जनता के असन्तोष को विपक्ष राजनीतिक स्वर दे सका तो यह आम चुनाव मोदी राज के अंत का बन सकता है गवाह

राम-मंदिर के उल्लासोन्माद (euphoria) के माहौल में जब 400 पार का नारा दिया जा रहा है, मोदी जी स्वयं अकेले भाजपा को 370 की हुंकार भर रहे हैं, तब C-वोटर के MOTN सर्वे ने भाजपा को बहुमत से मात्र 32 अधिक- 304 सीटें देकर यह इशारा कर दिया है कि मनोवैज्ञानिक युद्ध में माहौल चाहे जितना बनाया जाय, 2024 की राह आसान नहीं है। यह तय है कि अयोध्या जिसकी हवा अभी ही काफी कुछ निकल चुकी है, 2 महीने बाद होने वाले चुनाव तक उसका हवा बरकरार रहने वाली नहीं है।

यह निर्विवाद है कि विभिन्न कारणों से ऐसे सर्वे अमूमन सत्ता-पक्ष की ओर झुके होते हैं। उसके बाद भी “राममय माहौल” में भाजपा को बहुमत से मात्र 30-32 सीटें अधिक मिलने की बात दिखा रही है कि विपक्ष अगर मजबूती से मैदान में टिका रहा तो चुनाव आते-आते बाजी पलट सकती है।

जिस MOTN सर्वे ने भाजपा को बहुमत से 32 सीट अधिक मिलते दिखाया है, उसी सर्वे में यह बात भी सामने आई है कि जनता के जीवन से जुड़े सारे सवालों पर अधिसंख्य जनता मोदी सरकार से असन्तुष्ट है। उदाहरण के लिए 54% ने माना है कि बेरोजगारी का संकट गम्भीर है, 17% का मानना है कि थोड़ा गम्भीर है, केवल 4% लोग मानते हैं कि ऐसा बिल्कुल नहीं है। 56% का मानना है कि सरकार रोजगार सृजन में नाकाम है (31% के अनुसार बिल्कुल रोजगार सृजन नहीं हुआ, 25% के अनुसार थोड़ा ही काम दे पाई।)

सबसे अधिक लोगों की चिंता बेरोजगारी और महंगाई है (26% के लिए बेकारी, 19% के लिए महंगाई )। सर्वाधिक लोग महंगाई और बेरोजगारी को सरकार की सबसे बड़ी विफलता मानते हैं (24% महंगाई को, 18% बेरोजगारी को)।

मोदी शासन की वर्गीय पक्षधरता को अधिसंख्य लोग बखूबी समझ रहे हैं। 52% लोग यह मानते हैं कि इस निज़ाम में  सबसे ज्यादा फायदा बड़े व्यापारिक घरानों को मिला है, जबकि मात्र 9%, 8% और 11% यह मानते हैं कि सर्वाधिक फायदा क्रमशः किसानों, वेतनभोगियों और छोटे व्यापारियों को मिला है। 45% लोग इस बात को समझ रहे हैं कि मोदी सरकार की नीतियों ने आय की असमानता को बढ़ाया है। बेरोजगारी और महंगाई की दुहरी मार ने जनता की आय को जिस तरह निचोड़ा है, उसके चलते 62% लोगों का कहना है कि घर चलाना मुश्किल हो रहा है, जबकि 33% का कहना है कि खर्च बढ़ा है, लेकिन अभी किसी तरह काम चल जा रहा है।

भविष्य को लेकर भी अधिकांश लोगों में निराशा और नाउम्मीदी है। मात्र एक चौथाई को लगता है कि उनकी आय में सुधार होगा, दो तिहाई को लगता है कि स्थिति जस की तस रहेगी या बदतर होगी। 30% मानते हैं कि हालात बदतर होंगे।

विकसित भारत और 5 ट्रिलियन इकॉनमी के मोदी के बड़बोले दावों पर अधिसंख्य जनता को यकीन नहीं है, मात्र 34% को लगता है कि अगले 6 महीने में अर्थव्यवस्था में सुधार होगा, लेकिन 56% को लगता है कि स्थिति ऐसी ही रहेगी या बदतर होगी। मात्र एक तिहाई (33%) लोगों को लगता है कि देश की आर्थिक हैसियत बढ़ी है, जबकि 64% को लगता है कि पहले जैसी ही है या बदतर हुई है (35% मानते हैं कि बदतर हुई है)।

अलबत्ता मोदी और गोदी मीडिया ने 69% लोगों को यह घुट्टी जरूर पिला दिया है कि भारत तीसरी अर्थव्यवस्था हो जाएगा! (हालांकि वह नं. 1 या 2 (अमेरिका और चीन) से कितना पीछे होगा या इससे आम जनता के जीवन पर कितना असर पड़ेगा, कोई असर पड़ेगा भी या नहीं, इसका उन्हें शायद ही कोई इल्म हो!)

