पंजाब: बाढ़, सियासतदान और त्रासदी की हवा में लटकते लोग

बाढ़ सरीखी प्राकृतिक आपदा सांस लेने वाले किसी भी प्राणी को असहाय पीड़ा और नुकसान के सिवा कुछ नहीं दे सकती। यह हकीकत मानव सभ्यता के विकास से ही आकार ले ली थी। बाढ़ पीड़ा बांटती है, आज भी बांटती है। लेकिन राजनीति और राजनीतिज्ञ? उनकी भूमिका की थोड़ी ही सही, विश्लेषणात्मक समीक्षा अपरिहार्य है।

इन दिनों पंजाब बाढ़ से बेजार है। ‘जनचौक’ ने निरंतर बाढ़ पीड़ितों के दुख-दर्द और शासन-व्यवस्था की विसंगतियों अथवा नालायिकों को लगातार गहराई के साथ रिपोर्ट किया। सच की कई परते हैं। पूर्व चेतावनी के बावजूद मानवीय जिंदगी से खेलने वाली आपदा को ज्यादा गंभीरता से न लेना, फिर गंभीर होकर लोगों के बीच बिचरने का नाटक करना और आसन्न दिक्कत से युद्ध स्तर पर लड़ने का दावा करना और दावे को सिर्फ दावा ही रह दे जाना। पंजाब में यही सब कुछ हो रहा है। 

रोज सुबह अखबार खोलिए या टीवी चैनल देखिए; खबरों अथवा सूचनाओं के अंबार मिलेंगे कि आज की मूसलाधार बारिश ने तमाम प्रमुख नदियों का जलस्तर बेहद ज्यादा बढ़ा दिया है और बांध खतरे के निशान से ऊपर बह रहे हैं। जगह-जगह तटबंध ऐसे टूट रहे हैं गोया बच्चों के मिट्टी के खिलौने हों, जो जरा सा सख्त हाथ लगते ही टूट जाते हों। डूब और पार का रास्ता कम से कमतर होता जा रहा है। बचते-बचाते भी लोग बह रहे हैं। मर रहे हैं। खासतौर पर वे जिनकी मरने की उम्र अभी 40-45 साल बाद आनी थी। वे इसलिए मर रहे हैं कि घर से कुछ कीमती सामान, जिनमें थोड़ी राशि, कुछ सोना और एक पासपोर्ट महफूज निकाल लाएं। 

बाढ़ का क्या भरोसा-इसका कहर कब तक बरपता रहेगा। पासपोर्ट होगा तो एजेंट कर्ज लेकर उठाए पैसे बेकार नहीं जाएंगे और इस बीच वीजा लग गया तो पासपोर्ट चाहिए होगा। गहने इसलिए कि उन्हें बेचकर कुछ खर्च जेब में होगा। बाहर चले गए तो बाढ़ से टूटा घर फिर से पहले से भी ज्यादा अच्छी सजधज के साथ बनेगा। पशु जो मारे गए, उनकी जगह नए आ जाएंगे और जिंदगी सामान्य हो जाएगी। घग्गर नदी में संगरूर के एक गांव का नौजवान इसी आस में सांसों की डोर से जुदा हो गया। सब कश्ती में बैठ रहे थे लेकिन वह अंदर यह सब ढूंढ रहा था कि बोट चल पड़ी। छत की तरफ जाने वाली लकड़ी की सीढ़ी बह चुकी थी और बावक्त किश्ती पलट कर नहीं आई लेकिन जिंदगी चली गई। पराए मुल्क में जाने के ख्वाबों के साथ! वह ऐसा पहला नौजवान तो नहीं होगा और न आखिरी। परिस्थितियों में जरूर अंतर होगा। कई विकलांग बुढ़े बह गए जो पानी से निकालने आई कश्ती तक भी नहीं पहुंच पाए। विकलांगों के साथ भी ऐसा हुआ। 

यकीनन तमाम ऐसे लोग बेमौत मारे गए। ऐसे भी जो तंदुरुस्त थे और लोकसेवा के चलते जीवन की जंग हार गए। अखबार और खबरिया चैनल महज सूचनाएं देते हैं। ऐसी संवेदनशीलता से उनका क्या लेना देना? लोग भी अब कई जगह बेशर्मी के साथ ‘स्कोर’ यानी मरने वालों की संख्या पर सट्टा लगाने में मशगूल हैं। मौत पर सट्टा लग रहा है तो इस पर भी कि बाढ़ का तांडव कब रुकेगा और तब तक कितने इंसान और कितने पशु जिंदगी से हाथ धो बैठेंगे। विश्वास कीजिए, बेहया लोगों का यह काला धंधा पंजाब से लेकर हरियाणा और राजस्थान तथा आगे गुजरात तक फैला हुआ है। गुजरात से मुंबई में भी उत्तर भारत की बाढ़ पर सट्टा लग रहा है।

