मेहनतकश वर्गों में पसरता घुटन भरा आक्रोश

किसान, मजदूर, व्यापारी, कर्मचारी और छात्रों-नौजवानों में पल रहा आक्रोश नए-नए रूपों में प्रकट होने लगा है। इसके संकेत देश में घटने वाली घटनाओं की प्रकृति से समझा जा सकता हैं। आने वाले समय में फूट पड़ने वाले आंदोलनों के संकेत 8 तारीख को नोएडा के लाखों किसानों का दिल्ली के लिए कूच और पिछले दिनों ट्रांसपोर्टरों के राष्ट्रीय हड़ताल से मिल चुका है। अभी शंभू बॉर्डर पर किसानों का मोर्चा फिर से नया इतिहास रचने की तरफ बढ़ रहा हैं। इस समय प्रमुख सवाल यह है कि भविष्य के इस तूफान को भारत के लोकतंत्र भारतीय अर्थव्यवस्था तथा सामाजिक जीवन को बेहतर और लोकतांत्रिक बनाने के लिए किस तरह से सही दिशा में ले जाया जा सकता है।

उत्तर प्रदेश के तीन बड़े विश्वविद्यालयों में फैल रहा छात्र असंतोष नए- नए सृजनात्मक रूप ढूंढने में लगा है। आइसा द्वारा चलाया जा रहा यंग इंडिया अभियान बीएचयू, एयू और एलयू सहित प्रदेश व देश के साठ से ज्यादा विश्वविद्यालयों में छात्रों के अंदर शिक्षा व्यवस्था की बर्बादी फीस वृद्धि और विश्वविद्यालय में फैली तानाशाही के खिलाफ आंदोलन के ठोस और रचनात्मक तरीकों की तलाश करते हुएआगे बढ़ रहा है। जो 1974 के छात्र आंदोलन से सर्वथा अलग मुद्दे और दिशा में बढ़ते हुए छात्र युवा आंदोलन के चरित्र को बदलने में लगा है। आज का छात्र आंदोलन किसी एक करिश्माई नेता के इर्द-गिर्द केंद्रित न होकर छात्रों के बीच में नए नेतृत्व को विकसित करने में लगा है।

इसी तरह उत्तर प्रदेश में सेवा क्षेत्र के संविदा कर्मचारी रोज नए-नए आंदोलन कर रहे हैं। लखनऊ की सड़कों पर उनके जत्थे शायद ही कोई ऐसा दिन हो जब नारे लगाते हुए न गुजरते हो। जिसकी अग्रिम कतार में आशा, आंगनबाड़ी, रसोईया जैसे संविदा कर्मियों के साथ-साथ पीआरडी होमगार्ड के जवान बेहतर जिंदगी और सेवा शर्तों के लिए जूझ रहे हैं। एनपीएस के खिलाफ राज्य कर्मचारियों में असंतोष बढ़ता जा रहा है। इस सरकार की आर्थिक नीतियों के कारण शायद ही समाज का कोई ऐसा तबका हो जिसकी माली हालत खराब न हुई हो। जिस कारण से आज का दौर आंदोलनों का दौर बनने जा रहा है।

दिल्ली के बॉर्डर पर चले किसान आंदोलन ने जन आंदोलन के इतिहास में सर्वथा एक नई विधा विकसित की है। जिसका प्रभाव अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर किसान आंदोलन के फूट पड़ने में दिखाई दे रहा है। जहां कृषि का एक औजार “ट्रैक्टर” आंदोलन का प्रतीक बन गया है। भारत के किसानों से सीखते हुए आज के दिन यूरोप के आधा दर्जन देश जैसे बेल्जियम, जर्मनी, फ्रांस, हॉलैंड, स्पेन, इंग्लैंड, इटली में किसान आंदोलन की नई लहर उठ खड़ी हुई है।

13 महीने तक चले भारत के किसान आंदोलन और महीनों तक चले पहलवान बेटियों की इज्जत सम्मान की लड़ाई चाहे कुछ भी हासिल न कर पायी हो। लेकिन इसने दुनिया में फासीवादी दौर में संघर्ष की नई विधा और आत्मविश्वास को जन्म दिया है। जिसके चलते कॉर्पोरेट नियंत्रित उदारीकृत विश्व व्यवस्था को गंभीर चुनौती मिल रही है।

