हिंदू महिलाओं की गुलामी के दस्तावेजों का प्रकाशक और प्रसारक है गीता प्रेस 

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गीता प्रेस, गोरखपुर को 2022 गांधी शांति पुरस्कार से सम्मानित किया गया है, जो महात्मा गांधी की 125वीं जयंती के उपलक्ष्य में 1995 में भारत सरकार द्वारा स्थापित प्रतिष्ठित अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार है। यह उन व्यक्तियों/संगठनों को प्रदान किया जाना था। जिन्होंने उनके द्वारा अपनाए गए आदर्शों को आगे बढ़ाने में योगदान दिया। जिस चयन समिति ने इसे गीता प्रेस को प्रदान किया उसमें भारत के प्रधान मंत्री (समिति के अध्यक्ष), लोकसभा में विपक्ष के नेता, भारत के मुख्य न्यायाधीश और लोकसभा अध्यक्ष शामिल थे। यह घोषणा की गई कि गीता प्रेस का चयन सर्वसम्मति से किया गया था, हालांकि लोकसभा में कांग्रेस पार्टी के नेता अधीर रंजन चौधरी ने बताया कि चयन समिति का सदस्य होने के बावजूद उन्हें बैठक में आमंत्रित नहीं किया गया था।

पीएम ने गीता प्रेस को गांधी शांति पुरस्कार 2021 से सम्मानित होने पर बधाई दी की उन्होंने लोगों के बीच सामाजिक और सांस्कृतिक परिवर्तनों को आगे बढ़ाने की दिशा में पिछले 100 वर्षों में सराहनीय काम किया है। संयोग से, गीता प्रेस भी इस वर्ष अपनी शताब्दी मना रहा है।

यह जानना यहां दिलचस्प हो गया कि गीता प्रेस के संस्थापक, हनुमान प्रसाद पोद्दार और जयदयाल गोयंदका जो गांधी के समकालीन भी थे, के नाम भी उन लोगों की सूची में शामिल थे, जिनपर 30 जनवरी, 1948 को गांधी की हत्या की साजिश रचने का इल्ज़ाम था। वे गांधी से इसलिये नफ़रत करते थे क्योंकि गांधी हिन्दू समाज में शूद्रों और आछूतों को बराबरी दिलाना चाहते थे।

वे उनके हिंदू मंदिरों में प्रवेश की मांग के प्रबल समर्थक थे। यह माना जाता है कि इसी ‘गुनाह’ के लिये उनका क़त्ल किया गया था। आम तौर पर यह ज्ञात नहीं है कि 22 दिसंबर, 1949 (रात 11.00 बजे) बाबरी मस्जिद में जो राम लल्ला  अचानक ‘प्रगट’ हो गए थे। इस ‘चमत्कार’ के पीछे भी अन्य लोगों के साथ गीता प्रेस के ये संस्थापक थे।

गीता प्रेस को पुरस्कार मिलने से गांधीवादी मूल्यों, मानवतावाद और सभ्य मानदंडों से सरोकार रखने वाले सभी लोगों को तगड़ा झटका लगा है। इससे पहले यह तंजानिया के जूलियस के. न्येरे (1995), नेल्सन मंडेला (2000), आर्कबिशप डेसमंड टूटू (2005) और शिएक मुजीबुर रहमान (2020) जैसे उपनिवेशवाद, रंगभेद और तानाशाही के ख़िलाफ़ लड़ने वालों को प्रदान किया गया था। पुरस्कार पाने वालों में वे लोग भी शामिल हैं जिन्होंने कुष्ठ रोग के ख़िलाफ़ लड़ाई का नेतृत्व किया, गेरहार्ड फिशर (1997), बाबा आमटे (1999) और योहेई ससाकावा (2018)।

यह सच है कि इस पुरस्कार को प्रदान करने के लिए निर्धारित मानदंडों से अतीत में कई बार समझौता किया गया था। विशेषकर 1998 में आरएसएस के प्रचारक, अटल बिहारी वाजपेयी सत्तासीन होने के बाद। तब रामकृष्ण मिशन (1998) और भारतीय विद्या भवन (2002) को यह पुरस्कार मिला। मोदी के प्रधान मंत्री बनने के बाद तो यह फिसलन बहुत तेज़ हो गई। विवेकानन्द केन्द्र (2015) अक्षय पात्र फाउंडेशन (2016) और एकल अभियान ट्रस्ट (2017) जैसे संगठन जिनका गांधीवादी दर्शन से कोई संबंध नहीं था। लेकिन वे हिंदू बिरादरी का हिस्सा थे, को इस पुरस्कार के लिए चुना गया। इतना ही नहीं ‘भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन’ (इसरो-2014) और एक खाड़ी राजा, ओमान के सुल्तान कबूस बिन सैद अल सैद (2019) को भी इससे सम्मानित किया गया। इसरो और सुल्तान कबूस ने गांधी के आदर्शों का प्रतिनिधित्व कैसे किया, यह कभी नहीं बताया गया।