मोदी सरकार की उपलब्धि के नाम पर भावनात्मक बातों से इतर कोई ठोस बात लोगों के मन में नहीं है। 42 % लोग मन्दिर को मोदी की सबसे बड़ी उपलब्धि मानते हैं, तो 19% भारत की हैसियत दुनिया में बढ़ने के प्रोपगंडा को और 12% धारा 370 हटाने को! स्वयं को जनकल्याण और विकसित भारत के लिए समर्पित होने का दावा करने वाली 21वीं सदी की किसी सरकार के लिए यह कोई बहुत गौरवान्वित करने वाला मूल्यांकन नहीं है। 

यहां तक कि भ्रष्टाचार के जिस सवाल को विपक्ष के खिलाफ मोदी-शाह सबसे बड़ा हथियार बनाये हुए हैं, आश्चर्यजनक ढंग से उस पर भी सर्वे के अनुसार अगर 46 % लोग मानते हैं कि मोदी सरकार में यह कम हुआ है, तो उससे ज्यादा 47% मानते हैं कि मोदी राज में भ्रष्टाचार बढा है!

अधिसंख्य भारतीय यह मानने को तैयार नहीं हैं कि मोदी-शाह ईडी-सीबीआई के माध्यम से भ्रष्टाचार के खिलाफ कोई मसीहाई जंग छेड़े हुए हैं!

इसीलिए, यह अनायास नहीं है कि देश के सबसे शांत इलाकों में भी जहां साम्प्रदायिक तनाव का कोई इतिहास नहीं रहा है, वहां सचेत ढंग से आग भड़काई जा रही है। हल्द्वानी में ऐसी कोई इमरजेंसी नहीं थी कि जो मस्जिद-मदरसा पहले से ही सील थे और महज 1 सप्ताह बाद जिस विवाद को लेकर हाई कोर्ट में सुनवाई पहले से ही तय थी, उसे अचानक बलपूर्वक ढहा दिया जाय!

दरअसल, यह कोई अलग घटना नहीं थी। इसके पहले दिल्ली में इसी तरह 700 साल पुरानी मस्जिद गिराई गयी। ज्ञानवापी तहखाने में अचानक पूजा शुरू होना, काशी-मथुरा को लेकर स्वयं प्रदेश के मुखिया की भड़काऊ बयानबाजी तथा उत्तराखंड में इसी दौरान यूसीसी (UCC) का पारित होना साफ तौर पर एक सुनियोजित पैटर्न है- साम्प्रदायिक तापमान बढ़ाने का।

यह सब भी इसी तथ्य की पुष्टि कर रहा है कि भाजपा के रणनीतिकारों को अयोध्या-मन्दिर, मोदी गारंटी, विकसित भारत समेत अपनी तमाम “उपलब्धियों” पर खुद ही विश्वास नहीं है कि इनसे नैया पार लग पाएगी !

यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि इस माहौल में जब जीवन के मूलभूत सवालों को लेकर, मोदी राज के अन्याय और जुल्म के खिलाफ, जनता का गुस्सा सतह के नीचे खदबदा रहा है और इस उम्मीद में है कि विरोधी दल आगामी चुनाव में इसे राजनीतिक स्वर देंगे और मौजूदा सरकार को बाहर का रास्ता दिखाएंगे, उस समय विपक्ष का एक हिस्सा स्वयं ही इच्छामृत्यु के मोह (death wish) से ग्रस्त है। 

इस परिस्थिति में अब तो लोकतंत्र की रक्षा की आखिरी उम्मीद इस देश की जनता का जागृत विवेक ही बचा है।

यह देखना सुखद है कि किसान-मेहनतकश, युवा छात्र, महिलाएं, नागरिक समाज के अनगिनत  संगठन, तमाम शख़्सियतें जनता के जीवन और हमारे लोकतंत्र को बचाने के लिए आगे आ रही हैं। किसानों ने आज के अपने दिल्ली कूच और 16 फरवरी के बंद तथा चक्का-जाम के आह्वान से एक बार फिर मोदी सरकार के किसान-विरोधी क्रूर, विश्वासघाती चेहरे को बेनकाब कर दिया है।

28 फरवरी को आइसा (AISA) के नेतृत्व में छात्र-युवा दिल्ली पहुंच रहे हैं तो 6 मार्च को ऐपवा के साथ महिलाएं। ईवीएम को लेकर नागरिक समाज के योद्धा सड़कों पर उतरे हुए हैं।

अभी भी समय है, विपक्ष अगले 2 महीनों में मोदी सरकार के खिलाफ जनता के उमड़ते-घुमड़ते असन्तोष और आक्रोश को अपने सकारात्मक वैकल्पिक कार्यक्रम और वायदों के साथ आक्रामक ढंग से राजनीतिक स्वर दे दे तो संघ-भाजपा के रणनीतिकारों की सारी जुगत धरी रह जाएगी। सत्ता प्रतिष्ठान साम-दाम, दंड-भेद का इस्तेमाल करके चाहे जितनी साजिशें और विपक्ष में तोड़फोड़ कर ले, यह चुनाव मोदी राज के खात्मे के लिए आम जनता का चुनाव बन सकता है।

 क्या विपक्ष यह कर पायेगा?

(लाल बहादुर सिंह इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं।)

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