स्वामी सहजानंद सरस्वती: एक हठयोगी कैसे बना क्रांतिकारी किसान नेता ?

स्वामी सहजानंद सरस्वती और किसान आंदोलन -ब्रिटिश काल में किसान संगठन और आंदोलन की शुरुआत स्वामी सहजानंद सरस्वती ने की थी। स्वामी सहजानंद भारत में किसान आंदोलन के जन्मदाता माने जाते हैं। किशोरवय में घर परिवार त्याग कर आध्यात्मिक दुनिया के रहस्य को समझने के लिए पूर्वी उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जनपद का नौजवान नवरंग राय एक कठिन टेढ़े-मेढ़े रास्ते पर चलते हुए और जिंदगी के अनंत अनुभवों से टकराते हुए अंत में भारत के स्वतंत्रता आंदोलन का महान सेनानी व संगठित किसान आंदोलन का जन्मदाता बना।

यह एक रहस्य रोमांच से भरी कठिन संघर्ष की महान जीवन गाथा है। अध्यात्म और जीवन के रहस्य के अनुसंधान में एक किशोर जैसे-जैसे आगे बढ़ता गया, उसे समाज के अंदर की वर्ण व्यवस्था जनित विसंगतियों, धर्म के रहस्यमय आभामंडल के अंदर मौजूद शुद्ध भौतिक जीवन की छुद्रताओं स्वार्थों और सामाजिक विषमता से टकराना पड़ा। इस क्रम में दंडी स्वामी बना नौजवान धीरे-धीरे औपनिवेशिक गुलामी वाली सत्ता के साथ टकरा गया। जो उस समय धर्म- जाति जनित अंतरविरोधों से ज्यादा शक्तिशाली अंतर विरोध था।

वह नौजवान अभौतिक जगत के अंतर्निहित रहस्य की खोज में निकला था। लेकिन अंततोगत्वा यथार्थ जीवन की वास्तविकता, सामाजिक जीवन की विसंगतियां और गुलामी की बेड़ियों में जकडे करोड़ों भारतीयों की पीड़ा ने उसे सन्यासी से राजनेता बना दिया। जैसे-जैसे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम आगे बढ़ता गया। उसकी वैचारिकी आकार ग्रहण करती गई। स्वतंत्रता संघर्ष के लक्ष्य और सिद्धांत जैसे-जैसे ठोस शक्ल लेते गए। वैसे-वैसे यह संन्यासी भी लगातार रूपांतरण की प्रक्रिया से गुजरते हुए आध्यात्मिक संन्यासी से महान भौतिकवादी सामाजिक क्रांतिकारी योद्धा में रूपांतरित होता गया।

स्वामी सहजानंद मूलतः क्रांतिकारी थे। परिवार व समाज की बेड़ियों को तोड़ने के बाद जीवन में आने वाले प्रत्येक जड़ता ठहराव को झटकते हुए आगे बढ़ते रहे। प्रारंभिक अनुभवों से उन्होंने यह महसूस किया कि ज्ञान का क्षेत्र ही मुक्ति का सबसे बड़ा क्षेत्र है। मानव मुक्ति का मार्ग किसी अमूर्त आध्यात्मिक दुनिया में जाकर नहीं खोजा जा सकता। उसे समाज और मनुष्य के जीवन की भौतिक स्थितियों में तलाशा जाना चाहिए। इसी अनुसंधान वृत्त ने उन्हें भारतीय समाज के सबसे निचले पायदान पर स्थित मजदूर और गरीब किसानों के बीच में जाने के लिए उत्प्रेरित किया।

संभवत: भारतीय राजनेताओं में वे अकेले ऐसे व्यक्ति हैं जिन्होंने सम्पूर्ण भारत को पैरों से नाप डाला था। जिस रहस्य की खोज में वह काशी से प्रयाग के रास्ते नर्मदा तट पर स्थित ओंकारेश्वर होते हुए वापस मथुरा वृंदावन और केदारनाथ तक पैदल यात्रा की थी। इस यात्रा के अनुभवों ने उनके अंदर तथाकथित आध्यात्मिक जगत से मोहभंग पैदा किया। महान पदयात्रा से प्राप्त अनुभवों से उन्होंने शिक्षा ली कि मानव सभ्यता द्वारा संकलित ज्ञान को समझने और उसे आज के यथार्थ से मिलाकर विश्लेषित करने की जरूरत है। फिर वे काशी वापस आकर ज्ञान प्राप्ति के लिए अध्ययन के क्षेत्र में कूद पड़े और कुछ ही वर्षों में भारतीय वांग्मय और चिंतन परंपरा में पारंगत हो गए। ज्ञान और अध्ययन की शक्ति के बल पर उन्होंने ब्राह्मणवादी पाखंड को गंभीर चुनौती दी। प्रारंभ में जाति संघर्ष से शुरू करके (ब्रह्मर्षि वंश विस्तार और गीता हृदय) बाद में स्वतंत्रता आंदोलन में गांधी के अनुयाई बने।

