ग्राउंड रिपोर्ट: पलामू के पीढ़े गांव के 54 आदिम जनजाति परिवारों को अगस्त महीने से नहीं मिला राशन

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झारखंड। पलामू जिला मुख्यालय से 20 किलोमीटर दक्षिण में है रामगढ़ प्रखण्ड के बांसडीह पंचायत का पीढ़े गांव। इस गांव में बसते हैं खतियानी आदिम आदिवासी परहिया सहित साहू (तेली बनिया) और भुइयां (दलित) परिवार के लोग।

यह गांव जिले के चैनपुर-बरवाडीह मुख्य पथ पर अवस्थित जरूर है, लेकिन आदिम जनजाति के परहिया परिवार जिस- पानी खोचा और केदला टोला में रहते हैं वहां तक पहुंचने के लिए कोई समुचित पहुंच पथ नहीं है।

गांव में दबंग लोगों की वजह से इस टोले तक कोई सरकारी विकास योजना भी लोगों को नहीं मिलती है। 6 वर्ष के 25 से अधिक ऐसे बच्चे हैं जो आंगनबाड़ी सुविधा से पूर्णत: वंचित हैं, क्योंकि गांव के मुख्य टोला में स्थित आंगनबाड़ी केंद्र तक रास्ते के अभाव में बच्चों का रोज पहुंचना नामुमकिन है।

नील गायों के कारण यहां खेतों की फसल बचाना मुश्किल है। एक ओर इस वर्ष समय से बारिश न होने की वजह से खेती नहीं हो पाई। वहीं दूसरी ओर खेती नहीं हो पाने की वजह से टोले के पुरूष सदस्य रोजगार के लिए पलायन कर गये हैं, अतः पुरुष सदस्यों के नहीं रहने के कारण कम पानी की कुरथी, सुरगुजा जैसी फसलों को नील गायों से बचाना भी बिल्कुल मुश्किल हो गया है।

कुल मिलाकर देखा जाए तो न घर में खेती किसानी के लिए पुरुष सदस्य घरों में हैं और न ही खेती को नील गायों से बचाने के लिए। परिणामतः ऐसे में उनके खेत भी सूने पड़े रह जाते हैं।

कहना ना होगा कि गांव के परहिया परिवार की दुखनी देवी का दुःख और विपती देवी की विपत्ति पूर्णत: सरकारी संवेदनहीनता का परिणाम है न कि मिचोंग तूफान जैसी प्राकृतिक आपदा का कहर। डाकिया योजना के अंतर्गत सरकार द्वारा दी जाने वाली आदिम जनजाति परहिया परिवारों को मिलने वाला खाद्यान्न विगत अगस्त महीने से पीढ़े गांव के 54 परिवारों को नहीं मिला है। जिसके कारण सभी परहिया परिवारों के समक्ष खाद्य संकट गहरा गया है।

यही कारण है कि उनके दैनिक खाद्य जरूरतों में अप्रत्याशित गिरावट देखी जा रही है। सरकारी अनाज न मिलने की वजह से परिवार के सदस्य सामान्य दिनों की अपेक्षा प्रतिदिन के भोजन में आधी मात्रा से ही गुजारा करने को विवश हैं।

कमोवेश सभी आदिम जनजाति परिवारों से मजदूरी करने योग्य पुरुष 2 से 3 माह पूर्व गांव छोड़कर बैंगलोर, चेन्नई आदि शहरों को मजदूरी की तलाश में पलायन कर गए हैं। सिर्फ परहिया परिवारों से पलायन करने वाले मजदूरों की संख्या 90 से अधिक है। गांव में सिर्फ महिलाएं, बुजुर्ग और उनके बच्चे शेष रह गए हैं।

गांव की महिलाएं अपनी व्यथा व्यक्त करते हुए बताती हैं कि “जो लोग भी बाहर कमाने गए हैं अभी तक एक पैसा भी खर्चे के लिए घर नहीं भेज पाए हैं l हां, जब फोन पर बात होती है तो वे बताते हैं कि काम मिल गया है, अभी मजदूरी नहीं मिली है।”

