ग्राउंड रिपोर्ट: चटकते रिश्तों और वादा-खिलाफी के बीच पिस रहा पुलवामा हमले के शहीद का परिवार 

बहादुरपुर, चंदौली। जवान बेटे की शहादत के बाद पारिवारिक टूटन, आर्थिक जरूरतों और अवसाद से पसीजते ह्रदय की पीड़ा सुनना और लिखना-आसान नहीं है। वाराणसी जिला मुख्यालय से महज 15 किमी गंगा पार उत्तर-पूर्वी छोर से सटा चंदौली जनपद का पहला गांव बहादुरपुर है। यह गांव पूर्वांचल के अति व्यस्ततम चौराहों में से एक पड़ाव चौराहे के उत्तर दिशा में स्थित है।

मंगलवार को दोपहर में प्राइवेट नौकरी पर जाने के लिए पैंसठ वर्षीय हरिकेश लाल यादव तैयार हो रहे थे। गांव में कोई ख़ास चहल-पहल नहीं थी। हां चौराहों के पास राहगीरों की आवाजाही बनी हुई थी। हरिकेश यादव के बेटे अवधेश कुमार यादव साल 2009 में सीआरपीएफ में भर्ती हुए थे। जो साल 2019 में कश्मीर के पुलवामा आतंकी हमले में शहीद होने वाले 40 जवानों में से एक थे।

बेटे के ड्यूटी पर होने की वजह से पोते की कई वर्षों तक परवरिश और अचानक पुलवामा घटना के बाद पारिवारिक बिखराव रिश्तों की नाजुक डोर पर क्या असर डालती है? इसकी एक बानगी यहां देखने को मिलती है, जिसमें वाराणसी के तोफापुर शहीद रमेश यादव के परिजन और चंदौली के बहादुरपुर के शहीद अवधेश कुमार यादव के परिजनों के दुःख, तकलीफ, चुनौतियों, आर्थिक विपन्नता, रिश्तों के दरकते ताने-बाने, अधूरी हसरतों का बोझ और जवान बेटे के खोने का गम परिवार के प्रत्येक सदस्य का हर शय पीछा कर रहे हैं।

देश पर मर-मिटने वालों जाबांज शहीद के परिजनों की खोज-खबर लेने के दूसरे प्रयास क्रम में ‘जनचौक की टीम’ चंदौली के शहीद अवधेश कुमार यादव से घर-गांव बहादुरपुर पहुंची।

बहादुरपुर गांव के पंचायत भवन की ओर जाने वाली सड़क।

अवधेश कुमार यादव की शहादत को लगभग चार साल गुजर गए, लेकिन सरकार और नेताओं द्वारा किये गए कई वादे अब भी आधे-अधूरे हैं। शहीद की पत्नी को कलेक्ट्रेट में बाबू की नौकरी मिल गई है। जबकि पड़ाव चौराहे पर शहीद के नाम का गेट, स्टेडियम और गांव में प्रतिमा-स्मारक लगना शेष है। बहरहाल, चंदौली के सपूत की शहादत के बाद वादों को पूरा किये जाने की रस्साकसी में समय गुजरता जा रहा है। इस गुजरते वक्त और तेजी से ढलते स्वास्थ्य के बीच हर तरह की कीमत शहीद के परिजनों को चुकानी पड़ रही है।

मां-बेटे का अधूरा रह गया सपना

कश्मीर के पुलवामा जिले में 14 फरवरी 2019 को हुए हमले में सीआरपीएफ के कुल 40 जवान शहीद हो गए थे। देश सेवा पर कुर्बान होने वाले बेटे के लिए एक तरफ बाप होने के नाते गहरा दु:ख था तो दूसरी तरफ पूरा क्षेत्र उसको अपना बेटा मान रहा था। देशभक्ति का जज्बा, देश के लिए प्रेम और शहीद बेटे के सम्मान को देखकर गर्व से छाती चौड़ी हो रही थी।

मेडल और प्रशस्ति पत्र।

पिता हरिकेश का रुंधा हुआ गला और डबडबाई हुई आंखें। खुद को संभालते हुए ‘जनचौक’ को बताते हैं कि “बेटे का सपना था कि नया घर बने। उसके जाने के बाद जब नया घर बनकर तैयार हुआ तब कुछ दिन बाद ही कैंसर से पीड़ित उनकी मां मालती देवी का भी निधन हो गया। मां-बेटे दोनों का नए घर में रहने का सपना अधूरा ही रह गया।

मुगलसराय में रहती हैं शहीद की पत्नी

पुलवामा हमले को सरकार की लापरवाही बताते हुए पिता हरिकेश यादव कहते हैं कि “बेटे की शहादत के बाद सरकार की तरफ से तमाम वादे किए गए थे। बहू को नौकरी मिल गई। परिवार का भरण-पोषण चल रहा है, लेकिन बेटे के नाम से गांव के बाहर गेट और मूर्ति लगाने का वादा अभी अधूरा ही है।

