नफरती भाषण, हिंसा और हमारा दायित्व

भारत का समाज ऐतिहासिक रूप से कमोबेश सहिष्णु और समावेशी रहा है। अनेक प्रकार के धर्म, जाति, सांस्कृतिक समुदाय और भाषाई समूह भारत में हजारों साल से रह रहे हैं। एक दूसरे का सम्मान करना और आगे की ओर बढ़ना ही हमारी शक्ति है। विभिन्न प्रकार की और कई बार आपस में टकराती हुई विचारधाराएं भी एक साथ प्रस्फुटित भी हुईं और फली-फूली भी हैं। इसी से देश एकत्रित और संगठित रहा है। हमने इतिहास के अध्ययन से पाया है कि एक समूह दूसरे समूह के प्रतिपक्ष में जब भी खड़ा हुआ है तो भारत के समाज को नुकसान ही पहुंचा और मानवीय मूल्यों का ह्रास ही हुआ है।

1947 में आज़ादी के बाद राष्ट्र निर्माताओं ने बड़ी बारीकी से सहअस्तित्व की इस अवधारणा को भारत के संविधान और कानूनी ढांचे में स्थापित कराया ताकि आने वाले समय में देश मज़बूत बने और अपने लोकतांत्रिक मूल्यों को निखारे। मगर हमारे समाज और राजनीति में ऐसे तत्व मौजूद थे जो भारत को इन मूल्यों से परे एक अधिनायकवादी राष्ट्र की ओर ले जाना चाहते थे। हमारी राजनीति की दिशा और दशा ऐसी रही कि उन तत्वों को अंततः शक्ति मिलने लगी और आज स्थिति ये है कि विभिन्न समुदायों के बीच नफ़रत और अविश्वास पैदा हो गया है जो हर तरफ़ से राष्ट्र की मज़बूत दीवारों को खोखला बना रहा है। यह एक भयावह अंधकारमय स्थिति की ओर हमें ले जाएगा।

अब आलम ये है कि राजनैतिक दलों और धार्मिक-सांस्कृतिक संगठनों के सदस्य खुले आम एक धर्म विशेष के लोगों को मारने का आह्वान कर रहे हैं। हाल ही में डासना के देवी मंदिर के मुख्य पुजारी यति नरसिंहानंद ने 29 अक्टूबर 2023 को जो भाषण पटना में आयोजित एक जनसभा में दिया ये इसका उदहारण है।

नफ़रत से भरे हुए इन भाषणों पर अगर रोक नहीं लगाया गया तो भारत में जगह-जगह पर नरसंहार होने की पूरी आशंका है। ये देखा जा रहा है कि नफरत और घृणा से भरी हुई भाषा राजनैतिक सभाओं और अन्यत्र भी प्रचलित होती जा रही है। ये सिर्फ़ कानूनी रूप से ही अपराध नहीं है अपितु सामाजिक बुराई भी है। इस पर गंभीरता से बात करने की और चर्चा करने की ज़रूरत है। भारत के नागरिक समाज को मुखर हो कर इसके खिलाफ़ बोलना होगा और दृढ़ता के साथ स्टैंड लेना होगा।

नफरती या घृणास्पद भाषण क्या है?

नफरती भाषण का कोई स्पष्ट और एकल परिभाषा भारतीय कानून अथवा आईपीसी की धाराओं में नहीं है, मगर अलग-अलग जगह पर उसे परिभाषित करने की कोशिश की गई है सुप्रीम कोर्ट और विधि आयोग के अनुसार –

‘किसी नस्लीय, धार्मिक विश्वास, जातीय, यौन अभिविन्यास के संबंध में परिभाषित व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह के खिलाफ घृणा को उकसाने वाले भाषणों चाहे वो मौखिक, लिखित चित्रात्मक या किसी अन्य माध्यम से किया गया हो को नफरती या घृणास्पद भाषण माना जायेगा।’