गीता प्रेस से छापी गई पुस्तकें

गीता प्रेस को इस पुरस्कार को दिया जाना इसी पतन का शिखर हो जाना है। दरअसल, आरएसएस-भाजपा शासकों द्वारा गीता प्रेस का दैवीकरण 2022 में ही शुरू हो गया था। दलित वर्ग से आने वाले भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद 4 जून, 2022 को इसके शताब्दी समारोह में शामिल होने के लिए व्यक्तिगत रूप से गोरखपुर स्थित गीता प्रेस मुख्यालय गए।

उत्तर प्रदेश के राज्यपाल और मुख्यमंत्री की उपस्थिति में प्रेस सूचना ब्यूरो की विज्ञप्ति के अनुसार, राष्ट्रपति ने कहा कि “गीता प्रेस ने अपने प्रकाशनों के माध्यम से भारत के आध्यात्मिक और सांस्कृतिक ज्ञान को जन-जन तक पहुंचाने में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। राष्ट्रपति ने कहा कि भगवत गीता के अलावा गीता प्रेस ने रामायण, पुराण, उपनिषद, भक्त-चरित्र आदि जैसी पुस्तकें भी प्रकाशित करता है। इसने अब तक 70 करोड़ से अधिक पुस्तकों का प्रकाशन कर एक कीर्तिमान बनाया है और विश्व में हिंदू धार्मिक पुस्तकों का सबसे बड़ा प्रकाशक होने का गौरव प्राप्त किया है। उन्होंने वित्तीय बाधाओं के बावजूद भी जनता को सस्ते दामों पर धार्मिक पुस्तकें उपलब्ध कराने के लिए गीता प्रेस की प्रशंसा की।”

गीता प्रेस को अपना आदर्श मानते हुए उन्होंने सभा में कहा, “गीता प्रेस की ‘कल्याण’ पत्रिका आध्यात्मिक दृष्टि से संग्रहणीय साहित्य के रूप में प्रतिष्ठित स्थान रखती है। यह संभवतः गीता प्रेस की सबसे प्रसिद्ध प्रकाशनों में से एक है और भारत में सबसे अधिक पढ़ी जाने वाली धार्मिक पत्रिका है। राष्ट्रपति ने कहा कि गीता प्रेस के 1850 के वर्तमान प्रकाशनों में से लगभग 760 प्रकाशन संस्कृत और हिंदी में हैं। लेकिन शेष प्रकाशन अन्य भाषाओं जैसे गुजराती, मराठी, तेलुगु, बंगाली, उड़िया, तमिल, कन्नड़, असमिया, मलयालम, नेपाली, उर्दू, पंजाबी और अंग्रेजी में हैं।

उन्होंने कहा कि यह हमारी भारतीय संस्कृति की विविधता में एकता को दर्शाता है। भारतीय संस्कृति में धार्मिक और आध्यात्मिक आधार पूर्व से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण तक एक समान है।”

उन्होंने गीता प्रेस को उसकी विश्व के विभिन्न देशों में केंद्र खोलने कि भविष्य की योजना की सफलता के लिए शुभकामनाएं देते हुए आशा व्यक्त की कि इस विस्तार के माध्यम से, पूरी दुनिया को भारत की संस्कृति और दर्शन से लाभ होगा। उन्होंने गीता प्रेस से विदेशों में रहने वाले प्रवासी भारतीयों के साथ अपने संबंध बढ़ाने का आग्रह किया। क्योंकि वे भारतीय संस्कृति के दूत हैं, जो दुनिया को हमारे देश से जोड़ते हैं। [https://pib.gov.in/PressReleaseIframePage.aspx?PRID=1831175]

दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र माने जाने वाले भारतीय गणराज्य के राष्ट्रपति के इस संबोधन से यह स्पष्ट हो गया कि राष्ट्रपति “भारत के आध्यात्मिक और सांस्कृतिक ज्ञान” के प्रसारक के रूप में गीता प्रेस के वैचारिक योगदान के प्रति आश्वस्त थे। उनके लिए भारत का मतलब केवल हिंदू सनातनी भारत था क्योंकि उन्होंने इस तथ्य को भी रेखांकित किया था कि यह “हिंदू धार्मिक पुस्तकों का दुनिया का सबसे बड़ा प्रकाशक” था। उन्होंने गीता प्रेस के प्रकाशनों की सटीक संख्या भी साझा की, जिनकी संख्या 1850 थी और इसके प्रकाशनों की 70 करोड़ से अधिक प्रतियां छपीं।

यह भारतीय लोकतांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष गणराज्य के लिए एक दुखद क्षण है क्योंकि भारत के महामहिम राष्ट्रपति, लोकतांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष भारतीय गणराज्य के संरक्षक ने न केवल गीता प्रेस का महिमामंडित किया बल्कि उसे अपना आदर्श माना। एक ऐसी संस्था जो ऐसा ‘हिंदू’ साहित्य प्रकाशित करता है जो सती और महिलाओं की पिटाई का समर्थन करता है। यह बड़े पैमाने पर लोकप्रिय धार्मिक ‘हिंदू’ साहित्य प्रकाशित करता है जो विधवा, तलाकशुदा, त्याग दी गई महिलाओं के पुनर्विवाह, उनके द्वारा रोजगार की तलाश और यहां तक कि बलात्कार की रिपोर्ट करने का विरोध करता है। जैसा कि हम इसके कुछ प्रकाशनों के अवलोकन से पाएंगे। इस साहित्य के अनुसार यह हिंदू महिलाओं के लिए स्वर्ग या बैकुंठ तक पहुंचने का रास्ता है।

दुर्भाग्य से राष्ट्रपति कोविंद यह भूल गए कि भारत के राष्ट्रपति का पद संभालने के लिए उन्होंने भारतीय संविधान के अनुच्छेद 60 के तहत शपथ ली थी जिसके अनुसार वे प्रजातान्त्रिक, समतावादी और धर्म-निरपेक्ष संवैधानिक ढांचे की रक्षा, सुरक्षा और बचाव करेंगे।भारत की राजनीति के चरित्र के बारे में कोई अस्पष्टता नहीं है जिसकी व्याख्या संविधान की प्रस्तावना में भी की गई है। यह एक लोकतांत्रिक गणराज्य है, जिसका गठन अपने सभी नागरिकों के लिए न्याय, स्वतंत्रता, समानता, सहअस्तित्व और गरिमा को सुरक्षित करने के लिए किया गया है। निश्चित रूप से भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति महामहिम राम नाथ कोविंद इस संवैधानिक दायित्व से मुक्त नहीं थे। हालांकि, दुख की बात है कि इस प्रतिबद्धता को पूरी तरह से त्यागते हुए उन्होंने गोरखपुर में गीता प्रेस के शताब्दी समारोह में भाग लिया और मुक्त कंठ से प्रशंसा के साथ इसे संबोधित किया।

भारत के राष्ट्रपति सही थे कि यह भारत का सबसे बड़ा प्रकाशन गृह था जो बहुत बड़े पैमाने पर हिंदू महिलाओं के लिए ‘हिंदू’ जीवन शैली का समर्थन करने वाला साहित्य प्रकाशित करता था। कम कीमत वाले इसके प्रकाशन पूरे देश में उपलब्ध हैं। खासकर हिंदी बेल्ट में और यहां तक कि रेलवे स्टेशनों और सरकारी रोडवेज स्टैंडों पर सरकार द्वार आवंटित स्टालों के माध्यम से बेचे जाते हैं। गीता प्रेस को पुस्तकों की बिक्री के लिए देश के हर बड़े स्टेशन पर हमारे देश की धर्म निरपेक्ष सरकार ने स्टाल उपलब्ध कराये हैं। गीता प्रेस की ‘नारीशिक्षा’ (28 वां संस्करण), ‘गृहस्थ में कैसे रहें’  (11 संस्करण), ‘स्त्रियों के लिए कर्तव्य शिक्षा’ (32 संस्करण), ‘दांपत्य जीवन का आदर्श’ (7 संस्करण), और आठ सौ पृष्ठों में ‘कल्याण नारी अंक’ क़ाबिले-ग़ौर है, यह पुराना प्रकाशन है लेकिन आज- कल इसकी खूब मांग है ये पुस्तकें एक स्तर पर महिलाओं को निर्बल और पराधीन मानती हैं जिसके कुछ नमूने हम नीचे देखेंगे। “कोई जोश में आकर भले ही यह न स्वीकार करे परंतु होश में आकर तो यह मानना ही पड़ेगा कि नारी देह के क्षेत्र में कभी पूर्णतः स्वाधीन नहीं हो सकती।”