इन पंक्तियों के लेखक का एक जानकार सूत्र बताता है कि पंजाब का एक वरिष्ठ राजनेता और हरियाणा का भी एक सीनियर लीडर इस कफन चोरी में लगे हुए हैं। हरियाणा और राजस्थान के बारे में मशहूर है कि वहां हर चीज पर सट्टा लगता है। अनाज के भाव से लेकर यहां तक कि सामने से जाने वाला व्यक्ति वहां खड़ा होकर पेशाब करेगा या नहीं। यह मजाक नहीं हमारे समाज का वह गंदा सच है जिसे बहुत कम सामने लाया जाता है। इसलिए भी कि से बेहद सामान्य बात माना जाता है। 

खैर, पंजाब सरकार ने मैदानी आकलन के अंदाजों से फिलवक्त मान लिया है कि एक हजार से ज्यादा गांव बाढ़ में पूरी तरह बह गए हैं। साठ से ज्यादा लोग मारे गए हैं और पशु एवं पोल्ट्री जीव बेहिसाब संख्या में बाढ़ ने लील लिए। बाढ़ का प्रकोप जब शुरू हुआ था तो मुख्यमंत्री भगवंत सिंह मान का बयान आया था कि हम अपने तईं विपदा से निपट लेंगे। हमारे पास मुनासिब साधन हैं। मुख्यमंत्री मान कई मामलों में एक समझदार राजनेता हैं और पूरी तरह से ईमानदार। ऐसा कहते वक्त क्या उन्हें यह भी मालूम नहीं था कि विपदा की कोई उम्र नहीं होती। होती है तो उसका अनुमान नहीं लगाया जा सकता। जैसे अब नहीं लगाया जा सका। 

मौसम विभाग ने पहले-पहल कहा था कि मूसलाधार बारिश ज्यादा नहीं बरसेगी लेकिन आसमान को कुछ और मंजूर था। हालात हर लिहाज से काबू से बाहर हुए तो राज्य की शासन-व्यवस्था को सबसे पहले विपदा से निपटने में निपुण अथवा खासतौर पर प्रशिक्षित अर्धसैनिक बलों का सहारा लेना पड़ा। फिर मुख्य सचिव को आर्थिक सहयोग के लिए केंद्र से लिखित में मांग करनी पड़ी। मुख्य सचिव ने तो नहीं बताया कि कितना पैसा उन्होंने बाढ़ ग्रस्त इलाकों में राहत के लिए केंद्र सरकार से मांगा है।

राजनीतिक खेमों में कयास लगने जरूर शुरू हो गए। कोई कहता है कि पंजाब ने केंद्र से एक हजार करोड़ रुपए से ज्यादा का सहयोग मांगा है तो दूसरा प्रतिद्वंदी दल कहता है कि दो हजार करोड़ रुपए के लिए गुहार की गई है। इस पर भी सट्टा और शर्तें लग रही हैं। पारदर्शिता इसमें होती कि शासकीय नोट जारी होता कि केंद्र से कितनी रकम प्रदेश ने मांगी है। कितनी मंजूर हुई है और कितनी आ चुकी है। यह सब राजकीय और राजनीति के गलियारों में विचरने वालों को तो बखूबी पता होगा लेकिन अवाम; जिस पर यह रकम खर्च होनी है–उसे इस बाबत कुछ नहीं मालूम। वह अंधेरे में है। क्या उन्हें अंधेरे में ही रखा जाएगा?                              

राजनीति के बड़े बयानवीर लोगों के बीच जाकर कुछ करें या नहीं लेकिन कैमरों के सामने और बंद कमरों में अखबार के प्रतिनिधियों को एक जैसा ध्यान जरूर दे रहे हैं। प्रदेश भाजपा प्रदेशाध्यक्ष सुनील कुमार जाखड़ नए-नए ओहदे पर बैठे हैं तो ज्यादा सुर्खियां तो चाहिएं ही चाहिएं। पंजाब में बाढ़ की बाबत उनका पहला बयान आया था कि भगवंत सिंह मान सरकार की नालायकी-अनुभवहीनता के चलते ज्यादा तबाही हुई। मान सरकार को चाहिए कि नुकसान का पूरा आकलन हालात सामान्य होने के बाद करवाना शुरू करे। गिरदावरी भी बाद में हो लेकिन फिलहाल पीड़ित किसानों को 25-25 हजार रुपए की राहत राशि तत्काल दी जाए।

जाखड़ का ताजा बयान है कि सरकार उनकी सलाह पर गौर नहीं कर रही। पूछा जाना चाहिए कि सुनील कुमार जाखड़ अपने आलाकमान भाजपा को ही क्यों नहीं कह देते कि वह बाढ़ ग्रस्त इलाकों के पीड़ित किसानों के लिए फौरी पैकेज प्रधानमंत्री रिलीफ फंड से जारी करने के लिए कहें। मारक आपदा के दौरान केंद्र सरकार के पास अन्य कई किस्म के आर्थिक सहयोग हेतु कई फंडों का प्रावधान होता है। उनके लिए राज्य सरकार का अनुरोध जरूरी नहीं होता।

