दिल्ली के रामलीला मैदान में हुंकार भरने को तैयार ओपीएस समर्थक कर्मचारी 

उत्तराखंड में पिछले कुछ दिनों से शिक्षक फुर्सत पाते ही 1 अक्टूबर 2023 को दिल्ली के रामलीला मैदान में पुरानी पेंशन योजना की बहाली को लेकर जाने की तैयारियों में जुटे हुए हैं। हर शाम मीटिंग और लाइव बहस, व्हाट्सअप चैट के जरिये कौन क्या प्रबंध कर समय पर दिल्ली पहुंचेगा, को अंतिम रूप दिया जा रहा है।

बता दें कि 20 वर्ष पहले एनडीए गठबंधन के तहत अटल बिहारी वाजपेई की भाजपा शासित सरकार द्वारा 22 दिसंबर 2003 को वित्त मंत्रालय द्वारा जारी एक अधिसूचना के माध्यम से जारी की गई थी। इसके तहत 1 जनवरी 2004 से पहले की सभी भर्तियों के लिए ओल्ड पेंशन योजना और बाद के सभी राज्य एवं केंद्रीय कर्मचारियों (रक्षा सेवा को छोड़कर) नई एनपीएस (नेशनल पेंशन स्कीम) को लागू कर दिया गया था।

पहले-पहल कर्मचारियों को बताया गया कि नई पेंशन स्कीम में पहले की तुलना में लाभ ही लाभ है, और सेवानिवृत्त होने पर बाजार में निवेश से पहले की तुलना में कई गुना लाभ हासिल होने जा रहा है। कर्मचारियों से बात करने पर जानकारी मिली वो इस प्रकार से है:

1 अक्टूबर 2005 से एनपीएस योजना को प्रभावी रूप दिया गया। इसके तहत पेंशन फण्ड में मूल वेतन का 10% कर्मचारी के द्वारा दिया जाता है, तो उतना ही हिस्सा अर्थात 10% सरकार द्वारा जमा किया जाना तय हुआ। लेकिन बाद में एनपीएस के खिलाफ बढ़ते असंतोष को देखते हुए सरकार ने अपना शेयर 4% बढ़ाकर 14% कर दिया है।

ओल्ड पेंशन स्कीम के तहत कर्मचारियों को सेवाकाल के 33 वर्ष पूरे होने पर उनके अंतिम मूल (बेसिक) वेतन के 50% के बराबर पेंशन की व्यवस्था थी। इसके अलावा महंगाई भत्ते एवं अन्य के समय-समय पर आकलन को उसी अनुपात में पेंशन में जोड़कर दिए जाने की व्यवस्था है।

उदाहरण के लिए यदि किसी सामान्य शिक्षक को आज सेवानिवृत्त होना है, तो 33 वर्ष तक अपना सेवाकाल पूरा करने पर उस राजकीय कर्मचारी का बेसिक वेतनमान 85,100 रूपये बैठता है। अर्थात पुरानी पेंशन स्कीम के तहत कर्मचारी को कम से कम 42,000 रूपये मासिक पेंशन की गारंटी मिल जाती है।

वहीं शिक्षकों के पास एनपीएस के तहत पेंशन का उदाहरण भी मौजूद है। एक शिक्षक सैनी (हरिद्वार) को 45 वर्ष की उम्र में सरकारी नौकरी का नियुक्ति पत्र मिला था, जिन्हें उम्र की सेवाशर्तों के अनुसार 2019 में सेवानिवृति दे दी गई। एनपीएस के तहत सरकार द्वारा उन्हें एकमुश्त करीब 7.5 लाख रूपये का भुगतान कर दिया गया, लेकिन प्रतिमाह पेंशन के रूप में मिलने वाली रकम मात्र 2,950 रूपये है। 3 वर्ष बाद स्थिति यह है कि सरकारी शिक्षक को आज सब्जी बेचकर अपना जीवन-निर्वाह करना पड़ रहा है। एक सरकारी कर्मचारी वो भी शिक्षक के पेशे से सम्बद्ध व्यक्ति की यह दशा लाखों कर्मचारियों को अपने भविष्य के प्रति आशंकित कर रही है।

