ग्रांउड से चुनाव: छत्तीसगढ़ के नारायणपुर में चल रहे आंदोलन चुनाव पर कितना डालेंगे असर?

बस्तर। दशहरा खत्म होते ही छत्तीसगढ़ में चुनाव का माहौल गर्म हो गया है। बस्तर संभाग में चारों तरफ प्रचार की गाड़ियां घूम रही हैं। उसमें पार्टी के प्रत्याशियों के लिए चुनाव प्रचार किया जा रहा है। शहर की चकाचौंध से दूर कुछ जगहें ऐसी भी हैं, जहां ये सारी चीजें तो नहीं हैं लेकिन चुनाव को लेकर किसी न किसी तरह की हलचल बनी हुई है।

नारायणपुर विधानसभा में भी कुछ यही हो रहा है। यहां पिछले लंबे समय से आंदोलन चल रहा है। आदिवासी अपनी मांगों लेकर धरना-प्रदर्शन कर रहे हैं। वैसे तो बस्तर के कई हिस्सों में आंदोलन चल रहे हैं लेकिन नारायणपुर जिले की 5 जगहों- तोयामेटा, मढोनार, इरक भट्टी, डोन्डी बेडा, और ओरछा नदीपारा में आंदोलन सबसे ज्यादा तेज है। यह पूरा क्षेत्र अबूझमाड़ में आता है।    

जैसे-जैसे वोट की तारीख नजदीक आ रही है वैसे-वैसे यहां के लोग भी इस आंदोलन में शामिल हो रहे हैं। नारायणपुर में भाजपा और कांग्रेस के अलावा 10 अन्य पार्टियों ने पर्चा भरा है। आम जनता की मानें तो यहां सीधी टक्कर भाजपा और कांग्रेस के बीच है। लेकिन माना जा रहा है कि पिछले दो सालों में नारायणपुर में जितनी भी घटनाएं हुईं हैं उनका भी असर विधानसभा चुनाव में देखने के मिलेगा।

तीन सूत्रीय मांगों को लेकर हो रहा विरोध प्रदर्शन

पिछले पांच सालों में रावाघाट माइंस का काम भी शुरू हुआ है। इसके खिलाफ विरोध प्रदर्शन हुआ। छोटेडोंगर की इको कंपनी के खिलाफ विरोध प्रदर्शन के दौरान एक ट्रक को ही जला दिया गया। आंदोलनकारी आदिवासी अपनी तीन सूत्री मांगों को लेकर धरना-प्रदर्शन पर बैठे हुए हैं। मई के महीने में ‘जनचौक’ की टीम नारायणपुर के मढोनार धरना स्थल पर पहुंची थी। अब चुनाव के मद्देनजर एक बार फिर ‘जनचौक’ की टीम ने धरना स्थल का जायजा लिया और उनके मुद्दों को जानने की कोशिश की।

तोयमेटा धरना स्थल नारायणपुर जिला मुख्यालय से करीब 25 किलोमीटर अंदर है। शहर से मात्र पांच किलोमीटर अंदर जाने के साथ ही जैसे ही रास्ता अबूझमाड़ के लिए मुड़ता है, वहीं से पक्की सड़क हमारा साथ छोड़ देती है और लाल मिट्टी और छोटे-छोटे पत्थरों वाले रास्ते पर हम चलना शुरू कर देते हैं। पहाडियों के बीच बने इस धरना स्थल पर कई सारी झोपडियां बनी हुई हैं। जहां रहकर लोग पिछले एक साल से अपनी मांगों को लेकर धरना-प्रदर्शन कर रहे हैं।

आंदोलनकारी आदिवासियों की तीन सूत्रीय मांगें इस प्रकार है-

  • साल 1996 में पारित पेसा कानून के नियमों का छत्तीसगढ़ शासन अतिशीघ्र पालन करे।
  • ग्राम सभा की अनुमति के बिना प्रस्तावित नये पुलिस कैम्पों एवं सड़क चौड़ीकरण कार्य को बंद किया जाए।
  • साल 2002 में पारित वन संरक्षण अधिनियम को रद्द किया जाए।

इन मुद्दों को लेकर धरना-प्रदर्शन में बैठे लोगों में केंद्र और राज्य सरकार के खिलाफ गुस्सा भरा हुआ है। इस प्रदर्शन में बैठे कुछ लोगों के पास वोटर कार्ड हैं लेकिन कुछ के पास नहीं हैं।

पहले मांग मानी जाए फिर वोट देंगे

जिस दिन ‘जनचौक’ की टीम इस धरना-प्रदर्शन स्थल पर पहुंची उस दिन फूलसिंह और रायत्राम गोटा आंदोलन का नेतृत्व कर रहे थे। हमने चुनाव को लेकर उनसे बातचीत की। उन्होंने कहा कि चुनाव के दौरान भी हमारी मांगें नहीं बदली हैं। हम लोग चाहते हैं कि सरकार किसी की भी हो, सबसे पहले हमारी तीन सूत्रीय मांगों को माना जाए। उसके बाद हमारे समुदाय का पूरा वोट उन्हें दिया जाएगा। नहीं तो इस वोट का बहिष्कार करेंगे। 

