ग्राउंड रिपोर्ट: सरकारी योजनाओं के चलते लड़कियों को स्कूल भेजने लगे बिहार के पंचरुखिया गांव के अभिभावक

मुजफ्फरपुर, बिहार। हम वैश्विक स्तर पर सुपर पावर बनने की होड़ में हैं। लेकिन लैंगिक असमानता आज भी हमारे समक्ष चुनौतियों के रूप में मौजूद है। यहां तक कि देश में कामकाजी शहरी महिलाएं भी लैंगिक पूर्वाग्रह व असमानता का शिकार बन रही हैं जबकि देश की प्रगति में महिला श्रमबल का बहुत बड़ा योगदान है। जो नित्य नए अनुसंधान, बौद्धिक कार्य, जोखिम भरा कार्य, राष्ट्रीय नेतृत्व आदि को पूरी ईमानदारी व निष्ठा के साथ निभा रही हैं।

दूसरी ओर ग्रामीण क्षेत्र में लड़कियों की शिक्षा को लेकर आजादी के पहले एवं बाद में भी लड़कों की अपेक्षा उदासीनता ही देखी जा रही है। जिसका प्रभाव आज भी कमोबेश ग्रामीण अंचलों में स्पष्ट दिखता है। आज भी गरीब व पिछड़े गांव में लड़कियों की शिक्षा को लेकर सकारात्मक मानसिकता नहीं है।

देश में महिला साक्षरता की दर 64.46 प्रतिशत है जो कुल साक्षरता दर से भी कम है। लड़कियों का स्कूल में नामांकन कराया जाता है जो कुछ वर्षों के बाद स्कूल छोड़ देती हैं। राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग के अनुसार वर्ष 2018 में 15-18 आयु वर्ग की लगभग 39.4 प्रतिशत लड़कियां स्कूली शिक्षा हेतु किसी भी संस्थान में पंजीकृत नहीं हैं। इनमें से अधिकतर या तो घरेलू कार्यों में लगी हैं या भीख मांगने जैसा काम कर रही हैं।

‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ की शुरूआत 2015 में महिला बाल विकास मंत्रालय, स्वास्थ्य परिवार कल्याण तथा मानव संसाधन मंत्रालय के संयुक्त प्रयास से स्कूलों में लड़कियों की संख्या बढ़ाने, भ्रूण हत्या रोकने, स्कूल छोड़ने वाली लड़कियों की संख्या कम करने, शिक्षा के अधिकार कानून को लागू करने आदि के उद्देश्य से की गई है।

इसी कड़ी में कस्तूरबा बालिका विद्यालय, कन्या विद्यालय, वुमेन्स काॅलेज, महिला समाख्या आदि संस्थाएं अस्तित्व में आईं। जिसने पिछड़े, दलित, अल्पसंख्यक के अलावा आर्थिक रूप से पिछड़े परिवार के लिए बेहतरीन कार्य किया है। यूनिसेफ भी लड़कियों की गुणवतापूर्ण शिक्षा के वास्ते भारत सरकार के साथ मिलकर काम कर रहा है।

इस कड़ी में बिहार और झारखंड सरकार भी बालिका शिक्षा को लेकर कई महत्वकांक्षी योजनाएं चला रही है। इसके बावजूद आज भी ग्रामीण क्षेत्र में अशिक्षा, गरीबी, पिछड़ेपन, रूढ़ियों आदि की वजह से लड़कियों को शिक्षा के अधिकार से अपने ही परिवार वाले महरूम रखते हैं।

बिहार के मुजफ्फरपुर जिले से 65 किमी दूर साहेबगंज प्रखंड अंतर्गत पंचरुखिया गांव की लड़कियों को पहले पढ़ाया नहीं जाता था। यह कहकर टाल दिया जाता था कि लड़कियां पढ़कर क्या करेंगी? आखिर लड़कियों को घर का ही तो कामकाज करना है। शादी के बाद भी और शादी के पहले भी उन्हें चूल्हा ही जलाना है। लेकिन अब बिहार सरकार लड़कियों को पढ़ने के लिए पोशाक, किताबें, छात्रवृत्ति, साइकिल आदि देने लगी है, तो अभिभावकों में लड़कियों को स्कूल भेजने की तत्परता भी दिखने लगी है।

पंचरूखिया गांव की चंदा और सुषमा आठवीं कक्षा में पढ़ती हैं। वे कहती हैं कि “पोशाक, किताब और छात्रवृत्ति मिलने के कारण हमारे माता-पिता स्कूल जाने देते हैं। 75 प्रतिशत हाजिरी के बहाने गांव की लड़कियां घर की दहलीज लांघकर स्कूल की कक्षा और खेल के मैदान में सहेलियों के साथ आनंद के साथ पठन-पाठन कर रही हैं।”

