लोक-लुभावन राजनीति के गगनचर सपनों के सुराख से सड़क का जायजा

विभिन्न विश्व मानकों पर भारत की स्थिति सकारात्मक और सराहनीय नहीं कही जा सकती है। विश्व-गुरु बनने का सपना तो ठीक है। विश्व की तीसरी क्या पहली अर्थ व्यवस्था बन जाने का सपना भी ठीक है। इन सपनों की लोक-लुभावन राजनीति के गगनचर सपनों के सुराख से जीवन-जल-जमीन-जर-जंगल की स्थिति, यानी सड़क का जायजा लेना जरूरी है। यह मानना ठीक नहीं है कि यह हाल दस साल का ही नतीजा है। यह जरूर है कि दस साल ने स्थिति को बहुत भयावह बना दिया है। आगे स्थिति के इस स्थिति के अधिक-से-अधिक भयावह होते जाने के ही आसार दिख रहे हैं। अवसर 2024 के आम चुनाव का है। थोड़ी-सी गहराई से बात किये जाने की प्रासंगिकता से इनकार नहीं किया जा सकता है।

भारत के देशी विचारकों की विलक्षणताओं पर गौर करने पर कुछ-कुछ प्रवृत्तियां बिल्कुल साफ-साफ दिखती है। इन में कुछ की चर्चा करना प्रासंगिक हो सकता है। एक है, शुद्धतावाद। विचार में शुद्धतावाद (Puritanism)‎ के मामले में विचार करें तो विचार में शुद्धतावाद का आग्रह अंततः आत्मनिष्ठता के ऐसे गह्वर में पहुंच जाता है, जहां वह अपने विचार में बिल्कुल अकेला रह जाता है। बाद में शिष्यों और अनुयायियों, अधिकतर मामले में अंधभक्तों, के द्वारा विचार यात्रा पर निकल जाते हैं।

कुछ दिन चलने के बाद पीढ़ीगत अंतराल या अन्य स्वाभाविक कारणों से किसी अन्य विचार पथ में घुल-मिल जाते हैं। यात्रा जारी रहती है। इस यात्रा की ताकत और प्रेरणा के पीछे कोई वैचारिक स्पष्टता या दृढ़ता नहीं होती है, बल्कि एक किस्म की ‘सांस्कृतिक जिद’ होती है। ‎‘सांस्कृतिक जिद’ में अंतर्विरोधों की जटिलताएं पलने लगती हैं। ‎‘सांस्कृतिक जिद’ ‎ जब ‎कभी ‘सांस्कृतिक वर्चस्व’ की स्थिति में आ जाती है तो फिर एक तरह के सामुदायिक विद्वेष और सामाजिक संकट का जन्म होता है।

लोकतांत्रिक ‘आबोहवा’ में सामाजिक समरसता में एक पक्ष और कभी-कभी अवरोधक पक्ष बन जाता है। भारत में ऋषि-मुनि-दार्शनिक, सत्यान्वेषी और उनके विभिन्न पंथों के ऐतिहासिक विकास पर गौर करने से इस का कुछ-न-कुछ आभास जरूर मिल जा सकता है। ‘मुंडे-मुंडे मतिर्भिन्ना। कुंडे-कुडे नवं पयः जातौ जातौ नवाचाराः नवा वाणी मुखे मुखे।’ और वादे वादे जायते तत्त्वबोधः। बोधे बोधे भासते चन्द्रचूडः’ पर एक साथ ध्यान देने से बहुत कुछ स्पष्ट हो सकता है।

शुद्धतावाद का ही दूसरा पहलू है, पूर्णतावाद (Perfectionism)। मिली हुई भौतिक परिस्थिति को अपूर्ण मानकर अधिभौतिक (Metaphysical)‎ परिस्थिति में पूर्णता की तलाश की प्रक्रिया या पूर्णता प्राप्त होने के भ्रम की आत्म-सिद्धि तक यह पूर्णतावाद पहुंचा देता है। अंतर्विरोधों को बाद के लिए अनसुलझा छोड़ने और अप्रियताओं के यथार्थ को ‎काल्पनिक प्रियताओं से बदल देने की पलायनवादी प्रवृत्ति (Escapism) ‎बहुत सक्रिय रहती आई है। शुरू से शुद्ध के लिए युद्ध के मुहाने पर पहुंचकर युद्ध से विरत होकर विषाद में पड़ना इसकी नियति रही है, महत्वपूर्ण उदाहरण के लिए महाभारत में गीता का कृष्ण और अर्जुन संवाद देखा जा सकता है। संवाद में विषाद की स्थिति और निष्काम (निष्परिणाम) ‘कर्म-योग’ की गति के बीच का दोलन और संतुलन देखा जा सकता है।

