बैटल ऑफ बंगाल: चुनाव को कितना प्रभावित करेगा नंदीग्राम का नया सच?

बंगाल में चल रहे चुनावी संग्राम के बीच दो चरणों के मतदान हो चुके हैं। ऐसे में बंगाल की हॉट सीट नंदीग्राम में मतदान संपन्न हो गया है। पहले चरण की तरह दूसरे चरण में भी लोगों ने तबाड़तोड़ मतदान  किया। दूसरा चरण पूरे विधानसभा चुनाव का एपिसेंटर रहा और इस चरण में 80.43 प्रतिशत मत डाले गए। इसी चरण की चर्चा इतनी ज्यादा थी कि राज्य की मुख्यमंत्री अपनी भावनाओं को नियंत्रित नहीं कर पाईं और 13 साल पहले जो कहानी शुरु हुई थी। उस कहानी का सबसे रहस्यमय सच को यहां लोगों के सामने बयां कर दिया। जिस बात का तृणमूल को डर था आखिर में बात वहीं आकर रुकी जहां से शुरू हुई थी। नंदीग्राम में 14 मार्च 2007 की चली 14 गोलियों पर बस आखिरकार पूर्ण विराम स्वयं ममता बनर्जी ने लगा दिया। जिस मुद्दे को लेकर कभी तृणमूल की राजनीतिक ऊंचाई शुरु हुई थी। वहीं उसकी जीत के लिए मुख्यमंत्री को दिन रात मेहनत करनी पड़ रही है।

आठ चरणों  में होने वाले पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में इस बार नंदीग्राम की चर्चा सबसे ज्यादा हो रही है। नंदीग्राम की चर्चा के दो प्रमुख कारण हैं पहला कि राज्य की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी स्वयं यहां से अपने ही सहयोगी के खिलाफ चुनाव लड़ रही हैं और दूसरा एक बार फिर नंदीग्राम का गोली कांड़ सुर्खियों में आ गया है। आसनसोल के वरिष्ठ पत्रकार डॉ.प्रदीप सुमन का इस बारे में कहना है कि इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि इस आंदोलन के दौरान पुलिस कार्रवाई हुई थी। जिसमें पुलिस की भूमिका संदेह में थी।  पुलिस हमेशा विशेष वर्दी में रहती है, जिसके जूते भी विशेष रंग के होते हैं। जिसको देखने से ही समझ में आ जाता है कि वह पुलिस बल है। लेकिन 14 मार्च को जो गोलियां चलीं उसमें देखा गया कि जो लोग फायरिंग के वक्त वहां मौजूद थे उनकी वर्दी पुलिस वर्दी की तरह नहीं थी। इतना ही नहीं लोग हवाई चप्पल में थे। जबकि पुलिस जब भी कार्रवाई करने के लिए जाती है तो वह जूते पहनती ही है। इसके साथ ही जो कारतूस बरामद हुए थे वह भी अलग थे। जिससे यह साफ पता चलता है कि यहां पुलिस के अलावा अन्य लोग भी मौजूद थे।

वह बताते हैं कि जिस वक्त यह घटना घटी पश्चिम बंगाल में सीपीआईएम में सुशांतो घोष नाम के एक  युवा नेता हुआ करते थे। वाम फ्रंट सरकार के दौरान वह राज्य में मंत्री भी रह चुके थे। इनकी सबसे ज्यादा चर्चा तृणमूल के सात कार्यकर्ताओं की हत्या के मामले में हुई। क्योंकि उस वक्त बंगाल में वाम फ्रंट का राज था तो उन्हें किसी तरह की परवाह नहीं थी। लेकिन जैसे ही राज्य में तृणमूल  की सरकार आई इन पर कार्रवाई हुई और छह माह की सजा भी हुई।

