ग्राउंड रिपोर्ट: वाराणसी के प्राइवेट अस्पतालों में लुटते गरीब और कुपोषण की मार सहते मासूम

वाराणसी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी में प्राइवेट अस्पतालों की मनमानी थमने का नाम नहीं ले रही है। पूर्वांचल के केंद्र बनारस में हाल के दशकों में कुकुरमुत्ते की तरह प्राइवेट अस्पताल उग आये हैं। जो जिला प्रशासन और स्वास्थ्य महकमे की उदासीनता से निहायत महंगे और कई तो मानक के विरुद्ध जाकर मरीजों से इलाज के नाम पर मोटी रकम वसूलने के महज केंद्र बनकर रह गए हैं। 

वहीं तकरीबन आधा दर्जन पोषण, पुर्नवास, चिकित्सा और खाद्यान्न योजनाएं चलाने के बाद भी वाराणसी जनपद कुपोषण से मुक्त नहीं हो पाया है। इतना ही नहीं उत्तर प्रदेश शासन के कड़े निर्देशों को ताक पर रख सरकारी अस्पताल के चिकित्सक मरीजों को बाहर की दवा लिखने से बाज नहीं आ रहे हैं। मसलन, बाहर से महंगी दवा खरीदने में शहरी और ग्रामीण इलाकों के आर्थिक रूप से कमजोर व न्यूनतम आय वाले लाखों नागरिकों को परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है।

इन दिनों वाराणसी के सिर्फ तीन अस्पताल यथा मंडलीय अस्पताल, जिला अस्पताल और राजकीय महिला अस्पताल समेत अन्य विंग में रोजाना 3800-4000 महिला, पुरुष और बाल मरीज इलाज के लिए पहुंच रहे हैं।

जिला अस्पताल।

सीन-1 : कबीरचौरा मंडलीय अस्पताल वाराणसी

वाराणसी से 130 किलोमीटर दूरी पर स्थित सोनभद्र जनपद के राबर्ट्सगंज के पचपन वर्षीय बदरुद्दीन और उनकी पत्नी गुड्डी बेगम के ऊपर विपत्ति का पहाड़ टूट पड़ा है। इनकी 18 साल की बेटी सक़ीना मंडलीय अस्पताल के बेड पर एनीमिया और मस्तिष्क ज्वर से जिंदगी और मौत से जूझ रही है। डॉक्टर ने भर्ती कर मरीज को ब्लड चढ़ाने के लिए ब्लड की व्यवस्था करने के लिए कहा है। बदरुद्दीन अस्पताल परिसर के ब्लड बैंक से अनुनय-विनय किये, तब ब्लड बैंककर्मी सुबह के साढ़े ग्यारह बजे ब्लड देने के लिए कहा है।   

गुरुवार की अल सुबह वे दोनों कबीरचौरा स्थित शिव प्रसाद गुप्त मंडलीय अस्पताल (एसएसपीजी) के इमरजेंसी गेट पर चिंतित और थके हुए बैठे हैं, और साढ़े ग्यारह बजने का इंतजार कर रहे हैं। अभी घड़ी में सुबह के नौ बजे हैं। अस्पताल परिसर में मरीज और तीमारदार आ-जा रहे हैं, लेकिन बदरुद्दीन की उदास आंखों में कोई स्थायित्व नहीं है। आंखें भीड़ को लगातार देखे जा रही हैं, जाने कुछ तलाश रही हैं।

इतने में एक एम्बुलेंस आती है। एम्बुलेंस और रिक्शे को जगह देने के लिए अन्य तीमारदारों की तरह दोनों को गेट से उठाना पड़ता है। वाहन के गुजरने के बाद पति-पत्नी फिर वहीं बैठ जाते हैं। आपसी बातचीत में कभी-कभी बदरुद्दीन की आंखों से आंसुओं की धार फूट पड़ती है, जिसे वह छिपाने के लिए अपने मटमैले गमछे को बिना देर किये अपने चेहरे पर मल देते हैं।

मंडलीय अस्पताल के गेट पर सोनभद्र के बदरूदीन और उनकी पत्नी।

कई जगह गए पर नहीं मिला आराम

विपत्तियों से घिरे बदरुद्दीन “जनचौक” को बताते हैं कि बेटी की तबियत दो साल से खराब चल रही है। कई बार लंबे इलाज के बाद भी आराम नहीं मिला। एक ही बेटी है, उसे बचने के लिए अबतक तीन लाख रुपये से अधिक का खर्ज ले चुका हूं। मेरे पास कोई खेत जमीन नहीं है। मैं मजदूरी करता हूं। सोचता हूं कि इसके बाद भी बेटी नहीं बची तो मैं कर्ज किस उम्मीद में चुकाऊंगा?”