“एक नई दुनिया संभव है” वैश्विक स्तर पर इस नारे की प्रासंगिकता बढ़ती जा रही है। अभी तक कॉर्पोरेट पूंजी के खिलाफ किसानों-मजदूरों, सरकारी और गैर सरकारी असंगठित क्षेत्र के कर्मचारियों के साथ छात्रों-नवजवानों व महिलाओं के‌ चल रहे प्रतिरोध की नई लोकतांत्रिक विधा को निष्प्रभावी कर देने का रास्ता वैश्विक पूंजीवादी शासक ढूंढ पाने में सफल नहीं हुए हैं। इसीलिए वे औपनिवेशिक काल की चिर परिचित नीति “फूट डालो राज करो” के साथ ‘खरीदो, थकाओ और दलालों’ की नई श्रृंखला खड़ा करके जन संघर्षों को पीछे ठेल देने के रास्ते पर चलने के लिए मजबूर है।

इस समय भारत सहित विश्व साम्राज्यवादी शासक वर्ग विस्तारित होते जनाक्रोश से निपटने के लिए जिस रास्ते की तरफ बढ़ रहा है। वह मूलतः फासीवादी और लोकतंत्र विरोधी है। यूरोप सहित पूरी दुनिया में बढ़ते दक्षिणपंथी उभार व हमले को इसी संदर्भ में देखना चाहिए। जिस कारण राजनीतिक सामाजिक परिदृश्य उथल-पुथल भरे जटिल रास्ते की तरफ बढ़ने को मजबूर है। जिसकी मार आने वाले समय में नागरिकों के लोकतांत्रिक अधिकारों, सिकुडती जनतंत्रिक परिधि, विस्तृत होते राज्य दमन के रुपों में दिखाई देगा।

असाध्य संकट में फंसी पूंजीवादी दुनिया हताशा में कुछ देशों में लोकतांत्रिक ढांचे को तिलांजलि देकर धर्म कॉर्पोरेट गठजोड़ की तानाशाही कायम करने की तरफ बढ़ सकती हैं। जो इस समय विकासशील दुनिया के भारत जैसे देशों में दिखाई देने लगा है। यूरोप में भी बढ़ते दक्षिणपंथी संगठनों की ताकत को इस संदर्भ में देखा जाना चाहिए। इसके अलावा कुछ देशों के मध्य पहले से मौजूद मतभेदों को युद्ध की दिशा में मोडा जा सकता है। क्योंकि जब पूंजी गहरे संकट में फंसती है तो युद्ध के अलावा उसके पास अपना जीवन बचाने के लिए कोई और रास्ता नहीं होता है। वह विविधताओं भरी दुनिया में भाषा संस्कृति धार्मिक विश्वासों और एथनिक कबीलाई समाजों में भी टकराव पैदा करने की कोशिश करेंगी। साथ ही वर्चस्ववादी समूह को (धार्मिक भाषाई नृजातीय और पहचावादी) संरक्षण देकर देशों के अंदर आंतरिक टकराव पैदा कर सकती है। जैसा हम भारत में बहुमतवादी हिंदू धर्म के आक्रामक उभार में देख रहे हैं। जो शासक वर्ग के अंदर फैल रहे दक्षिणपंथी क्रूर विचार और विध्वंसक रास्ते की तलाश का एक आत्मघाती फासीवादी मार्ग है।

कॉर्पोरेट लूट और पूंजी के विस्तार का संकट जितना ही गहरा होगा विश्व में उतनी ही अशांति बढ़ेगी। पश्चिम एशिया में फिलिस्तीन इजरायल युद्ध विश्व साम्राज्यवादी व्यवस्था के संकट को प्रकट कर रहा है। इसी के साथ सोवियत संघ के विघटन के बाद विश्व साम्राज्यवाद के विस्तृत फलक पर रूस में एक अलग ही तरह की जटिल तानशाही खड़ी हुई है। जो यूक्रेन पर हमले के रूप में साफ-साफ दिखने लगी है। पुतिन काल में रूस में तानाशाही का नया मॉडल विकसित हुआ है। जिसे हम आईटी क्रांति के बाद पूंजी के बदले स्वरूप की नई तानाशाही कर सकते हैं। जिसने मनुष्य के जीवन के सभी क्षेत्रों में घुस पैठ बना ली है। यही नहीं राष्ट्रों के लोह कर्टन को भेदते हुए यह अपने मुखालिफ मुल्कों व्यक्तियों समाजों व्यवस्थाओ तक में घुसपैठ करने में सक्षम है।