प्रकृति ने उसके मन, प्राण और अवयवों की रचना ही ऐसी की है। जगत के अन्य क्षेत्रों में जो नारी का स्थान संकुचित या सीमित दीख पड़ता है, उसका कारण यही है कि, नारी बहुल क्षेत्र कुशल पुरूष का उत्पादन और निर्माण करने के लिए अपने एक विशिष्ट क्षेत्र में रहकर ही प्रकारांतर से सारे जगत की सेवा करती रहती है।यदि नारी अपनी इस विशिष्टता को भूल जाये तो जगत का विनाश बहुत शीघ्र होने लगे। आज यही हो रहा है। “हनुमान पोद्दार ‘नारीशिक्षा’ में औरत की ग़ुलामी की मांग करते हुए कहते हैं: “स्त्री को बाल, युवा और वृद्धावस्था में जो स्वतंत्र न रहने के लिए कहा गया है। वह इसी दृष्टि से कि उसके शरीर का नैसर्गिक संघटन ही ऐसा है कि उसे सदा एक सावधान पहरेदार की जरूरत है। यह उस का पद-गौरव है न कि पारतंत्र्य।” क्या स्त्री को नौकरी करनी चाहिए? बिल्कुल नहीं! ‘स्त्री का हृदय कोमल होता है, अतः वह नौकरी का कष्ट, प्रताड़ना, तिरस्कार आदि नहीं सह सकती। थोड़ी ही विपरीत बात आते ही उसके आंसू आ जाते हैं।

अतः नौकरी, खेती, व्यापार आदि का काम पुरूषों के जिम्मे है। और घर का काम स्त्रियों के जिम्मे। क्या बेटी को पिता की सम्पति में हिस्सा मिलना चाहिए? सवाल-जवाब के रूप में छापी गयी पुस्तिका ‘गृहस्थ में कैसे रहें’ के लेखक स्वामी रामसुख दास का जवाब इस बारें में दो टूक है। ‘हिस्सा मांगने से भाई-बहनों में लड़ाई हो सकती है, मनमुटाव होना तो मामूली बात है। वह जब अपना हिस्सा मागेंगी तो भाई-बहन में खट-पट हो जाये इसमें कहना ही क्या है। अतः इसमें बहनों को हमारी पुराने रिवाज; पिता की सम्पत्ति में हिस्सा न लेना ही पकड़नी चाहिए जो कि धार्मिक और शुद्ध है। धन आदि पदार्थ कोई महत्व की वस्तुएं नहीं हैं। ये तो केवल व्यवहार के लिए ही हैं। व्यवहार भी प्रेम को महत्व देने से ही अच्छा होगा, धन को महत्व देने से नहीं। धन आदि पदार्थों का महत्त्व वर्तमान में कलह कराने वाला है और परिणाम में नर्कों में ले जाने वाला है। इसमें मनुष्यता नहीं है।’ क्या लड़के-लड़कियों को एक साथ पढ़ने की इजाजत दी जा सकती है? उत्तर है नहीं, क्योंकि “दोनों की शरीर की रचना ही कुछ ऐसी है कि उनमें एक-दूसरे को आकर्षित करने की विलक्षण शक्ति मौजूद है। नित्य समीप रहकर संयम रखना असम्भव सा है।”

गीता प्रेस से छापी गई पुस्तकें

इन्हीं कारणों से स्त्रियों को साधु-संन्यासी बनने से रोका गया है। “स्त्री का साधु-संन्यासी बनना उचित नहीं है। उसे तो घर में रहकर ही अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए। वे घर में ही त्यागपूर्वक संयमपूर्वक रहें। इसी में उसकी उनकी महिमा है।” दहेज की समस्या का समाधान भी बहुत रोचक तरीके से दिया गया है। क्या दहेज लेना पाप है? उत्तर है, “शास्त्रों में केवल दहेज देने का विधान है लेने का नहीं है।” बात अभी पूरी नहीं हुई है। अगर पति मार-पीट करे या दुःख दे, तो पत्नी को क्या करना चाहिए? ‘जवाब बहुत साफ है, “पत्नी को तो यही समझना चाहिए कि मेरे पूर्वजन्म को कोई बदला है या ऋण है जो इस रुप में चुकाया जा रहा है। अतः मेरे पाप ही कट रहे हैं और मैं शुद्ध हो रही हूं। पीहर वालों को पता लगने पर वे उसे अपने घर ले जा सकते हैं। क्योंकि उन्होंने मारपीट के लिए अपनी कन्या थोड़े ही दी थी।” अगर पीहर वाले खामोश रहें, तो वह क्या करे? फिर तो उसे अपने पुराने कर्मों का फल भोग लेना चाहिए, इसके सिवाय बेचारी क्या कर सकती है।