एनपीएस स्कीम भले ही वाजपेई सरकार द्वारा देश में लागू की गई थी, लेकिन कांग्रेस भी कहीं न कहीं ऐसी ही किसी योजना पर विचार कर रही थी, और 2004 से 2014 के बीच पश्चिम बंगाल को छोड़ देश के सभी राज्यों में 1 जनवरी 2004 के बाद एनपीएस योजना को ही लागू कर दिया गया। पिछले 9 वर्षों से मोदी सरकार जहां पूर्ण बहुमत के साथ देश पर शासन कर रही है, के द्वारा केंद्र या किसी भी राज्य में ओपीएस स्कीम की बहाली को लेकर पुनर्विचार नहीं किया गया है। लेकिन कांग्रेस सहित विभिन्न क्षेत्रीय दलों द्वारा एक-एक कर ओल्ड पेंशन स्कीम की ओर लौटना या चुनाव जीतने पर बहाली की गारंटी उत्तरोत्तर लोकप्रिय आंदोलन का स्वरुप अख्तियार करती जा रही है।

राजस्थान, झारखंड, हिमाचल प्रदेश, छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल, आंध्रप्रदेश और केरल में एनपीएस के स्थान पर ओपीएस स्कीम की बहाली ने केंद्र-राज्य संबंधों में तनाव को जन्म दे दिया है। भाजपा की राज्य इकाइयों को भी लगातार इस बात की चिंता सता रही है कि संगठित क्षेत्र के कर्मचारियों के आक्रोश का शिकार उन्हें होना पड़ सकता है। हाल के वर्षों में हुए विधानसभा चुनावों में यदि उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और गुजरात को छोड़ दें तो लगभग हर जगह भाजपा को मुहं की खानी पड़ी है।

2024 आम चुनावों से पहले राजस्थान, मध्यप्रदेश, तेलंगाना, छत्तीसगढ़ और मिजोरम राज्यों के चुनावों में पुरानी पेंशन योजना बहाली को लेकर राज्यों के कर्मचारी एक बड़ी बाधा बनकर सामने आ सकते हैं, और कहीं न कहीं लोकसभा चुनावों में भी इस बार यह मुद्दा राष्ट्रीय पटल पर छा सकता है।

1 अक्टूबर को रामलीला मैदान में विभिन्न राज्यों के कर्मचारियों के जुटान की तैयारी पूरे देशभर में चल रही है। नेशनल मूवमेंट फॉर ओल्ड पेंशन स्कीम (एनएमओपीएस) नामक कर्मचारियों के राष्ट्रीय संगठन के राष्ट्रीय अध्यक्ष, विजय कुमार बंधु के द्वारा पेंशन शंखनाद महारैली के लिए सभी कर्मचारियों को आवश्यक दिशानिर्देश जारी किये जा चुके हैं।

रामलीला मैदान की अपनी रैली को सफल बनाने के लिए विभिन्न राज्यों के कर्मचारियों की समन्वय समितियां दिन-रात जुटी हुई हैं। पिछले 5 वर्षों के दौरान उन्होंने विभिन्न राज्यों में लगातार दबाव बनाकर राजनीतिक पार्टियों को सोचने के लिए मजबूर कर दिया, भले ही अभी तक केंद्रीय वित्त मंत्रालय द्वारा राज्यों को पेंशन निधि में जमा धनराशि लौटाने के कोई आसार नजर नहीं आ रहे हैं, लेकिन मोदी सरकार भी 1 करोड़ के करीब कर्मचारियों की अनदेखी करने की सोच भी नहीं सकती है।

ये सरकारी कर्मचारी ही मुख्य रूप से हिंदुत्ववादी मुहिम का आधार-स्तंभ रहे हैं। देश में संगठित श्रमिक वर्ग के रूप में इनके पास ही मोलभाव की ताकत रही है, क्योंकि 90 के दशक से उदारवादी अर्थनीति के बाद बड़े पैमाने पर निजी अथवा सार्वजनिक क्षेत्रों में भी ठेका प्रथा उत्तरोत्तर बढ़ा है। असंगठित क्षेत्र में करोड़ों श्रमिक नए श्रम कानूनों के तहत लगभग गुलामों वाली व्यवस्था में लौट चुके हैं, जिनके लिए दिन-रात जी-तोड़ मेहनत के बाद सामजिक सुरक्षा और पेंशन की व्यवस्था लगभग नहीं है। ऐसे में एक देश के भीतर ही तीन तरह की सामजिक सुरक्षा/असुरक्षा के प्रति देश के करोड़ों-करोड़ लोगों को असहज बना रही है।

