बातचीत में देरी हुई थी।

एक अर्थशास्त्री ने अपना नाम बताने से इनकार करते हुए कहा कि “यह बताया गया कि सरकार के पास रिपोर्ट को अस्वीकार करने की शक्ति है लेकिन इसे बदलने के लिए नहीं कहा जा सकता है। इससे पहले केवल एक बार, संघीय सरकार ने वित्त आयोग की मुख्य रिपोर्ट को खारिज कर दिया था और तब भी वह असहमति नोट के साथ गई थी जो रिपोर्ट का हिस्सा था।”

लेकिन संसद में मोदी ने राज्यों के राजस्व में हिस्सेदारी को कम करने की अपनी सरकार की असफल कोशिश को छुपाया। उन्होंने 27 फरवरी, 2015 को संसद में कहा कि “देश को मजबूत करने के लिए, हमें राज्यों को मजबूत करना होगा… वित्त आयोग के सदस्यों के बीच विवाद है। हम उसका फायदा उठा सकते थे। हमने नहीं किया। लेकिन हमारी प्रतिबद्धता है कि राज्यों को समृद्ध किया जाये, सशक्त बनाया जाये। हमने उन्हें 42 प्रतिशत का हस्तांतरण दिया।“

लेकिन टैक्स राजस्व के एक छोटे हिस्से के साथ सरकार को पूरे बजट को दोबारा बनाना पड़ा और कई कल्याणकारी योजनाओं के लिए आवंटन में कटौती करनी पड़ी।

सुब्रमण्यम ने बताया कि “उस साल बजट दो दिनों में लिखा गया था। क्योंकि यह सिफ़ारिश इतनी देर से स्वीकार की गई कि नीति आयोग के एक सम्मेलन कक्ष में सब कुछ उसी समय लिखा गया था। हम चारों ने बैठकर वास्तव में पूरा बजट दोबारा तैयार किया।”

सरकार ने मार्च 2015 को समाप्त होने वाले वित्तीय वर्ष के लिए बजट में 211 बिलियन रुपये ($ 3.4 बिलियन) से लगभग आधे की कटौती करके अगले वर्ष 102 बिलियन रुपये ($ 1.6 बिलियन) कर दिया। राज्यों को भुगतान का उच्च अनुपात स्वीकार करना पड़ा। बजट में स्कूली शिक्षा के लिए आवंटन में पिछले वर्ष की तुलना में 18.4 प्रतिशत की कटौती की गई।

‘सच्चाई पर पर्दा डालने की कोशिश’

सुब्रमण्यम ने कहा कि संघीय बजट में सच्चाई को छिपाने की कोशिश की गई। उन्होंने कहा कि राज्यों और संघीय सरकार के बजट अविश्वसनीय थे क्योंकि दोनों स्तरों पर सरकारें ऋण के स्तर का खुलासा करने से बचने के लिए लेखांकन युक्तियों और कभी-कभी धोखाधड़ी का इस्तेमाल कर रही थीं।

घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय निवेशकों की प्रमुख चिंताओं में से एक यह है कि सरकार किसी भी समय राजकोषीय घाटे का कितना स्तर वहन करती है। वह टैक्स और अन्य राजस्व से उधार से जो कमाती है उससे कितना अधिक खर्च कर रही है। राजकोषीय घाटे का अस्वस्थ स्तर निवेशकों को डराता है और अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक असर डाल सकता है।
इसलिए, सरकारें अपने खर्चों को उधार से पूरा करने के लिए लेखांकन तरकीबें आजमाती हैं जिन्हें बजट दस्तावेजों से बाहर रखा जा सकता है, जिसे “ऑफ-बजट उधार” के रूप में जाना जाता है।

ऐसा करने के लिए अतीत में सभी प्रकार की भारतीय सरकारों की आलोचना की गई है। सीधे शब्दों में कहें तो ये ऋण हैं, जो आमतौर पर सरकारी स्वामित्व वाली कंपनियां लेती हैं जो सरकारी खातों में नहीं दिखाई देते हैं भले ही अंत में सरकार को ही इन ऋणों को चुकाना पड़ता है।