भौतिक यथार्थ की जटिलताओं और अप्रियताओं के सत्य को अधिभौतिक (Metaphysical) भ्रम से बदलने और फिर भ्रम से भ्रम को काटने के अधिसत्य को सत्य मानने और मनवाने का अभ्यास विद्या के लक्षण से जुड़ता चला गया। ऐसे में स्वाभाविक है कि सत्य हकलाता हुआ, मारा-मारा फिरता रहा और दहाड़ते हुए अधिसत्य की आख्याओं की व्याख्या से विलक्षण विचार संस्कृति का सार बनता रहा। पुनर्जन्म से जुड़े ‘कर्मफल सिद्धांत’ और ‎‘सांस्कृतिक जिद’ ‎को संस्कृति के सार का संबल सदैव मिलता रहा।

भारत अपनी बुनावट में ही बहुलताओं की प्रचुरता से भरा है। यह विरोधी दिखनेवाली विभिन्न स्थितियों और प्रसंगों में तात्कालिक सामंजस्य बिठा लेने में संस्कृति सक्षम रहा है। हिंदु संदर्भ लें तो यह ब्रह्म के एक होने को मानता है और तैंतीस (कोटि) तरह के देवताओं के होने को भी मानता है। बौद्ध धम्म को लें तो इस की भी कई शाखा-प्रशाखाओं को देखते हैं। इस्लाम के अपने भारतीय संस्करण हैं, सिया-सुन्नी के अलावा भी कई मान्यताएँ परंपराएँ हैं। बहुलात्मकता भारत का बुनियादी चरित है। भारत मुंडे-मुंडे मति भिन्नता को मानता रहा है। व्यक्ति की वैचारिक स्वतंत्रता का यह सामुदायिक-सामाजिक प्रसंग बहुत ही आकर्षक है। महत्त्वपूर्ण यह है कि मत और मति की भिन्नताओं की स्वीकृति सुमति की समानता को स्वीकारने और तदनुरूप आचरण का भी आग्रही रहा है।

विद्यापति ने सहज सुमति का वरदान के लिए प्रार्थना की। किस से की! भैरवी से की। “जय-जय भैरवि” मिथिलांचल के ब्राह्मण परिवार और मिजाज में बसा हुआ गीत है। परंपरागत रूप से भारत स्वाभाविक रूप से सहिष्णु, सहअस्तित्व-आग्रही एवं सर्वधर्म समावेशी रहा है। यह माने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि सहिष्णुता, सहअस्तित्व-आग्रह एवं सर्वधर्म समावेशन का संबंध संस्कृति के सार से जैसा भी हो समुदायों के बीच के शक्ति संतुलन में होते रहने वाले बदलावों से जरूर रहा है। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि शासकों, राजा हो या सामंत, की परवाह किये बिना भी रहा है। भारत का यह मनोभाव भारत के लोगों की अपनी कमाई है।

भयानक युद्ध हो रहे होते थे, जनता उससे बेपरवाह रहती थी। जो जीत गये उसके सामने सिर झुकाया। अपना काम करते रहे। प्रसंगवश, आज भी लोकतंत्र के जीवन-मरण की चुनौती के साथ आम चुनाव सामने ‎है, आम लोग उससे अन-उत्सुक ‎’अपना काम’ कर रहे हैं। यह अन-उत्सुकता हार-जीत में मतदाताओं के भूमिका बोध के अभाव के अंतराल को बनाये रखती है। जो जीत गया वह सिकंदर, जो हार गया वह अंदर! कठिन शास्त्रार्थ हो रहे होते थे, जनता उससे बेपरवाह। निष्कर्ष लेकर उसके पास कोई महात्मा पधारे तो उसे भी बिना ना-नुकुर किये अपने चले आ रहे विश्वास और आस्थाओं से जोड़ लिया, नमस्कार किया। ‘अपना काम’ करते रहे। निष्काम होकर ‎‘अपना काम’ अखंड भाव से करते रहे।

ऐसे प्रसंग हैं, जिन में उल्लेख है कि विष्णु ने रात-दिन नारायण-नारायण करते रहनेवाले नारद को नहीं ‎‘अपना काम’ ‎करनेवाले किसान को अपना सब से बड़ा भक्त बताया। प्रसंगवश, आज-कल भक्ति और अंध-भक्ति की चर्चा बहुत होती है लेकिन नारदीय और शांडिल्य भक्ति-सूत्र की चर्चा आचार्य लोग भी नहीं करते हैं। अकारण नहीं है कि अखंड भाव से निष्काम (निष्परिणाम) ‎ ‎‘काम’ ‎करनेवाले हुजूर के भी प्रिय हैं और रोजगार की बात करने वाले फूटी आंख नहीं सुहाते हैं।

