हरियाणा की जमीनी पड़ताल-2: पंचायती राज नहीं अब कंपनी राज! 

यमुनानगर (हरियाणा)। सोढ़ौरा ब्लॉक हेडक्वार्टर पर पच्चीस से ज्यादा चार चक्का वाली गाड़ियां खड़ी थीं। पचास से ज्यादा लोग एक शख्स को घेरे खड़े थे। पूछने पर पता चला कि ये इलाके के सरपंच हैं जो अपनी समस्याओं को लेकर जिला परिषद अध्यक्ष से मिलने आए हैं। इन सरपंचों की सबसे बड़ी समस्या इनके अधिकारों में की गयी कटौती है। केंद्र और राज्य में बैठी जो सरकारें अब तक सत्ता को जमीन पर ले जाने और लोकतंत्र को विस्तारित करने के बड़े-बड़े दावे कर रही थीं। अब उन्होंने उनमें कटौती करनी शुरू कर दी है। और हरियाणा में यह काम बिल्कुल नंगे तरीके से किया जा रहा है। इसमें सबसे बड़ा हमला पंचायतों में टेंडरिंग व्यवस्था को लागू करने के रूप में सामने आया है। 

इसके तहत गांवों में होने वाले कामों को बाहर की कंपनियां या फिर ठेकेदार करेंगे और वह सब कुछ प्रशासन की देख-रेख में होगा। और प्रधान यानि सरपंच की भूमिका बेहद सीमित हो जाएगी। और साफ तरीके से कहा जाए तो आने वाले दिनों में वह महज रबर स्टैंप बनकर रह जाएगा।

इसको लेकर हरियाणा की राजनीति गरमा गयी है। और सरपंच सड़कों पर हैं। इस सिलसिले में सूबे के सरपंच कई बार प्रदर्शन कर चुके हैं। यहां तक कि एक बार उनके ऊपर पुलिस ने लाठीचार्ज भी किया। पूरे मामले की जमीनी हकीकत जानने के लिए हमने जब ईस्माइलपुर के सरपंच खैरातीलाल से बात की तो उनका कहना था कि अब टेंडर व्यवस्था लागू हो गयी है और यह भी मुंहजबानी होता है। यानि कि जिला प्रशासन, स्थानीय जेई और ठेकेदार मिलकर इस काम को संचालित करते हैं। 

खैरातीलाल का कहना था कि ऐसे कामों को गांवों में थोप दिया जाता है जिनकी शायद गांव को जरूरत भी नहीं होती है और फिर मुझे उन पर हस्ताक्षर करना होता है। दिलचस्प बात यह है कि जिस ग्राम सचिव को प्रधान की सहायता के लिए लगाया गया है वह अब प्रशासन के पक्ष में बोलने लगा है। खैरातीलाल ने बताया कि सचिव किसी काम को टेंडर के जरिये कराने पर दबाव डालता है। उन्होंने कहा कि अभी तक मैंने कोई भी काम टेंडर के जरिये नहीं कराया। गली का एक काम टेंडर के जरिये कराया था तो उसमें एक साल लग गया था।

गांव में होने वाले किसी काम की प्रक्रिया के बारे में उन्होंने बताया कि अब प्रशासन केवल प्रधान से प्रस्ताव मांगता है और सारा काम फिर वो खुद करवाता है। उसमें सरपंचों की कोई भूमिका नहीं होती है। उनका कहना था कि ग्राम प्रधान एक बार में पांच लाख रुपये से ज्यादा की राशि नहीं खर्च कर सकता है। और साल भर में वह 25 लाख से ज्यादा नहीं खर्च करेगा।

यानि अब कोई भी बड़ा काम ग्राम प्रधान के जरिये नहीं हो सकता है। छोटे-छोटे काम ही प्रधान करवा सकता है। जबकि इसके पहले ग्राम पंचायतें अपना भवन बनवा सकती थीं। चौपाल आदि का निर्माण करवा सकती थीं। या फिर कोई बड़ा काम हो तो उसके बारे में फैसला लेकर उसको पूरा करा सकती थीं। 

खैरातीलाल ने कहा कि अब हम ऐसा कुछ नहीं कर सकते हैं। नक्शा से लेकर टेंडर तक सारा काम जिला प्रशासन, जेई और उनकी टीम करेगी।

उन्होंने बताया कि इस मामले में प्रधान एक बीच का रास्ता निकालते हैं और वो किस्तों में काम कराते हैं। लेकिन उससे न केवल काम प्रभावित होता है बल्कि गुणवत्ता से लेकर तमाम दूसरी चीजें प्रभावित होती हैं। उन्होंने उदाहरण देते हुए बताया कि इलाके में 900 फुट का एक नाला था जिसको ठीक कराना था उसके लिए उन्हें टुकड़ों में बजट देना पड़ा।

ग्राम प्रधानों के लिए एक और समस्या बनी हुई है कंप्यूटर और आनलाइन की व्यवस्था। वह अभी इतने दक्ष नहीं हुए हैं कि डिजिटल व्यवस्था को समझ सकें। और प्रशासन है कि सारे मामले को अब आनलाइन कर दिया है। सारा काम कंप्यूटर के जरिये किया जाता है। खैरातीलाल ने कहा कि पहले काम कागजों पर होते थे। जेई से मिलकर काम पास हो जाता था। लेकिन अब ऐसा नहीं हो पाता है।

लिहाजा इन्हीं परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए सरपंचों ने आंदोलन छेड़ दिया। जिसमें पंचायती कामों में राशि की सीमा बढ़ाने की मांग प्रमुख तौर पर शामिल थी। इस आंदोलन का असर भी हुआ। पहले कोई भी प्रधान एक बार में दो लाख रुपये से ज्यादा नहीं खर्च कर सकता था लेकिन अब इसको बढ़ा कर 5 लाख कर दिया गया। इसके साथ ही उनकी एक और प्रमुख मांग है जिसमें उनका कहना है कि 50 फीसदी काम जो टेंडरिंग के जरिये होते हैं उसकी व्यवस्था भी खत्म की जाए।

इलाके का एक स्कूल।

इसके साथ ही प्रधानों की एक और मांग थी जिसमें उन्होंने अपने लिए प्रति माह 25000 रुपये वेतन की मांग की थी। हालांकि इस मामले में भी प्रधानों की जीत हुई और उन्हें पहले तीन हजार और अब पांच हजार रुपये के हिसाब से प्रति माह वेतन मिलता है। जबकि पंचों को भत्ते के तौर पर पहले 700 रुपये मिलते थे अब उसे बढ़ाकर 1500 रुपये प्रतिमाह कर दिया गया है।     

सुल्तानपुर माजरा के सरपंच भी ईटेंडरिंग प्रणाली को लेकर बेहद खफा दिखे। उनका कहना था कि “यह प्रणाली किसी भी राज्य में नहीं है। ये नहीं होनी चाहिए। हमने किला बस्ती में एक काम दिया। उनकी शर्त थी टेंडर में लगाओ। बाकी फंड गांव में खर्च कर दिया। हम 5 साल में ज्यादा काम नहीं कर सकते। बाहर के ठेकेदार आएंगे। अपनी तरफ से बेस्ट करुंगा। बाहर का व्यक्ति कमा कर चला जाएगा। कोई जवाबदेही नहीं, हमें गांव में रहना है हम जवाबदेह हैं। पारदर्शिता अगर करनी है तो वह रूल सरपंच पर लागू करो जो ठेकेदारों पर लगाए हैं। अगर हमारे पास डायरेक्ट फंड होगा तो हम काम जल्दी करेंगे। ज्यादा विकास होगा”। 

दरअसल ठेकेदारी प्रथा में वही सारी बुराइयां आ गयी हैं जो शासन व्यवस्था में होती हैं। पूरा पैसा खा लिया जा रहा है। एक बुजुर्ग ने कहा कि ऊपर बैठे लोगों तक यह पैसा जाता है।

सरकार की इस व्यवस्था से सारे ग्राम प्रधान बेहद खफा हैं। एक ग्राम प्रधान ने अपना नाम न छापने की शर्त पर कहा कि तानाशाही चल रही है। जूते खा कर अपने निर्णय बदलने की आदत है। सरपंच एकजुट हैं। हम हरा देंगे। गोलबंद हैं। सरकार के खिलाफ हैं। झांसे में नहीं आएंगे। रणबीर ने खुल कर कांग्रेस का समर्थन कर दिया है। आप को बता दें कि रणबीर सरपंच यूनियन के हरियाणा के प्रधान हैं। 