अमेरिकी संविधान के विश्वकोश में कहा गया है कि नफरत फैलाने वाले भाषण में “आम तौर पर नस्ल, रंग, राष्ट्रीय मूल, लिंग, विकलांगता, धर्म, या यौन संबंध जैसी समूह विशेषताओं के कारण किसी व्यक्ति या समूह की शत्रुता या अपमान के संचार को शामिल माना जाता है।” घृणास्पद भाषण की कानूनी परिभाषाएं अलग-अलग देशों में अलग-अलग होती हैं।

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, घृणास्पद भाषण और घृणास्पद भाषण कानून पर बहुत बहस हुई है। कई बार ऐसा समझा जाता है कि घृणास्पद भाषण को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार के एक भाग के रूप में संरक्षित किया गया है। स्वतंत्र भाषण लोकतंत्र में विचारों की विविधता को बढ़ावा देने के लिए नफरत फैलाने वाले भाषण को भी मौजूद रहने की अनुमति देता है। जबकि उसके विपरीत, सच ये है कि घृणास्पद भाषण लोकतंत्र में लोगों की भागीदारी में बाधा डालता है। इसे मुक्त भाषण (Free Speech) के एक भाग के रूप में संरक्षित नहीं किया गया है क्योंकि यह समावेशिता और बहुलवाद के विचार अथवा नागरिकों के एक साथ काम करने और रहने के प्रयास के लिए खतरा है।

ये तथ्य भी यहां पर रेखांकित करना उचित होगा कि नफरत फैलाने वाला भाषण किसी एक व्यक्ति के बारे में नहीं है, बल्कि एक वंचित समूह के सदस्य के रूप में एक व्यक्ति के बारे में है-उनके समूह की पहचान मायने रखती है। घृणास्पद भाषण के उदाहरण:- ‘मुसलमान आतंकवादी’ ‘दलितों में योग्यता की कमी’- ये बताते हैं कि बोलने वाला समाज को बता रहा है कि मुसलमान होना ही आतंकवादी होने के लिए पर्याप्त है अथवा दलित निम्न क्षमता वाले लोग होते हैं।

नफरत फैलाने में मीडिया का रोल

मीडिया अगर लोकतांत्रिक मूल्यों और सामाजिक सरोकार के प्रति संवेदनशील न हो तो प्रायः ये बहुसंख्यक वाद से प्रभावित हो जाती है और उसी नैरेटिव को आगे बढ़ाने का काम करने लगती है। दूसरी स्थिति वो है जब राज्य सत्ता मीडिया पर नियंत्रण स्थापित करने की कोशिश करती है और किसी खास सामाजिक वर्ग के विरुद्ध जनमत तैयार करने के लिए मीडिया का इस्तेमाल करती है। ऐसे में मीडिया राज्य सत्ता का राजनैतिक हथियार बन जाती है।

दोनों ही सूरतों में मीडिया नफरत को फैलाने का माध्यम बन जाती है। मीडिया में ऐसी खबरें छापी या दिखाई जाती हैं जिनमें किसी खास वर्ग को ही सामाजिक बुराइयों/अपराधों का जिम्मेदार ठहराया जाता है।

पूरे विश्व में पाया गया है कि मीडिया में भेदभाव और घृणास्पद भाषण न केवल उन व्यक्तियों या समुदायों की भावनाओं को आहत करते हैं जिन्हें वे लक्षित करते हैं बल्कि वे उनके खिलाफ किए गए अपराधों में भी योगदान दे सकते हैं और सशस्त्र संघर्ष की भी आग भड़का सकते हैं, या उचित ठहरा सकते हैं, साथ ही महिलाओं, बच्चों, शरणार्थियों, अल्पसंख्यकों या किसी विशेष सामाजिक वर्ग के खिलाफ हिंसा को प्रोत्साहित कर सकते हैं।

उदाहरण के लिए अप्रैल 2020 में कोरोना के लिए मुसलमानों को जिम्मेदार ठहराने के उद्देश्य से टीवी मीडिया ने तबलीगी जमात को तालिबानी जमात कहना शुरू कर दिया था। जिसके बाद पूरे भारत में मुसलमानों को लेकर एक घृणा का भाव पैदा हुआ। यहां तक कि मुसलमान फलवालों और सब्जी वालों से फल सब्ज़ी ख़रीदना बंद कर दिया गया था।

