अरुंधति रॉय को मिला 45वां यूरोपीय निबंध पुरस्कार

अरुंधति राय को 2021 में प्रकाशित उनके निबंध ‘आज़ादी’ के फ्रांसीसी अनुवाद के प्रकाशन पर उन्हें लाइफटाइम अचीवमेंट के लिए प्रतिष्ठित 45वें ‘यूरोपीय निबंध पुरस्कार’ 2023 से सम्मानित किया गया है। आयोजन के पहले दिन, 11 सितंबर, 2023 को लासान विश्वविद्यालय में निकोला पोजा के साथ राउंड टेबुल बातचीत के तहत अरुंधति रॉय नागरिकता और पहचान, पर्यावरण और वैश्वीकरण तथा जाति और भाषा के सवालों पर अपने विचार रखेंगी और श्रोताओं के सवालों के जवाब देंगी। अगले दिन, 12 सितंबर को लासान पैलेस में आयोजित सम्मान समारोह में उनका व्याख्यान होगा और श्रोताओं के साथ सवाल-जवाब का सत्र होगा।

इस सम्मान और आयोजन के संबंध में प्रकाशित विवरणिका में बताया गया है कि ‘यूरोपियन निबंध पुरस्कार 2023’ का निर्णायक मंडल दुनिया की संरचना और भाषा के साथ उसके रिश्ते को उजागर करने वाले समृद्ध साहित्यिक कार्य को रेखांकित करना चाहता है। अरुंधति रॉय निबंध विधा का इस्तेमाल फासीवाद और उसे गढ़े जाने के तरीक़ों का विश्लेषण करते हुए उसके खिलाफ संघर्ष में करती हैं। फासीवाद एक ऐसा मुद्दा है, जो धीरे-धीरे हमारे पूरे जीवन को अपने क़ब्जे में लेता जा रहा है। ऐसे में, उनके निबंध भिन्न-भिन्न तरह के लोगों के लिए शरण स्थली बन जाते हैं। उनके साहित्यिक कार्य के लिए पुरस्कार देते हुए, निर्णायक मंडल राजनीतिक कार्यवाही के प्रति लेखक की प्रतिबद्धता को भी सम्मानित कर रहा है।

आगे लिखा गया है कि “अरुंधति रॉय के पहले उपन्यास, ‘द गॉड ऑफ स्मॉल थिंग्स’ (मामूली चीजों का देवता), 1997 को ‘बुकर पुरस्कार’ मिला और यह उपन्यास दुनिया भर में एक साहित्यिक आकर्षण का केंद्र बना और इसकी काफी सराहना हुई। अपनी राजनीतिक और मानवीय प्रतिबद्धता के साथ-साथ, वे निरंतर एक समृद्ध साहित्यिक सृजनात्मक गतिविधि में लगी रहती हैं। उनके उपन्यास ‘द मिनिस्ट्री ऑफ अटमोस्ट हैपिनेस’ (अपार खुशियों का घराना), के लिए उन्हें 2017 में ‘राजनीतिक पुस्तकों के लिए ब्रूनो क्रेस्की पुरस्कार’ मिल चुका है।2019 में उनका निबंध-संग्रह ‘माई सेडिशियस हार्ट’ (मेरा बाग़ी मन) प्रकाशित हुआ। 

‘आज़ादी’ निबंध में वे लिखती हैं, कि दक्षिणपंथियों द्वारा लगायी हुई आग से “जब देश जल रहा होगा, उस समय धुर दक्षिणपंथी एक बार फिर खुद को पेश करेंगे कि केवल हम ही एक “कठोर राज्य” को चलाने और समस्या को संभालने में सक्षम हैं। क्या एक ऐसी राजनीति, जो गहरे स्तर तक ध्रुवीकृत हो चुकी है, इन चालों को देखने और समझने में सक्षम होगी? कहना मुश्किल है। वर्षों से यही चीजें मेरे लेखन का विषय रही हैं, मेरे कथा-साहित्य का भी, और गैर-कथा साहित्य का भी।”