नंदीग्राम वाले मामले में भी सुशांतो घोष की भूमिका संदेह में थी। इस बारे में डॉ. प्रदीप बताते हैं कि चूंकि बंगाल में सरकार लेफ्ट की थी,  तो जो भी लोग वहां पुलिस से  भिड़ने के लिए आ रहे थे उन्हें रोकने वालों को सुशांतो का ही गुंडा माना जा रहा था। इस मामले में बाद में पुलिस ने जांच की और सुशांतो के घर के पास खुदाई के दौरान हड्डी पाई गई। जिसे स्कैल्टन केस भी कहा जाता है। इस मामले में  सुशांतो को सजा हुई थी। लोगों ने यह मानना शुरू कर दिया था कि गोली सुशांतो द्वारा ही चलवाई गई है। जबकि इसके पीछे मुख्य हाथ तो तथाकथित तृणमूल का वालों का था। इस गोली कांड का मुख्य आरोपी मनीष गुप्ता को माना जाता है जो उस वक्त लेफ्ट फ्रंट का ही नेता था और बाद में उसने तृणमूल का दामन थाम लिया था। साल 2011 में बंगाल में सत्ता परिवर्तन की लहर चली और ममता की सरकार बनी। सरकार बनने के  बाद  मनीष को मंत्री भी बनाया गया। वहीं दूसरी ओर राज्य के ज्यादातर अधिकारियों का भी सत्ता परिवर्तन के साथ ही तबादला कर दिया गया। जिससे साफ जाहिर है कि तृणमूल संदेह के घेरे में थी। जिसका राज आज स्वयं ममता बनर्जी खोल रही है।

डॉ. प्रदीप सुमन बताते हैं कि अब जब शुभेंदु अधिकारी तृणमूल से अलग होकर भाजपा में शामिल हो गए हैं तो दीदी सारा इल्जाम बाप, बेटे के माथे पर मढ़ रही हैं। जबकि देखा जाए तो गलती तृणमूल की है। हां अब जब दीदी सारी गलती शुभेंदु और उनके पिता शिशिर अधिकारी की बता रही हैं तो दीदी को नंदीग्राम के लोगों का हितैषी बनने का श्रेय भी नहीं लेना चाहिए। यह श्रेय भी शुभेंदु को ही मिलना चाहिए।

पश्चिम बंगाल के अखबार शिल्पांचल एक्सप्रेस की विधानसभा चुनाव के इतिहास सीरीज में यह बताया गया है कि नंदीग्राम में लोगों के लगातार बढ़ते प्रतिरोध के बीच सरकार ने अधिग्रहण वाली नोटिस को वापस ले लिया था। क्षेत्र में सब कुछ शांतिपूर्ण ढंग से हो इसके लिए राज्य सरकार ने पुलिस बल को काटी गई सड़कों की मरम्मत के लिए भेजा था। जबकि वहां मौजूद लोगों को लगा कि सरकार कार्रवाई करने के लिए पुलिस भेज रही है। चूंकि लोगों के दिमाग में पहले से ही यह भर दिया गया था कि पुलिस सरकार के साथ है और वह ग्रामीणों की जमीन को हड़प लेना चाहती है जिसे उन्हें हर हाल में बचाना है। जिसके लिए उन्होंने हिंसा के रास्ता अख्तियार किया और उस दिन जब पुलिस उन्हें समझाने के लिए आई तो लोगों ने पुलिस के साथ झड़प की जिसमें 14 लोगों की जान चली गई। आज भी नंदीग्राम के ग्रामीणों का कहना है कि सरकारी आंकड़ों में लोगों की संख्या कम बताई जा रही है। जबकि सच्चाई तो कुछ और ही है।

माओवादियों की भूमिका

साल 2006 के अपनी चुनावी घोषणा पत्र में वाम फ्रंट ने औद्योगीकरण को बढ़ावा देने के लिए कहा कि कृषि हमारी संस्कृति है और उद्योग हमारे भविष्य हैं। लेकिन जनता इस बात को समझ नहीं पाई। इसलिए जैसे ही नंदीग्राम और सिंगूर की जमीन औद्योगीकरण के लिए इस्तेमाल की जाने लगी। लोगों का गुस्सा सातवें आसमान पर चढ़ गया। यहीं से शुरु हुआ माओवादियों को अपने आप को सबसे आगे लेकर जाने का खेल। इस बार वह ममता बनर्जी को आगे नहीं ले जाना चाहते थे। इसलिए उन्होंने लोगों को संगठित करने के लिए तृणमूल के स्थानीय स्तर के कार्यकर्ताओं को अपने साथ लिया और आंदोलन की गति को तेज कर दिया। इसी दौर में नंदीग्राम में उस वक्त के तृणमूल नेता शुभेंदु अधिकारी को अपने साथ मिला लिया और ममत बनर्जी से माओवादियों ने दूरी बना ली। इस आंदोलन में माओवादियों के नेता किशन जी थे। जो बाद में मुठभेड़ के दौरान मारे गए।