उसे पति की मारपीट धैर्य पूर्वक सह लेनी चाहिए। सहने से पाप कट जायेंगे और आगे सम्भव है कि पति स्नेह भी करने लगे। “लड़की को एक और बात का भी ध्यान रखना चाहिए “वह अपने दुःख की बात किसी से भी न करे नहीं तो उसकी अपनी ही बेइज्जती होगी, उस पर ही आफत आयेगी, जहां उसे रात-दिन रहना है वहीं अशांति हो जायेगी।” अगर इस सब के बाद भी पति त्याग कर दे तो? “वह स्त्री अपने पिता के घर पर रहे। पिता के घर पर रहना न हो सके तो ससुराल अथवा पीहर वालों के नजदीक किराये का कमरा लेकर रहे और मर्यादा, संयम, ब्रहाचर्य पूर्वक अपने धर्म का पालन कर। भगवान का भजन-स्मरण करे।” अगर हालात बहुत खराब हो जाये तो क्या स्त्री पुन र्विवाह कर सकती है? “माता-पिता ने कन्यादान कर दिया तो उसकी अब कन्या संज्ञा ही नहीं रही। अतः उसका पुनः दान कैसे हो सकता है? अब उसका विवाह करना तो पशु धर्म ही है।”

पर पुरूष के दूसरे विवाह करने पर कोई प्रतिबंध नहीं है। “अगर पहली स्त्री से संतान न हो तो पितृऋण से मुक्त होने के लिए केवल संतान उत्पत्ति के लिए पुरूष शास्त्र की आज्ञानुसार दूसरा विवाह कर सकता है। और स्त्री को भी चाहिए कि वह पितृऋण से मुक्त होने के लिए पुनर्विवाह की आज्ञा दे दे। “स्त्री के पुनर्विवाह की इसलिए इजाजत नहीं है क्योंकि “स्त्री पर पितृ ऋण आदि कोई ऋण नहीं है।

शारीरिक दृष्टि से देखा जाये तो स्त्री में काम शक्ति को रोकने की ताकत है। एक मनोबल है अतः स्त्री जाति को चाहिए कि वह पुनर्विवाह न करे। ब्रहाचर्य का पालन करे, संयमपूर्वक रहे।” इस साहित्य के अनुसार गर्भपात महापाप से दुगुना पाप है। जैसे ब्रह्म हत्या महापाप है, ऐसे ही गर्भपात भी महापाप है। अगर स्त्री की जान को खतरा है तो भी इसकी अनुमति नहीं दी जा सकती- “जो होने वाला है वो तो होगा ही। स्त्री मरनेवाली होगी तो गर्भ गिरने पर भी वह मर जायेगी, यदि उसकी आयु शेष होगी तो गर्भ न गिरने पर भी वह नहीं मरेगी। फिर भी कोई स्त्री गर्भपात करा ले तो? “इसके लिए शास्त्र ने आज्ञा दी है कि उस स्त्री का सदा के लिए त्याग कर देना चाहिए।” बलात्कार की शिकार महिलाओं को जो धर्म-उपदेश इस साहित्य में दिया गया है। वह रोंगटे खड़े कर देने वाला और बलात्कारियों को बचाने जैसा है।

इस सवाल के जवाब में कि यदि कोई विवाहित स्त्री से बलात्कार करे और गर्भ रह जाये तो, स्वामी रामसुखदास फरमाते हैं। “जहां तक बने स्त्री के लिए चुप रहना ही बढ़िया है। पति को पता लग जाये तो उसको भी चुप रहना चाहिए।” सती प्रथा का भी इस साहित्य में जबरदस्त गुणगान है। सती की महिमा को लेकर अध्याय पर अध्याय हैं। सती क्या है।