महिलाओं ने दैनिक खाद्य जरूरतों के इंतजामात के बारे में बताया कि “दशहरा के पहले ही दुकानों में बहुत उधार हो गया है। वहीं चकवड़ (इसे चकोड़ भी कहा जाता है, इसका बीज बहुत गुणकारी होता है, इसमें आयरन की मात्रा अधिक होती है। यह पथरी व डायबिटीज में काम आता है। इसका वैज्ञानिक नाम Senna Obtusifolia है।) के बीज के सीजन आता है तो करीब 15 दिनों तक सभी महिलाएं आस-पास और जंगलों से चकवड़ का बीज इक्कठा कर उसे स्थानीय महाजनों यानी बनिया वर्ग को बेचती हैं।”

महिलाएं बताती हैं कि “एक दिन में वो 2 से 3 किलो बीज संग्रहित कर पाती हैं, जिसे महाजन को 20 रूपये किलो बेचकर 36 रूपये चावल खरीद खाते हैं। अब जब चकवड बीज का सीजन ख़त्म हो गया है, तो हमलोग तुलसी के बीज संग्रहित कर बेचना शुरू ही किये थे कि मिचोंग तूफान के प्रभाव से जो 3-4 दिनों तक लगातार बारिश हो गई, उसने हमारी पूरी उम्मीदों पर पानी फेर दिया। यह बीज 18 रुपये बिकना प्रारंभ हुआ था, लेकिन अब पानी आ जाने से इसकी कहानी पूरी तरह समाप्त हो गई।”

मनरेगा में काम और मजदूरी के बाबत उन्होंने बताया कि “कोई काम खुले तब तो काम करेंगे।” लेकिन दुखद पहलू यह भी पाया गया कि किसी भी परिवार के पास रोजगार कार्ड नहीं है। पूछे जाने पर उन्होंने बताया कि गांव के ठेकेदार 10-12 सालों पहले ही काम खोलने के नाम पर सबों से कार्ड ले लिया था, फिर कभी रोजगार कार्ड वापस नहीं दिया।

गांव की 35 महिलाओं ने 30 अगस्त को ही अपनी समस्या को लिखित तौर पर सरकारी मुलाजिमों को अवगत करा दिया है। झारखंड राज्य खाद्य आयोग के सदस्य सचिव के पत्रांक WA/568/2023 के माध्यम से जिला आपूर्ति पदाधिकारी को 15 दिनों में आवेदन पर कार्रवाई सुनिश्चित करने का निर्देश दिया गया था।

इसके बाद भी न तो जिला आपूर्ति पदाधिकारी ने कोई कार्रवाई की और न ही इतने दिनों तक आयोग ने पुन: कोई संज्ञान लिया है। ग्रामीणों ने राशन सम्बन्धी समस्याओं को लेकर जिला मुख्यालय में धरना भी दिया था, लेकिन मामला वही ढाक के तीन पात रहा। ग्रामीणों की मानें तो सरकार गरीबों की सुनने वाली नहीं है।

सिर्फ पीढ़े गांव के आदिम जनजाति के ही लोग नहीं, चैनपूर और रामगढ़ प्रखण्ड के 33 गांव के कोरवा और परहिया परिवार राशन की भारी किल्लत से जूझ रहे हैं। यहां बतौर डम्मी डीलर के एम० ओ० हैं, लेकिन राशन वितरण का पूरा कारोबार निजी व्यक्तियों के हाथों में प्रशासन ने छोड़ दिया हैl

गांव के परहिया परिवार की विपति देवी के घर में कुल 9 सदस्यों का खाना एक साथ बनता है। यदि डाकिया योजना का अनाज मिलता है तब उस पूरे अनाज से किसी तरह 10 से 15 दिनों का खाद्य जरूरत पूरी हो पाती है। शेष दिनों में वो लोग बाजार से अनाज खरीद कर काम चलाते हैं। उनको जो पेंशन मिलती है जिससे महीने में दो बार करके अरहर दाल खरीदकर खाते हैं। यह दाल उनको 150 से 170 रुपये किलो खरीदनी पड़ती है।

उनका कहना है कि “सामान्य दिनों में हमारे घर में प्रतिदिन सुबह शाम मिलाकर 10 किलो चावल बनता है, लेकिन अनाज न मिलने की वजह से महज 6 किलो प्रतिदिन अनाज पर संतोष करना पड़ रहा है।” ठीक इसी तरह बुधन परहिया शारीरिक रूप से बेहद कमजोर और बुजुर्ग हैं, उनकी उम्र 65 के करीब है, किन्तु सरकारी दस्तावेज में उम्र कम होने की वजह से उनको वृद्धावस्था पेंशन का लाभ नहीं मिल रहा है।

(झारखंड से विशद कुमार की रिपोर्ट।)

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