पश्चिम बंगाल के सीपीआईएम के सेक्रेटरी पार्थ मुखर्जी का इस घटना के बारे में कहना है कि जो भी ममता बनर्जी ने कहा वह अचानक नहीं कहा सारी बातों की जानकारी दीदी को पहले से ही थी। जिस वक्त नंदीग्राम के अंदर लोगों को यह बताया जा रहा था कि बाहर से लोग आकर यहां उनकी जमीनों का अधिग्रहण कर लेंगे। उन्हें साफ यह संदेश दिया गया कि उनका मालिकाना हक अब खत्म होने वाला है। लोगों के अंदर हिंसा को बढ़ाया गया। जिसका परिणाम यह हुआ कि नंदीग्राम में हिसंक घटना घटी। जिसको लेकर सारे देश में बंगाल की वाम सरकार पर लोगों का गुस्सा जगजाहिर होने लगा। केंद्र सरकार भी वाम सरकार के खिलाफ खड़ी हो गई।  

अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए वह कहते हैं इस हिंसक घटना के बारे में तो राज्य सरकार को जानकारी भी नहीं थी। यह बात सीबीआई जांच में साबित हो पाई। जिसमें साफ हो गया कि मुख्यमंत्री द्वारा पुलिस को किसी भी तरह की कार्रवाई का आदेश नहीं दिया गया था। अब जब इस घटना को 13 साल हो गए हैं और राज्य में दीदी की सरकार को भी 10 साल पूरे हो चुके हैं। ऐसे वक्त में जब शुभेंदु अधिकारी भाजपा में शामिल हो गए हैं तो यह बताया जा रहा है कि इसमें बाप बेटा का हाथ था। जबकि हाथ बाप बेटा का नहीं बल्कि टीएमसी का था।  औद्योगीकरण की जो शुरुआत बुद्धदेव भट्टाचार्य द्वारा की गई थी उसे तृणमूल पूरी तरह से नष्ट करना चाहता था। जिसमें माओवादियों ने भी उनका साथ दिया ।

वह बताते हैं कि बाद में हुई जांच में यह स्पष्ट हो गया था कि वाम फ्रंट द्वारा कुछ नहीं किया गया था। यह सारी चीजें प्रयोजित थीं। जिसमें सिर्फ और सिर्फ टीएमसी का ही हाथ था। उस वक्त को याद करते हुए वह कहते हैं कि पूरे बंगाल में वाम फ्रंट लोगों का दुश्मन बन गया था। जहां भी लोग हम लोगों को देखते थे वह नंदीग्राम का जिक्र करते और कहते ये लोग हिंसक हैं। इन्होंने मासूम लोगों की जान ले ली है।  

पार्थ मुखर्जी कहते हैं कि नंदीग्राम वाले मामले के बाद में टीएमसी ने बंगाल में साम्प्रदायिकता को जमीन देने का काम किया है। जितने दिनों तक बंगाल में वाम की सरकार रही। कभी किसी व्यक्ति को धर्म और जाति के आधार पर बांटा नहीं गया था। लेकिन पिछले दस सालों में लोगों को आदिवासी, दलित, मुस्लिम कहकर संबोधित किया जा रहा  है। टीएसमसी ने जिस जमीन को तैयार किया है उसका फायदा आज बंगाल की जमीन पर बीजेपी को मिल रहा है। जिसके तहत आज भाजपा पूरे राज्य में पूरी तरह फैल चुकी है। हर जगह हिंदू-मुस्लिम करके वोट लिया जा रहा है। जिस संस्कृति को वाम ने इतने सालों तक संभाला तृणमूल ने उसे बस दस साल में ही खत्म कर दिया है।

(आसनसोल से स्वतंत्र पत्रकार पूनम मसीह की रिपोर्ट।)

  
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