‘हवा बनाओ अभियान’ न साबित हो जाए झारखंड सरकार का ‘अबुआ वीर दिशोम अभियान’

रांची। 29 सितंबर 2023 को झारखंड सरकार के अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अल्पसंख्यक एवं पिछड़ा वर्ग कल्याण विभाग के प्रधान सचिव राजीव अरुण एक्का ने पत्र जारी कर कहा है कि ग्राम स्तर पर वन अधिकार समितियों का गठन/पुनर्गठन करना है। जिसके आलोक में जिले के उपायुक्तों ने भी पूरे अक्टूबर महीने में अभियान चलाकर समितियों के गठन/पुनर्गठन और ग्राम सभा की बैठकें आयोजित करने हेतु कैलेंडर जारी कर दिया है।

इससे गांव के लोग यह समझ नहीं पा रहे हैं कि जहां ग्राम सभाओं के अधीन वन अधिकार समितियां सक्रिय हैं, क्या उन समितियों को भी पुनर्गठित किया जाएगा, या वे यथावत कार्य करती रहेंगी।

साथ ही यह भी सवाल उठ रहा है कि जिन वन अधिकार समितियों के मार्फ़त पूर्व में सभी प्रक्रियाएं पूरी करके अनुमंडल स्तरीय वन अधिकार समितियों को यथोचित कार्रवाई के लिए व्यक्तिगत एवं सामुदायिक दावे सौंपे जा चुके हैं, उन दावों पर कार्रवाई होगी अथवा नहीं? इन अस्पष्ट बिन्दुओं पर सरकार को अपना स्पष्ट मन्तव्य जाहिर करना चाहिए।

बता दें कि सरकार द्वारा जारी आंकड़ों के हिसाब से 30 नवंबर 2022 को झारखंड में ऐसे कुल 28,107 दावे लंबित थे। जिस पर सर्वोच्च न्यायालय के अंतरिम आदेशानुसार जांच प्रक्रिया चल रही थी। इसके बाद भी पलामू, लातेहार, गढ़वा सहित झारखंड के विभिन्न जिलों से हजारों सामुदायिक दावे वनाधिकार समितियों ने प्राधिकार को समर्पित किये हैं।

लातेहार जिले के बरवाडीह प्रखंड के 42 गांव व टोले ऐसे हैं, जहां पिछले 9 महीनों के भीतर वन अधिकार समिति गठित व पुनर्गठित हुई हैं और ग्राम सभाओं ने विधिवत इसकी सूचना जिला प्रशासन को सौंपी है। उनके माध्यम से 19 गांव के लोगों ने सामुदायिक पट्टे के लिए सम्पूर्ण प्रक्रिया पूरी करते हुए दावा सौंप दिया है। सरकार को चाहिए कि अपने हालिया आदेश के साथ-साथ जो दावे अनुमंडल एवं जिला स्तरीय कमेटियों के समक्ष विचारार्थ लंबित हैं, उनकी भी समीक्षा करती। तभी वो ग्राम सभाओं का विश्वास जीत सकेगी।

इससे आगामी झारखंड स्थापना दिवस में और आम चुनाव के पहले तक सरकार वृहत पैमाने पर ग्राम सभाओं को पट्टे निर्गत कर पायेगी। दावा प्रक्रियाओं को अंजाम देने के जमीनी अनुभव बताते हैं कि किसी एक वन अधिकार समिति को दावा पूर्ण करने के लिए 6 से 8 महीने लगते हैं। इस हिसाब से इस सरकार में भी समुदायों को पट्टे नहीं मिल पाएंगे। क्योंकि देश में आम चुनाव की घोषणा कभी भी हो सकती है।

दूसरी तरफ सरकार को यह भी ध्यान देना होगा कि नौकरशाह सामुदायिक पट्टे के नाम पर लोगों को झुनझुना न थमा दें। झारखंड में इसकी पूरी सम्भावना इसलिए है कि लातेहार जिले ने एक ही कानून के लिए 2 अलग-अलग सामुदायिक पट्टे निर्गत किये हैं।