इस मसले पर जब आम ग्रामवासियों से राय ले गयी तो वो भी इसके खिलाफ दिखे और वो सरपंच के साथ पूरी तरह से खड़े हैं। अजय इसको बुरा मानते हैं। उन्होंने कहा कि पहले लोग जो काम चाहते थे वह सरपंच के जरिये करवाते थे लेकिन अब सरकार ने सब कुछ अपने हाथ में ले लिया है। वह काम भी कितने दिन में होगा और कब होगा उसका कोई अंदाजा नहीं। एक तरह से ग्रामीणों के अधिकार को छीन लिया गया है। सरपंच के अधिकार थे वह अपने काम खुद करवा लेता था।

गांव पंचायत फतेहगढ़ तुंबी का स्वागत द्वर।

उन्होंने कहा कि पहले लोग सीधे सरपंच से मिलते थे और उसके जरिये अपने काम करवा लेते थे। वह 25 लाख का हो या कि 50 लाख का। लेकिन अब वो जिलाधिकारी से तो मिल नहीं सकते। उनके सामने अपनी फरियाद रख पाना भी मुश्किल है।

गांव के दूसरे लोग भी इसको बुरा मानते हैं। एक सज्जन का कहना था कि इससे तो विकास ही रुक जाएगा। कंपनी के दखल का भी लोगों ने विरोध किया। लोगों का मानना है कि इससे गांव के लोगों का नुकसान होगा। और एक तरह से गांव में कंपनी राज की शुरुआत हो जाएगी।

एक सज्जन ने कहा कि एक गली भी 5 लाख में नहीं बन पाती है। ऐसे में सरपंच क्या करेगा।

दरअसल मामला केवल ई टेंडरिंग और गांव के विकास या फिर भ्रष्टाचार का नहीं है। जिस तरह से कंपनियों और ठेकेदारों को गांव के स्तर पर उतारा जा रहा है। उससे एक दूसरी आशंका भी पैदा हो गयी है। जिस कॉरपोरेट राज का खतरा पूरे देश पर मंडरा रहा है उसी को जमीन पर आधार देने की व्यवस्था के तौर पर ई टेंडरिंग को देखा जा रहा है। यानि ऊपर से लेकर नीचे तक कंपनी राज। कारपोरेट राज। 

अभी जो प्रशासन कंपनियों को नियंत्रित और संचालित कर रहा है पता चला आने वाले दिनों में वह खुद कंपनी द्वारा संचालित होने लगा। अभी प्रधानों के आधे ही अधिकार छीने गए हैं एकबारगी कंपनी की व्यवस्था मजबूत हो गयी तो पूरे काम छीन लिए जाएंगे। और फिर प्रधान के किसी प्रस्ताव की भी जरूरत नहीं रहेगी। कंपनियां जैसा चाहेंगी उनके हिसाब से विकास होगा। और फिर कंपनियां अपने मुनाफे के हिसाब से ही विकास के कामों को तय करेंगी न कि नागरिकों और गांव वालों की जरूरत के हिसाब से।

सौढ़ारा का बंदा बहादुर चौराहा।

इसके पहले मैंने जिस रजिस्ट्री की बात की थी और उसके आधार पर गांवों में लोन की जो व्यवस्था शुरू की जा रही है उसको कंपनी से जोड़ कर देखिए तो उसके खतरे बेहद बड़े हैं। कल गांवों में काम करने वाली यही कंपनियां किसी के लोन न चुका पाने की स्थिति में उसके मकान की कुर्की और नीलामी में आगे बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेंगी और फिर उन पर अपना मालिकाना स्थापित कर लेंगी। और इस तरह से गांव के गांव पता चला कंपनियों के हवाले हो गए और उसमें रहने वाले लोग सड़कों पर या फिर उन्हीं कंपनियों के मजदूर बनकर रह जाएंगे।

हमें नहीं भूलना चाहिए कि इस देश में एक ईस्ट इंडिया कंपनी आयी थी और उसने पूरे देश पर कब्जा कर लिया और फिर उससे मुक्ति के लिए देश के लोगों को कितनी कुर्बानी देनी पड़ी वह इतिहास के पन्नों और हमारी यादों में दर्ज में है। ऐसे में क्या इस बात की पूरी आशंका नहीं है कि हरियाणा में कंपनी राज की शुरुआत होने जा रही है। और इन कंपनियों की निगाह न केवल किसानों की जमीन बल्कि उनके गांवों और रिहाइशी मकानों तक पर है।

(यमुनानगर से लौटकर जनचौक के संस्थापक संपादक महेंद्र मिश्र की रिपोर्ट।)

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