वो आगे बताते हैं कि “आठ-नौ जुलाई को मेरी बेटी की तबियत अचानक से बिगड़ी तो उसे सोनभद्र के रामगढ़ स्थित तियरा के एक अस्पताल में ले गया। जहां दो दिन इलाज चला। 12-15 हजार रुपये लग गए, लेकिन आराम नहीं मिला। उन्होंने अस्पताल का बिल जमा करके अन्य अस्पताल के लिए रेफर कर दिया। फिर रॉबर्ट्सगंज के लोढ़ी नामक कस्बे के एक अस्पताल में भर्ती कराया। यहां भी एक दिन इलाज चला फिर बनारस के बीएचयू के लिए रेफर कर दिया।”

‘प्राइवेट अस्पताल ने लूटा’

वे सिसकते हुए आगे कहते हैं कि “बीएचयू के इमरजेंसी में 24 घंटे इलाज चला। बेटी की तबियत बिगड़ती ही जा रही थी। फिर भी उन लोगों ने निकाल दिया। एक दलाल ने बनारस के चितईपुर के प्राइवेट अस्पताल में हम लोगों को ले गया, जहां बेटी को भर्ती किये। इस अस्पताल ने एक दिन का तकरीबन 20 हजार रुपये जमा करा लिए। दवा व बेड खर्च आदि के लिए और तीस हजार रुपये की मांग की।”

बदरुद्दीन की बीमार बेटी सक़ीना।

बदरुद्दीन कहते हैं कि “इतना भागदौड़ करने के बाद हम लोगों के पैसे ख़त्म हो चुके थे, तो हम लोगों ने असमर्थता जाहिर की। यहां से भी प्राइवेट अस्पताल वालों ने मरीज को कहीं और ले जाने के लिए निकाल दिया। फिर रामनगर के लाल बहादुर शास्त्री सरकारी अस्पताल गए। रामनगर से सुबह-सुबह कबीरचौरा के एसएसपीजी मंडलीय अस्पताल भेजा गया है।”

‘एकलौती बेटी ही हमारी दुनिया’

मरीज सक़ीना की मां गुड्डी बुझे मन से कहती हैं कि “बनारस के प्राइवेट अस्पताल, अस्पताल नहीं दिनदहाड़े लूट के अड्डे हैं। दो दिन की भागदौड़ में प्राइवेट अस्पताल वालों ने हम लोगों से सिर्फ इलाज के बहाने पैसे वसूले हैं। जैसे बेटी की तबियत पहले थी, अब भी वैसी ही है, कोई सुधार नहीं हुआ है। उसकी सांस रुक-रुक कर चल रही है। ऑक्सीजन लगा हुआ है।”

वो कहती हैं कि “आयुष्मान कार्ड भी है, लेकिन इन प्राइवेट अस्पताल वालों ने कहा कि यहां सोनभद्र के आयुष्मान कार्ड में कुछ ‘शो’ नहीं कर रहा है। कर्ज लेकर इलाज करा रहे हैं। हम लोग मेहनत-मजदूरी करते हैं। यही एकलौती बेटी ही हम लोगों की दुनिया है।” प्राइवेट अस्पतालों की मनमानी पर जिला स्वास्थ्य अधिकारी डॉ संदीप चौधरी से पक्ष लेने के लिए संपर्क किया गया, लेकिन जवाब नहीं मिला।

मंडलीय अस्पताल में मेडिसिन और फिजिशयन ओपीडी में मरीजों की भीड़।

प्राइवेट अस्पतालों में मानकों का नहीं होता पालन

बनारस में मरीज सक़ीना का यह केस स्वास्थ्य सुविधाओं को लेकर कई सवाल खड़े करता है। क्या बनारस के प्राइवेट अस्पताल पूर्वांचल के सुदूर ग्रामीण जनपदों से आये मरीजों को इलाज कम, वसूली ज्यादा करने के केंद्र बन गए हैं? प्राइवेट अस्पताल संचालक प्रदेश सरकार व वाराणसी स्वास्थ्य महकमे की गाइड लाइन का पालन आखिर क्यों नहीं करते हैं? इलाज, बेड, जांच और दवाओं के लिए मनमाने रुपये क्यों ऐंठते हैं?