चूंकि स्वामी जी तो मूलतः क्रांतिकारी थे। इसलिये गांधी के नेतृत्व में चल रहे स्वतंत्रता आंदोलन के नेताओं और आंदोलन में मौजूद विसंगतियों, पाखंडों को नजदीक से देखकर उनका क्रांतिकारी मन विद्रोह कर बैठा। (गौरक्षा के नाम से चल रहे भ्रष्टाचार लूट और पाखंड को देखकर)। कांग्रेस वालंटियर के रूप में गाजीपुर और बाद में आरा (बिहार) जिले में काम करते हुए उन्होंने महसूस किया कि आंदोलन में शामिल शक्तियां और उनका वर्ग चरित्र क्या है! इसी दौर में हिंदू महासभा और हिंदुत्ववादी संगठनों के दोगलेपन को स्वामी जी ने नजदीक से देखा। कांग्रेस और हिंदूवादी संगठनों के यथार्थ को देखकर दंडी स्वामी होते हुए भी वह वस्तुतः भौतिकवादी होते गए। साथ ही कांग्रेस के अंदर के दक्षिणपंथी हिंदुत्ववादी संगठनों की वास्तविकता को समझ गये। इसलिए बाद के दिनों में बिहार प्रदेश कांग्रेस कमेटी में काम करते हुए राजेंद्र बाबू और उनके गुट के साथ सीधे टकराने लगे। खैर यह अलग प्रसंग है।

पटना के नजदीक बिहटा में स्वामी जी ने एक छोटा सा आश्रम बनाया। इस आश्रम में रहकर स्वतंत्रता आंदोलन में काम करते हुए उन्हें अनेक अनुभव से गुजरना पड़ा। बिहटा चीनी मिल के मालिक डालमिया कांग्रेसी थे। उनके चीनी मिल के बोर्ड के डायरेक्टरों में राजेंद्र बाबू से लेकर पंडित मदन मोहन मालवीय तक अनेक कांग्रेसी भरे पड़े थे। स्वदेशी उद्योग के नाम पर कांग्रेस के बड़े नेताओं ने स्वामी जी से आग्रह किया कि डालमिया की चीनी मिल के लिए किसानों से भूमि दिलाने में वे मदद करें। यह चीनी मिल बिहटा में ही लग रही थी। उस समय विदेशी कंपनियों की जगह स्वदेशी उद्योग के विस्तार के उद्देश्य से उन्होंने डालमिया के लिए जमीन अधिग्रहण में सहयोग किया। (आज फिर नकली राष्ट्रवादी अंबानी अडानी को स्वदेशी उद्योग पति बताकर उनके भ्रष्टाचार और लूट काविरोध करने वालों को देशद्रोही कहने में नहीं चूकते हैं।)

उस समय उन्हें लगा कि भारतीय पूंजीपति का व्यवहार ब्रिटिश पूंजीपतियों से भिन्न होगा। इसलिए जब डालमिया ने गन्ना किसानों के फसल की लूट शुरू की तो स्वामी जी का क्रांतिकारी सात्विक क्रोध उबाल उठा। यही से उनके अंदर किसानों के बीच काम करने की जिज्ञासा पैदा हुई। शेष जीवन किसानों को संगठित करने और स्वतंत्रता आंदोलन के वर्ग चरित्र और वर्ग आधार को मध्यवर्गीय समाज से बाहर ले जाकर‌ किसान मजदूर आधार देने और आंदोलन के चरित्र और नेतृत्व को बदलने में पूरी ताकत लगा दी।

