बिको, बिको जल्दी बिको, अब न बिकोगे तो कब बिकोगे!

क्या चल रहा है, हमारे आस-पास! सब कुछ हरा-भरा है। बहुत पहले गालिब ने कहा था, हम हैं वहां, जहां हम को भी हमारी खबर नहीं आती। लोग एक-दूसरे से पूछते हैं- कैसी हवा है? हवा दगाबाज नारों को गोद लिये आवारागर्दी पर उतारू है। मुख्य-धारा की मीडिया का मुख्य कर्तव्य पहले से तय है। ‘मुख्य’ और ‘प्रधान’ में गजब का ताल-मेल है। तोल-मोल कोई नहीं। अमृत काल अमोल है। वे एक ही हैं, दूसरा न कोई। पूरी बाइनरी- एक वे और बाकी सब शून्य। अब एक नया मुहावरा हवा में है- तकदीर भी तिकड़मियों का साथ देता है। इस तरह तिकड़म अब पुरुषार्थ में बदल गया।

अभी 2024 के आम चुनाव की अधिसूचना जारी नहीं हुई है। राजनीतिक दलों में भारी गहमा-गहमी है। निष्ठावानों का इधर-उधर आना-जाना जारी है। भ्रष्टाचार में लिप्त और भ्रष्टाचार से तृप्त सभी को समेटकर अपने पाले में ले आने का हांका लग रहा है। इसके पहले कि रणभेरी बजे सभी को मालूम है। विकल्प दो ही हैं- खेल या जेल। खेल में शामिल हो जाओ, या जेल जाओ। कमजोर दिल कांप रहे हैं। क्या करें, क्या न करें। कुछ लोगों को लग रहा है, बाजी पलट रही है। कुछ लोगों को लग रहा है यह आखिरी ‘शो’ है और आखिरी बाजी। ‘हांजी और जीहां’ के लहजे में विनम्रता को पुट भरा जा रहा है।

भले ही बहुत पहले, अकबर इलाहाबादी ने कहा हो- ‘बाज़ार से गुज़रा हूं ख़रीदार नहीं हूं’- यहां सब से बड़ी छातीवाले छाती ठोक कर कह रहे हैं, मैं हूं खरीदार- अबकी बारी, पूरी खरीदारी। दाम जो तुम जो तुम चाहो। आजादी जो चाहो मिलेगी। मेरी गुलामी से निकलती है तुम्हारी आजादी। बिको, बिको जल्दी बिको, अब न बिकोगे तो कब बिकोगे। राजनीतिक दलों में अफरा-तफरी मची हुई है। विभागीय कार्रवाई से लेकर चरित्र-हनन के सारे हथकंडे आजमाये जा रहे हैं। राजनीति के अपराधीकरण का विस्तार समाज के अपराधीकरण तक की सिद्धांतिकी तैयार कर रहे हैं ‘चाणक्यवृंद’। आज-कल ‘चाणक्यों’ का ‘गोरखधंधा’ जोर से चल रहा है।

हिमाचल प्रदेश हो या उत्तर प्रदेश क्या फर्क पड़ता है? तो फिर लोकतंत्र का क्या होगा! लोकतंत्र काम करता रहेगा। सब कुछ वोट की राजनीति की भेंट नहीं चढ़ जायेगा। पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक (PDA) की राजनीति के साथ नहीं भी तो पीछे ही सही ‘अगड़े’ को भी होना चाहिए। पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक (PDA) की राजनीति में ‘अगड़े’ भी अपना हित नहीं बना पायेंगे तो भविष्य में होने वाली राजनीतिक असुविधा की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता है।