क्रिटिकल रोग/अन्य गंभीर बीमारी के एक्सपर्ट डॉक्टर नहीं होने के बाद भी ये निजी अस्पताल महज पैसों की लालच में मरीजों को भर्ती कर रुपये वसूल कर रेफर कर देते हैं, अस्पतालों की इस लाइलाज बीमारी का कब इलाज होगा? प्राइवेट अस्पताल सरकारी योजनाओं का लाभ देने में क्यों आनाकानी करते हैं?

ये कुछ सवाल हैं, जिनको वाराणसी जिला प्रशासन व स्वास्थ्य महकमे को गंभीरता से लेना चाहिए, ताकि पूर्वांचल के सुदूर ग्रामीण जिले- सोनभद्र, मिर्जापुर, चंदौली, भदोही, मऊ, बलिया, गाजीपुर, जौनपुर और आजमगढ़ समते सीमावर्ती बिहार से आने वाले आर्थिक रूप से बेहद कमजोर व कम जागरूक करोड़ों नागरिक इलाज के नाम पर धन और जन से हाथ धोने से बचे रहें।

मंडलीय अस्पताल में पर्ची काउंटर पर भीड़।

सीन-2 : पीडीडीयू जिला अस्पताल पांडेयपुर वाराणसी

जिला अस्पताल में गुरुवार को इतने मरीज उमड़े कि, अस्पताल के पर्ची काउंटर, जांच काउंटर, दवा काउंटर, ओपीडी, इमरजेंसी, महिला, पुरुष और चाइल्ड भर्ती वार्ड मरीजों से फुल हो गए। इमरजेंसी के सामने बगैर किसी व्यवस्था के मरीज और तीमारदार उमस और धूप में खुली जगह में बैठने को विवश हैं।

तमाम दावों के बीच डॉक्टरों द्वारा बाहर की दवा लिखना बंद नहीं किया जा रहा है। खजुरी पांडेयपुर निवासी गुड़िया को तीन दवाएं जिला अस्पताल के कांउटर से मिलीं। गुड़िया ने बताया कि “कम दाम की दवा अस्पताल में मिल गई। एक सिरप और एक अन्य दवा अस्पताल में नहीं मिली। उसे बाहर के मेडिकल स्टोर से 275 रुपये देकर खरीदना पड़ा।”

कुपोषण नहीं छोड़ रहा बनारस का पीछा

इधर, लाख प्रयास के बाद बनारस में कुपोषण मासूमों का पीछा छोड़ने को तैयार नहीं है। पीडीडीयू जिला अस्पताल के पोषण पुर्नवास केंद (एनआरसी) में 8 नौनिहाल भर्ती हैं। जिनका लगातार चौदह दिनों से इलाज किया जाएगा। पास के ही वार्ड में कुपोषण के शिकार और अन्य बीमारी से ग्रसित 13 बच्चे (08 से 12 वर्ष) भर्ती हैं।

जिला अस्पताल के पोषण पुर्नवास और बाल वार्ड में भर्ती कुपोषित बच्चे।

क्या कहते हैं अधिकारी?

एनआरसी प्रभारी डॉ सौरभ सिंह बताते हैं कि “पोषण पुनर्वास केंद्र एक ऐसी सुविधा है, जहां 6 माह से 5 वर्ष तक के गंभीर रूप से कुपोषित बच्चे, जिनमें चिकित्सकीय जटिलताएं होती हैं, उनको चिकित्सकीय सुविधाएं मुफ्त में प्रदान की जाती हैं। इसके अलावा बच्चों की माताओं को बच्चों के समग्र विकास के लिए आवश्यक देखभाल तथा खान-पान से संबंधित कौशल का प्रशिक्षण दिया जाता है। इस केंद्र में छह माह से पांच साल तक के कुपोषित बच्चों का इलाज किया जाता है। यहां शुरुआती दौर में बच्चों को 14 दिन रखकर इलाज व पोषक तत्वों से युक्त आहार दिया जाता है। यह भोजन शुरुआती दौर में बच्चे को दो-दो घंटे बाद दिया जाता है। यह प्रक्रिया रात में भी चलती है।