अपने वित्तीय वर्ष 2019-20 के बजट में, संघीय सरकार ने घोषणा की कि आगे चलकर वह ऐसे सभी ऑफ-बजट उधारों का खुलासा करेगी। यह ऐसी उधारी में बढ़ोतरी को लेकर 15वें वित्त आयोग की आलोचना के बाद सरकार ने ऐसा कहा।

सरकार ने अब तक की तुलना में बेहतर खुलासा किया, लेकिन जैसा कि सुब्रमण्यम ने स्वीकार किया, यह पर्याप्त नहीं था। उन्होंने अपने भाषण में अतिरिक्त-बजटीय संसाधनों पर सरकार के बयान का जिक्र करते हुए कहा, “यह केवल एक हिस्से का खुलासा है। उधार लेने का समय, उधार की राशि, उधार लेने की समय सीमा, ब्याज दर क्या है? इन बातों का कोई जिक्र नहीं है।”

अपनी टिप्पणियों में सुब्रमण्यम ने तत्कालीन राज्य जम्मू और कश्मीर में सरकार द्वारा वित्त पोषित बुनियादी ढांचा परियोजना में वित्तीय कदाचार के मामले की भी चर्चा की, जब यह संघीय भाजपा सरकार के सीधे नियंत्रण में था।
एक बार जब मोदी सरकार को पता चला कि वह वित्त आयोग से अपनी रिपोर्ट बदलवाकर राज्य के टैक्स के हिस्से को कम नहीं कर सकती है, तो उसने एक पुरानी लेखांकन चाल का फायदा उठाया जो आज भी कायम है। सरकार ने कैसपोल और सरचार्जेस टैक्स के एक वर्ग के संग्रह में लगातार बढ़ोतरी की। राज्य इसके किसी भी हिस्से के हकदार नहीं हैं।

सुब्रमण्यम ने कहा कि “फंड या राजस्व बढ़ाने के लिए कैसपोल और सरचार्जेस का उपयोग बढ़ रहा है।” आंकड़ों से पता चलता है कि नरेंद्र मोदी सरकार के तहत संघीय सरकार द्वारा इकट्ठा किए गए कैसपोल और सरचार्जेस की मात्रा 2015 से बढ़ी है।

कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार में 2011-12 में इकट्ठा किए कुल टैक्स में कैसपोल और सरचार्जेस का हिस्सा 10.4 प्रतिशत था। 2017-18 और 2021-22 के बीच मोदी सरकार द्वारा जमा किया गया कुल कैसपोल और सरचार्जेस दोगुने से अधिक, 2.66 ट्रिलियन रुपये ($33.7 बिलियन) से 4.99 ट्रिलियन रुपये ($64.8 बिलियन) हो गया। उस अवधि के दौरान, सकल कर राजस्व की हिस्सेदारी के रूप में कैसपोल और सरचार्जेस 13.9 प्रतिशत से बढ़कर 18.4 प्रतिशत हो गया।

सुब्रमण्यम ने कहा कि “मोदी सरकार ने राज्य के टैक्स संसाधनों को नष्ट करने का एक तरीका राष्ट्रीय वस्तु और सेवा कर (जीएसटी) के माध्यम से किया, जिसे वर्षों की राजनीतिक सौदेबाजी के बाद जुलाई 2017 में पेश किया गया था। इसका उद्देश्य अनेक स्थानीय टैक्सों को राष्ट्रीय टैक्सों से प्रतिस्थापित करते हुए एकल बाज़ार बनाना था।“ हाल के शोध पत्रों से पता चला है कि जीएसटी के बाद राज्य टैक्स राजस्व में जीएसटी से पहले की अवधि की तुलना में गिरावट आई है।

(‘अलजजीरा’ में प्रकाशित खबर पर आधारित।)

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