दिल्ली में न्यूनतम मजदूरी की दर में बढ़ोत्तरी: आधी हकीकत आधा फसाना

नई दिल्ली। दिल्ली के श्रम मंत्री राजकुमार आनंद ने 1 अक्टूबर, 2023 से नयी न्यूनतम मजदूरी दर घोषित किया है। श्रम मंत्री के अनुसार ‘‘यह कदम दिल्ली के वंचित और मजदूर वर्ग को मुद्रास्फीति से पैदा हुई चुनौतियों के मद्देनजर राहत देने के लिए लिया गया है।’’

इस बढ़ोत्तरी में असंगठित क्षेत्र के मजदूरों का भी ध्यान रखा गया है। कुशल श्रमिकों की आय में 312, अर्ध-कुशल की आय में 286 और अकुशल मजदूर की आय में 260 रुपये की बढ़ोत्तरी की गई है। इस तरह इनकी न्यूनतम मजदूरी क्रमशः अब 21,215 रुपये, 19,289 रुपये और 17,494 रुपये हो जायेगी। इसी के साथ जो दसवीं पास कर्मचारी हैं उन्हें अब 18,993 की जगह 19,279 रुपये मिलेगा। दसवीं पास कर्मचारियों की आय में 312 रुपये बढ़कर 21,215 और स्नातक व उससे अधिक पढ़ाई वाले कर्मचारियों को अब 23,082 रुपये मिलेगा, जो पिछले वेतन से 338 रुपये अधिक है।

यदि हम 2020-21 के दिल्ली आर्थिक सर्वेक्षण को देखें, जिसे दिल्ली विधानसभा में पेश किया गया था, यहां प्रति व्यक्ति आय का औसत 32,500 रुपये प्रति महीना था। इसी सर्वेक्षण में 2022-23 के लिए यह अनुमान लगाया गया था कि इस औसत आय में 14.18 प्रतिशत की दर से बढ़ोत्तरी होगी, जो साल भर के हिसाब से 4.44 लाख रुपये बैठता है।(इंडियन एक्सप्रेस, मार्च, 2023)।

दिल्ली सरकार के लेबर कमिश्नर पेज पर कुल मजदूरों की संख्या 45,45,234 दर्ज है जबकि गैर-मजदूर जनसंख्या 93,05,273 है। निश्चित ही यह संख्या पंजीकरण आदि के माध्यम से तय होगी। मजदूरों की न्यूनतम आय के रिकार्ड से साफ है कि दिल्ली की औसत आय से इनकी आय काफी कम रही है। नये आंकड़ों में इस औसत आय की तुलना में इस वर्ष घोषित मजदूरों के लिए न्यूनतम आय काफी कम है। और, आय वितरण में दिल्ली की लगभग एक तिहाई आबादी औसत से काफी कम कमा पाती है।

अभी हाल ही में सीएसडीएस-लोकनीति की रिपार्ट सामने आई। यह एक सैंपल सर्वे पर आधारित रिपोर्ट है जिसका सैंपल आकार 1017 है। यह स्लम और अनाधिकृत कालोनियों में रहने वालों पर केंद्रित था। इस सर्वे में 31 प्रतिशत ऐसे लोग थे जो दिल्ली में तो रह रहे थे लेकिन वोट का पंजीकरण या तो नहीं था या मूलवास में था। 48 प्रतिशत लोग दलित, ओबीसी और अनुसूचित जाति के थे।

सामान्य व अन्य में 31.4 प्रतिशत थे जबकि 20.6 लोगों ने कुछ नहीं बताया। इसका 39 प्रतिशत हिस्से की आय प्रति माह 10,000 रुपये या इससे कम थी। 39.4 प्रतिशत की आय 10 से 20 हजार रुपये प्रति माह थी। सिर्फ 11.40 प्रतिशत की आय ही 20 हजार से 30 हजार रुपये प्रतिमाह थी। 10.1 प्रतिशत की आये 30 हजार रुपये प्रतिमाह या उससे अधिक थी।

इस आबादी का 81.5 प्रतिशत हिस्सा बाहर से आया हुआ था। इसमें सबसे अधिक उत्तर प्रदेश- 50.5 प्रतिशत, दूसरे पर बिहार- 21.8 प्रतिशत। अन्य में हरियाणा, राजस्थान और पश्चिम बंगाल थे जिनकी हिस्सेदारी क्रमशः 3.2, 6.6 और 7.7 प्रतिशत थी। इस आबादी का 58.2 प्रतिशत हिस्सा रोजगार के लिए आया हुआ था। 30.9 प्रतिशत परिवार और विवाह के कारण यहां आ गया था। इसका 62.6 प्रतिशत हिस्सा दसवीं भी पास नहीं था। दसवीं तक पढ़े लोगों का प्रतिशत महज 12.4 प्रतिशत था।