भारत की धर्म निरपेक्षता और युरोप की धर्म निरपेक्षता में अंतर है। वहां की धर्म निरपेक्षता की जरूरत चर्च के राज-काज में बढ़ते वर्चस्व के प्रतिरोध में था। वहां धर्मनिरपेक्षता का आशय किसी अन्य धर्म की सापेक्षता का संदर्भ नहीं रचता था। यूरोप की धर्म निरपेक्षता का सीधा मतलब ह राज्य के मामले में चर्च और चर्च के मामले में राज्य कोई हस्तक्षेप न करे। भारत के समाज में धर्म निरपेक्षता का मतलब किसी की अपेक्षा में नहीं, किसी धर्म-संस्थान की सापेक्षता में नहीं बल्कि अपने जीवन में नैतिकता और पर दुख कातरता में संतुलन के साथ अन-आक्रामक जीवनयापन की सुख-सुविधा से रहा है।

भारत औपनिवेशिक वातावरण में युरोप के साथ अपने तुलनात्मक पर्यवेक्षण के लिए कुछ हद तक लालायित था बौद्धिक-प्रतिबंधकता भी महसूस कर रहा था। औपनिवेशिक दासता के वातावरण में बौद्धिक अन-उपनिवेशन की चाह को यूरोप के भारतविदों (Indologist)‎ ने अपने हिसाब से बढ़ावा दिया। इस ‘अपने हिसाब’ में गड़बड़ी भी थी। गड़बड़ी यह कि इस से अति-प्राचीन का महत्व और बखान अतिशयोक्तियों से भरने लगा।

भारत में पूर्णतावाद और शुद्धतावाद के प्रभाव के चलते विचार की व्याप्ति में अव्याप्ति और अतिव्याप्ति का घातक दोष पहले से ही रहा है। भारतविदों (Indologist)‎ के हिसाब-किताब ने सुदूर अतीत के ‘स्वर्ण युग’ और औपनिवेशिक दासता को ‎‘स्वर्ण युग की वापसी’ की संभावनाओं के रूप में प्रस्तुत किया। स्वाभाविक रूप से भारत में मुसलमान शासकों का दौर अंधकारयुग के रूप में देखा-दिखाया जाने लगा। इस देखने-दिखाने से धर्म-आधारित भेदभाव और टकराव के बढ़ने की स्थिति पैदा हो गई।

यूरोप में सामुदायिक बहुलता राष्ट्रीय बहुलता में परिणत हो रही थी जबकि भारत में ‎सामुदायिक बहुलता में पहले से राष्ट्रीय एकता का सामासिक भाव था। यह भिन्न ‎बात है कि राष्ट्र के काल्पनिक समुदाय के साथ जब धार्मिक समुदाय का टकराव हुआ ‎तो उसने अपने को राष्ट्र घोषित कर दिया और भारत में द्विराष्ट्रीयता का सिद्धांत ‎परवान चढ़ गया। अब धर्म एक समुदाय और वह समुदाय राष्ट्र में बदल गया।

सवाल ‎उठता है कि क्या भारत में सिर्फ द्विराष्ट्रीयता का इस तरह आविर्भाव हुआ या अन्य ‎समुदाय भी अपने को राष्ट्र घोषित कर रहे थे। कर रहे थे। दलितों पिछड़ों ‎आदिवासियों के भी भिन्न राष्ट्र होने की बात उठी थी। इतिहासकारों का मानना है कि ‎यदि ‘द्विराष्ट्रीयता’ इतना बलवान न होता तो भारत में कई अनय राष्ट्रीयताओं का ‎तूफान उठना तय था। इस तूफान की गर्म हवा का अनुमान करते हुए ही युरोपीय ‎विद्वानों के एक वर्ग का मानना था कि भारत की टुकड़ों में बंट जायेगा, ऐसा नहीं ‎हुआ। ‎

