चंद्रशेखर का शहादत दिवसः लोकतांत्रिक विकल्प की चुनौती के साथ आगे बढ़ने का समय

31 मार्च को चंद्रशेखर का शहादत दिवस मनाया जाता है। इसी दिन 1997 को सीवान के जेपी चौक पर जनसंहारों और घोटालों के खिलाफ आहुत दो अप्रैल के बिहार बंद के पक्ष में एक नुक्कड़ सभा को संबोधित करते हुए चंद्रशेखर और उनके साथी श्यामनारायण यादव की हत्या हुई थी। अपराधियों की गोली से एक ठेले वाले भुट्टल मियां की भी हत्या हुई थी। इस हत्याकांड को आज के दौर में जेल में बंद राजद के चर्चित नेता और लालू यादव के प्यारे शहाबुद्दीन के गुंडों ने अंजाम दिया था।

चंद्रशेखर सीवान जिला के ही बिंदुसार के गांव के रहने वाले थे। उन्होंने प्रारंभिक शिक्षा गांव के बाद सैनिक स्कूल, तिलैया से हासिल की थी। वे एनडीए में चुने गए थे, लेकिन उन्होंने आगे की पढ़ाई के लिए एनडीए छोड़ दिया। पढ़ाई के क्रम में जेएनयू गए और वहां से पीएचडी तक की पढ़ाई पूरी की। उन्होंने जेएनयू छात्रसंघ में एक बार उपाध्यक्ष और लगातार दो बार अध्यक्ष होने का रिकॉर्ड बनाया।

चंद्रशेखर कहा करते थे, “आने वाली पीढ़ियां हमसे पूछेंगी, तुम तब कहां थे जब समाज में संघर्ष की नई शक्तियों का उदय हो रहा था, जब हमारे समाज की हाशिए पर डाल दी गई आवाजें बुलंद होने लगी थीं। यह हमारी जिम्मेदारी है कि सच्चे धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक, आत्मनिर्भर, समतामूलक भारत के निर्माण के लिए उस संघर्ष का हिस्सा बनें।”

इसी जिम्मेदारी के साथ वे छात्र आंदोलन में सक्रिय रहे और फिर बिहार के सीवान को रैडिकल लोकतांत्रिक बदलाव के संघर्ष की प्रयोगभूमि बनाने के स्वप्न के साथ आए थे। वे सीवान से रैडिकल लोकतांत्रिक बदलाव के आंदोलन का एक मॉडल खड़ा करना चाहते थे।

कहा जाता है कि वे 1993 में जब जेएनयू छात्रसंघ का चुनाव लड़ रहे थे तो सवाल-जवाब के सत्र में किसी ने उनसे पूछा, “क्या आप अपनी व्यक्तिगत महात्वाकांक्षा के लिए चुनाव लड़ रहे हैं?” तो उनका जवाब था, “हां, मेरी व्यक्तिगत महात्वाकांक्षा है, भगत सिंह की तरह जीवन, चेग्वेआरा की तरह मौत”।

हां, चंद्रशेखर ने भगत सिंह के रास्ते चलते हुए बिहार के सीवान की धरती पर शहादत दी। उनकी शहादत के बाद मुल्क की फिजां में इस नारे की गूंज सुनाई पड़ी, चंद्रशेखर, भगत सिंह! वी शैल फाइट, वी शैल विन!

जरूर ही उनकी शहादत ने भगत सिंह के सपनों में नई जान फूंकी और आगे का रास्ता खोलने का काम किया। उनकी शहादत महज उनको याद करने का मसला भर नहीं है। न ही उनकी शहादत को शहाबुद्दीन और सीवान तक सीमित होकर और न ही इसे अपराधियों द्वारा की गई सामान्य हत्या के बतौर देखा जा सकता है।

चंद्रशेखर की शहादत बिहार और देश में जारी लोकतांत्रिक आंदोलन के इतिहास की एक बड़ी घटना है। बिहार में उस समय सेकुलरिज्म और सोशल जस्टिस के मसीहा माने जाने वाले लालू यादव की सरकार चल रही थी। भाजपा छोटी राजनीतिक ताकत थी। कांग्रेस हाशिए पर चली गई थी। ब्रह्मणवादी सवर्ण वर्चस्व टूटता हुआ प्रतीत हो रहा था, लेकिन उलट आज बिहार में भाजपा एक बड़ी राजनीतिक ताकत है और जद-यू के साथ मिलकर सरकार भी चला रही है।

याद कीजिए, चंद्रशेखर की हत्या के खिलाफ दिल्ली के बिहार भवन के समक्ष जबर्दश्त प्रदर्शन हुआ था, वहां लालू यादव मौजूद थे। प्रदर्शनकारियों पर लालू यादव के साले साधु यादव ने गोली भी चलाई थी। दिल्ली से पटना वापस लौटकर तीन अप्रैल को पत्रकारों से बातचीत में लालू यादव ने कहा था कि “रणवीर सेना के लोगों ने दिल्ली में उपस्थित लड़के-लड़कियों और प्राध्यापकों को टेलीफोन कर बिहार भवन पर हमला कर मुझे जान से मार डालने को कहा था।

रणवीर सेना, माले और दलित सेना के लोगों ने चारों तरफ से बिहार भवन पर हमला किया। ये सारे तत्व यहां रात भर उपद्रव करते रहे। बिहार भवन में घुस कर ये मुझ पर हमला करना चाहते थे। (दैनिक हिंदुस्तान, पटना, 4 अप्रैल 1997)।

