ग्राउंड रिपोर्ट: नक्सलियों से मुक्त होने के बाद भी बदहाल है बूढ़ा पहाड़ का तुमेरा गांव

गढ़वा। झारखंड-छत्तीसगढ़ सीमा पर लगभग 55 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैले बूढ़ा पहाड़ इलाके में कभी माओवादियों के पीपुल्स लिबरेशन ऑफ गुरिल्ला आर्मी (PLGA) का मुख्यालय रहा, लेकिन अब यहां सुरक्षाबलों का कब्जा है।

बूढ़ा पहाड़ इलाके की सीमा झारखंड के लातेहार व गढ़वा जिला और छत्तीसगढ़ के बलरामपुर से सटी हुई है। तीन दशक तक बूढ़ा पहाड़ और उसके आसपास के इलाकों में नक्सलियों की तूती बोलती रही है। वह बूढ़ा पहाड़ आज माओवादियों के चंगुल से आजाद माना जा रहा है।

बताया जाता है कि बूढ़ा पहाड़ माओवादियों के बिहार झारखंड उत्तरी छत्तीसगढ़ सीमांत एरिया का मुख्यालय था। 2018 में माओवादियों के पोलित ब्यूरो सदस्य रहे देव कुमार सिंह उर्फ अरविंद जी की मौत के बाद तेलंगाना के रहने वाले सुधाकरण ने बूढ़ा पहाड़ की कमान संभाली थी। लेकिन 2020-21 में सुधाकरण ने पूरी टीम के साथ तेलंगाना में आत्मसमर्पण कर दिया।

सुधाकरण के बाद मिथिलेश मेहता को बूढ़ा पहाड़ की जिम्मेवारी मिली। 2022 में मिथिलेश मेहता के गिरफ्तार होने के बाद सौरव को बूढ़ा पहाड़ का नया कमांडर बनाया गया। लेकिन उसने कुछ दिनों पहले बिहार में आत्मसमर्पण कर दिया।

बताते चलें कि सितंबर-अक्टूबर 2022 में बूढ़ा पहाड़ पर नक्सलवादियों के खिलाफ अभियान ऑक्टोपस चलाया गया। जिसके बाद बूढ़ा पहाड़ नक्सलवाद से मुक्त हुआ है। बताया जाता है कि बूढ़ा पहाड़ पर ही माओवादियों के कैडरों को गुरिल्ला वार की ट्रेनिंग दी जाती थी। यह इलाका नक्सलियों के छकरबंधा से सारंडा कॉरिडोर के बीच की कड़ी थी।

बूढ़ा पहाड़ का करीब 50 प्रतिशत क्षेत्र पलामू टाइगर रिजर्व के अंतर्गत आता है। पूरा इलाका घने जंगल और पहाड़ियों की श्रृंखला है। यह क्षेत्र आदिम जनजाति बहुल क्षेत्र है।

सुरक्षा बलों के हवाले बूढ़ा पहाड़

झारखंड में आए दिन सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों, पहाड़ों व जंगल किनारे बसे आदिवासियों पर सीआरपीएफ और पुलिस बलों द्वारा नक्सल उन्मूलन अभियान के दौरान उत्पीड़न की खबरे सुर्खियों में होती हैं। इनके शिकार प्रायः निरीह आदिवासी ही होते हैं। ऐसी घटनाओं की एक लंबी फेहरिस्त है।

नक्सल मुक्त बूढ़ा पहाड़ क्यों है बदहाल?

आज जब बूढ़ा पहाड़ का इलाका पूरी तरह से नक्सल मुक्त हो गया है और नक्सल प्रभाव का हवाला देकर विकास न कर पाने का रोना रोने वाली व्यवस्था इस नक्सल प्रभाव से मुक्ति के बाद कई डपोरशंखी योजनाओं की घोषणाएं की है, फिर भी क्षेत्र की बदहाली वहीं की वहीं है।

इस सच को जानने के लिए हम चलते हैं राज्य का गढ़वा जिला अंतर्गत बूढ़ा पहाड़ इलाका का बरगढ़ प्रखण्ड के टेंहड़ी पंचायत स्थित तुमेरा गांव का एक टोला। बूढ़ा पहाड़ की चोटी पर बसा यह ऐसा दुरूह गांव है, जहां आदिम जनजाति के 9 परिवार पिछले लगभग 100 सालों से वास करते आ रहे हैं।