“आज़ादी” शब्द कश्मीर में भारत की उपस्थिति को क़ब्जे के रूप में देखने वाले कश्मीरियों के लिए आज़ादी के लिए संघर्ष का एक नारा बन चुका है। विडंबना तो यह है कि हिंदू राष्ट्रवाद की परियोजना के खिलाफ भारत की सड़कों पर संघर्ष कर रहे लाखों लोग भी यही नारा लगा रहे हैं।

जिस समय अरुंधति रॉय ने यह सवाल पूछना शुरू किया था, कि आज़ादी के इन दोनों आह्वानों के बीच कोई खाई है, या इन्हें आपस में जोड़ने वाला कोई पुल भी है? ठीक उसी समय सड़कों पर सन्नाटा पसर गया। सिर्फ भारत में नहीं, बल्कि पूरी दुनिया में। कोरोना वायरस अपने साथ एक और भयानक परिस्थिति से आज़ादी की समझ लेकर आया। अंतरराष्ट्रीय सीमाएं बकवास साबित हो चुकी थीं, पूरी आबादी क़ैद कर ली गयी थी, और आधुनिक दुनिया ऐसे स्थगित कर दी गयी थी, जैसा कभी भी, किसी भी परिस्थिति ने नहीं किया था। 

अपने विद्युतीय उत्तेजना भरे निबंधों की इस शृंखला में, अरुंधति रॉय निरंतर बढ़ रहे अधिनायकवाद के परिप्रेक्ष्य में स्वतंत्रता के अर्थ पर विचार करने के लिए हमें चुनौती देती हैं।

 इसी निबंध में वे लिखती हैं, कि “हम जानते हैं कि उस समय यूरोप में क्या हुआ था जब ऐसी ही विचारधारा के साथ एक संगठन ने पहले खुद को एक देश पर थोपा और फिर अपने लिए और ज्यादा जगह की मांग करना शुरू कर दिया। हम जानते हैं कि ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि जो लोग आने वाले खतरे को देख पा रहे थे, और उसकी पदचाप को महसूस कर पा रहे थे, उनके द्वारा दी जा रही शुरुआती चेतावनियों पर बाकी दुनिया ने ध्यान नहीं दिया। शायद इन चेतावनियों पर इसलिए पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया, और अनसुना कर दिया गया, क्योंकि प्राचीन अंग्रेजियत के मर्दवादी अहंकार से ग्रस्त दुनिया के भीतर पीड़ा और भावुकता से भरी हर प्रत्यक्ष अपील के प्रति संदेह का स्थायी भाव बना रहता है।”

बेचैन कर देने वाले इस समय में सार्वजनिक और निजी, दोनों स्तरों की भाषा पर चिंतन, और कथा-साहित्य तथा वैकल्पिक कल्पनाओं की भूमिका पर विमर्श जैसे विषय इन निबंधों में शामिल हैं।

इस निबंध में एक जगह वे लिखती हैं कि, “‘कल्पना का अंत’ वह पहला निबंध था, जिसके बाद अगले बीस वर्षों तक मैंने केवल गैर-कथा साहित्य लिखा। वे वर्ष थे जिनके दौरान भारत बिजली की गति से बदल रहा था। हर निबंध के लिए, मैंने एक रूप, एक भाषा, एक संरचना और और एक कथ्य की तलाश की। मैं सोचती थी कि क्या मैं उतने ही आवेगपूर्ण ढंग से सिंचाई के बारे में लिख सकती हूं, जितने कि प्यार के बारे में, कुछ खोने के बारे में, या बचपन के बारे में? मृदा के लवणीकरण के बारे में? जल निकासी की समस्याओं के बारे में? बांधों के बारे में? फसलों के बारे में? या चल रहे ढांचागत समायोजन के बारे में और निजीकरण के बारे में? बिजली की प्रति यूनिट लागत के बारे में? आम लोगों के रोजमर्रा के जीवन को प्रभावित करने वाली चीजों के बारे में? उस तरह से नहीं, जैसे रिपोर्ताज लिखे जाते हैं, बल्कि उस तरह से, जैसे कि मैं कोई कहानी सुना रही हूं? मैं ऐसा साहित्य लिखना चाह रही थी, जो सबका साहित्य होता। उनका भी, जो लिख-पढ़ नहीं सकते थे, फिर भी जिन्होंने मुझे यह सिखाया था कि उनके बारे में कैसे सोचा जाए और उन्हें कैसे पढ़ा जाए?”