इस सर्वे में लगभग 60 प्रतिशत बिजली की सब्सिडी से लाभान्वित था। मुफ्त राशन का लाभ 40.3 प्रतिशत ले रहे थे लेकिन साफ पानी का लाभ सिर्फ 27.3 प्रतिशत को ही मिल रहा था। जबकि शिक्षा का लाभ 13.7 प्रतिशत ही उठा रहे थे। इस तरह कल्याणकारी योजना का कुल लाभ 31.2 प्रतिशत के पास था लेकिन 56.1 प्रतिशत इसका लाभ उठाने की स्थिति में नहीं थे।

उपरोक्त आंकड़ों और उसके निष्कर्षों को दिल्ली की कुल कामगार आबादी पर लागू किया जाये, तब इस न्यूनतम आय का लाभ मजदूरों के एक बेहद छोटे से हिस्से को मिलेगा। लगभग 60 प्रतिशत आबादी के लिए तो इस न्यूनतम वेतन का कोई अर्थ भी नहीं है।

आमतौर पर छोटे और मध्यम स्तर की कंपनियों, फैक्ट्रियों, दुकानों और मकान निर्माण मजदूरों की नियुक्तियां सीधे मालिक के साथ बातचीत और समझौते के आधार पर होता है या ठेकेदारों के माध्यम से। भुगतान अमूमन महीने पर और कई बार रोज के आधार पर होता है। श्रम विभाग इन कार्यस्थलों पर न्यूनतम वेतनमान को किस तरह से लागू करेगा, इसकी न तो योजना दिखती है और न ही इसकी प्रभावकारी कार्यकारी व्यवस्था।

वैसे भी दिल्ली में, 1980-2000 के बीच के मजदूर आंदोलन का इतिहास देखें, तब सबसे ज्यादा आंदोलन इसी न्यूनतम मजदूरी को लेकर हो रहे थे। उस समय भी श्रम इंस्पेक्टर, डायरी और रजिस्टर होने के बावजूद न्यूनतम मजदूरी मजदूरों के लिए दूर का सपना ही बना रहा। इससे भी महत्वपूर्ण बात नीति के स्तर पर है।

सातवें वेतनमान आयोग ने चार लोगों के परिवार की जिंदगी चलाने के लिए 2016 में न्यूनतम आय 18,000 हजार रुपये बताया था। लगभग सात साल गुजर गये। उस न्यूनतम आय के संदर्भ में अभी भी मजदूरों के लिए घोषित आय इसके आसपास ही घिसट रही है। जबकि मजदूरों पर काम के घंटों का बोझ बढ़ता गया है।

पिछले एक साल से चल रहे बुलडोजर अभियान में हजारों घर, झुग्गी बस्तियों को ढहा दिया गया। सालों की कमाई इन खंडहर बनाने वाले अभियानों में नष्ट हो गये। एक अनुमान के अनुसार लगभग 10 लाख लोगों को बेघर बनाया गया। वहीं दूसरी ओर एक बार फिर तेजी से मकान और भूमि की कीमतों में 15 प्रतिशत से लेकर 46 प्रतिशत तक वृद्धि देखी जा रही है। मकान के किराये में बढ़ोत्तरी हो रही है। रोजमर्रा के खाने के सामानों की वृद्धि ने तो आसमान ही छू लिया।

इस संदर्भ में दिल्ली सरकार द्वारा घोषित किया गया न्यूननम मजदूरी का कोई अर्थ नहीं रह जाता। यह न तो महंगाई की चुनौती से मेल खाता है और न ही यह व्यवहारिक स्तर पर मजदूरों की वास्तविक आय में वृद्धि का कारक ही बनता हुआ दिखता है। शायद, यही कारण है कि दिल्ली की एक तिहाई आबादी से जुड़ी यह खबर लोगों के कोई बड़ी खबर नहीं है। जबकि दिल्ली की औसत आय में हो रही वृद्धि दूसरे राज्यों की तुलना में काफी बड़ी राशि है। दिल्ली सरकार का न्यूनतम वेतनमान संपन्नता के शहर में विपन्नता का प्रदर्शन अधिक है।

(अंजनी कुमार स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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