16 वर्षीय सोनी कहती है कि वह नौवीं कक्षा में पढ़ती हैं। आठवीं के बाद उसके पिता उन्हें पढ़ना नहीं चाहते थे, परंतु जब उन्होंने अपने पिता को बताया कि पढ़ने जाने के लिए सरकार की ओर से उसे साइकिल और पोशाक मिलेगी, तो उसके पिता ने उसका स्कूल में दाखिला कराया। गांव की कुछ लड़कियां यह भी कहती हैं कि घर से हाईस्कूल 6-7 किलोमीटर की दूरी तय करके जाना पड़ता है। पहले पैदल जाने की मजबूरी थी। लेकिन अब साइकिल मिल जाने से लड़कों की तरह स्कूल जाने में दिक्कत नहीं होती।

गांव की वृद्ध महिला कहती हैं कि “हम लोग नहीं पढ़ पाए लेकिन सरकार की ओर से सुविधा मिलने से गांव की बेटियां पढ़-लिखकर आगे बढ़ रही हैं।” हालांकि गांव के कुछ संकीर्ण सोच वाले पुरुषों का तर्क है कि “लड़कियां पढ़-लिखकर क्या करेंगी? कौन-सा कहीं की अफसर बन जाएंगी? कितना भी पढ़ लिख लें चूल्हा ही संभालेगी, इसलिए उम्र होते ही लड़की की शादी कर देनी चाहिए।” दूसरी ओर इसी ग्रामीण क्षेत्र में कुछ पढ़े-लिखे और जागरूक लोग भी हैं जो बालिका शिक्षा के प्रति सकारात्मक सोच रखते हैं।

प्रखंड के हुस्सेपुर रति पंचायत की मुखिया के पति जितेंद्र राय स्पष्ट रूप से कहते हैं कि “सभी को पढ़ने का बराबर का अधिकार है। चाहे वह लड़का हो या लड़की। सभी को पढ़-लिखकर अपने गांव समाज का नाम रोशन करने का हक़ है।” हालंकि बगल के ही पंचरुखिया गांव में जागरूकता की कमी है। जहां लड़कियों की पढ़ने व खेलने-कूदने की उम्र में शादी कर दी जाती है।

ऐसी शादियां अधिकतर आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछड़े परिवार और समुदाय में देखी जा सकती हैं जबकि जागरूक परिवार की लड़कियां स्कूल जा रही हैं। हालांकि अब बदलाव नज़र आने लगा है और देख-देखी कमजोर, गरीब, पिड़छे वर्ग की लड़कियां भी पढ़ाई में रुचि दिखाने लगी हैं। परिवार के अभिभावक भी सरकारी योजना का लाभ लेने के उद्देश्य से लड़कियों को स्कूल भेजने में गुरेज नहीं कर रहे हैं।

गौरतलब है कि महिलाएं जैसे-जैसे शिक्षित होने लगी हैं, वैसे-वैसे सामाजिक बुराइयां- जैसे बाल विवाह, दहेज प्रथा, भ्रूण हत्या, उत्पीड़न, भेदभाव, लैंगिक असमानता, आर्थिक समस्या आदि- कम होने लगी हैं। शिक्षित महिला के जरिए ही देश का विकास संभव है। स्वास्थ्य मंत्रालय के सर्वेक्षण में कहा गया है कि बच्चों की पोषण स्थिति का माताओं की शिक्षा से सीधा संबंध है।

महिलाएं जितना शिक्षित होंगी बच्चों के पोषण को उतना ही मज़बूत आधार मिलेगा। राष्ट्र की प्रगति के लिए ग्रामीण महिलाओं और किशोरियों को सशक्त व स्वावलंबी बनाना उतना ही जरूरी है, जितना कि पुरुषों को। समाज से लैंगिक पूर्वाग्रह व असमानता तभी मिटेगी जब लड़कियां पढेंगी।

इसके लिए दो स्तर पर काम करने की ज़रूरत है। एक ओर जहां सरकारी योजनाओं को धरातल पर शत प्रतिशत कामयाब बनाने की आवश्यकता है वहीं दूसरी ओर गांव के पढ़े-लिखे लोगों द्वारा गरीब, पिछड़े, दलित परिवार की शैक्षिक स्थिति को सुधारने के लिए जागृति लाने की ज़रूरत है।

सरकार की शिक्षा से संबंधित स्कीम, योजनाएं, प्रोजेक्ट आदि की जानकारी पंचायत के प्रतिनिधियों को जमीनी स्तर पर न केवल देनी होगी बल्कि इससे लोगों को जोड़ने की भी ज़रूरत है। सरकारी हुक्मरानों को स्कूल व्यवस्था के सुधार के साथ-साथ वैसे टोले-मुहल्ले में जहां दलितों व गरीबों की झुग्गी बस्तियां हैं, वहां तक बालिका शिक्षा के महत्व से अवगत कराना होगा, तभी ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ की सार्थकता पूरी होगी।

(बिहार के मुजफ्फरपुर से चरखा फीचर की सिमरन सहनी की रिपोर्ट।)

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments