नाकाम हो गयी मोदी सरकार की स्वास्थ्य बीमा योजना, नये अस्पतालों में मेडिकल स्टाफ की कमी

नई दिल्ली। केंद्र की बीजेपी सरकार ने 2017 में आयुष्मान भारत योजना की शुरुआत की थी जिसके साथ ही उसने सरकार आधारित सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा से इंश्योरेंस आधारित स्वास्थ्य सेवा मॉडल की तरफ शिफ्टिंग कर दी थी।

इसके साथ ही 2018 से वह प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना के तहत 5 लाख रुपये प्रति परिवार के साल के हिसाब से स्वास्थ्य बीमा मुहैया करा रही है। एक विश्लेषण के जरिये यह बात सामने आयी है कि निजी अस्पताल सरकारी अस्पतालों के मुकाबले कम मरीज एडमिट कर रहे हैं।

कोविड-19 के दौरान भी यह बीमा योजना काम नहीं कर सकी थी केवल 11.9 फीसदी लोगों को ही इसका लाभ मिला था। और अस्पतालों में भर्ती होने पर उन्हें मुफ्त इलाज मिल पाया था।

इसके साथ ही इस योजना में घोषणा की गयी थी कि प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों के साथ ही हेल्थ और वेलनेस सेंटर भी खोले जाएंगे जिससे इसके दायरे को बढ़ाया जा सके। इस तरह से 1.5 लाख सेंटर खोले गए हैं। लेकिन इन सभी केंद्रों पर योगा, ओरल केयर, मेंटल हेल्थ की जांच, छुआछूत की बीमारियों के बुनियादी मैनेजमेंट से जुड़ी सुविधाएं नहीं हैं जिसका इस योजना में वादा किया गया था।

नेशनल हेल्थ पालिसी 2017 में यह सुझाव दिया गया था कि सरकार को स्वास्थ्य क्षेत्र में जीडीपी का 2.5 फीसदी खर्च करना चाहिए। 2014-15 में जीडीपी का 1.13 फीसदी से बढ़कर 2022-23 में सरकार 2.1 फीसदी खर्च कर रही है। हालांकि यूनियन बजट में स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा जो शेयर इस पर आवंटित किया गया है वह महज 1.9 फीसदी है।

अपने पॉकेट से बाहर जा कर खर्चे को किसी भी देश में स्वास्थ्य खर्च को वहन करने की दिशा में एक सफलता के तौर पर देखा जाता है। भारत में यह खर्च घाना, भूटान, इंडोनेशिया, मालद्वीव, श्रीलंका के मुकाबले बहुत ज्यादा है।

आल इंडिया इंस्टीट्यूट फॉर मेडिकल साइसेंज

2014 में बीजपी ने प्रत्येक राज्य में एक एम्स स्थापित करने का वादा किया था। दिल्ली में सबसे पुराना एम्स है।

पिछले एक दशक में मोदी सरकार ने 15 नये एम्स स्थापित किए। लेकिन बहुत सारे बेहद कम संसाधनों में काम कर रहे हैं। जिसमें बाहरी और भीतरी मरीजों की संख्या भी बहुत कम है।

मेडिकल कॉलेज

2014 में भारत के 806 जिलों में कुल 387 मेडिकल कालेज थे। बीजेपी सरकार ने इनकी संख्या 706 कर दी है। लेकिन ढेर सारे नये कालेजों में डाक्टर और स्टाफ की संख्या बहुत कम है। जिसके चलते इनमें आने वाले मरीजों को अंत में उन्हीं पुराने अस्पतालों की शरण में जाना पड़ता है जो पहले से ही मरीजों से भरे हैं। 2022-23 में नेशनल मेडिकल कौंसिल ने 246 मेडिकल कालेजों का सर्वे किया था जिसमें 50 फीसदी टीचर भी मौजूद नहीं थे।

कुपोषण

नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे की एक रिपोर्ट के मुताबिक पिछले एक दशक में भारत में बच्चों को बड़े स्तर पर कुपोषण का सामना करना पड़ा है। 2015-16 में किए गए सर्वे में यह बात सामने आयी थी कि पांच साल से कम उम्र के बच्चों में 7.5 फीसदी बच्चों की स्थित बेहद बुरी थी और उनकी ऊंचाई के हिसाब से उनका वजन नहीं था। 2019-21 में यह और बढ़ कर 7.7 फीसदी हो गया।

इसी तरह के आयु समूह के मोटापे की घटनाओं में भी बढ़ोत्तरी हुई है जो 2.1 से बढ़कर 3.4 फीसदी हो गयी है।

उम्र के हिसाब से ऊंचाई के कम होने की संख्या घटी है। 2015-16 में जो 38.4 फीसदी थी वह घटकर 2019-21 में 35.5 हो गयी।

बीजेपी ने बच्चों और गर्भवती महिलाओं का पूरा टीकाकरण का वादा किया था। लेकिन ताजा आंकड़ों के मुताबिक दो साल से कम उम्र के केवल 76.4 फीसदी बच्चों का ही टीकाकरण हो पाया।

वैकल्पिक दवा

मोदी सरकार ने अपने घोषणापत्र में आयुर्वेद, यूनानी, सिद्ध और होम्योपैथी में बड़े पैमाने पर निवेश करने का वादा किया था। परंपरागत दवाओं के लिए एक अलग से मंत्रालय गठित किया गया था।

आयुष मंत्रालय के लिए बजट भी बहुत ज्यादा बढ़ा दिया गया था। 2023-24 में इसे 3647 करोड़ रुपये आवंटित किया गया जो पिछले साल से 20 फीसदी ज्यादा था।

टेलीमेडिसिन

2019 में मोदी सरकार ने टेलीमेडिसिन सेवा शुरू की थी जिसे ई-संजीवनी नाम दिया गया था। इसने 190.3 करोड़ लोगों की सेवा का दावा किया था। बहुत से डॉक्टरों का कहना है कि लक्ष्य को पाने के लिए इतना दबाव था कि उन्हें गलत आंकड़े रिकार्ड करने पड़े। जिससे टेलीमेडिसिन की सेवा लेने वालों की संख्या को बढ़ा कर बताया जा सके।

बीमारियों पर नियंत्रण

बीजेपी का डायरिया को खत्म करने का दावा अभी पेंडिंग है। पिछले साल तकरीबन 8 फीसदी बच्चे इसके शिकार हुए।

2014 में राष्ट्रीय मच्छर मिशन शुरू करने का दावा बीजेपी ने जो किया था वह अभी भी शुरू होना बाकी है। 2014 में बीजेपी ने देश से टीबी खत्म करने का वादा किया था। जबकि 2020 में टीबी ने 4.93 लाख भारतीयों की जान ले ली। 

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