इसलिए 21वीं सदी का पूंजीवाद और उसके अधीन निर्मित विश्व सामाजिक ढांचा अब तक के सबसे विद्रूप और क्रूर चेहरे के साथ दिखाई दे रहा है। गाजा पट्टी में मारे जा रहे फिलिस्तीन बच्चों महिलाओं बुजुर्गों बीमारों को देखकर भला और कौन सा निष्कर्ष निकाला जा सकता है।

युद्धों के द्वारा संकटों के समाधान में लगे शासक वर्गों में दो प्रवृत्ति दिखाई दे रही है। एक रूस द्वारा यूक्रेन पर किए गए हमले – जिसे अपने मुल्क के तथाकथित हितों के अनुकूल यूक्रेन का विभाजन करने के लिए थोपे गए युद्ध के रूप में व्याख्यायित किया जा सकती है। जैसा राष्ट्रीय हितों के नाम पर अमेरिका ने इराक अफगानिस्तान लीबिया सीरिया आदि देशों में किया था। इसी का दूसरा रुप इजरायल द्वारा फिलिस्तीनियों के एथेनिक संहार के रूप में देखा जा सकता है। जिसके पीछे अमेरिका सहित सभी साम्राज्यवादी राष्ट्र खड़े हैं।

दूसरा रास्ता राष्ट्रों के अंदर धार्मिक एथेनिक समूहों के ऊपर बरबर नरसंहार द्वारा उनका सफाये और हासियाकरण के रूप मे देखा जा सकता है। इसका सबसे विद्रूप रूप हमने श्रीलंका में तमिलों के नरसंहार, म्यांमार में रोहिंग्या मुसलमानों के सफाये विस्थापन और भारत में मुस्लिम धर्मावलंबियों तथा कुकीज के साथ हो रहे सलूक के रूप में देख सकते हैं।

इसे हम रूस में चैचन जाति, चीन में उईगर मुसलमान और अफ्रीका के रवांडा युगांडा जैसे देशों मे पहले देख चुके हैं। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अमेरिका के नेतृत्व में बनी विश्व साम्राज्यवादी व्यवस्था के क्रूरतमम रूप को एशिया अफ्रीका लैटिन अमेरिकी देशों में में हुए जनसंहार और इन देशों के विभाजन में देखा जा सकता है। इसलिए आज पृथ्वी के हर कोने पर अशांति के नए-नए नजारे दिखाई दे रहे हैं। तथाकथित सभ्य दुनिया कितनी बर्बर और अमानवीय हो सकती है। इसे हम आज के दौर में बहुत शिद्दत से महसूस कर रहे हैं।

भारत में करोड़ों नागरिकं का दरिद्रीकरण, किसानों की कर्जदारी, युवा बेरोजगारी के नई ऊंचाई छूने और कॉर्पोरेट लूट धार्मिक-जातीय भाषाई बिलगाव ने जिस तरह के वातावरण का सृजन किया है। वह विकासशील दुनिया में एक नई तरह की समाज व्यवस्था के अभ्युदय का संकेत है। जो भारतीय शासकों के धूर्तता भरी उद्घोषणा “मदर आफ डेमोक्रेसी” के बीच से आकर ले रहा है। स्पष्ट है कि 21वीं सदी में विश्व साम्राज्यवादी पूंजीवादी व्यवस्था नये ढांचागत बदलाव की तलाश कर रही है। जो वाह्य और आंतरिक युद्धों में (खुले अर्थों में नहीं) देखा जा सकता है।

