किसान आंदोलन-2: चुनौतियां और सबक 

पंजाब के हज़ारों किसान बीती तेरह फरवरी से शंभू और खनौरी बॉर्डर पर डटे हुए हैं। आंदोलनरत किसान दिल्ली जाकर आला हुक़ूमत को घेर कर अपनी मांगें मनवाने के लिए अडिग हैं। वे पूरी तैयारी के साथ गांव-घरों से निकले हैं। जैसे 2020 में निकले थे। वह दशक का सबसे बड़ा किसान आंदोलन था। 2021 यानी एक साल से भी ज़्यादा लंबे अरसे तक उक्त किसान आंदोलन ने पूरी दुनिया में मिसाल क़ायम की थी। देश भर के लाखों किसानों ने उसमें शिरकत की थी। सात सौ से ज्यादा किसान विभिन्न वजहों से; केंद्रीय सत्ता से चले संघर्ष के दौरान मारे गए थे।

‘किसान आंदोलन-एक’ के इतिहास के पन्नों में उन्हें बाकायदा शहीद का दर्जा हासिल है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर यह किसान आंदोलन मीडिया से लेकर विदेशी सरकारी परिसरों तक बड़ी चर्चा का विषय बना तो एकबारगी ज़िद्दी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार को किसानों के आगे झुकना पड़ा। वादे-समझौते करके आंदोलन उठवा दिया गया। बाद में मगरूर शासन-व्यवस्था ने इसे भी अपनी ‘कामयाबी’ बताया। सरकारी वादों पर फ़ौरी यकीन करके किसान घरों को लौट आए लेकिन आखिरकार वादे वफ़ा नहीं हुए। नतीजतन किसान फिर आंदोलन की राह अख्तियार करने को मजबूर हैं।

13 फरवरी से उन्होंने फिर परचम लहराते हुए शंभू और खनौरी बॉर्डर पर मोर्चे जमा लिए। 21 फरवरी को किसान दिल्ली की ओर बढ़ रहे थे तो हरियाणा की भाजपा सरकार की खुली शह पर वहां की हथियारबंद पुलिस और अर्धसैनिक बलों ने जमकर किसानों पर कहर ढाया। एक युवा किसान शुभकरण सिंह मौके पर खेत हो गया। एक अन्य प्रितपाल सिंह पीजीआई चंडीगढ़ में जिंदगी और मौत की जंग लड़ रहा है। पांच किसान लापता हैं। हथियारबंद पुलिस और अर्धसैनिक बलों से टकराव में तक़रीबन सौ किसान गंभीर रूप से जख्मी हुए।

शुभकरण की मौत के बाद आंदोलनरत किसानों की अगुवाई करने वाली मुख्यतः दो जत्थेबंदियों संयुक्त किसान मोर्चा (गैर राजनीतिक) और किसान मज़दूर मोर्चा पर आधारित फोरम ने दिल्ली कूच को आगे टाल दिया लेकिन अब तारीख़ की घोषणा एकाध दिन में यानी अगले कुछ घंटों में हो जाएगी।  12 मांगों के साथ हजारों किसान 13 फरवरी को शंभू और खनौरी बॉर्डर पर 2020-21 के ऐतिहासिक किसान आंदोलन की मानिंद डट गए थे। शंभू और खनौरी बॉर्डर पर तदर्थ ‘किसान गांव’ बस गए हैं।

23 फसलों पर न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की क़ानूनी गारंटी, किसानों और खेत मज़दूरों को समूचे तौर पर कर्ज मुक्त करना, पिछले किसान आंदोलन के दौरान मारे गए किसानों के लिए मुआवजा तथा उसे वक्त किसानों के ख़िलाफ़ दर्ज़ किए गए फौजदारी मुकदमे रद्द करना-किसानों की प्रमुख मांगे हैं। केंद्र सरकार ने 13 फरवरी के बाद आंदोलन की अगुवाई कर रहे किसान संगठनों के नेताओं से कई दौर की वार्ता की लेकिन यह कवायद बेनतीजा रही।

आम लोकसभा चुनाव सिर पर हैं। ऐसे में नया किसान आंदोलन भाजपा सरकार के लिए बहुत बड़ी मुसीबत का सबब है। भाजपा चिंता और चिंतन में एकसाथ है। सरकारी खेमों में राहत महसूस की जा रही थी कि पंजाब के किसान संगठन पहले की मानिंद ‘एक’ नहीं हैं और विघटन का शिकार हो चुके हैं। इसलिए आंदोलन मजबूती व जड़ें नहीं पकड़ेगा। इतिहास से नावाकिफ नहीं जानते कि यह सरहदी सूबा आंदोलनों और जनपक्षीय लहरों की पुख्ता सरजमीं रहा है। संगठन अथवा दल अलहदा हो जाते हैं और वक्त की नज़ाकत के साथ फिर एकजुट!