अंतराष्ट्रीय स्तर पर देखा जाए तो मीडिया का सबसे घृणित रूप 1994 में रवांडा में देखा गया था जब रेडियो रवांडा ने अपने ही देश के तुत्सी समुदाय के खिलाफ़ इतनी घृणा फैलाई कि केवल 100 दिन के अंदर 8 लाख तुत्सी समुदाय के सदस्यों को मारा गया। रेडियो रवांडा हुती समुदाय के नैरेटिव को फैला रहा था और तुत्सी समुदाय को दुश्मन की तरह पेश कर रहा था। कोई भी व्यक्ति इस उदाहरण से समझ सकता है कि मीडिया का इस्तेमाल नरसंहार के लिए भी किया जा सकता है या किया जाता रहा है। ये किसी भी सभ्य समाज के लिए बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है।

नफरती भाषण के खतरे क्या हैं

नफरत से भरे भाषण भारतीय समाज या किसी भी बहुसांस्कृतिक समाज को कई तरह से नुकसान पहुंचाते हैं। हम संक्षेप में उन नुकसान और खतरों को निम्नलिखित खांचों में डाल सकते हैं:

1. संविधान पर हमला- भारतीय संविधान द्वारा प्रदान किए गए मौलिक अधिकार-समता और स्वतंत्रता के अधिकारों को सीधे-सीधे सीमित और प्रभावित करता है।

2. भाईचारे और एकता को कमजोर करता है- विभिन्न समुदायों के बीच अविश्वास और घृणा पैदा होती है जो कई बार लंबे समय तक विद्यमान रह जाते हैं।

3. समुदायों का अमानवीयकरण- जिन समुदायों या समूह को शत्रु के रूप में स्थापित करने की चेष्टा की जाती है उनके जीवन के महत्व को कम करने का प्रयास किया जाता है। ये धारणा स्थापित कराई जाती है कि ये देश के योग्य नागरिक नहीं हैं।

4. गरिमा और स्वायत्तता की हानि- ज्यादातर मामलों पाया है कि नफरत फैलाने वाले लोग किसी समूह को ऐसे संबोधन से जोड़ा जाता है जिससे उस वर्ग की गरिमा हताहत हो जैसे असम के मुख्यमंत्री का ‘मियां’ शब्द का इस्तेमाल करना।

5. आजीविका का नुकसान- नफरत फैला कर समूह विशेष के रोज़गार के अवसरों को कम करने का प्रयास किया जाता है।

6. हिंसा की ओर ले जाता है- हाल के समय में मस्जिदों और चर्चों पर जो भी आक्रमण किए गए हैं वो लंबे समय से किए जा रहे नफरती भाषण का ही परिणाम है।

7. नरसंहार के लिए एक घटक – नफरती भाषण और नफरत फैलाने वाले सारे क्रिया कलाप का अंतिम उद्देश्य नरसंहार ही होता है। भारत में हाल के वर्षों में जितने भी दंगे हुए हैं वो सभी इसी तरह की सुनियोजित करवाई का परिणाम थीं मसलन दिल्ली दंगा जो बीजेपी के इस नारे का परिणाम था – ‘देश के गद्दारों को – गोली मारो ……’

घृणास्पद भाषण सहिष्णुता, समावेशन, विविधता के मूल्यों और मानवाधिकार मानदंडों और सिद्धांतों को नकारता है। यह कुछ लोगों या सामाजिक समूहों को लक्षित कर भेदभाव, दुर्व्यवहार और हिंसा के साथ-साथ सामाजिक और आर्थिक बहिष्कार का भी शिकार बना सकता है। जब अनियंत्रित छोड़ दिया जाता है, तो घृणा की अभिव्यक्तियां समाज, शांति और विकास को भी नुकसान पहुंचा सकती हैं, क्योंकि यह अत्याचार अपराधों सहित संघर्ष, तनाव और मानवाधिकारों के उल्लंघन के लिए आधार तैयार करती है।