राष्ट्रों से राष्ट्रों के बीच, देशों में शासकों और अवाम के बीच हो रहे शत्रुततापूर्ण टकरावों को इसी अर्थ में देखा जा सकता है। आज के दिन पंजाब हरियाणा के बॉर्डर पर हो रही घटनाएं इस बात का स्पष्ट प्रमाण है। लेकिन संकट के समाधान की युद्ध और टकराव केंद्रित नीति वाह्य और आंतरिक संकट को और गहरा कर सकती है।

अगर हम भारत के संदर्भ में देखें तो हमारे देश में कॉर्पोरेट मित्रों की मुनाफे के विस्तार के लिए प्रतिबद्ध डबल इंजन सरकार के नेतृत्व में मणिपुर में दो जनजातियों के बीच हिंसक संघर्ष रुकने का नाम नहीं ले रहा है। इसके मूल में कॉर्पोरेटों के लिए मणिपुर की पहाड़ियों जंगलों में भरे‌ खनिजों और पहाड़ों पर पाम आयल की खेती के लिए पहाड़ियों को जनजातियों से खाली कराया जाना मुख्य उद्देश्य है। जिसे जनजातियों के बीच में टकराव में बदल दिया गया है।

झारखंड में अडानी के लिए दिए जाने वाले जंगलों के बहुत बड़े भू-क्षेत्र की गारंटी करने के उद्देश्य से वहां की सरकार को अस्थिर किया गया है। जिस कारण आदिवासियों में असंतोष के नए दौर की शुरुआत हो सकती है। इस बीच भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने के नाम पर अडानी-अंबानी के लिए झारखंड के खनिज संपदा, जल, जलाशय, जमीन, पत्थर, डोलोमाइट, कोयला, जंगल सौंप देने के उद्देश्य से पैदा किया गया आंतरिक संकट अब नया आयाम ग्रहण कर लिया है। जिसने आदिवासी इलाकों में राजनीतिक संकट को गहरा किया है और आदिवासियों के अलगाव तथा प्रतिरोध के दायरे को विस्तारित कर दिया है।

अडानी-अंबानी के लिए मध्य भारत के खनिज संपदा तक पहुंच और मजबूत करने के लिए आदिवासी समाज के खिलाफ मोदी के नेतृत्व में युद्ध छेड़ दिया गया है। इसे राजनीतिक रूप से झारखंड के मुख्यमंत्री को गिरफ्तार करने आदिवासी क्षेत्रों में अर्ध सैनिक बलों को भेजने और उनके बढ़ते हमले के रूप में देख सकते हैं। धारा-370 हटने के बाद लद्दाख में उठ जन उभार कॉर्पोरेट लूट का नया उदाहरण है।

सरकारें जनता के साथ किए गए वादे समझौते और सामाजिक कल्याण की योजनाओं से अपने हाथ पीछे खींच रही है। ताजा उदाहरण है 13 महीने तक चले किसान आंदोलन के बाद मोदी सरकार द्वारा संयुक्त किसान मोर्चा के साथ हुए लिखित समझौते को रद्दी की टोकरी में फेंक देना। समझौते के बाद से लगातार किसान संगठन अलग-अलग तरीकों और तारीखों में आंदोलन करते रहे। मांग पत्र भेज कर समझौते की याद दिलाते रहे। लेकिन मोदी सरकार किसानों को हिकारत की निगाह से देखते हुए उन्हें सबक सिखाने का रास्ता तलाशती रही है। साथ ही किसान मोर्चा में फूट डालकर और कुछ किसान नेताओं को खरीदकर संयुक्त किसान मोर्चा की एकता को तोड़ना चाहती है। जिससे दमन के द्वारा किसानों को पस्त हिम्मत कर उन्हें थकाया जा सके और उनका मनोबल तोड़ दिया जाए।