एक औपनिवेशिक समाज में स्वतंत्रता और लोकतंत्र हासिल करने के लिए क्रांतिकारी नेतृत्व को दो मोर्चे पर लड़ना होता है। एक उपनिवेशवाद के खिलाफ राष्ट्रवादी आंदोलन को नेतृत्व देना और दूसरा आंदोलन के वर्ग चरित्र को बदल कर उत्पादक शक्तियों को आंदोलन के केंद्र में ले आना। जिससे जनता के जनवादी लोकतंत्र का निर्माण किया जा सके। चूंकि स्वामी जी अपने देश की मिट्टी से गहरे रूप से जुड़े थे। इसलिए उन्होंने यह बात समझ लिया था कि स्वतंत्रता आंदोलन को किसानों की मुक्ति के रास्ते से ही आगे ले जाकर वास्तविक लोकतंत्र और आजादी हासिल की जा सकती है। इसलिए उन्होंने किसानों को संगठित करने का बीड़ा अपने कंधे पर उठाया।

इस निष्कर्ष पर पहुंचने के बाद 1927 के आसपास बिहटा को केंद्रित करके उन्होंने पटना किसान सभा का निर्माण किया। किसान सभा बनते ही बिहार के स्वतंत्रता संघर्ष के वर्ग चरित्र में गुणात्मक बदलाव आ गया और शीघ्र ही किसान सभा बिहार प्रदेश किसान सभा में बदल गई। पूरे प्रदेश में किसानों का आंदोलन जोर पकड़ने लगा। किसानों की बड़ी-बड़ी जन गोलबंदियां होने लगी। किसानों के मोर्चे से लगने लगे। हजारों हजार किसान परंपरागत हथियारों से लैस होकर जमीदारों और अंग्रेजों से मुक्ति के आंदोलन में कूद पड़े। इससे स्वामी जी किसानों के और करीब होते गए। उन्होंने बिहार कांग्रेस वर्किंग कमेटी में एक प्रस्ताव रखा कि बिहार के किसानों की स्थिति की जानकारी के लिए कांग्रेस एक जांच कमेटी बनाए। जो आने वाले समय में किसानों के सवालों को संबोधित करने में मदद कर सके।

इस प्रस्ताव का कांग्रेस में राजेंद्र बाबू गुट ने तीखा विरोध किया। कांग्रेस में एक बड़े समूह ने स्वामी जी के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। लेकिन स्वामी सहजानंद तो ठहरे हठयोगी। जब उन्होंने तय कर लिया कि यह करना है तो कांग्रेस को मजबूर होकर एक कमेटी बनानी पड़ी। इस कमेटी की अध्यक्षता स्वामी सहजानंद के हाथ में थी। (स्वामी सहजानंद की पुस्तक ‘मेरा जीवन संघर्ष से) कमेटी ने गया और आसपास के किसानों की हालत की जांच पड़ताल की और एक रिपोर्ट प्रकाशित की जिसका नाम था “गया के किसानों की करुण कहानी।” इस रिपोर्ट को आते ही जमीदारों में हड़कंप मच गया।

इस तरह किसान सभा ने अपनी यात्रा शुरू की। बिहार किसान आंदोलन के झंझावात से गुजरने लगा। किसान आंदोलन के वेग ने हजारों किसान नेताओं, साहित्यकारों और बुद्धिजीवियों को पैदा किया। जिसमें जयप्रकाश नारायण, राहुल सांकृत्यायन, कार्यानंद शर्मा, जमुना कार्की, रामवृक्ष बेनीपुरी, यज्ञदत्त शर्मा, चंद्रशेखर सिंह जैसे हजारों नेता और कार्यकर्ता खड़े हो गए। बिहार किसान सभा के आंदोलन की धमक पूरे देश में पहुचने लगी और 1936 तक आते-आते अखिल भारतीय किसान सभा का निर्माण हुआ जिसके प्रथम अध्यक्ष स्वामी सहजानंद बनाए गए।