डॉ सौरभ कहते हैं कि “इसके अलावा बच्चे के साथ आने वाली बच्चे की मां या अन्य परिजन को भोजन के अलावा पचास रुपये रोजाना भत्ता भी दिया जाता है। इस दौरान 100 फीसदी बच्चे इस वार्ड से स्वस्थ होकर निकले हैं। इसके अलावा इलाज कराकर गए बच्चों को पुन: जांच के लिए लेकर आने पर भी उनको भत्ता दिया जाता है। यदि वह 15 दिन में इलाज का फॉलो-अप कराने आते हैं तो उन्हें 140 रुपये मिलते हैं। यह भत्ता उन्हें दो महीने तक मिलता है।”

हुकुलगंज है कुपोषण जोन

एनआरसी प्रभारी डॉ सौरभ सिंह बताते हैं कि “शहरी इलाकों के बच्चों में कुपोषण के केस अधिक मिल रहे हैं। साल 2022 में सबसे अधिक कुपोषण के मरीज हुकुलगंज क्षेत्र से चिन्हित हुए थे। बहरहाल, बनारस का हुकुलगंज बहुत तंग इलाका है। इस इलाके में बस्तियों की बसाहट इतनी घनी है कि तंग गलियों से लोगों का साइकिल और बाइक से गुजरना किसी मुसीबत से कम नहीं है।

हुकुलगंज इलाके की एक गली।

तिस पर गली और नुक्कड़ में कूड़े के ढेर से निकल रही बदबूदार हवा समूचे वातावरण को दूषित करती है। पास में पार्क या खेल का मैदान नहीं होने से बच्चे इन्हीं गन्दी गलियों में खेलते हैं। दक्षिण में वरुणा नदी तो उत्तर में पांडेयपुर-पहाड़िया रोड हुकुलगंज की चौहद्दी को सील कर देते हैं। बारिश और बारिश के बाद बाढ़ के समय इस इलाके का वातावरण स्वास्थ्य मानक के निम्नतम स्तर पर जा पहुंचते हैं।”

मॉनसून में निम्न आय वर्ग का रखा जाए ख्याल

मानवाधिकारी जन निगरानी समिति के लेनिन रघुवंशी बताते हैं कि “जंक फ़ूड के कल्चर से सबसे अधिक नुकसान मेहनतकश-मजदूर परिवारों का हो रहा है। इसमें भी शहरी आबादी के निम्न आय वर्ग के परिवार अधिक शिकार हैं। शहरी या ग्रामीण इलाके में कुपोषण के लिए सीधे तौर पर आंगनबाड़ी, सार्वजनिक वितरण प्रणाली और खाद्य महमका जिम्मेदार है। यदि सही और सुव्यवस्थित रूप से तीनों विभाग काम करें तो चार से छह महीनों में ही कुपोषण को कंट्रोल किया जा सकता है।”

लेनिन आगे बताते हैं कि “धन उगाही की नीयत से गरीबी, कुपोषण और बीमारी पर काम करने वाले फर्जी स्वयं सेवी संस्थाओं पर कार्रवाई भी की जानी चाहिए। सार्वजनिक वितरण प्रणाली लापरवाही बरत रही है। जिनके मकान हैं, उन अपात्रों के कार्ड बनाए गए हैं। इसकी जांच कराकर पात्रों को लाभ दिया जाए। साथ ही मॉनसून के समय असंगठित मजदूरों के लिए रोजगार के मौके भी प्रशासन को उपलब्ध कराना चाहिए, ताकि उनकी कम से कम न्यूनतम क्रय शक्ति बनी रहे।”

डॉ. लेनिन रघुवंशी

जिला फूड अथॉरिटी की बैठक में उठाऊंगा मुद्दा

लेनिन कहते हैं “कई बार शिकायतें सुनने को मिलती हैं कि जिनके खेत, मकान, दुकान और अन्य साधन हैं, ऐसे अपात्र लोगों को पात्र बनाकर राशन योजना का लाभ दिया जा रहा है। सिस्टम को चाहिए कि इस मामले को गंभीरता से ले और अपात्रों पर कार्रवाई करते हुए पात्र और जरूरतमंदों को लाभ दिया जाए। साथ मॉनिटरिंग भी की जाए, जिससे कि अनाज योजना और पोषक फूड पैकेट उन बच्चों को प्राप्त हो सकें, जो मानक के अनुरूप पोषणयुक्त आहार नहीं मिलने से कुपोषित हो रहे हैं। इस संबंध में जिला फूड अथॉरिटी को पत्र लिख जरूरतमंदों तक राशन पहुंचवाने की मांग करूंगा।”

(उत्तर प्रदेश के वाराणसी से पवन कुमार मौर्य की ग्राउंड रिपोर्ट।)

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