एक समय ऐसा था जब इस पहाड़ पर नक्सलियों का गढ़ माना जाता था। आज यहां सीआरपीएफ और झारखंड पुलिस के संयुक्त कैंप स्थापित हैं। कैम्प से सटा सोलर पॉवर ग्रिड स्थापित है, जहां से सभी 9 आदिम जनजाति परिवार और एक यादव परिवार को बिजली मुहैया कराई जा रही है।

कैम्प के अंदर ही पुलिस जवानों के द्वारा स्कूल संचालित किया जा रहा है। जहां न सिर्फ इस गांव के बच्चे ही नहीं बल्कि आस-पास के गांव थलिया और छत्तीसगढ़ का पुंदाग गांव से भी बच्चे पढ़ने के लिए आते हैं। इन बच्चों को कोई शिक्षक आकर नहीं पढ़ाता है बल्कि कैम्प के एकाध जवान ही इन बच्चों को पढ़ाते हैं।

कैंप के अंदर भवन निर्माण सहित कई निर्माण कार्य चल रहे हैं, जिसमें ग्रामीणों से बतौर मजदूर काम कराया जा रहा है। वहीं इन इलाकों में राज्य सरकार की रोजगार से संबंधित किसी भी योजना के संचालन का घोर अभाव साफ दिखाई देता है।

आधुनिक विकास की परिभाषा के हिसाब से देखना चाहें तो पूरे इलाके में मोबाइल संपर्क बहाल कर दिया गया है और बरगढ़ प्रखण्ड के परसवार गांव से बूढ़ा पहाड़ चोटी तक प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना का काम तेजी से चल रहा है। वहीं प्रत्येक 2 से 7 किलोमीटर के दायरे में सीआरपीएफ कैंप स्थापित हैं। ये शिविर क्रमश: कूल्ही, हेसातू, बहेराडीह और बूढ़ा पहाड़ में हैं।

चारों शिविर गांव के बिल्कुल प्रवेश मुहाने पर स्थापित किए गए हैं। जहां कोई बाहर से जाकर आम ग्रामीणों से बात व मुलाकात करना चाहे तो पहले कैंप के आगंतुक पंजी में व्यक्तिगत जानकारी प्रविष्ट करना होता है। अगर कैंप कर्मियों को मुलाकात कराना उचित महसूस होता है तब वह आगंतुक, ग्रामीणों से मिल सकता है अन्यथा उसे खाली हाथ वापस लौट जाना पड़ता है।

इस मामले में झारखंड नरेगा वाच के संयोजक जेम्स हेरेंज, आदिवासी मामलों के जानकार सुनील मिन्ज और बड़गढ़ प्रखण्ड के 20 सूत्री अध्यक्ष विश्राम बाखला भाग्यशाली रहे। उन्हें ग्रामीणों से मिलने की अनुमति मिल गई।

उन्होंने क्षेत्र के भ्रमण के दौरान जो पाया उसके अनुसार बूढ़ा पहाड़ पर स्थित बहेराडीह के ऊपरी भाग में बिरजिया और नीचे के भाग में कोरवा आदिम जनजातियों का दैनिक जीवन किसी उबड़-खाबड़ पहाड़ से कम कठिनाई भरा नहीं है।

राज्य के मुखिया हेमंत सोरेन के कई दौरे के बाद भी उनके बुनियादी सवाल अनुत्तरित रह गए हैं। नक्सली उन्मूलन के नाम पर उस गांव के सभी आदिम जनजाति परिवारों को 7 साल तक अपने जमीन से बेदखल होकर गांव से दूर मदगड़ी (च) में अर्द्धसैनिक बलों की निगरानी में समय काटना पड़ा।

कहा यह गया कि नक्सलियों के साथ होने वाले संघर्ष में इनको नुकसान हो सकता है। यहां भी ये आदिवासी लोग जातीय भेदभाव के शिकार हुए। हुआ यह कि गांव में जो यादव परिवार रहते हैं, उनको गांव में ही रहने दिया गया। मतलब यादव परिवार को सुरक्षा बलों और नक्सलियों के बीच होने वाले संघर्ष में किसी नुकसान की संभावना नहीं थी। यानी खतरा सिर्फ आदिवासियों को था।