इस बारे में इन पुस्तकों के लेखकों को जरा-सा भी मुग़लता नहीं है। “जो सत्य का पालन करती है जिसका पति के साथ दृढ़ संबंध रहता है। जो पति के मरने पर उसके साथ सती हो जाती है वही सती है। “अगर बात पूरी तरह समझ में न आयी हो तो यह लीजिए। “हिंदू शास्त्र के अनुसार सतीत्व परम पुण्य है। इसलिए आज इस गये-गुजरे जमाने में भी स्वेच्छा पूर्वक पति केशव को गोद में रखकर सानंद प्राण त्यागने वाली सतियां हिंदू समाज में मिलती हैं।

“भारत वर्ष की स्त्री जाति का गौरव उसके सतीत्व और मातृत्व में ही है। स्त्री जाति का यह गौरव भारत का गौरव है। अतः प्रत्येक भारतीय नर-नारी को इसकी रक्षा प्राणपण से करनी चाहिए। “सती के महत्त्व का बयान करते हुए कहा गया है। “जो नारी अपने मृत पति का अनुसरण करती हुई शमशान की ओर प्रसन्नता से जाती है, वह पग-पग पर अश्वमेघ यज्ञ का फल प्राप्त करती है।”

“सती स्त्री अपने पति को यमदूत के हाथ से छीनकर स्वर्गलोक में जाती है। उस पतिव्रता देवी को देखकर यमदूत स्वयं भाग जाते हैं। सती का महिमामंडन करने के अलावा, ‘नारी धर्म’ जैसा गीता प्रेस प्रकाशन यह स्थापित करने के लिए ‘हिंदू’ धर्मग्रंथों से दर्जनों श्लोक प्रकाशित करता है कि महिलाएं स्वतंत्रता के क़ाबिल नहीं हैं। यह पुस्तक ‘स्वतंत्रता के लिए स्त्रियों की अ-योगिता’ शुरू होती है। इस साहित्य का एक और उल्लेखनीय पहलू यह है कि गर्भवती महिलाओं द्वारा किए जाने वाले अनुष्ठानों की एक लंबी सूची निर्धारित की गई है ताकि ‘उज्ज्वल, प्रतिभाशाली, बहादुर और धार्मिक प्रवृत्ति वाला बेटा’ पैदा हो।”

हिन्दू औरत विरोधी साहित्य के प्रसार का एक शर्मनाक पहलू यह है कि भारतीय राज्य इस कुकर्म में सीधे तौर पर जुड़ा है। गीता प्रेस की महिलाओं पर किताबें गीता प्रेस की गाड़ियों द्वारा सुप्रीम कोर्ट और सरकारी दफ़्तरों के अहातों में खुली बिकती हैं। गीता प्रेस को भारतीय रेलवे द्वारा उपलब्ध कराए गए बुक स्टालों के माध्यम से ऐसे महिला विरोधी साहित्य के खुले प्रसार की अनुमति है। राज्य मंत्री मनोज सिन्हा ने 08-08-2014 को राज्यसभा में एक प्रश्न का उत्तर देते हुए बताया कि गीता प्रेस को रेलवे स्टेशनों पर अपने प्रकाशनों की बिक्री के लिए सामाजिक/धार्मिक संगठनों को आवंटित 165 में से 45 स्टॉल आवंटित किए गए थे।

हैरानी की बात यह है कि मंत्री द्वारा उपलब्ध कराए गए विवरण के अनुसार आवंटन हिंदू और गांधीवादी संगठनों तक ही सीमित हैं। गीत-प्रेस से कितना किराया वसूल किया जाता है इसका कोई हिसाब मौजूद नहीं है। इसके अलावा, आईएसबीटी (कश्मीरी गेट बस टर्मिनल, दिल्ली) जैसे प्रमुख बस अड्डों पर गीता प्रेस स्टॉल है। इतना ही नहीं गीता प्रेस की मोबाइल वैन अक्सर सर्वोच्च न्यायालय के परिसर में भी ऐसे घृणित महिला-विरोधी साहित्य बेचती है। (इस साहित्य से मेरा पहला परिचय तब हुआ जब मैंने इनमें से कुछ संस्करण उच्चतम न्यायालय के परिसर में गीता प्रेस के मोबाइल स्टॉल से खरीदे थे)। नई दिल्ली में केंद्रीय सचिवालय जहां से लोकतांत्रिक भारत का संचालन होता है वहां भी बिकती हैं। गीता प्रेस के ये प्रकाशन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा संचालित पुस्तक दुकानों पर तो उपलब्ध हैं ही।