सवर्ण हिंदू इस भेदभाव और टकराव में अंग्रेजों को अपना हितैषी मानने के भ्रम के शिकार होते चले गये। अ-वास्तविक वर्ण-श्रेष्ठता के वास्तविक अहंकार की उत्पीड़कताओं से परेशान सवर्णेतर लोगों में भी अंग्रेजों का एक रूप ‎‘मुक्तिदाता’ ‎की तरह उभरा। यह बहुत बड़ी ऐतिहासिक विडंबना है कि भारतीयों के मन में मचलती बौद्धिक अन-उपनिवेशन की लालसा को संतुष्ट करने के भारतविदों (Indologist)‎ के प्रयासों के चलते औपनिवेशिक दासता में डालने वाले अंग्रेज शासक ‎‘मुक्तिदेवता’ बनकर उभरने लगे ‘देश-विभाजन के बाद एक खास तरह के मनोभावपन्न भारतीयों एवं सांगठनिक स्तर पर उन से भिन्न और असंबद्ध खास तरह की विचारधारा के लिए भारत में रहनेवाले मुसलमान ‘स्थाई दुश्मन’ बन गये। ‎अंततः ‘स्थाई दुश्मन’‎ के बोध के चलते सांगठनिक रूप से भिन्न और ‎असंबद्ध लोगों का राजनीतिक समर्थन भारतीय जनता पार्टी को मिल गया। इतराने लायक बहुमत पर भारतीय जनता पार्टी का दखल दुरुस्त हो गया।

कांग्रेस पार्टी से ‎‘स्थाई दुश्मन’‎ के बोध को कोई समर्थन नहीं मिलने के कारण उस पर एक तरफ ‘तुष्टिकरण की राजनीति’ का आरोप लगता है तो दूसरी तरफ से मुसलमानों की दुर्दशा दर्ज करने वाली सच्चर कमिटी की रिपोर्टों के निष्कर्षों से आहत किया जाता है। कांग्रेस पार्टी मुसलमानों को ‎‘स्थाई दुश्मन’‎ नहीं मानती ही है, इसलिए अभी 2024 के आम चुनाव में कांग्रेस के घोषणापत्र (न्यायपत्र) में देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ‎‘मुस्लिम लीग की छाप’ ‎साफ-साफ दिख गई! ‎ मजे की बात है कि ‘मुसलमानों’ को इसकी धुंधली-सी भी छाप नहीं दिख रही है।

संक्षेप में, शक्ति की संरचना में अंतर्निहित श्रेष्ठता की सार्विक गारंटी होती है। इस से कोई फर्क नहीं पड़ता है कि ‎‘शक्ति संरचना’‎ औपनिवेशिक अंग्रेजों की है या लोकतांत्रिक भारतीयों की है। जाहिर है हमारा अपना परिप्रेक्ष्य गड़बड़ा गया। फिर एक बात और धर्मनिरपेक्षता आधुनिकता के पेटी (पैकेज) में थी। आधुनिकता के भारतीय संस्करण और यूरोपीय संस्करण में भी अंतर है। एक बात और, लोकतंत्र भी आधुनिकता की पेटी में था। मानवाधिकार भी आधुनिकता की ही पेटी में था। वैश्वीकरण के वातावरण में तेजी से वैचारिक वैधता प्राप्त करनेवाले उत्तर-आधुनिकतावाद ने आधुनिकता की अधूरी परियोजनाओं और पैकजों में उथल-पुथल मचाकर रख दिया!

परंपरा में सब कुछ प्रतिगामी नहीं था और न आधुनिकता में सब कुछ प्रगतिकामी था। परंपरा को पूर्ण रूप से तिलांजलि देने की मांग कहीं-न-कहीं भारतीय परिप्रेक्ष्य में बहुत गहरी थी। प्रगति परंपरा के गर्भ से निकलती है इस समझ के दृढ़तापूर्वक सक्रिय न रहने के कारण परंपरा से मुक्त होने का मतलब अपने जीवित माता-पिता को छोड़ने जैसा हो गया। यह भावनात्मक बात है। महात्मा गांधी ने इस बात को समझा और युरोपीय आधुनिकता की पूरी पेटी को ही अपनाने से इनकार किया। उनके पास भारतीय अनुभव से समृद्ध भारतीय आधुनिकता जैसा वैकल्पिक प्रस्ताव था। यह वैकल्पिक प्रस्ताव आकर्षक भी कम नहीं था। यूरोप का बौद्धिक वर्ग इस वैकल्पिक प्रस्ताव की वैधता को समझ रहा था। विडंबना है कि भारत का ‘नव-बौद्धिक वर्ग’ महात्मा गांधी के वैकल्पिक प्रस्ताव ‎का महत्व समझने में जानबूझकर नाकाम रहा।