वे कहती हैं कि यह महामारी, हमारी पिछली दुनिया और एक दूसरी दुनिया के बीच एक प्रवेशद्वार है। चारों तरफ बिखरी हुई बीमारियों और तबाही के बीच पूरी मनुष्यता के लिए यह एक नयी, वैकल्पिक दुनिया की कपरिकल्पना का एक आमंत्रण है, एक अवसर है।

1975 में प्रथम यूरोपियन निबंध पुरस्कार पाने वाले जैक्स एलुल ने निबंध विधा के महत्व के बारे मे अपने व्याख्यान में बताया था कि, “जब हम अलग-अलग तरह की चीजों को एक साथ बांधकर इन रचनाओं को सामने लाते हैं, तो इन्हें निबंध कहना आसान होता है, मतलब कि कुछ अधूरा सा, जिस विषय पर अभी और काम करने की जरूरत हो, एक कोशिश, जिसे बहुत गंभीरता से नहीं लिया जाना चाहिए। लेकिन फिर भी, हम देखते हैं कि ये निबंध ही हैं जिन्होंने सोलहवीं शताब्दी से ही पश्चिमी दुनिया में इंसान के चिंतन के क्षेत्र में एक वास्तविक आंदोलन को चिनगारी दिया, जिसका नतीजा सीधे-सीधे समाज के सांस्कृतिक परिवर्तन और मानसिकताओं में विकास के रूप में सामने आया, जिसने मानवीय मूल्यों में भारी पैमाने पर बदलाव ला दिया।”

 ‘चार्ल्स वीलन फाउंडेशन’ पिछले चालीस वर्षों से भी ज्यादा समय से ‘यूरोपियन निबंध पुरस्कार’ से ऐसे लेखकों की किसी किताब, या किसी रचना को सम्मानित करता आ रहा है, जो अपने लेखन के माध्यम से विचारों के विकास के पोषण और प्रसार में योगदान दे रहे होते हैं। 

1975 से ही ‘यूरोपियन निबंध पुरस्कार’ ऐसे लेखकों पर ध्यान केंद्रित कर रहा है जिनका लेखन वर्तमान समाजों, उनकी प्रथाओं और विचारधाराओं के संबंध में उर्वर विचार-विमर्श का साक्षी बन रहा हो और ऐसे विमर्शों को आमंत्रित कर रहा हो।

यह पुरस्कार पहले से ही एलेक्जेंडर ज़िनोविएव, एडगर मोरिन, त्ज़वेटन टोडोरोव, अमीन मालौफ, सिरी हस्टवेड्ट और एलेसेंड्रो बारिक्को जैसे लेखकों को सम्मानित कर चुका है। इस पुरस्कार से सम्मानित बड़े स्विस विचारकों में जीन स्ट्रोबिंस्की, इसो कैमार्टिन, पीटर वॉन मैट, एलेन डी बॉटन या मोना चॉलेट भी शामिल हैं। 2023 में अरुंधति रॉय इस पुरस्कार से सम्मानित होने वाली 45वीं विचारक हैं। इस पुरस्कार के लिए 20,000 स्विस फ्रैंक (₹18.33 लाख) की धनराशि नियत है।

—प्रस्तुति : शैलेश

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