सर्वविदित है कि उस दौर में सवर्ण सामंती शक्तियों की ओर से रणवीर सेना दलितों-कमजोर समुदायों-गरीबों के लोकतांत्रिक जागरण को कुचलने के लिए कत्लेआम कर रही थी। माले सवर्ण सामंती शक्तियों के खिलाफ लड़ाई के केंद्र में थी। भाजपा रणवीर सेना की मुख्य राजनीतिक संरक्षक की भूमिका में थी। शेष, कांग्रेस, राजद, जद-यू जैसी पार्टियों के नेताओं का संरक्षण भी रणवीर सेना को हासिल था। राजद सरकार ने भी रणवीर सेना को ही छूट दे रखी थी।

सीवान में रणवीर सेना नहीं थी, रणवीर सेना की भूमिका में लालू यादव के प्यारे और राजनीतिक के अपराधी के मूर्त प्रतीक-माफिया सरगना शहाबुद्दीन थे। जो वहां लगातार हत्याओं को अंजाम दे रहे थे। आतंक का पर्याय बने हुए थे। वहां भी माले ने शहाबुद्दीन के खिलाफ मोर्चा खोल रखा था।

इस परिदृश्य में लालू यादव के बयान के राजनीतिक तात्पर्य को साफ समझा जा सकता है। उन्होंने चंद्रशेखर की हत्या के खिलाफ प्रदर्शन को अपने हत्या की साजिश बताकर हत्यारे के पक्ष से ही खड़ा होने का काम किया। चंद्रशेखर की हत्या के सवाल का अपने हत्या की मनगढ़ंत कहानी के जरिए मजाक उड़ाने का काम किया। रणवीर सेना के साथ माले और दलित सेना को साथ खड़ाकर दलितों-गरीबों के लोकतांत्रिक जागरण और दावेदारी पर राजनीतिक हमला किया।

हां, सच में मसला शहाबुद्दीन और सीवान तक नहीं सिमटा था। अपराधियों द्वारा की गई यह सामान्य हत्या नहीं थी। यह एक राजनीतिक हत्या थी। सामाजिक न्याय, धर्मनिरपेक्षता और दलितों-पिछड़ों के मसीहा कहे जाने वाले ने अपना राजनीतिक पक्ष स्पष्ट कर दिया था। अपनी राजनीति की सीमा और चरित्र को साफ कर दिया था। यह राजनीति चंद्रशेखर, श्याय नारायण यादव और भुट्टन मियां के खून से आगे का रास्ता बना रही थी।

एम-वाई समीकरण पर आगे बढ़ रही सामाजिक न्याय व धर्मनिरपेक्षता की इस राजनीति के प्रतिनिधि चेहरा के बतौर शहाबुद्दीन और साधु यादव जैसे बाहुबली बंदूकें थाम कर सामने थे। इनकी गोलियों के निशाने पर कौन थे? इनकी बंदूकें अंततः किन शक्तियों के पक्ष में थी? साफ हो चुका था।

इस राजनीति ने वास्तविकता में ब्रह्मणवादी-सवर्ण सामंती शक्तियों की ओर पीठ कर लिया था। उसके सामने समर्पण कर दिया था।

चंद्रशेखर की शहादत के दो दशक से अधिक समय गुजर जाने के बाद आज जरूर ही रणवीर सेना नहीं है, शहाबुद्दीन जेल की सलाखों के पीछे हैं, चारा घोटाले के मामले में लालू यादव भी जेल में बंद हैं। आडवाणी का रथ रोकने वाली और भाजपा से लड़ने का दावा करने वाली राजनीति भाजपा को रोकने में विफल साबित हुई है। अपने तार्किक परिणति तक पहुंच चुकी है।

लालू यादव के सहोदरों के सहयोग से भाजपा ने राजनीतिक ताकत काफी बढ़ा ली है। वे सत्ता में साझीदार हैं और ब्रह्मणवादी सवर्ण सामंती-माफिया-लुटेरी शक्तियों ने बिहारी समाज, अर्थतंत्र और राजनीति पर अपनी पकड़ मजबूत कर ली है।

बेशक, आज के दौर में चंद्रशेखर की शहादत बिहार के छात्र-नौजवानों से भाजपा के खिलाफ पूरी ताकत से लड़ने और लोकतांत्रिक बदलाव की लड़ाई को आगे बढ़ाने का आह्वान करती है, लेकिन भाजपा के खिलाफ निर्णायक लड़ाई चंद्रशेखर की हत्यारी राजनीति के पीछे खड़ा होकर नहीं लड़ी जा सकती है। राजद ऐसी पार्टियों को विकल्प मानने की राजनीतिक सीमा में कैद होकर भाजपा विरोधी लड़ाई आगे नहीं बढ़ाई जा सकती।

भाजपा विरोधी लड़ाई को हाशिए के छोर से लोकतांत्रिक जागरण की ताकत पर खड़ा होकर लोकतांत्रिक विकल्प गढ़ने की चुनौती के साथ आगे बढ़ना होगा। चंद्रशेखर की शहादत को भूलकर कतई आगे नहीं बढ़ा जा सकता।

रिंकू यादव
(लेखक सामाजिक, राजनीतिक कार्यकर्ता हैं और भागलपुर में रहते हैं।)

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