मोदी सरकार की तानाशाही और दमनकारी चरित्र को समझते हुए संयुक्त किसान मोर्चा भी तैयारी में लग रहा। मजदूरों कर्मचारियों पर हो रहे हमले को देखते हुए संयुक्त किसान मोर्चे ने मजदूर संगठनों के साथ घनिष्ठ संबंध विकसित कर लिया है। 5 अगस्त 23 को दिल्ली के तालकटोरा स्टेडियम में किसानों मजदूरों का संयुक्त महासम्मेलन हुआ। जिसने 70 सूत्री मांगों का चार्टर जारी कर संघर्ष का बिगुल फूंका गया। 26 से 28 नवंबर, 23 तक 22 राज्यों में राज भवनों के समक्ष घेराव व महापड़ाव और 16 फरवरी को सफल राष्ट्रीय हड़ताल तथा ग्रामीण बंद रहा। एसकेएम के अनुसार औद्योगिक और ग्रामीण हड़ताल के दायरे में 20 करोड़ लोग शामिल थे। संक्षिप्त में कहा जाए तो दमन के साथ प्रतिरोध का दायरा और आन्दोलन की गहराई में वृद्धि होती गई है।

इस बीच कुछ किसान संगठनों ने अलग-से मोर्चा ‌बनाकर तेरह फरवरी को दिल्ली कूंच किए। जिन्हें शंभू और खनौरी बॉर्डर पर सरकार के बर्बर दमन का मुकाबला करना पर पड़ रहा है। जहां हरियाणा सरकार की क्रूरता ने सभी सीमाएं तोड़ दी है। अभी तक एक युवा किसान शहीद हो चुका है और कुछ गोली से घायल हो हास्पिटल में है। दर्जनों घायल हैं। ट्रैक्टरों और टा़्लियो को पुलिस और सादे कपड़ों में मौजूद अपराधी गिरोहों ने भारी नुक्सान पहुंचाया है।

अभी अभी प्रतियोगी परीक्षाओं में योजनाबद्ध भ्रष्टाचार के उजागर हो जाने के बाद छात्रों व युवाओं का आक्रोश फूट पड़ा और योगी सरकार को पीछे हटना पड़ा है। संघ सरकारों का‌ हमेशा से लक्ष्य रहा है कि संघ के प्रशिक्षित कार्यकर्ताओं को शासनतंत्र में किसी भी कीमत पर घुसाया जाय। जिससे प्रशासनिक तंत्र पर अंदर से कब्जा किया जा सके। जिसका स्वाभाविक परिणाम हुआ कि चयन आयोगों से लेकर सभी भर्ती संस्थाओं में भ्रष्टाचार चरम पर पहुंच गया है।

मध्यप्रदेश से लेकर उत्तर प्रदेश तक लगभग सभी परीक्षाओं में पेपर लीक और भारी भ्रष्टाचार फैला हुआ है। जिससे छात्र युवा विछोभ लगातार बढ़ता जा रहा है और वह सत्ता परिवर्तन की चेतना तक उन्नत हो लगा है। भारत के सामाजिक राजनीतिक क्षितिज पर 1974 के युवा आंदोलन के बादल मंडराते हुए दिखाई देने लगे हैं। कम से कम बिहार और उत्तर प्रदेश में ऐसे संकेत साफ़-साफ़ दिखाई दे है। इलाहाबाद विश्वविद्यालय रोजगार के लिए चल रहे छात्र आंदोलन और सरकारी दमन का केन्द्र बनता जा रहा है।

2024 की शुरुआत जनता के विभिन्न तबकों के संगठित संघर्ष और भाजपा के हिन्दुत्व के नग्न रास्ते पर तेजी बढ़ने का गवाह बन गया है। हल्द्वानी में मुस्लिम आबादी पर सचेत हमला और पंजाब हरियाणा सीमा पर सरकार व्दारा किसानों पर थोपा गया सचेत युद्ध कोई अलग थलग घटनाएं नहीं है। इसे प्रधानमंत्री के मंदिर एपिसोड और सम्पूर्ण भारत में मंदिर पर्यटन को मिला कर देखने पर परिदृश्य स्पष्ट हो जाता है। इलेक्टोरल बांड से लूट और चंडीगढ़ मत पत्रों की डकैती के साथ परीक्षा में संघी भ्रष्टाचार के उजागर होने के बाद देश लोकतंत्र, न्याय और रोजी-रोजगार, जमीन, जल, जंगल की लड़ाई आने वाले समय में राजनीतिक बदलाव की दिशा तय करेगी है।

(जयप्रकाश नारायण किसान नेता और स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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