राजनीतिक वर्ग या कह लें कांग्रेस से जुड़े शासक वर्ग के लिए यह वैकल्पिक प्रस्ताव अनुकूल तो था लेकिन उनकी अर्थ नीति के अनुकूल नहीं था। एडम स्मिथ की पूंजीवादी करुणा इधर देखती तो है, लेकिन मुनाफा की पट्टी आंख पर फौरन लग जाती है। मार्क्सवाद का सिद्धांत अच्छा है, लेकिन मजदूरों का ‘सिर उठाना’ या मजदूरों की ‘मुट्ठियों का सिर के ऊपर’ तन जाना सामंती मिजाज को बर्दाश्त नहीं है।

कारण अन्य भी थे। व्यक्तिगत राजनीतिक आकांक्षाओं को गिनती में कमतर रखें तो भी इस द्विराष्ट्रीयता का संक्रमण यूरोप से ही आया प्रतीत होता है। भारत में सांप्रदायिक दंगे आधुनिक समय में शुरू हुए। इतिहासकार सुमित सरकार ‎‎बताते हैं। क्या दवा में ही जहर था, सवाल उठता है। कायदे से देखें तो द्विराष्ट्रीयता ‎‎का सिद्धांत दंगों के कारण भी जोर पकड़ा। ‎राष्ट्र के अभ्युदय को गौर से देखें तो यह आधुनिकता के साथ-साथ पूंजी-प्रवाह मुनाफा लालच से होता है।

मुनाफा सुनिश्चित करने के लिए राष्ट्रवाद का नुस्खा बहुत काम का होता है। रहनिहारों के वास्तविक हितों को ठुकरानेवाला राष्ट्रवाद वास्तविक से अधिक एक काल्पनिक संरचना होती है। सभी वास्तविक समुदाय को आच्छादित कर लेनेवाली एक सर्वथा आभासी सामुदायिक संरचना। यह काल्पनिक और आभासी संरचना वास्तविक संरचना की सारी ताकत सोखकर अपना प्राणरस संजोने लगता है। जाहिर है वास्तविक संरचना की ताकत कम होने लगी और काल्पनिक संरचना के कारण दो-दो विश्वयुद्ध हो गये।

बहरहाल, यह कि भारत की धर्मनिरपेक्षता में देश विभाजन से एक और बांक आया इससे इनकार नहीं किया जा सकता है। इस पृष्ठभूमि में भारत की धर्म निरपेक्षता और विभिन्न धर्मों और समुदायों से जुड़े नागरिकों की संवैधानिक प्राथमिकताओं एवं प्रतिबद्धताओं के अक्षत बने रहने की ‘गारंटी’ पर विभ्रममुक्त विचार किया जाना आवश्यक है। विचार का क्रिया अर्थ न्याय भी होता है। भारत जैसे राष्ट्र में नागरिकों के समाने विचार या न्याय करने का अधिकार और अवसर द्वार लगे आम चुनाव में है। निश्चित ही भारत के लोग सोच-समझकर अधिकार और अवसर ‎का बेहतर इस्तेमाल करेंगे।

देश-विभाजन की दुख भरी ऐतिहासिक दुर्घटना के बावजूद भारत में सामान्यतः भारत में समाज और समुदाय सहिष्णु, समावेशी, सामंजस्य बनाये रखने और ‘समरस जीवन पद्धति’ पर अब तक टिका रहा है। समरस जीवन पद्धति और सामाजिक संरचना एवं सामुदायिक आकांक्षाओं के मामले राज्य राष्ट्र का नकारात्मक दखल का स्तर भारत में बहुत बढ़ गया है। इसे निम्नतम स्तर पर नहीं लाया जा सका तो कोई बड़ी राजनीतिक दुर्घटना से इनकार नहीं किया जा सकता है। दखल की नितांत अनिवार्यता हो तो राज्य राष्ट्र पक्षपात रहित और न्याय संगत व्यवहार सुनिश्चित करे। कम-से-कम न्यूनतम पक्षपात और अधिकतम न्याय के सिद्धांत के अनुरूप आचरण करे।

सवाल जीवन-जल-जमीन-जंगल के सतत और स्वस्थ रहने की चुनौतियों से मुकाबला का है। संकट हैं हजार, समाधान है, आपदा में न्याय और सदबुद्धि के साहस के साथ लोकतांत्रिक अधिकार और अवसर का भरपूर इस्तेमाल और भारी संख्या में अपना-अपना मतदान। चुनाव अवसर और अधिकार देता है, सदबुद्धि और सुमति तो अपने पास ही होती है। इंतजार के दिन अब गिनती के रह गये हैं, ये दिन भी गुजर जायेंगे।

(प्रफुल्ल कोलख्यान स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं)

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