फूलसिंह और गोटा।

हमने फूलसिंह से पूछा कि क्या वह वोट करने जाएंगे? इसका जवाब देते हुए उन्होंने कहा कि हम लोगों ने वोट का कभी बहिष्कार नहीं किया है। हर बार वोट करने जाते हैं। इस बार भी वोट डालने जाएंगे, अगर सरकार हमारी मांगों पर ध्यान देती है तो।

बिजली पानी के सवाल पर फूलसिंह का कहना है कि साल 2019 से अंदरूनी गांवों तक बिजली पहुंच गई है। हमें भाजपा और कांग्रेस से कुछ फर्क नहीं पड़ता, जो आदिवासियों की मांगों को मानेंगे, वही हमारे लिए हैं।

सरकार पर सवाल उठाते हुए वह कहते हैं कि जब चुनाव आता है तभी सभी पार्टियों को आदिवासियों की याद आती है। तब यह मुद्दा बनता है कि आदिवासियों की सुरक्षा पर ध्यान दिया जाएगा। उनको किसी तरह की परेशानी नहीं होगी। लेकिन जैसे ही चुनाव खत्म हो जाते हैं, सरकार बन जाती है तो यही लोग आदिवासियों को भूल जाते हैं। उन्हें फर्जी नक्सली कह कह जेल में डाल दिया जाता है। कई बार जंगल जाने के नाम पर भी प्रताड़ित किया जाता है।

फूलसिंह का कहना है कि कई लोगों का अभी तक वोटर कार्ड नहीं बन पाया है। यह भी हमारे लिए एक अहम मुद्दा है। अगर सरकार इस पर भी ध्यान देती तो और बेहतर होता।

रायत्राम गोटा भी इसी आंदोलन में शामिल हैं। नारायणपुर में लगातार खुलती माइंस को लेकर उनमें बहुत रोष है। वह कहते हैं कि इन पांच सालों में ही रावघाट माइंस को खोला गया इसके अलावा भी अन्य माइंस को यहां खोला गया है।लेकिन इससे आम आदिवासी को क्या लाभ हुआ? कुछ भी नहीं।

रायत्राम गोटा कहते हैं कि हम पार्टियों को वोट देकर उनकी सरकार बनाते हैं लेकिन सरकार हमारे बारे में कुछ नहीं सोचती है। माइंस खुलते हैं आदिवासियों की जमीन पर लेकिन उन्हें इससे कुछ लाभ नहीं होता है। सरकार ही इनका पूरा लाभ उठा रही है। वोट तो हमलोग अपने लोगों की सलाह से देंगे ही, लेकिन सरकार को भी इस बात पर ध्यान देना चाहिए।

धरना-प्रदर्शन में शामिल आदिवासी।

बहुत ज्यादा असर नहीं पड़ेगा

नारायणपुर में आदिवासी पिछले पांच सालों में अलग-अलग जगहों पर अपनी मांगों को लेकर धरना प्रदर्शन कर रहे हैं। इस बीच रावाघाट माइंस की शुरुआत भी हुई। इन धरना प्रदर्शनों का वोट पर कितना असर पड़ेगा इस बारे में हमने बस्तर के वरिष्ठ पत्रकार से बात करके जानने की कोशिश की।

नाम नहीं छापने की शर्त पर बस्तर के एक वरिष्ठ पत्रकार ने कहा कि नारायणपुर विधानसभा सीट बहुत ही विविध है। इसका कुछ भाग बस्तर और कोंडागांव जिले में भी आता है और इत्तेफाक से इसी जगह पर ज्यादा वोट डाले जाते हैं। उन्होंने कहा कि नारायणपुर जिले का अधिकांश हिस्सा आज भी नक्सल प्रभावित है। ओरछा ब्लॉक आज भी बहुत पिछड़ा है। इसलिए इस क्षेत्र से वोट भी कम पड़ते हैं।

उन्होंने कहा कि “नारायणपुर में जितने भी विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं वह ज्यादातर अबूझमाड़ में आते हैं। जहां कई लोगों के पास वोटर कार्ड भी नहीं है। यह बहुत ही संवेदनशील क्षेत्र है ऐसे में सरकार भी वहां तक नहीं पहुंच पाई है। दूसरी ओर नक्सली वोट का विरोध करते हैं, ऐसे में कई लोग वोट देने भी नहीं आ पाते हैं। ऐसे में वोट पर इनका बहुत ज्यादा असर नहीं पड़ेगा। लेकिन कई बार एक वोट भी बहुत मायने रखता है। ऐसे में इसे इग्नोर नहीं किया जा सकता है।”

नारायणपुर विधानसभा में कुल 1,76,030 पंजीकृत मतदाता हैं। जिसमें से 85,425 पुरुष और 90,604 महिलाएं हैं। फिलहाल कांग्रेस के चंदन कश्यप यहां से विधायक है। साल 2018 के चुनाव में कांग्रेस और भाजपा के बीच मात्र दो प्रतिशत वोट का ही अंतर रह गया था। इस बार देखना है कि जब इतने सारे आंदोलन चल रहे हैं तो चुनाव पर इसका कितना प्रभाव पड़ता है।

(बस्तर से पूनम मसीह की रिपोर्ट।)

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