संगठित क्षेत्र और सरकारी कर्मचारियों का तर्क है कि उन्हें भी सेना की तरह देश की सेवा में अपने जीवन को समर्पित करने वाले योद्धा के रूप में मान्यता दी जानी चाहिए। उनके पास भी सरकारी सेवा में रहते हुए किसी भी अन्य रोजगार, स्किल को आजमाने की छूट नहीं होती। लिहाजा सेवानिवृति के बाद उन्हें भी गारंटीशुदा पेंशन मिलनी चाहिए।

लेकिन सबसे अधिक आक्रोश उन्हें व्यवस्थापिका में मौजूद माननीय विधायकों, सांसदों को लेकर है, जो एक बार चुने जाने के बाद ही गारंटीशुदा पेंशन के हकदार बन जाते हैं। कई राज्यों में तो उन्हें कई-कई पेंशन हासिल करने का अधिकार है। देश की रक्षा में जुटे सैनिकों के बाद यह दूसरे प्रकार की पेंशन है, जिसको लेकर देश के सभी वर्गों में भारी नाराजगी है, लेकिन पक्ष या विपक्ष किसी भी राजनीतिक दल की ओर से (आम आदमी पार्टी -पंजाब को छोड़कर) आज तक कोई आवाज नहीं उठाई गई है।

तीसरे तरह की पेंशन एनपीएस है, जिसे सरकारी, गैर-सरकारी सहित आम लोगों के लिए भी जारी कर दिया गया है। लेकिन आज भी इसमें बड़ी हिस्सेदारी सरकारी कर्मचारियों की ही बनी हुई है, और निजी क्षेत्र ने एनपीएस में रूचि नहीं दिखाई है। इसकी तुलना में उन्हें भविष्य निधि (प्रोविडेंड फंड) में कहीं अधिक भरोसा है। एनपीएस कैलकुलेटर पर भी यदि गणना करते हैं, तो हम पाते हैं कि आपके द्वारा जमा किये पैसे में से बड़ा हिस्सा सेवानिवृति पर एकमुश्त रकम के रूप में दे दिया जाता है, लेकिन मासिक पेंशन राशि मुद्रास्फीति के चलते इतनी कम हो जाती है कि उसके सहारे जी पाना हर्जिग संभव नहीं है।

यह सही है कि अपने औपनिवेशिक शासन को बरकारर रखने के लिए अंग्रेज पहले पहल पेंशन व्यवस्था की नींव रख छोड़े थे। जिसे आजादी के बाद देश में सरकारी कर्मचारियों को हस्तांतरित कर सरकार ने मौजूदा शासन-व्यवस्था और यथास्थितिवाद को बरकारर रखने की कोशिश की, जिसे वहन कर पाना अब उसके लिए भारी होता जा रहा है। हाल ही में आरबीआई ने अपने आकलन में बताया था कि यदि देश में ओपीएस पेंशन स्कीम लागू कर दी गई तो 2030 तक सालाना 15 लाख करोड़ रूपये इसी एक निधि में सरकार को जुटाने होंगे, जो 155 लाख करोड़ रूपये कर्ज पर बैठी है, और इसके ब्याज को चुकाने में ही केंद्र सरकार को दिन में तारे नजर आने लगे हैं।

लेकिन एनपीएस जैसी योजना, इसका जवाब हर्गिज नहीं हो सकती, जिसमें निवेशकर्ता को न तो कोई भरोसा बन पा रहा है, और न ही उसके पास ऐसी कोई वित्तीय सूझबूझ है कि वह पता लगा सके कि फंड मैनेजर द्वारा पेंशन फंड को जिन शेयर्स या बांड्स में निवेश किया गया है, वे बाजार में सबसे अच्छे हैं या उनकी खून-पसीने की कमाई को लुटाया जा रहा है? ओपीएस हो या एनपीएस, यदि सरकार पेंशन फंड के लिए तनख्वाह से निश्चित रकम वसूलती है तो उसे गारंटीशुदा रिटर्न देने की वचनबद्धता तो देनी ही होगी, वरना ऐसी सरकार पर कौन भरोसा करेगा?

(रविंद्र पटवाल जनचौक की संपादकीय टीम के सदस्य हैं।)

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