बहादुरपुर पंचायत भवन की दीवार पर लगा शहीद के नाम का शिलापट्ट।

शहीद अवधेश यादव की पत्नी शिल्पी मायके (मुगलसराय के पीडीडीयू नगर) में रहती हैं। राज्य सरकार की ओर से उन्हें कलेक्ट्रेट में बाबू की नौकरी मिली है। बेटे की शहादत के लगभग डेढ़ वर्ष बाद बहू मायके चली गई। उन्होंने मुगलसराय में घर बनवा लिया है और छह वर्षीय पोते के साथ वहीं रहती हैं। उनका हम लोगों यानी परिवार से अब कोई विशेष संबंध नहीं रहा गया है।

पोते से बिछड़ने का गम

“मेरे बेटे का बेटा होने के चलते अपने पोते से मिलने थोड़े-थोड़े दिन के अंतराल पर जाता रहता हूं। बड़ी इच्छा रहती है कि पोता हम लोगों के पास रहते हुए बड़ा हो, ताकि उसे मेरे बेटे की कमी नहीं खले। हम उसकी देखभाल में कोई कमी नहीं करते थे। शायद नियति को कुछ और ही मंजूर था। घटना के बाद बेटा तो सदा के लिए चला गया, साथ ही पोता भी हमसे दूर हो गया। छोटे बेटे की बहू खाना बनाकर खिलाती है। मेरी पत्नी (मालती देवी) बेटे के शहीद होने के कुछ ही महीनों बाद चल बसी। अब बेटे, पत्नी की याद में दिन काटने पड़ रहे हैं।” ये कहते हुए हरिकेश यादव बातचीत को रोककर कुछ पल के लिए शांतचित्त हो जाते हैं।

अपने पोते के साथ शहीद के पिता हरिकेश यादव।

नवनीत चहल के बाद किसी डीएम ने खबर नहीं ली

हरिकेश यादव ने बताया कि “पुलवामा हमले के बाद चंदौली के जिलाधिकारी नवनीत सिंह चहल जब तक जनपद में जिलाधिकारी रहे, महीने-दो महीने पर गांव-घर आकर कुशलक्षेम पूछते थे। उनके जाने बाद से कौन? और कैसे अफसर आये हैं? इनके बारे में मुझे जानना भी नहीं है और न ही कोई हम लोगों का हाल चाल लेने आया। मुझे ऐसे लोगों के पास जाने में कोई ख़ास दिलचस्पी नहीं है। मैं एक छोटी सी प्राइवेट नौकरी करता हूं। जिससे मेरे तो खर्चे निकल जाते हैं, लेकिन कुछ बच नहीं पाता है। जैसे-तैसे परिवार का भरण-पोषण चल रहा है। ढलती उम्र के साथ स्वास्थ्य (मेडिकल) खर्च भी बढ़ गया है।”

उन्होंने आगे कहा कि “उस समय नेताओं से लेकर अधिकारियों तक ने जाने कितने वादे किये थे। इन लोगों ने कहा था कि आप जो कहेंगे वो बन जाएगा। हमारी सिर्फ छोटी से मांग थी कि पड़ाव चौराहे पर बेटे के नाम से गेट बन जाए। स्टेडियम बनाने को भी कहा गया था, लेकिन कुछ हो नहीं पाया। छोटे बेटे को भी नौकरी देने का कहा गया था, लेकिन अभी तक नहीं मिली। शहीद के नाम से सड़क हो, प्रतिमा समेत शहीद स्मारक बनाया जाए, लेकिन बहू को नौकरी मिलने और बेटे के नाम पर एक छोटी सी सड़क के अलावा अब तक कुछ नहीं हो पाया है।”   

पड़ाव चौराहे के पास अब तक शहीद के नाम का स्मृति द्वार नहीं बन सका है।

फिर कोई नहीं आया

‘जनचौक’ के आखिरी सवाल पर शहीद के पिता हरिकेश जी थोड़े उदास भाव में ठहर जाते हैं। वे कहते हैं “हम लोग सीधे-सज्जन आदमी हैं। हम लोग किस हाल में रह रहे हैं, इसकी जानकारी लेने कोई नहीं आता। फिर तो वादों की बात छोड़ ही दीजिये। उस समय तो सांसद और मंत्री ने कहा था कि जो आप कह रहे हैं, वो सब होगा, लेकिन फिर कोई नहीं आया। किसी ने हाल भी नहीं लिया कि हम कैसे हैं? हमें नहीं पता कि पुलवामा हमले की जांच कहां पहुंची है? जांच में क्या हो रहा है, नहीं पता? ये भी नहीं पता कि जांच हो भी रही है या नहीं?

(चंदौली से पवन कुमार मौर्य की ग्राउंड रिपोर्ट।)

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