महिला की सहमति शुरू से ही शादी के झूठे वादे पर प्राप्त की गई, तो बलात्कार का अपराध बनता है: सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने दोहराया कि शादी के झूठे वादे के आधार पर बलात्कार का अपराध बरकरार रखने के लिए यह स्थापित किया जाना चाहिए कि शुरुआत से ही महिला की सहमति झूठे वादे के आधार पर प्राप्त की गई।

जस्टिस अभय एस ओक और जस्टिस पंकज मित्तल ने अनुराग सोनी बनाम छत्तीसगढ़ राज्य (2019) 13 एससीसी 1 में फैसले का हवाला देते हुए कहा, “अगर शुरू से ही यह स्थापित हो जाता है कि पीड़िता की सहमति शादी के झूठे वादे का परिणाम है तो कोई सहमति नहीं होगी और ऐसे मामले में बलात्कार का अपराध बनाया जाएगा।

अदालत व्यक्ति द्वारा उसके खिलाफ कथित बलात्कार का मामला रद्द करने से बॉम्बे हाईकोर्ट के इनकार को चुनौती देने वाली अपील पर फैसला कर रही थी।

अभियोजन पक्ष के मामले के अनुसार, पुरुष और महिला ने इस बहाने चार साल (2013-2017) तक शारीरिक संबंध बनाए रखा कि पुरुष महिला से शादी करेगा। 2018 में महिला ने अन्य महिला के साथ पुरुष के सगाई समारोह की तस्वीरें देखीं, जिसके बाद उसने एफआईआर दर्ज की, जिसमें आरोप लगाया गया कि उसकी सहमति शादी के झूठे वादे के कारण हुई गलतफहमी पर आधारित थी। हालांकि, उस व्यक्ति ने दावा किया कि उसने 2017 में शिकायतकर्ता महिला से शादी की थी और ‘निकाहनामा’ की कॉपी पेश की।

सुप्रीम कोर्ट ने रिकॉर्ड पर रखी गई सामग्री पर गौर करने के बाद पाया कि जब महिला ने शारीरिक संबंध बनाने के लिए सहमति दी तो उसकी उम्र 18 वर्ष से अधिक थी। महिला ने पूरे चार साल तक इस रिश्ते पर कोई आपत्ति नहीं जताई।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा, “इसलिए मामले के तथ्यों में यह स्वीकार करना असंभव है कि दूसरे प्रतिवादी ने शादी के झूठे वादे के आधार पर 2013 से 2017 तक उसके साथ शारीरिक संबंध बनाए रखने की अनुमति दी।”

अवमानना मामले में वकील की सजा बरकरार

सुप्रीम कोर्ट ने 17 साल पुराने आपराधिक अवमानना मामले में वकील को दोषी ठहराते हुए दोहराया कि माफी अवमाननापूर्ण कृत्यों के लिए पश्चाताप का सबूत होनी चाहिए। इसका उपयोग ‘दोषियों को उनके अपराध से मुक्त करने के लिए’ हथियार के रूप में नहीं किया जाना चाहिए। इसके अलावा, ईमानदारी की कमी और पश्चाताप का सबूत न देने वाली माफी को स्वीकार नहीं किया जा सकता।

जस्टिस विक्रमनाथ और जस्टिस पीएस नरसिम्हा की पीठ वकील गुलशन बाजवा की अपील पर सुनवाई कर रही थी, जिसे दिल्ली हाईकोर्ट (19 अक्टूबर 2006) ने आपराधिक अवमानना का दोषी ठहराया था।

बाजवा ने अन्य बातों के अलावा जजों के खिलाफ अनुचित और लापरवाह आरोप लगाए। इसके अलावा, वह लगातार हाईकोर्ट के समक्ष उपस्थित होने में विफल रहे। वहीं, बिना किसी लाभ के अपीलकर्ता की उपस्थिति सुनिश्चित करने के लिए कई तरीके अपनाए गए।