भारतीय जनता पार्टी की सोशल इंजनियरिंग अब फेल हो चुकी है। इस सोशल इंजनियरिंग ने भी सामुदायिक प्रभुता (Community Dominance) से संपन्न नेताओं को तो अपने साथ कर लिया लेकिन समुदाय के सामान्य लोगों के प्रति न्याय नहीं कर सकी। हमारे लोकतांत्रिक नेतृत्व में राजनीति और लोक नीति की कार्यकारी समझ विकसित नहीं हो पाई। सुसंगत व्यवहार, सभ्य और बेहतर जीवन का हक और किसी को है। सभी को यह हक तभी मिलता है जब सामाजिक सुमति का वातावरण हो।

लोकतांत्रिक नेताओं ने राजसत्ता के लिए चाहे जितनी भी मशक्कत की हो, सामाजिक सुमति का वातावरण बनाने के लिए कोई प्रयास नहीं किया। विभाजन की बहुत सारी जीवंत रेखाएं बनी हुई हैं, न्याय की गुंजाइश निरंतर कम होती जा रही है। डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर ने सामाजिक विभाजन और अन्याय की जड़ जाति-व्यवस्था को चिह्नित किया था। जाति-व्यवस्था को समाप्त करने की उन्होंने बहुत कोशिश भी की, लेकिन वर्चस्व की प्रवृत्ति ने ऐसा होने नहीं दिया। बाद की राजनीति ने इस जाति-व्यवस्था को समाप्त करने के बजाये, स्वभावतः राजसत्ता के लिए, जाति-व्यवस्था के अंदर नये सिरे से गोलबंदी शुरू की। हालांकि, इस गोलबंदी का भी व्यावहारिक लाभ जितना और जैसा होना चाहिए था, उतना और वैसा हुआ नहीं। एक तरह से वर्चस्व की राजनीति और प्रवृत्ति पहले से अधिक मजबूत ही होती चली गई।

मुख्य-धारा की मीडिया में कोई खास रिपोर्ट नहीं। अधिकतर कार्य-क्रमों में ‘विशेषज्ञों’ का विश्लेषण विश्वसनीय आंकड़ों के अभाव में बतकुच्चन में बदल चुका है। लोगों के पास आंकड़ों के अपने-अपने स्रोत हैं, अपनी-अपनी कहानी है। प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में, हर कोई किसी-न-किसी की तरफ से है। गरीबों, बेरोजगारों, उत्पीड़ितों की तरफ से कौन है, पता नहीं चलता। उस से भी बड़ा सवाल यह है कि क्या गरीब, बेरोजगार और उत्पीड़ित क्या सचेत रूप से अपनी तरफ हैं? क्या उन्हें अपनी तरफ के लोगों की कोई पहचान है?

मोटे तौर पर, जवाब नकारात्मक ही है। इस नकारात्मकता के कई कारण हो सकते हैं, दो प्रमुख कारण हैं- गहन निराशा और अविश्वास; निराशा से अविश्वास बढ़ता है और अविश्वास से निराशा बढ़ती है। मीडिया को ही क्या कहा जाये, बस, ट्रेन, चौक चौराहों पर भी कोई इन मुद्दों पर ध्यान देता हुआ नहीं दिखता है। मध्य वर्गीय मानस का हताश मुहावरा है- सब एक ही हैं, एक ही थैली के चट्टे-बट्टे। लिहाजा कुछ नहीं हो सकता है।

इस समय सब से अधिक जरूरी है, विश्वास बचाना। विश्वास कि कुछ हो सकता है। कुछ न हो सका तो बहुत कुछ हो सकता है। उनका संभलना अधिक जरूरी है जिन्होंने बहुत कुछ सोचा था और भरोसा किया था। विश्वास कि अच्छे दिन आयेंगे। भरोसा कि रोजगार मिलेगा, हर साल एक करोड़ को रोजगार मिलेगा। संभलना उनका जरूरी है जिन्होंने रोजगार मिला न, पकोड़ा तलने की सहूलियत मिली। जिन्होंने हिंदी बोलने वालों की अंग्रेजी बोल, ‘स्टेंडअप इंडिया’ और ‘मेक इन इंडिया’, में अपने लिए उम्मीद की एक छोटी-सी जगह बनाई थी।