यह भी केंद्र सरकार के लिए असुखद ख़बर होगी कि पंजाब के गुटों में विभाजित किसान संगठन ‘आंदोलन-2’ के लिए फिर एक मंच पर आ रहे हैं। सबसे बड़े संगठन संयुक्त किसान मोर्चा (एसकेएम) सहित पहली क़तार के अन्य किसान संगठनों ने इसके विश्वसनीय संकेत दिए हैं। किसान फोरम के साथ शंभू बॉर्डर पर बैठकों के लंबे दौर के बाद नई रणनीति का खाका तैयार कर लिया गया है।

किसान संगठनों ने साफ़ कर दिया है कि रविवार के बाद इस नई रणनीति के तहत आंदोलन आगे बढ़ेगा। सोशल मीडिया और अन्य संचार माध्यमों के ज़रिए यह ख़बर पंजाब के सुदूर गांवों तक चली गई है। दूसरे किसान संगठनों का कैडर भी दिल्ली कूच के लिए तैयारियों के साथ घरों से निकलना शुरू हो गया है। अब तक ‘किसान आंदोलन-2’ कहीं न कहीं सिमटा-सा लगता था। किसान संगठनों की एकता की संभावनाएं सामने आने से उसमें नई ऊर्जा आ रही है। शुभकरण सिंह की दुखद मौत और हरियाणा पुलिस की ज्यादतियों ने भी अंततः ‘जोड़ने’ का काम किया है। यह जुड़ाव सरोकारी और लंबे संघर्ष की ओर ले जाता है। सरोकार और संघर्ष ही किसी आंदोलन की ताकत होते हैं।                 

‘किसान आंदोलन-2’ का आगाज़ हुआ तो राज्य की भगवंत मान की अगुवाई वाली आम आदमी पार्टी (आप) सरकार ने उसकी खुली हिमायत की। कांग्रेस और शिरोमणि अकाली दल भी किसान आंदोलन के समर्थन में हैं। भाजपा को यह कहने का मौका मिला कि आंदोलन राजनीति के साए में है। इस नैरेटिव के बीच किसान संगठनों ने सत्ताई राजनीति से मुक्ति की राह प्रशस्त की जब उन्होंने राज्य सरकार पर किसान हितों के सवाल पर सवालिया निशान उठाए।

मान सरकार के आश्वासन के बावजूद शुभकरण सिंह का पोस्टमार्टम तब तक नहीं होने दिया, जब तक सरकार तथा पंजाब पुलिस की ओर से एफ़आईआर नहीं दर्ज कर ली गई। उन्होंने तब तक सरकारी मुआवजा और मृतक किसान के परिवार के एक सदस्य को नौकरी की पेशकश भी फ़ौरी तौर पर नामंजूर कर दी।

किसान संगठनों का सीधा आरोप है कि 23 फरवरी प्रकरण की बाबत ‘आप’ सरकार ने सियासी पैंतरेबाज़ी की। घोषणा के बावजूद शुभकरण की मौत के लिए जिम्मेदार तत्वों के खिलाफ मामला दर्ज करने में सरकारी तंत्र ने लगातार आनाकानी की। जब केंद्र के साथ-साथ राज्य सरकार भी किसानों के निशाने पर आई तो उसका रुख बदल गया। उसे किसानों के आगे झुकना पड़ा। सरकार का इक़बाल टूटा और इसकी खासी किरकिरी हुई।

किसान संगठनों ने ‘आप’ सरकार से दूरी बना ली। कांग्रेस और शिरोमणि अकाली दल को भी मुंह नहीं लगाया। इन सभी को दहलीज़ पर खड़े लोकसभा चुनाव में किसानों के वोट चाहिएं। किसान भाजपा के साथ-साथ अन्य राजनीतिक पार्टियों के समीकरण भी बदल रहे हैं। किसान आंदोलन के चलते पंजाब की राजनीति अस्थिरता की स्थिति में है। शिरोमणि अकाली दल, कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के लिए किसान वोट बैंक रहे हैं। इसलिए भी गैरभाजपाई दलों की ‘विशेष सहानुभूति’ किसानों के लिए मुखर है। ‘किसान आंदोलन-एक’ में किसान संगठनों ने परंपरागत राजनीतिक दलों का तक़रीबन बहिष्कार-सा किया हुआ था। किसी भी दल को अपने मंचों पर नहीं आने दिया। ‘किसान आंदोलन-2’ के लिए भी यही रणनीति निर्धारित की गई है।                                               