2016-17 में लातेहार जिला के मनिका प्रखंड अंतर्गत डोंकी पंचायत के बरियातू गांव को अधिनियम की धारा 3 (1) (ग) के आधार पर और धारा 2(झ) में परिभाषित और नियम 2012 की धारा 2(घ) में वर्णित गौण वन उत्पादों का स्वामित्व, उन्हें संग्रह करने के लिए पहुंच एवं उनका उपयोग और व्ययन का हक़ दिया गया। लेकिन वहीं 2020-21 में 39 ग्राम सभाओं को निर्गत सामुदायिक पट्टों में “स्वामित्व” अर्थात मालिकाना हक़ के अधिकार को गौण कर दिया गया। जिसके कारण ग्राम सभाओं ने ऐसे उद्देश्यहीन पट्टे को लेने से इनकार कर दिया है।

उक्त मामले पर सामाजिक कार्यकर्त्ता जेम्स हेरेंज कहते हैं- सामाजिक संगठनों को चिंता है कि झारखंड में झारखंड वनाधिकार मंच, जंगल बचाव आन्दोलन एवं अन्य जन संगठन वन अधिकार कानून बनने की प्रक्रिया से लेकर पूर्व सरकार के समय और वर्तमान समय में भी ग्राम सभाओं की सशक्तिकरण के मुहिम में लगे हैं। ऐसे में सरकार जो अबुआ वीर दिशोम अभियान, 2023 चलाने जा रही है, इसमें ऐसे संगठनों की एक बड़ी भूमिका हो सकती है, बशर्ते सरकार और नौकरशाहों की मंशा साफ हो।

हेरेंज ने आगे कहा- विभिन्न स्तरों के प्रशिक्षण कार्यक्रमों से लेकर दावा सृजित करने तक में ये संगठन सरकार को सहयोग कर सकते हैं। साथ ही राज्य भर में क्रियाशील वन अधिकार समितियों की सूची और उनके द्वारा समर्पित दावों के आंकड़े स्थानीय प्रशासन को समर्पित कर सकते हैं। इससे सरकार और ग्राम सभाओं का समय भी बचेगा और साथ ही व्यवहारिक कार्य योजना बनाने में भी मदद मिलेगी। वरना यह अभियान भी 2015 में ग्रामीण विकास विभाग द्वारा चलायी गयी ‘योजना बनाओ अभियान’ की तरह कहीं ‘हवा बनाओ अभियान’ न साबित हो जाए।

जेम्स बताते हैं कि वन अधिकार कानून में ग्राम सभाओं को जो अधिकार देने की बात उल्लेखित है उसके अनुसार –

(क) अधिनियम की धारा 3 (1) (ख) के आधार पर छोटे काष्ट और जलावन लकड़ी घरेलू उपयोग के लिए संग्रह करने और स्वयं उपयोग करने का हक़।

(ख) अधिनियम की धारा 3 (1) (ग) के आधार पर और धारा 2 (झ) में परिभाषित और नियम 2012 की धारा 2 (घ) में वर्णित गौण वन उत्पादों का स्वामित्व, उन्हें संग्रह करने के लिए पहुंच, उनका उपयोग और व्ययन का हक़।

(ग) अधिनियम की धारा 3 (1) (घ) के आधार पर जल श्रोतों (जैसे तालाब, नाला, नदी व जलाशय) के उत्पाद जैसे मछली, केकड़ा इत्यादि अजीविका के लिए और घरेलू जानवरों के लिए जल के उपयोग का हक़।

(घ) अधिनियम की धारा 3 (1) (घ) के अंतर्गत घरेलू जानवरों को चराने का हक़।

(ङ) अधिनियम की धारा 3 (1) (ट) के अंतर्गत जैवविविधता तक पहुंच का अधिकार, जैवविविधता, सांस्कृतिक विविधता से सम्बंधित बौद्धिक संपदा और पारम्परिक ज्ञान का हक़।

(च) अधिनियम की धारा 3 (1) (ठ) के अंतर्गत अन्य अधिकारों जैसे स्थानीय समुदाय परम्परा से उपयोग करते आ रहे सड़क, पगडंडी घरेलू उपयोग के लिए मिट्टी का संग्रहण, पूजा स्थल और अन्य पवित्र स्थल, श्मशान घाट, खेल मैदान का हक़।

(झारखंड से विशद कुमार की रिपोर्ट।)

   

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