राष्ट्रों के जीवन में दस साल कितना होता है, नहीं मालूम, आदमी की जिंदगी में दस साल का महत्व बहुत होता है। दस साल पहले बहुत आत्मीयता से, पहली बार के वोटरों को अपनी तरफ खींच लेने वाले तो भगवान हो गये और वे बेरोजगारों की कभी न सरकने वाली लंबी कतार में लग गये। हो सकता है कतार में अभी भी अपनी जगह पर कायम हों। हो यह भी सकता है कि कतार में अपनी जगह ईंट रखकर कतार से नौ दो ग्यारह या एक दो बारह हो गये हों।

सोचना है उन किसानों को जिन्होंने भरोसा किया था कि उन्हें कृषि उपज का न्यूनतम समर्थन मूल्य (सी2+50%) मिल जायेगा। लोग निराश हैं, सब डूब गया। रोजगार का कोई अवसर आते ही अपनी नाउम्मीदी में उम्मीद संजोये, एक पर हजार-लाख युवा कूद पड़ते हैं। जैसे-तैसे झपट्टा मारकर हक हासिल करें इसके पहले ‘पेपर लीक’ होकर उनके सपनों की हवा निकाल देता है। उनको सपने बेचनेवाले, नेताओं की ‘खरीदी’ में व्यस्त हैं।

‘खरीदी का फंडा’ बताता हूं। गैरेज के मालिक खराब गाड़ी को कम कीमत पर खरीद लेते हैं। मरम्मत करके दुबारा बेच देते हैं। इस में तो कोई आपत्ति नहीं हो सकती है, न है। आपत्ति की बात तब होती है, जब गैरेज मालिक सस्ती ‘खरीदी’ के लिए गाड़ी को खराब करने लगता है। गाड़ी को खराब करने के लिए उसके पास पचास उपाय होते हैं, एक-दो हो तो बताऊं।

‘मालदार खरीदार’ पहले दूसरों के गोदाम में रखे माल को विभिन्न तरीके से ‘दागदार’ बनाता है। उस माल के अंदर बिकने की इच्छा की बलवती लहरें उठाता है। नाना तरकीब अपनाता है। इसी तरह ‘बिल्डिंग परमोटर’ जमीन की ‘खरीदी’ किया करता है। ‘खरीदी’ की कथा अनंत है, महिमा अपरंपार है। कभी-कभी तो बिके हुए को पता ही नहीं चलता कि उन्हें बिका हुआ क्यों कहा जाता है! जैसे-जैसे आम चुनाव नजदीक आ रहा है, राजनीति की गलियों में आवाज गूँज रही है- बिको, बिको जल्दी बिको, अब न बिकोगे तो कब बिकोगे!

डबल इंजन के चक्कर में जिनके सपनों का इंजन फेल हो गया है। उनके सपनों में पचकेजिया मोटरी-गठरी नाच रही है। वे इस नाच का मजा लेते हुए नसीब की गोली गटककर सपनों की नींद में रह-रहकर बड़बड़ा उठते हैं- देश के लिए इतना कुछ किया गया। अपना नसीब ही जब साथ न दे, तो कोई क्या कर सकता है! मां-बाप सोचते हैं पूर्व जन्म के कर्मों का फल है। वक्त के पहले और तकदीर से ज्यादा कभी किसी को कुछ न मिला है, न मिलता है। जब अपना ही सिक्का खोटा हो, तो किसी और का क्या दोष! उन्हें कौन बताये हर सिक्का का दूसरा पहलू भी होता है, इस सिक्का का भी दूसरा पहलू है। नसीब की गोली को झटकते हुए सपनों की नींद को तोड़कर तबीयत से जोर लगाने पर सिक्का पलट भी सकता है, यकीनन पलट सकता है।

(प्रफुल्ल कोलख्यान स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं)

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