ग्राउंड रिपोर्ट: जंगल में पेड़ लगाने के लिए अंग्रेजों ने बसाये थे टोंगिया गांव, अब किये जा रहे हैं बेदखल

हरिद्वार। बात 1930 से शुरू करते हैं। यह वह वक्त था जब अंग्रेज भारत में तेजी से रेल लाइन बिछा रहे थे। रेल की पटरियों को आपस में जोड़े रखने के लिए उस वक्त लकड़ी के स्लीपर लगाये जाते थे। अब ये स्लीपर सीमेंट के होते हैं। बड़ी संख्या में स्लीपरों की जरूरत पड़ी तो इतनी ही तेजी से जंगल काटे जाने लगे। सबसे पहले नंबर आया पहाड़ों की तलहटी वाले घने जंगलों का। हालांकि बाद के दौर में पहाड़ों का भी नंबर लगा। लेकिन, शुरुआत इन पहाड़ों की तलहटी वाले जंगलों से हुई। इन्हें पहाड़ताली इलाका कहा जाता है।

मैदान होने के कारण यहां से काटी गई लकड़ी ले जाना ज्यादा आसान था। कुछ ही सालों में पहाड़ताली इलाके के सभी जंगल साफ हो गये। अब अंग्रेज सरकार को अक्ल आई कि जहां जंगल काटे गये हैं, वहां नये सिरे से जंगल लगाये जाने चाहिए। लेकिन, इन क्षेत्रों में दूर-दूर तक गांव नहीं थे, लिहाजा जंगल रोपने के लिए मजदूर नहीं मिले। अंग्रेजों ने चालाकी की। दूर-दूर के इलाकों से लोगों को स्वास्थ्य, शिक्षा और अन्य तरह-तरह के प्रलोभन देकर बुलाया। उन्हें खाली हुए जंगलों के आसपास बसाया।

ये लोग 1986 तक इन इलाकों में जंगल लगाते रहे। इसके बाद उनसे काम छीन लिया गया और जिस जमीन में वे बसे थे और जिस रियायती जमीन को उन्हें खेती करने के लिए दिया गया था, उस जमीन से भी बेदखल करने के प्रयास शुरू कर दिए गये।

सुप्रीम कोर्ट से मिली राहत के चलते अब भी टोंगिया गांव अस्तित्व में तो हैं, लेकिन ये गांव न तो राजस्व गांवों के नक्शे पर हैं और न ही वन भूमि के। लिहाजा लड़ाई आज भी जारी है। उत्तराखंड में 167 वन ग्राम हैं, जिनमें बड़ी संख्या में टोंगिया गांव शामिल हैं।

आज हम ऐसे ही एक गांव आपको ले चलते हैं। उत्तराखंड के हरिद्वार जिले में उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले की सीमा से लगे इस गांव का नाम है, हरिपुर टोंगिया। बताया गया है कि हरिपुर टोंगिया में आसपास के दर्जनभर टोंगिया गांवों की एक पंचायत हो रही है। इस पंचायत में टोंगिया गांवों को राजस्व गांव का दर्जा देने और इन गांवों को वन अधिकार अधिनियम 2006 के प्रावधानों के तहत सुविधाएं देने की मांग की जाएगी और संभवतः आगे की रणनीति तैयार की जाएगी।

टोंगिया गांवों की पंचायत।

देहरादून से हरिपुर टोंगिया गांव पहुंचने के लिए हमें सहारनपुर रोड पकड़नी पड़ी। उत्तर प्रदेश की सीमा में करीब 30 किमी चलने के बाद हम बिहारीगढ़ से बुग्गावाला की तरफ मुड़ गये। बिहारीगढ़ से करीब 3 किमी आगे फिर से उत्तराखंड के हरिद्वार जिले की सीमा शुरू हो गई। बुग्गावाला से करीब 3 किमी आगे चलकर हम एक कच्ची सड़क पर मुड़ गये। इस सड़क पर धक्के खाते हुए करीब 2 किमी चलकर हम हरिपुर टोंगिया गांव पहुंच गये। हमें बताया गया कि पंचायत मुन्नीलाल प्रधान के घर पर हो रही है। यहां हमें कुछ और लोग भी मिल गये, जो पंचायत में शामिल होने जा रहे थे।