केंद्रीय एजेंसियों की रिपोर्ट्स के आधार पर ही दिल्ली के खजाने से पैसा प्रभावित राज्य के खजाने में आ जाता है। सुनील कुमार जाखड़ इस पहलू पर जोर क्यों नहीं देते? वह बेहद अनुभवी राजनेता हैं और अच्छी तरह जानते हैं कि यह सब चंद पलों में संभव है। इससे इनकार नहीं कि वह पंजाब हितैषी हैं लेकिन यहां उनकी भूमिका बयान देने से ज्यादा कुछ भी नहीं है।

कांग्रेस प्रदेशाध्यक्ष अमरिंदर सिंह राजा वडिंग और नेता प्रतिपक्ष प्रताप सिंह बाजवा विपक्षी एकता के चलते पंजाब में होने वाले नफा-नुकसान पर लंबी- चौड़ी बैठकें कर रहे हैं लेकिन बाढ़ ग्रस्त इलाकों में जाने कि उन्हें फुरसत नहीं। जाते भी हैं तो औपचारिक तौर पर हाजिरी लगवाने। चंडीगढ़ आकर रटा-रटाया बयान जारी कर देते हैं कि भगवंत मान सरकार निकम्मी है और सूबे में बाढ़ की स्थिति बिगड़ती जा रही है। कांग्रेस के एक बड़े नेता ने तो बाढ़ के मुद्दे पर मुख्यमंत्री भगवंत मान से इस्तीफा ही मांग लिया! भाजपा और अन्य पार्टियों के साथ-साथ कांग्रेस भी उन बड़े सियासी दलों में शुमार है, जिसकी तिजोरी में अकूत दौलत है और सारा हिसाब-किताब आयकर विभाग को दिया जाता है।

कई औद्योगिक घराने और कॉर्पोरेट घरानों की बड़ी हस्तियों से वेस्ट कांग्रेसी नेताओं से गहरे ताल्लुक हैं और वक्त आने पर इन्हीं तालुकात की बदौलत पार्टी को आनन-फानन में पैसा मिलता है। अमरिंदर सिंह राजा वडिंग, प्रताप सिंह बाजवा और सुखजिंदर सिंह रंधावा अपने आलाकमान से क्यों नहीं कहते कि चुनाव के वक्त भी अनाप-शनाप पैसा पानी की तरह बहाया जाता है और अब विपदा का पानी कहर ढा रहा है तो बाढ़ ग्रस्त पंजाब के लिए तिजोरी का मुंह खोला जाए। ज्यादा नहीं तो कम आर्थिक सहायता जरूर मुहैया कराई जाए। आप इस बाबत इन नेताओं सहित अन्य वरिष्ठ कांग्रेसियों से सवाल करके देख लें। झुंझलाहट के सिवा कुछ नहीं मिलेगा। 

राहुल गांधी की कामयाब भारत जोड़ो यात्रा के लिए करोड़ों का फंड इकट्ठा हुआ था। हमारे अपने सूत्रों के मुताबिक पंजाब से ही काफी पैसा कांग्रेस को राहुल गांधी की यात्रा के लिए मिला था। लोगों ने दिल ही नहीं जेबें भी खोल दी थीं। अब आम लोग एकाएक अभावग्रस्त और पीड़ितों की श्रेणी में आ गए हैं तो उनके लिए कांग्रेस कुछ तो दे ही सकती है। इतिहास में वैसे ऐसी कोई मिसाल मिलती तो नहीं कि किसी राजनीतिक पार्टी ने अपने खजाने में से पीड़ितों को राहत के लिए कुछ दिया हो। सरकारें जरूर माध्यम बनती रही हैं।                   

पंजाब में आम आदमी पार्टी (आप) की सरकार है। वक्त पड़ने पर पार्टी को समर्थक उद्योगपतियों का ही सही, खुला आर्थिक सहयोग हर मौके पर मिलता रहा है। अब उन्हें आगे आने के लिए क्यों नहीं कहा जाता? जश्नों के वक्त तो उनका पैसा इस्तेमाल किया जाता है लेकिन विपदा में क्यों नहीं किया जाए? कौन यह सवाल ‘आप’ के शीर्ष नेतृत्व से पूछेगा? आम आदमी पार्टी के पास भी बाकायदा गोदी मीडिया है, वह तो इसे पूछने से रहा। इस फ्रंट पर हम पूछ रहे हैं तो हमें प्रशंसा कम गालियां ज्यादा मिलेंगीं। धमकियां भी। यह तय है!          

बाढ़ का समाधान राजनीति या राजनीतिक बयानों ने नहीं करना बल्कि आर्थिक संसाधनों ने करना है। उसके लिए तमाम राजनीतिक पार्टियों को आगे आना चाहिए। कम से कम आलाकमान के आगे वे प्रस्ताव तो रखें। लेकिन यकीनी तौर पर कहा जा सकता है कि ऐसा कोई भी सियासी दल नहीं ही करना चाहेगा।

( अमरीक वरिष्ठ पत्रकार हैं और पंजाब में रहते हैं।)           

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Suresh Hans
Suresh Hans
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9 months ago

मुख्य मुद्दा केंद्रित आलेख । अमरीक के पास विषय से जुड़ने के लिए समृद्ध भाषा है । यह सफर जारी रहे ।