जस्टिस स्वतंत्र कुमार और जस्टिस जी.एस. सिस्तानी की हाईकोर्ट की खंडपीठ पीठ ने ऐसे कई उदाहरणों की ओर इशारा किया, जहां विभिन्न कार्यवाहियों में अपीलकर्ता के आचरण की जांच की गई। उन सभी मामलों में अपीलकर्ता की अवमानना का घिनौना कृत्य दर्ज किया गया।

न्यायालय ने माना कि कृत्य जानबूझकर और दुर्भावनापूर्ण हैं और लंबे समय से जारी हैं। इसके अलावा, हाईकोर्ट ने अपीलकर्ता की माफी को भी यह कहते हुए स्वीकार करने से इनकार कर दिया कि यह न तो ईमानदार है, न ही संतोषजनक और देर से मांगी गई माफी है।

अपीलकर्ता को आपराधिक अवमानना का दोषी पाते हुए हाईकोर्ट ने उसे तीन महीने के साधारण कारावास और 2000 रुपये के जुर्माने की सजा सुनाई। इस प्रकार, वर्तमान अपील दायर की गई।

जेलों में बुनियादी ढांचे पर रिपोर्ट बनाने के लिए देश भर में समितियों के गठन का निर्देश

सुप्रीम कोर्ट ने पूरे देश में जेलों में भीड़भाड़ के मुद्दे को संबोधित करने के लिए शुरू की गई जनहित याचिका (पीआईएल) में राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों को जिला-स्तरीय समितियों का गठन करने का निर्देश दिया, जो जेलों में उपलब्ध बुनियादी ढांचे का आकलन और रिपोर्ट करेंगी और मॉडल जेल मैनुअल, 2016 के संदर्भ में आवश्यक अतिरिक्त जेलों की संख्या पर निर्णय देंगी।

जस्टिस हिमा कोहली और जस्टिस ए अमानुल्लाह की पीठ ने आदेश दिया कि राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों की सरकारें अदालत के आदेश की प्राप्ति की तारीख से 1 सप्ताह के भीतर समितियों के गठन को अधिसूचित करेंगी और समितियां अपने गठन के 2 सप्ताह के भीतर अपनी पहली बैठक आयोजित करेंगी।

उक्त समितियों में प्रधान/जिला न्यायाधीश (जिला कानूनी सेवा प्राधिकरण के अध्यक्ष), सदस्य सचिव (डीएलएसए), जिला मजिस्ट्रेट (विशेष जिले के प्रभारी), पुलिस अधीक्षक और जेल अधीक्षक शामिल होंगे।

न्यायालय ने समितियों को “मौजूदा जेलों के विस्तार की आवश्यकता की जांच करने और जिलों की वर्तमान क्षमता, अधिभोग और भविष्य की मांगों के आधार पर जिलों के भीतर नई जेलें स्थापित करने के लिए भूमि अधिग्रहण करने के लिए कदम उठाने” का निर्देश दिया। उन्हें कार्यान्वयन के लिए कम से कम 50 वर्षों की अवधि में भविष्य के अनुमानों को ध्यान में रखते हुए संबंधित जिलों की जरूरतों की जांच करने की अनुमति दी गई।

इसमें आगे कहा गया,”समितियां विभागों के भीतर लंबित चल रही परियोजनाओं/प्रस्तावों की स्थिति को भी ध्यान में रखेंगी, जिससे यह सुनिश्चित किया जा सके कि चल रही परियोजनाओं को पूरा करने के लिए मील के पत्थर निर्धारित किए गए हैं और जहां भी किसी परियोजना को जमीन की कमी के कारण शुरू करना पड़ता है, अधिग्रहण के प्रयोजनों के लिए भूमि की पहचान करने के लिए कदम उठाएं और आवश्यक अनुमोदन प्राप्त करने और प्रक्रिया को तेजी से आगे बढ़ाने के लिए मुख्य सचिव के समक्ष रिपोर्ट रखें।” मामला अब 9 अप्रैल, 2024 के लिए पोस्ट किया गया।

