उत्तराखंड में सद्भावना की पहल यानि उम्मीद की नई किरण

नफ़रतों और वैमनस्यता के ख़िलाफ़ उत्तराखंड में जो पहल शुरू हुई है उसने भारतीय समाज की मूल समन्वयवादी प्रवृत्ति की पुनर्स्थापना करने की आवश्यकता को रेखांकित किया है।

प्रदेश में जिस तरह मुसलमानों के ख़िलाफ़ एक तरफा नफ़रती मुहिम चलाकर समाजी माहौल को ज़हरीला बनाया जा रहा था उससे अमन पसंद लोगों में बहुत बेचैनी और गुस्सा था। लोग यह सोचकर परेशान हो रहे थे कि कुछ अपराधियों (सरकारी शब्दावली में असमाजिक तत्वों) द्वारा समाज की सोच को भी बंधक बना दिया गया। और मीडिया भी उन्मादी ख़बरों को बढ़ा-चढ़ा कर फैला रहा है जिससे समाज में विक्षोभ के साथ-साथ और दरार पड़ रही है।

गांधीवादियों और इंसानियत की सकारात्मक सोच रखनेवाले लोगों और संगठनों की सद्भावना की पहल से समाज के इंसानियत पसंद तबके ने एक सुकून और राहत की सांस ली है। उसे ऐसी घटनाओं (फर्जी झूठी जानबूझकर विकृत की गई खबरों) को समझने का नज़रिया मिला है। इससे निराशा-हताशा के माहौल को बदलने में भी मदद मिली है। लोगों को ऐसी घटनाओं को अलग ढंग से देखने का नज़रिया मिला है। और नफरती चिंटुओं के सामने खड़े होने का हौसला मिला है। प्रदेश के सभी विपक्षी दलों और नेताओं के इस मुहिम में जुड़कर आगे आने से इसका व्यापक प्रभाव पड़ रहा है। व्यापक रूप से सद्भावना की यह पहल समाज के लिए आशा की किरण की तरह है।

इस पहल का एक सकारात्मक प्रभाव पुलिस और प्रशासन पर भी पड़ा है। असामाजिक तत्व जो सत्ता प्रतिष्ठान के सहयोगी संगठन के बैनर लेकर भीड़ तंत्र के सहारे माहौल को ख़राब करते हैं, उनके सामने अक्सर स्थानीय पुलिस प्रशासन असहाय जैसा दिखता है। संघ और उसके सहयोगी असमाजिक तत्वों वाले संगठनों को पुलिस का सहयोगी संगठन कहे जाने के पीछे ऐसी ही घटनाएं हैं। पुरोला और हल्द्वानी सहित अनेक स्थानों पर असमाजिक तत्वों की भीड़ ने कानून को अपने हाथ में ले लिया और पुलिस कुछ नहीं कर सकी।

सद्भावना के सामूहिक प्रयासों और भीड़ तंत्र के प्रतिरोध से पुलिस को भी रास्ता मिला है। उसको भी ऐसी घटनाओं पर स्वतंत्र रूप से निर्णय लेने का दबाव और रास्ता मिला है। हल्द्वानी के मामले में यह देखा गया कि जो  पुलिस झूठी और मनगढ़ंत घटना पर तमाशबीन बनी रही थी, सद्भावना के प्रयासों के बाद वो एक्शन में आई है।

पिछले कुछ समय से समाज को नफ़रती माहौल में डालकर जिस तरह कलुषित किया जा रहा है। उससे समाज के एक वर्ग की हालत खुजली से ग्रसित कटखने कुत्ते की तरह होती जा रही है। और हर बात को असामान्य समझकर और बताकर वो काटखाने की स्थिति में आ रहा है, यह समाज के अपराधीकरण से भी अधिक ख़तरनाक होता जा रहा है। और इससे भी ख़तरनाक बात यह यह है कि मौजूदा सत्ता प्रतिष्ठान इस स्थिति को गम्भीर बीमारी न मानकर इसको शह देकर राजनैतिक लाभ लेने का प्रयास कर रहा है।

उत्तराखंड में पिछले कुछ समय में हुई घटनाएं इसकी गवाह हैं कि सत्ता प्रतिष्ठान और उसके सहयोगी संगठनों ने जिस तरह ऐसी आपराधिक घटनाओं को प्रचारित और प्रसारित किया है वो समाज के वर्तमान अवस्था और भविष्य के लिए विनाशकारी है।

उत्तराखंड में पुरोला हल्द्वानी सहित अनेक स्थानों पर हुईं घटनाएं इस बात की तरफ इशारा कर रही हैं कि साधारण आपराधिक घटनाओं को किस तरह साम्प्रदायिक चश्मे में लपेटकर समाज को दूषित और युवाओं को अपराधी बनाने की घृणित राजनीति हो रही है।

इन घटनाओं को सत्ता प्रतिष्ठान अपने नज़रिए से प्रचारित और प्रसारित करके भले ही धार्मिक ध्रुवीकरण से क्षणिक राजनैतिक लाभ ले रहा है लेकिन वो यह भूल रहा है कि इससे वो समाज का अपराधीकरण भी कर रहा है, और इसमें जो तत्व विशेषकर युवा हैं वो पूरी तरह से समाजद्रोही और अपराधी बन रहे हैं, भले ही मौजूदा राजनीति उसे शह देकर बचा ले लेकिन उनका भविष्य अंधकारमय हो जाएगा।

जर्मन समाज के अपराधीकरण की घटना तो पुरानी हो गई है। बाबरी ध्वंस और मुजफ्फरनगर तक के दंगों में शामिल युवाओं की नियति इस बात का उदाहरण है। ‘उत्तराखंड सर्वोदय मण्डल’ और ‘उत्तराखंड सद्भावना समिति’ और ‘उत्तराखंड इंसानियत मंच’, ‘वन पंचायत मोर्चा’, ‘महिला मंच’, ‘समाजवादी लोक मंच’, ‘रचनात्मक महिला मंच’ और ‘चेतना आंदोलन’ जैसे गांधीवादी और गैर राजनीतिक संगठनों के बैनर से जो सद्भावना की मुहिम पिछले साल से शुरू हुई है। यह पहल समन्वयवादी सोच और गंगा जमुनी संस्कृति को बचाने और बढ़ाने के साथ-साथ समाज के अपराधिकरण को रोकने का एक प्रयास भी है।

भीड़ तंत्र के खिलाफ इस सद्भावना के प्रयासों की शुरुआत से समाज को इस ओर सोचने का रास्ता मिलेगा और जो युवा इस अंधी गली में घुस रहे हैं उन्हें भी सोच समझकर रुकने का विचार मिलेगा।

(इस्लाम हुसैन पत्रकार हैं और काठगोदाम में रहते हैं।)

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vikas dwivedi
vikas dwivedi
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9 months ago

आपके लेख से साम्प्रदायिकता की बू आ रही है आप अपने शब्दों में उत्तराखंड में लव-जेहाद जमीन जेहाद जनसंख्या जेहाद को तथाकथित गांधीवादियों के नाम उचित ठहराने की कोशिश कर रहे हैं असल कतार आप जैसे लोगो से है जो शब्दों को सजाकर इन सब को उचित ठहरा रहे है।आप सच को सच नहीं कह सकते तो फिर यह पत्रकारिता का काम बन्द करिये

Last edited 9 months ago by vikas dwivedi