हमारा दायित्व

घृणास्पद भाषण को संबोधित करना और उसका प्रतिकार करना एक आवश्यकता है। इसके लिए एक समग्र दृष्टिकोण की आवश्यकता है, जिससे पूरे समाज को एकजुट किया जा सके। सभी व्यक्तियों और संगठनों, जिनमें मीडिया, इंटरनेट, नेता, शिक्षक, युवा और नागरिक समाज शामिल हैं- का नैतिक कर्तव्य है कि वे घृणास्पद भाषण के खिलाफ दृढ़ता से बोलें और इस संकट का मुकाबला करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएं।

महत्वपूर्ण बात यह है कि नफरत फैलाने वाले भाषण से निपटने के लिए इसकी निगरानी और विश्लेषण की आवश्यकता होती है। चूंकि घृणित बयानबाजी का प्रसार हिंसा की प्रारंभिक चेतावनी हो सकता है, जिसमें अत्याचार अपराध भी शामिल हैं। घृणास्पद भाषण को सीमित करने से इसके प्रभाव को कम करने में योगदान मिल सकता है।

नफरती भाषण के प्रचार, प्रसार, गतिशीलता और दुष्प्रभाव को रोकने के लिए हमारे पास कई रास्ते हो सकते हैं। अगर नागरिक समाज की तरफ़ से देखा जाए तो हम एकत्रित और संगठित हो कर इसके विरुद्ध एक सशक्त लड़ाई लड़ सकते हैं।

सबसे ज़रूरी है कि नफरती भाषणों और उससे संबंधित या उस के कारण होने वाले अपराधों का दस्तावेजीकरण करें। इससे हम उन संस्थाओं और व्यक्तियों को चिह्नित कर सकते हैं जिनका योगदान इस अपराध में सबसे अधिक है। इसके अलावा नफरती भाषणों के उत्पन्न होने या इस्तेमाल किए जाने के पीछे के भौगोलिक परिस्थिति और समय को भी समझ सकते हैं मसलन पीयूसीएल बिहार की 2018 की रिपोर्ट से पता चलता है कि बीजेपी के कार्यकर्ताओं के द्वारा सबसे ज्यादा नफरत फैलाने वाली जुबान का इस्तेमाल किया गया है। इसके अलावा चुनाव के समय इसकी अधिकता एवं बारंबारता बढ़ जाती है।

दूसरी तरफ़ संविधान और क़ानून की तरफ़ से भी हमें कई अधिकार मिले हैं जिनका इस्तेमाल नफरती भाषण के खिलाफ़ लड़ने के लिए किया जा सकता है। जैसे आईपीसी की धारा 153 ए, 153 बी, 295 ए और 298 का इस्तेमाल पुलिस में शिकायत दर्ज कराने के लिए किया जा सकता है। हम विभिन्न संवैधानिक संस्थाओं जैसे एनएचआरसी, अल्पसंख्यक आयोग, महिला आयोग एससी/एसटी आयोग आदि में शिकायत भी दर्ज कर सकते हैं।

मीडिया के द्वारा नफरत फैलाने वालों के खिलाफ हम मीडिया को नियंत्रित अथवा नियमित करने वाली संस्थाएं जैसे प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया, एनबीए और एनबीएफ जैसी संस्थाएं हैं जहां इस तरह की खबरों की शिकायत की जा सकती है।

अंत में, नफ़रत के खिलाफ़ भारत के नागरिक समाज, राजनैतिक संगठनों और आम जनता को एक जुट हो कर आवाज़ उठाना होगा। और हमने अगर ये लड़ाई संजीदगी से नहीं लड़ी तो आने वाले भविष्य में एक भयावह स्थिति का सामना हमें करना पड़ सकता है। एक सामाजिक विखंडन की स्थिति भी पैदा हो सकती है। कुछ विशेष सामाजिक समूहों के लिए अस्तित्व का प्रश्न भी उठ सकता है।

(पीयूसीएल (बिहार )द्वारा आयोजित संगोष्ठी में प्रस्तुत किया गया आलेख)

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