हाईकोर्ट की सुर्खियां

चंडीगढ़ मेयर चुनाव-

पंजाब & हरियाणा HC द्वारा BJP जीत मे धोखाधड़ी का आरोप वाली आप पार्षद की याचिका पर नोटिस, रोक से इनकार किया।

पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने बुधवार को चंडीगढ़ नगर निगम के मेयर पद के लिए मंगलवार को हुए चुनाव में धोखाधड़ी का आरोप लगाने वाली याचिका पर चंडीगढ़ प्रशासन और नगर निगम चंडीगढ़ से जवाब मांगा।

न्यायमूर्ति सुधीर सिंह और न्यायमूर्ति हर्ष बंगर की खंडपीठ ने आम आदमी पार्टी के पार्षद कुलदीप कुमार की याचिका पर नोटिस जारी किया और प्रतिवादियों से तीन सप्ताह के भीतर जवाब दाखिल करने को कहा।

कोर्ट को बताया गया कि मंगलवार को हुए चुनाव का रिकॉर्ड पहले ही स्ट्रांग रूम में संरक्षित किया जा चुका है। हालांकि, परिणामों पर रोक लगाने के लिए कोई अंतरिम आदेश पारित नहीं किया गया था।

कांग्रेस-आप उम्मीदवार मनोज सोनकर को मिले 12 मतों के मुकाबले 16 मत हासिल कर मंगलवार को भाजपा के महापौर पद के लिए चुना गया। इस प्रक्रिया में आठ मत अवैध बताकर खारिज कर दिए गए।

इस फैसले को आम आदमी पार्टी और कांग्रेस पार्टी के संयुक्त उम्मीदवार कुलदीप कुमार ने चुनौती दी थी, जिन्होंने पीठासीन अधिकारी पर मतगणना प्रक्रिया में धोखाधड़ी और जालसाजी का सहारा लेने का आरोप लगाया था। कुमार ने उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश की निगरानी में स्वतंत्र एवं निष्पक्ष तरीके से नए सिरे से चुनाव कराने की प्रार्थना की है।

याचिका में कुमार ने आरोप लगाया कि इस परंपरा और नियमों से पूरी तरह हटते हुए पीठासीन अधिकारी ने मतों की गिनती की निगरानी के लिए पार्टियों के नामित सदस्यों को अनुमति देने से इनकार कर दिया।

याचिका में कहा गया है, “पीठासीन अधिकारी ने बहुत ही लचर तरीके से सदन को संबोधित किया कि वह चुनाव लड़ रहे दलों द्वारा नामित सदस्यों से कोई सहायता नहीं चाहते हैं और वह वोटों की गिनती खुद करेंगे। आम आदमी पार्टी और कांग्रेस ने आवाज उठाई लेकिन उनके अनुरोधों पर ध्यान नहीं दिया गया, लेकिन आश्चर्यजनक रूप से उपायुक्त, प्रतिवादी नंबर 2 और विहित प्राधिकारी, जो पिछले साल के चुनाव में भी इसी पद पर थे, चुप रहे।”

पलानी मंदिर पिकनिक स्पॉट नहीं; लिखित आश्वासन के बिना गैर-हिंदुओं को अंदर जाने की अनुमति नहीं दी जा सकती

मद्रास उच्च न्यायालय ने सोमवार को तमिलनाडु सरकार और राज्य हिंदू धार्मिक और धर्मार्थ बंदोबस्ती (एचआर एंड सीई) विभाग को यह सुनिश्चित करने का निर्देश दिया कि गैर-हिंदुओं को पलानी मंदिर (अरुलमिगु धंडायुथापनिस्वामी मंदिर) और तमिलनाडु में इसके उप-मंदिरों के फ्लैगपोल क्षेत्र से आगे प्रवेश करने की अनुमति नहीं दी जाए।

मदुरै पीठ की न्यायमूर्ति एस श्रीमति ने कहा कि मंदिर पिकनिक स्पॉट नहीं हैं और अन्य समुदायों की तरह हिंदुओं को भी बिना किसी हस्तक्षेप के अपने धर्म का पालन करने का अधिकार है। इसलिए, अदालत ने राज्य सरकार को निर्देश दिया कि वह ध्वज स्तंभ से परे मंदिर परिसर के अंदर “गैर-हिंदुओं को अनुमति नहीं देने का संकेत देने वाले बोर्ड स्थापित करे”।