भारतीय राष्ट्रपति, प्रधान-मंत्री, मुख्य न्यायधीश सुप्रीम कोर्ट और लोक सभा के स्पीकर ने गीता प्रेस को पुरस्कृत करके ऐसे समाज विरोधी प्रकाशनों को वैधता ही प्रदान कि है। जिन लोगों ने गांधी शांति पुरस्कार देकर गीता प्रेस को संरक्षण दिया है, उन्होंने बेशर्मी से भारतीय दंड संहिता (IPC), आपराधिक प्रक्रिया संहिता (CRPC) और कई भारतीय क़ानूनों का केवल उल्लंघन नहीं किया है बल्कि उनको दफ़्न किया है, जो लैंगिक न्याय और महिलाओं के उत्पीड़न को रोकने के लिए बनाए गए थे। भारतीय राष्ट्रपति, प्रधान मंत्री, सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश, लोकसभा अध्यक्ष से यह जानने की अपेक्षा की गई थी/है कि वे कम से कम इतना तो जानते ही होंगे कि,

1. आईपीसी की धारा 498ए के अनुसार, किसी विवाहित महिला के ख़िलाफ़ क्रूरता करने वाले पति या उसके रिश्तेदार को जुर्माने के साथ 3 साल तक की सज़ा हो सकती है।

2. आईपीसी 375-77 के तहत बलात्कार की सज़ा 7 साल से लेकर आजीवन कारावास तक है और व्यक्ति को जुर्माना भी देना होगा।

3. हिंदू विधवा पुनर्विवाह अधिनियम 1856 ने हिंदू विधवाओं के पुनर्विवाह को वैध बना दिया। यह अधिनियम 26 जुलाई 1856 को लागू किया गया था।

4. हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 हिंदुओं के लिए द्विविवाह पर प्रतिबंध लगाता है। यदि कोई हिंदू मौजूदा विवाह को विघटित किए बिना या अपनी पहली शादी के प्रभावी रहते हुए किसी और से शादी करता है, तो उन पर भारतीय दंड संहिता के तहत आपराधिक मुकदमा चलाया जाएगा, जिसमें कारावास होगा, जिसे सात साल तक बढ़ाया जा सकता है, और जुर्माने भी लगाया जा सकता है।

गीता प्रेस से छापी गई पुस्तकें

5. सती (रोकथाम) अधिनियम, 1987 पहली बार 1987 में राजस्थान सरकार द्वारा अधिनियमित किया गया था। यह तब राष्ट्रीय कानून बन गया जब भारत की संसद ने 1988 में सती (रोकथाम) अधिनियम, 1987 को मंज़ूरी दी। अधिनियम सती प्रथा, स्वैच्छिक या ज़बरदस्ती को अवैध घोषित करता है। किसी विधवा को जबरन जलाना या जिंदा दफनाना, और सती से संबंधित किसी समारोह के आयोजन, किसी जुलूस में भाग लेना, वित्तीय ट्रस्ट का निर्माण, मंदिर का निर्माण, या किसी की स्मृति को मनाने या सम्मान देने के लिए किसी भी कार्य के माध्यम से सती के महिमामंडन पर रोक लगता है।

साथ ही सती का समर्थन और महिमामंडन करने पर न्यूनतम एक साल की सज़ा  हो सकती है जिसे सात साल तक बढ़ाया जा सकता है और न्यूनतम 5,000 रुपये का जुर्माना लगाया जा सकता है जिसे 30,000 रुपये तक बढ़ाया जा सकता है।

कितना दुखद है कि हिंदुत्ववादी शासकों के साथ सुप्रीम कोर्ट के चीफ़ जस्टिस ने मिलकर भारतीय दंड संहिता और आपराधिक प्रक्रिया संहिता का खुला उल्लंघन किया है। जिन्हें अक्सर तर्कवादी या प्रगतिशील लेखन पर प्रतिबंध लगाने के लिए लागू किया जाता है। अफ़सोस की बात है कि भारतीय न्यायपालिका को धार्मिक साहित्य की आड़ में इस अमानवीय प्रचार में कुछ भी आपत्तिजनक नहीं लगता।

2017 में राष्ट्रपति के रूप में महामहिम कोविंद जिनकी नियुक्ति को जातिवाद के विध्वंस और भारत के दलितों के सम्मान की बहाली के प्रमाण के रूप में स्वागत किया गया था। उन्होंने पुरुष अंधराष्ट्रवादी हिंदुत्व विश्व-दृष्टिकोण के ख़िलाफ़ लड़ाई में बेहद निराश किया।