अब पिछले एक दो सालों से ये आदिवासी परिवार अपने गांव (बूढ़ा पहाड़) को लौटने लगे हैं और अपने जीवन की दूसरी पारी की शुरुआत कर रहे हैं।

नक्सली गतिविधियों और विस्थापन की घटना को याद करते हुए ग्रामीण बलदेव बिरजिया और विफा बिरजिया बताते हैं कि यहां से विस्थापन के लिए उनको प्रति परिवार 5-5 एकड़ जमीन देने का प्रलोभन दिया गया था। लेकिन वहां जाने पर मात्र 4-4 डिस्मिल ही जमीन मिली थी। उसी जमीन में बने मकानों में बसाया गया था।

उन्होंने कहा कि जाने वाले दिन 15-16 कमांडर जीप गाड़ी नीचे पुंदाग तक आई हुई थी। उसी में हम अपने जरूरत के सामान, बर्तन और कपड़े वगैरह ले गए थे। हमारे घरों में रह रहे पशुओं को भी न तो हमें बेचने दिया गया और न ही उन्हें हमारे साथ भेजा गया।

उन्होंने बताया कि संगठन (नक्सली संगठन) के लोग यहां आस-पास जमीन खोदकर मांद बनाकर उसमें रहते थे। उस मांद के अवशेष अभी भी देखे जा सकते हैं। वे लोग जब कभी भी मीटिंग बुलाते थे तो सभी बाल बच्चों सहित बैठक में उपस्थित होना हमारी मजबूरी थी।

उन्होंने बताया कि अगर कोई परिवार घर में रहते हुए बैठक में शामिल नहीं हुआ तो उसे संगठन के सदस्यों द्वारा बेरहमी से सार्वजनिक दण्ड स्वरूप लाठी डंडों से पीटा जाता था। जब न तब दिन हो या रात कभी भी संगठन के लोग आते तो उनको खाना बनाकर खिलाने के लिए बाध्य किया जाता था। किसी की भी पुलिस मुखबिरी के नाम पर हत्या कर देना उन दिनों आम बात थी।

वे बताते हैं कि सरकार की कल्याणकारी योजनाओं की स्थिति नक्सलियों के काल में जितनी बुरी थी, आज भी यथावत है। बहेराडीह गांव में लगभग 23 साल से स्कूल है बावजूद आज गांव के युवा हो चुके दीपक कोरवा, प्रभु कोरवा, अशोक कोरवा, मनोहर कोरवा, बिगन कोरवा सरीखे युवा शिक्षा से कोसों दूर हैं, क्योंकि गांव में स्थित इस स्कूल में शिक्षक नियुक्त तो रहे हैं, लेकिन वे सिर्फ वेतन और मानदेय उठाते रहे हैं, स्कूल कभी नहीं आते हैं।

वो कहते हैं कि आज भी यहां दो पारा शिक्षक नियुक्त हैं, वो हेसातू गांव में रहते हैं, लेकिन वे स्कूल खोलते ही नहीं हैं।

ग्रामीण बताते हैं कि शिक्षक 2-3 महीने में एक दिन के लिए आते हैं और हाजिरी बनाकर चले जाते हैं। इनकी ऐसी स्थिति से शिक्षण कार्य तो नहीं ही चलता है साथ ही स्कूलों में मिलने वाला मिड डे मील यानी बच्चों को दोपहर का भोजन भी नहीं मिलता है। जबकि यह विद्यालय सीआरपीएफ कैंप प्रवेश द्वार के बिल्कुल साथ में अवस्थित है।

बहेराडीह में बिजली पहुंच चुकी है, बावजूद वहां के वाशिंदों को बिजली ट्रांसफार्मर नहीं लगने की वजह से बिजली मयस्सर नहीं हो रही है। वहीं गांव में स्थापित सीआरपीएफ कैंप में बिजली का ट्रांसफार्मर लगाया गया है और कैंप के जवान उसी बिजली से आधुनिक जीवन का लुत्फ उठा रहे हैं।