बिहार में 40 के दशक के मध्य में भयानक भूकंप आया था। जिससे सैकड़ो गांव तबाह हो गए थे। इस भूकंप का असर दरभंगा स्टेट के इलाके में गहरा था। किसान सभा ने किसानों के पुनर्वास और मुआवजे की मांग उठाई तथा जमीदारों से अपील की कि किसानों से लगान न लें। लेकिन ज्यों ही सरकार ने किसानों को मुआवजा देना शुरू किया। दरभंगा नरेश के करिंदों ने जबरदस्ती किसानों से लगाना वसूनना शुरू कर दिया। इस पर स्वामी जी ने कांग्रेस और गांधी जी को एक पत्र लिखा। गांधी जी ने यह कहते हुए स्वामी जी की बात मानने से इनकार कर दिया की दरभंगा राज के दीवान कांग्रेसी हैं और वे कांग्रेस के कोषाध्यक्ष है। वे ऐसा नहीं कर सकते। दूसरा, उस समय गांधी जी ने यह कहा कि भूकंप से हुआ विध्वंस हमारे पापों का फल है। 1925 के बाद से ही स्वामी जी की गांधी जी से दूरी बढ़ने लगी थी और 1935 तक आते-आते स्वामी जी ने गांधी जी से अपना नाता तोड़ लिया।

किसान आंदोलन में काम करते हुए स्वामी जी ने महसूस किया कि जमींदारों का अत्याचार अंग्रेजों से कम नहीं है। गया के किसानों की करुण कहानी नामक रिपोर्ट में उन्होंने जमीदारों के द्वारा 56 तरह के शोषण की चर्चा की थी। इसलिए किसान सभा ने जमींदारी उन्मूलन का नारा दिया। उस समय हिंदू महासभा और हिंदुत्ववादी संगठन खुलकर जमींदारों के साथ खड़े हो गए। कांग्रेस का दक्षिणपंथी तबका जमीदारों के साथ खड़ा था और किसान आंदोलन का विरोध कर रहा था। हिंदू महासभा और संघ प्रजा परिषद बनाकर जमींदारों के साथ खड़ा हो गई और किसान सभा से टकराने लगी। कई जगहों पर तो आरएसएस और हिंदू महासभा के लोगों से किसान सभा के कार्यकर्ताओं की सीधी टकराहाटे हुई।‌ उस समय स्वामी जी ने समझ लिया था कि धर्म के नाम पर काम करने वाले लोग किसानों मजदूरों के हितैषी नहीं हो सकते और वह धीरे-धीरे मार्क्सवाद की तरफ बढ़ने लगे।

इस दौर में स्वामी जी ने किसान सभा क्यों, किसान कैसे लड़ते हैं, किसान सभा के प्रस्ताव तथा क्रांति और संयुक्त मोर्चा जैसी कालजई पुस्तकों की रचना की। रामगढ़ में नेताजी सुभाष चंद्र बोस के साथ मिलकर उन्होंने समझौता विरोधी सम्मेलन कांग्रेस अधिवेशन के समानांतर आयोजित किया था। इस सम्मेलन के स्वागताध्यक्ष स्वामी सहजानंद थे। सम्मेलन के आयोजन और उसमें दिए गए भाषण के बाद उन्हें 3 साल के जेल की सजा हुई। जेल में ही उन्होंने “मेरा जीवन संघर्ष” नामक पुस्तक लिखा था। जो आज भी किसान आंदोलनकारियों के लिए प्रेरणा स्रोत है।

स्वामी जी किसानों की जिन्दगी को किसी आदर्शवादी नेता के रूप में नहीं देख रहे थे। ना ही “अहो ग्राम्य जीवन भी क्या है” जैसी बातों से मंत्र मुक्त हो सकते थे। उन्होंने गांव-गांव घूम कर जमींदारों के अत्याचार के अमानवीय नजारे देखे थे। किसानों की दर्दनाक हालत देखी थी। उनकी फटेहाल जिंदगी और जमींदारों के शोषण और अत्याचार की‌ दर्द भरी घटनाएं देखी और उनकी पीड़ा को महसूस किया था। इसलिए उन्होंने किसान आंदोलन के लिए तीन लक्ष्य सूत्रबद्ध किए थे।
एक, जमींदारी और राजशाही का सम्पूर्ण विनाश। दो, जमीन जोतने वाले को। तीन, उनका प्रिय नारा था- जो अन्न वस्त्र उप जायेगा । वहीं कानून बनाएगा-! यानी मजदूर किसानों का राज। साथ ही उन्होंने किसान को भगवान कहां करते थे। पहले नारे के अनुसार वह परजीवी वर्ग का समूल नाश चाहते थे। भूमि के मालिकाने के सवाल को संबोधित करते हुए कह रहे थे कि भूमि उसी के हाथ में होनी चाहिए जो खुद उस पर श्रम करता हो। दूसरा, वह कह रहे थे कि मजदूर किसान वर्ग को राज्य के रूप में अपने को संगठित करना चाहिये और कानून बनाने का अधिकार उसके हाथ होना चाहिये।