यहां यह जानना दिलचस्प हो सकता है कि भारत के राष्ट्रपति के रूप में कोविंद ने मुस्लिम महिलाओं को ‘मुक्त’ करने वाले कानूनों पर हस्ताक्षर किए, जो हिंदू महिलाओं के लिए गीता प्रेस जैसी भयावह परियोजना की पूजा करते हैं। यह आरएसएस-भाजपा शासकों के पूर्ण पाखंड को दर्शाता है।

अफसोस की बात है कि पहले भारत के एक दलित राष्ट्रपति और अब भारत के मुख्य न्यायाधीश, न्यायमूर्ति धनंजय वाई. चंद्रचूड़ के साथ एक ओबीसी प्रधान मंत्री, एक ‘उदार’ ब्राह्मण को गीता प्रेस के हिंसा, अधीनता और उत्पीड़न के निर्लज्ज उपदेशों के बावजूद संरक्षण देने में कोई हिचकिचाहट नहीं है।

अपने लाखों-करोड़ों प्रकाशनों के माध्यम से हिंदू महिलाओं का अपमान। लोकतांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष भारतीय राजनीति को कौन बचाएगा जब इसके संरक्षक त्रिमूर्ति, राष्ट्रपति, मुख्य न्यायाधीश और प्रधान मंत्री इसे ध्वस्त करने के लिए हाथ मिलाएंगे?

हिन्दू महिलाओं पर गीता प्रेस की किताबों की सूची-

1.Goendka, Jaidayal, नारी धर्म, गीता प्रेस, गोरखपुर. पहला संस्करण 1938, 2000तक कुल संस्करण54 कुल 11, 20, 250 प्रतियां प्रकाशित।

2.Goendka jaidayal स्त्रियों के लिये कर्तव्यशिक्षा, गीता प्रेस, गोरखपुर। पहला संस्करण 1954, 2018 तक कुल 75 संस्करण, कुल 13, 71,000 प्रतियां प्रकाशित।

3.नारी अंक, कल्याण, गीता प्रेस , गोरखपुर , 1948.

4.Poddar Hanumanprasad (ed) भक्त नारी, गीता प्रेस, गोरखपुर, 2002. पहला संस्करण 1931,  2002 तक कुल 39 संस्करण कुल 4, 62,000 प्रतियां प्रकाशित।

5.Poddar Hanumanprasad दाम्पत्य जीवन का आदर्श, गीता प्रेस, गोरखपुर, पहला संस्करण 1991,2002 तककुल 17 संस्करण, कुल 1, 81,000 प्रतियां प्रकाशित।

6.Poddar Hanumanprasad नारी शिक्षा, गीता प्रेस, गोरखपुर. पहला संस्करण 1953, 2018 तक कुल 72 संस्करण कुल 11,75,000 प्रतियां प्रकाशित।

7.Ramsukhdass Swami, गृहस्त में कैसे रहें?,गीता प्रेस , गोरखपुर. पहला संस्करण 1990. 2018 तक कुल 76 संस्करण, कुल 18, 00,000 प्रतियां प्रकाशित।

8.Ramsukhdass, Swami गीता प्रेस, गोरखपुर. पहला संस्करण 1990, 2017 तक 19 संस्करण, कुल 1,04,500 प्रतियां प्रकाशित।

9.Ramsukhdass, Swami प्रश्न-उत्तर मणिमाला, गीता प्रेस, गोरखपुर, पहला संस्करण 2001, 2002 तक कुल 6 संस्करण, कुल 10,00,0 प्रतियां प्रकाशित।

11.Ramsukhdass, Swami आदर्श नारी सुशील, गीता प्रेस, गोरखपुर. 2017 तक 63 संस्करण कुल 10,02,750 प्रतियां प्रकाशित।

(शम्सुल इस्लाम इतिहासकार एवं दिल्ली विश्वविद्यालय के रिटायर्ड प्रोफेसर हैं।)

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RajDeep
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Guest
1 year ago

Mr Shmshul,
Before peeping your nose into others affairs and worrying about other faiths,its better to detect, diagnose and calibrate the virus which converts a Human being in a human bomb to blow up innocents,destroy thair faiths and places of worship and create hell just for the sake of Heaven and Hoors.
Ref ,,, Mediaeval World history including Bharat..

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