मुन्नी लाल ग्राम प्रधान नहीं हैं। दरअसल टोंगिया गांवों में प्रधान होते ही नहीं। इन्हें पंचायत चुनावों से दूर रखा जाता है। विधानसभा और लोकसभा चुनावों के लिए उन्हें आसपास के राजस्व गांवों से संबंद्ध करके वोट का अधिकार दिया गया है। वोट डालने के लिए भी उन्हें दूसरे गांव जाना पड़ता है। इन गांवों में पोलिंग बूथ नहीं बनाये जाते। मुन्नीलाल सरकारी सेवा से सेवानिवृत्त हो चुके हैं। टोंगिया गांवों के हक-हकूकों की लड़ाई में नौकरी के समय से ही वो आगे रहे हैं। लोगों को जोड़ने और हकों की लड़ाई में सबसे आगे रहने के कारण उन्हें लोग प्रधान कहकर संबोधित करते हैं।

मुन्नीलाल प्रधान के घर के सामने टेंट लगा है। कुछ दरियां बिछाई गई हैं और कुछ कुर्सियां लगी हैं। सामने की तरफ अखिल भारतीय वन जन श्रमजीवी यूनियन का बैनर लगा है। अतिथि के रूप में यूनियन के राष्ट्रीय अध्यक्ष अशोक चौधरी और राष्ट्रीय महामंत्री रोमा मौजूद हैं। पंचायत की कार्यवाही अभी शुरू नहीं हुई है। इस दौरान ‘जनचौक’ ने वहां मौजूद लोगों से बातचीत करने का प्रयास किया।

बताया गया कि इस पंचायत में हरिपुर टोंगिया, हजारा टोंगिया, मसूरपुर टोंगिया, टीरा टोंगिया, कमला नगर और पुरुषोत्तम नगर के लोग शामिल हैं। पड़ोसी सहारनपुर जिले के 5 टोंगिया गांवों के कुछ प्रतिनिधि भी पंचायत में मौजूद हैं और उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश की सीमा पर मोहंड के जंगलों में रहने वाले वन गूजरों के प्रतिनिधि भी आये हुए हैं।

टेरा टोंगिया के चरण सिंह ने हमें टोंगिया गांवों इतिहास के बारे में बताया। वो कहते हैं कि “हम टोंगिया मजदूर के रूप में यहां आये लोगों की तीसरी पीढ़ी हैं। अब तक हम वन विभाग से मिली रियायती भूमि पर काश्तकारी करते रहे हैं, लेकिन 1986 के बाद से तरह-तरह से परेशान किया जा रहा है।”

टोंगिया गांव में बैठीं महिलाएं।

चरण सिंह के अनुसार “अंग्रेजों ने सबसे पहले इस इलाके के जंगल काटे। उसके बाद फिर से जंगल लगाने के लिए दूसरी जगहों से प्रलोभन देकर मजदूरों को लाया गया। जंगलों के आसपास उन्हें प्रति परिवार एक से दो बीघा रियायती जमीन दी गई। इस जमीन के बदले हर परिवार से हर वर्ष 6-7 रुपये चंदा लिया जाता था और रसीद काटी जाती थी। यह राशि वन विभाग के खाते में जमा होती थी।”

वो आगे बताते हैं कि “प्रति परिवार एक से दो बीघा जमीन के अलावा इन मजदूर परिवारों को उस जमीन पर भी काश्तकारी करने की छूट होती थी, जहां जंगल लगाया जाता था। जिस क्षेत्र में जंगल रोपा जाता था, उसे टोंगिया भूमि कहा जाता था। इस जमीन पर तब तक खेती होती थी, जब तक वहां लगे पेड़ बड़े नहीं हो जाते थे। लगभग 5 साल में पेड़ बड़े होते तो किसी अन्य इलाके को टोंगिया जोन बनाया जाता और इस नये क्षेत्र में पौधे रोपने, उनकी देखभाल करने के साथ उस जमीन पर काश्तकारी दी जाती थी।”

उन्होंने बताया कि “वन विभाग की ओर से जंगल उगाने और बड़े होने तक पेड़ों की देखभाल करने के ऐवज में टोंगिया गांवों के लोगों को कभी कोई मजदूरी नहीं दी गई। सिर्फ एक बीघा रियायती जमीन और टोंगिया जमीन पर पेड़ों के बड़े होने तक काश्तकारी करने का हक ही उन्हें मिलता रहा है।”

मुन्नी लाल प्रधान के अनुसार “1986 तक इन गांवों के लोग लगातार वन भूमि में पौधारोपण करते रहे। वन विभाग उन्हें रियायती जमीन की रसीद और टोंगिया जमीन में पेड़ बड़े होने तक काश्तकारी करने की इजाजत देता रहा। 1986 में इस क्षेत्र को राजाजी नेशनल पार्क घोषित कर दिया गया। इसी के साथ टोंगिया गांवों के लोगों का टोंगिया भूमि पर काश्तकारी करने का हक खत्म हो गया और वन विभाग ने रियायती जमीन की रसीद देनी भी बंद कर दी। इसी के साथ देशभर के सभी टोंगिया गांवों को तोड़ने का आदेश आ गया।”