न्यायाधीश ने यह भी आदेश दिया कि यदि कोई गैर-हिंदू मंदिर में प्रवेश करना चाहता है, तो ऐसे व्यक्ति से लिखित शपथ पत्र लेना होगा कि वह हिंदू धर्म, उसके रीति-रिवाजों और मंदिर के देवताओं में विश्वास करता है।

न्यायालय ने नि निर्देश दिए कि (i) उत्तरदाताओं को निर्देश दिया जाता है कि वे मंदिरों के प्रवेश द्वार पर, कोडिमारम के पास और मंदिर में प्रमुख स्थानों पर “कोडीमरम के बाद गैर-हिंदुओं को मंदिर के अंदर जाने की अनुमति नहीं है” का संकेत देने वाले बोर्ड स्थापित करें।(ii) उत्तरदाताओं को निर्देश दिया जाता है कि वे उन गैर-हिंदुओं को अनुमति न दें जो हिंदू धर्म में विश्वास नहीं करते हैं।

(iii) यदि कोई गैर-हिंदू मंदिर में विशेष देवता की यात्रा करने का दावा करता है, तो प्रतिवादी उक्त गैर-हिंदू से वचन प्राप्त करेगा कि वह देवता में विश्वास कर रहा है और वह हिंदू धर्म के रीति-रिवाजों और प्रथाओं का पालन करेगा और मंदिर के रीति-रिवाजों का भी पालन करेगा और इस तरह के उपक्रम पर उक्त गैर-हिंदू को मंदिर जाने की अनुमति दी जा सकती है।

(iv) जब भी किसी गैर-हिंदू को उपक्रम के आधार पर अनुमति दी जाती है, तो उसे रजिस्टर में दर्ज किया जाएगा जिसे मंदिर द्वारा बनाए रखा जाएगा। (v) प्रतिवादी मंदिर के आगमों, रीति-रिवाजों और प्रथाओं का सख्ती से पालन करके मंदिर परिसर को बनाए रखेंगे।

अदालत पलानी हिल मंदिर भक्त संगठन के आयोजक डी सेंथिलकुमार की याचिका पर सुनवाई कर रही थी, जिसमें इस तरह के प्रतिबंधात्मक बोर्ड और संकेतक लगाने के लिए अदालत से निर्देश देने की मांग की गई है।

कुणाल कामरा की फैक्ट चेक यूनिट को दी गई चुनौती पर खंडित फैसला

बॉम्बे हाईकोर्ट ने बुधवार को सूचना प्रौद्योगिकी (मध्यवर्ती दिशानिर्देश और डिजिटल मीडिया आचार संहिता) संशोधन नियम, 2023 में संशोधन की वैधता पर एक खंडित फैसला सुनाया, विशेष रूप से नियम 3 जो केंद्र सरकार को झूठी या नकली ऑनलाइन समाचारों की पहचान करने के लिए एक तथ्य-जांच इकाई बनाने की शक्ति देता है।

न्यायमूर्ति जी एस पटेल और न्यायमूर्ति  नीला गोखले की पीठ ने स्टैंड-अप कॉमेडियन कुणाल कामरा, एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया, एसोसिएशन ऑफ इंडियन मैगज़ीन और न्यूज़ ब्रॉडकास्ट एंड डिजिटल एसोसिएशन द्वारा दायर चार याचिकाओं पर आज फैसला सुनाया।

न्यायमूर्ति पटेल ने याचिकाकर्ताओं के पक्ष में फैसला सुनाया और प्रावधान को रद्द कर दिया, जबकि न्यायमूर्ति गोखले ने याचिकाओं को खारिज कर दिया।

(जेपी सिंह वरिष्ठ पत्रकार और कानूनी मामलों के जानकार हैं।)

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