बूढ़ा पहाड़ के इन आदिम जनजाति समुदाय के बिरजिया और कोरवा परिवारों को मुख्यमंत्री डाकिया खाद्यान्न योजना के तहत मिलने वाला 35 किलो राशन प्राप्त करने के लिए प्रत्येक बार 200 रुपये खर्च करने पड़ते हैं। क्योंकि सरकारी रजिस्टर में दर्ज नाम के हिसाब से ये परिवार अब भी मदगड़ी (च) में निवास करते हैं।

वहीं इनको डाकिया योजना का अनाज वितरण किया जाता है और ये लोग ट्रैक्टर से 200 रुपये प्रति भाड़ा लेकर गांव तक अनाज लाते हैं। यदि जिला प्रशासन चाहे तो बहेराडीह में अनाज वितरण कर इस बेवजह हो रहे खर्चे को खत्म कर सकता है।

साप्ताहिक बाजार के लिए यहां के लोग बरगढ़ या भंडरिया जाते हैं। इसके लिए उनको गाड़ी भाड़ा के रूप यानी आने-जाने में 200 रुपये खर्च करने पड़ते हैं। जबकि डाकिया योजना का अनाज नियमतः आदिम जनजाति परिवार के घर तक पहुंचाने की बाध्यता है।

बूढ़ा पहाड़ के मजदूरों का मनरेगा योजना का रोजगार कार्ड आज भी मदगड़ी निवासी अब्दुल मियां का भाई कई वर्षों से अपने पास अवैध तरीके से रखे हुए है। वहीं अर्जुन बिरजिया (11274) के नाम से तो बिचौलिया लोग हरेक साल 100 दिनों का काम दिखा कर पैसों का गबन कर रहे हैं। बिफा बिरजिया के नाम से भी 18 दिन काम मिलने की बात दर्ज है।

उधर कोरवाडीह गांव के बिगन कोरवा की शिकायत है कि उसने राजू कोरवा के मेढ़बंदी निर्माण में कार्य किया था, उसकी मजदूरी उनको आधी अधूरी ही मिली। जबकि उनके रोजगार कार्ड में काम की कोई प्रविष्टि नहीं है।

इधर काम किए हुए मजदूर मजदूरी मिलने की उम्मीद लगाए बैठे हैं, उधर ऑनलाइन रिकॉर्ड में 38 हजार की योजना में मात्र 26 हजार खर्च दिखाकर कार्य को पूर्ण दिखा दिया गया है। ऐसे में अब इसमें मजदूरी भुगतान की कोई गुंजाइश नहीं रही।

कुल मिलाकर सरकार व जिला प्रशासन द्वारा इलाके में विकास का जो ढिंढोरा पीटा जा रहा है, वह सिर्फ मीडिया और कागजों तक सीमित है।

गांव के रिहुल बिरजिया, सुहैल बिरजिया, दिनेश बिरजिया, दीपक बिरजिया, निर्मल बिरजिया, महेंद्र बिरजिया, दीपक कोरवा, प्रभु कोरवा, अशोक कोरवा, मनोहर कोरवा सरीखे युवाओं को आज भी रोजगार के लिए केरल और बेंगलोर को पलायन करना पड़ रहा है।

जगवा कोरवा जो वर्षों से खेत, खलिहान, घर द्वार बनाकर जिस जमीन पर काबिज था, उसको अपने घर और जमीन से भरी बरसात व ठंड के सीजन में सीआरपीएफ कैंप निर्माण के नाम पर बेदखल कर दिया गया। क्योंकि उनके पास जमीन के कागजात नहीं थे।

नौनिहालों को समुचित पोषण और शिक्षा, लोगों को रोजगार, बिजली, शुद्ध पेयजल जैसी बुनियादी सुविधाएं कैसे मयस्सर होगी, इस ओर सरकार का बिल्कुल भी ध्यान नहीं है।

झारखंड नरेगा वाच के संयोजक जेम्स हेरेंज, आदिवासी मामलों के जानकार सुनील मिन्ज और बड़गढ़ प्रखण्ड के 20 सूत्री अध्यक्ष विश्राम बाखला ने बताया कि क्षेत्र का भ्रमण करने के बाद हमने पाया कि इस क्षेत्र में सरकार नाम का कोई ढांचा ही नहीं है।

(विशद कुमार की रिपोर्ट।)

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