मुन्नी लाल के अनुसार “इसी वर्ष, यानी 1986 में इस इलाके के गांवों को उजाड़ने की भी तैयारियां की गईं। सरकारी अमला सबसे पहले हरिद्वार जिले के रसूलपुर टोंगिया गांव पहुंचा। लेकिन, वहां जोरदार विरोध हुआ और सरकारी अमले को पीछे हटना पड़ा। इसी दौरान इन गांवों के लोग सुप्रीम कोर्ट पहुंचे और सुप्रीम कोर्ट ने गांवों के उजाड़ने के खिलाफ स्टे दे दिया। उसी स्टे की बदौलत आज भी टोंगिया गांव बचे हुए हैं।”

मुन्नी लाल बताते हैं कि इसके बाद इन गांवों को बचाने में वन अधिकार अधिनियम-2006 की महत्वपूर्ण भूमिका रही। वे कहते हैं कि इस विधेयक पर चर्चा के दौरान लोकसभा में स्वीकार किया गया था कि वनवासियों के साथ 60 वर्षाें से ऐतिहासिक अन्याय किया गया। हालांकि वे कहते हैं कि ये 60 वर्ष आजादी मिलने के दिन से गिने गये थे, जबकि वास्तव में वनवासियों के साथ पिछले 250 वर्षों से ऐतिहासिक अन्याय किया जा रहा है।

मुन्नी लाल प्रधान।

इस पंचायत में कुछ महिलाएं भी शामिल हैं। हालांकि महिलाओं की संख्या कम है। अनिता पेगवाल और राखी खास तौर से सक्रिय हैं। ‘जनचौक’ ने राखी और अनिता से टोंगिया गांवों के बारे में बातचीत की। उन्होंने बताया कि हाल ही में इस इलाके के तीन टोंगिया गांव- हरिपुर टोंगिया, कमला नगर और पुरुषोत्तम नगर को राजस्व ग्राम घोषित किया गया है। टोंगिया गांव के लोगों की पहली मांग तो यह है कि सभी टोंगिया गांवों को राजस्व ग्राम घोषित किया जाए। लेकिन, बात इतने से ही नहीं बनने वाली है।

दरअसल पौधारोपण का काम बंद हो जाने के बाद टोंगिया गांवों के पास टोंगिया भूमि नहीं रह गई है, यानी वह जमीन जिसमें पेड़ लगाये जाते थे और 5 वर्ष तक उस पर खेती करने की अनुमति होती थी। इसके साथ ही परिवारों की संख्या बढ़ गई है। 1930 में जो एक बीघा रियायती जमीन मिली थी, वह अब कई टुकड़ों में बंट चुकी है।

अनिता पेगवाल कहती हैं, “इस पंचायत के माध्यम से यह मांग की जा रही है कि टोंगिया गांवों के लोगों को वन अधिकार अधिनियम 2006 के प्रावधानों के अनुसार जमीन दी जाए। इसके अलावा यह भी मांग की जा रही है कि टोंगिया गांवों के लोगों ने 1930 से 1986 तक जो जंगल बनाये हैं और जिन जंगलों की देखभाल की है, उन जंगलों पर इन गांवों को सामूहिक अधिकार दिया जाए।”

अखिल भारतीय वन जन श्रमजीवी यूनियन के राष्ट्रीय अध्यक्ष अशोक चौधरी की अध्यक्षता में पंचायत की कार्रवाई शुरू हुई। इस पंचायत में सभी टोंगिया गांवों के प्रतिनिधियों ने अपनी बात रखी।

बाद में यूनियन की राष्ट्रीय महासचिव रोमा ने कहा कि केन्द्र में बैठी सरकार वन अधिकार कानून 2006 को हटाने के लिए भी तैयार बैठी है। ऐसे में जरूरी है देशभर के वनवासी एकजुट हों और इस कानून के प्रावधानों के अनुसार सुविधाएं हासिल करने के लिए लड़ाई लड़ें। उन्होंने कहा कि सरकार अब वनों को भी उद्योगपतियों को सौंपने के प्रयास कर रही है, इसलिए सभी को सावधान रहने की जरूरत है।

(उत्तराखंड के हरिद्वार से त्रिलोचन भट्ट की ग्राउंड रिपोर्ट।)

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