साल 2020 से लेकर 2024 तक काफ़ी कुछ बदल चुका है। सत्ता और ज्यादा मगरूर हुई है और क्रूर भी। हरियाणा की ओर से किसानों को रोकने की कवायद इसका एक सबूत है। केंद्र और हरियाणा की भाजपा सरकार प्रत्यक्ष-प्रोरक्ष तौर पर किसानों को हिंसा तथा अतिक्रमण के लिए उकसा रही है। दरअसल सरकारों को बहाना चाहिए। कुछ दिन पहले किसान नेताओं ने कहा था कि हरियाणा पुलिस के गुप्तचर विभाग के कई कर्मचारी आंदोलन को नुकसान करने की नीयत से शंभू और खनौरी मोर्चों पर डटे किसानों के बीच विचर रहे हैं।

भाजपा का आईटी सेल पंजाब-हरियाणा और शेष देश में लगातार अफवाहें फैला रहा है कि ‘किसान आंदोलन-2’ में खालिस्तान एवं असामाजिक तत्व बड़े पैमाने पर शामिल हैं जो इस आंदोलन को हिंसक बना सकते हैं। ‘किसान आंदोलन-एक’ के दौरान भी यह नैरेटिव बनाया गया था। इस बार ज्यादा जोर-शोर से बनाया जा रहा है। यह किसान आंदोलन के लिए बड़ी चुनौती है। इसे भी विभिन्न माध्यमों से रेखांकित किया जा रहा है कि इस बार अवाम पहले की मानिंद किसानों के साथ नहीं है और इसकी एक बड़ी वजह खालिस्तानियों व अलगाववादियों का किसानों को  समर्थन है। ‘विदेशी मदद’ का झूठा प्रचार भी किया जा रहा है।

भाजपा का आईटी सेल यह अफ़वाह भी फैला रहा है कि भाजपा विरोधी विपक्ष ने पैसे खर्च करके ‘पेशेवर गुंडे’ शंभू-खनौरी बॉर्डर पर भेजे हैं। दीगर है कि इनकी शिनाख्त कोई जाहिर नहीं करता। जगजाहिर है कि भाजपा अफ़वाहों के बलबूते असहिष्णुता की राजनीति का खेल खेलती है। अफ़वाह का दूसरा नाम ही झूठ होता है लेकिन यह तात्कालिक तौर पर समाज के कुछ वर्गों को लपेटे में ले लेता है। भाजपा को न्यूनतम स्तर पर इसमें सफलता मिली है लेकिन वह ज्यादा देर तक टिक नहीं पाएगी। नई रणनीति के तहत किसान संगठनों ने अतिरिक्त सावधानी इस बाबत रखनी शुरू कर दी है। भाजपा की ओर से बड़े पैमाने पर यह मिथ भी खड़ा किया गया कि किसान आंदोलन आम लोगों के लिए परेशानियां खड़ी कर रहा है।

शुभकरण सिंह की मौत के बाद किसान संगठनों ने पंजाब और हरियाणा में राज्यस्तरीय ट्रैक्टर मार्च निकाले। तब पूरा ख्याल रखा गया कि लोगों को दिक्कत न हो। ट्रैक्टर सड़क के किनारे चले। यातायात बाधित नहीं हुआ। इसने भाजपा की उस मिथ को तोड़ा। अब भीतर ही भीतर चालाकी के साथ बदनाम आईटी सेल दुष्प्रचार कर रहा है कि किसान आंदोलन ‘हिंदू हितों’ को नुकसान पहुंचा रहा है।

पंजाब की ओर किसानी में सिख समुदाय के लोग हावी हैं तो आढ़त और व्यापार में हिंदू। अतीत में दोनों तबकों (किसानों/आढ़तियों/व्यापारियों) के बीच वर्गीय मतभेद और टकराव रहे हैं लेकिन अब भाजपा से सांप्रदायिक रंग से रंगना चाहती है। आतंकवाद के काले दौर में भी ऐसा नहीं हुआ। इस तरह की आग से कोई नहीं खेला!                   

2020-21 के किसान आंदोलन ने किसानों को बेशुमार सबक हासिल हुए थे। आंदोलन गति पकड़ता है तो यक़ीनन वे अब काम आएंगे। किसान नेताओं के इस कथन के गहरे निहितार्थ हैं कि दिल्ली कूच के दौरान उन्हें पुलिस और अर्धसैनिक  बलों ने आगे नहीं बढ़ने दिया तो वे हिंसक टकराव से बचने की राह अख्तियार करते हुए बॉर्डर पर ही अमन और सद्भाव के साथ पक्का मोर्चा लगा लेंगे।

शुभकरण सिंह की तरह किसी और किसान की जान नहीं जान दी जाएगी। इसका विशेष ध्यान रखा जाएगा कि किसान मोर्चे नागरिकों के लिए किसी भी किस्म की असुविधा की वज़ह न बनें। यह किसानों का आंदोलन कुचलने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार भाजपा सरकारों को एक व्यवहारिक जवाब है।

(पंजाब से अमरीक की रिपोर्ट)

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