स्पष्ट तौर पर उनका मानना था कि राज्य के रूप में मजदूर किसान वर्ग अगर अपने को संगठित कर लेगा यानी अपना राज्य बना लेगा तो समाज के जितने भी संकट हैं गैर-बराबरी है दमन और उत्पीड़न है, उससे उसको मुक्ति मिल सकती है।

आजादी के बाद आधा-अधूरा जमींदारी उन्मूलन ने भारतीय समाज के लोकतांत्रिक कारण और विकसित राष्ट्र बनाने के लिए उत्पादक शक्तियों के पूर्ण मुक्ति के राह को अवरूद्ध कर दिया। सत्ता के रूप में संगठित पूंजीपति जमींदार वर्ग ने भारतीय समाज और भारतीय कृषि के विकास के लिए जोतदारी रास्ते को चुना। जहां किसान की परिभाषा चरण सिंह के अनुसार इस प्रकार दी गई थी कि “जो जमीन का प्रबंध कर सके ‘पूंजी लगा सके: देख-रेख कर सके उसे किसान माना जाएगा।”

हरित क्रांति की पूरी आधारशिला इसी जोरदार किसान को केंद्र में रखकर तैयार की गई थी। जिसमें आधुनिक बीज, खाद, सिंचाई मशीन, कीटनाशक, मंडी और पूंजी निवेश के संयुक्त प्रयास से कृषि यानी भूमि की उत्पादकता को बढ़ाकर किसानों के जीवन को बेहतर बनाना था। यानी साफ शब्दों में कहा जाए कि ब्रिटिश कालीन भूमि संबंधों में कोई बुनियादी परिवर्तन नहीं किया जाना था। भूमि संबंधों में बदलाव के बिना निश्चय ही एक मंजिल के बाद जाकर कृषि विकास को अवरूद्ध हो जाना था और हुआ भी वही।

80 के दशक तक आते-आते हरित क्रांति अपना आवेग खो बैठी और कृषि विकास में ठहराव आ गया। जिससे लागत में वृद्धि होने लगी और उत्पादकता ठहर गई। परिणाम स्वरूप किसान कर्ज के बोझ तले दबने लगे। गांव से श्रम का पलायन बढ़ने लगा। शहरों में असंगठित मजदूरों की बाढ़ आ गई। जिससे भारतीय अर्थव्यवस्था ठहराव का शिकार हो गयी। आज का किसान आंदोलन हरित क्रांति के संकट का स्वाभाविक परिणाम है। इसे तथाकथित सुधारों द्वारा हल नहीं किया जा सकता। हां कुछ समय के लिए संकट को टाला जा सकता है या पीछे ठेला जा सकता है।

स्वामी जी जब कह रहे थे कि जमीन जोतने वाले के हाथ में हो यानी जमीन का वितरण कृषि मजदूरों और छोटे काश्तकारों के बीच कर दिया जाए। तो यही शासक वर्ग चिल्ला उठा था। यह तो कुफ्र है। इसे बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। इसलिए नक्सलबाड़ी का भारी दमन किया गया।

लेकिन उदारीकरण और अर्थव्यवस्था के बाजरी कारण के बाद जब कॉरपोरेट का सत्ता पर नियंत्रण हो गया तो उन्होंने जमीन को किसानों के हाथ से छीनने के लिए नए-नए कानून बनना शुरू कर दिया है। पिछले दिनों मोदी सरकार जो तीन काले कानून लेकर के आई थी। इसका मकसद जमीन और कृषि उत्पादन के बाजार को कॉर्पोरेट के हाथ में सौपना था। अब सरकारी अर्थशास्त्रियों के अनुसार भूमि का किसानों के हाथ से अधिग्रहण पर धरती नहीं हिलने वाली थी। इससे विकास होगा और उत्पादकता में वृद्धि होगी।

आज छोटी जोतों को अनुत्पादक बताकर बड़ी फार्मिंग यानी कांट्रैक्ट फार्मिंग को प्रोत्साहित करने की वकालत की जा रही है। जिसे विकास के साथ जोड़कर खूबसूरत पैकेजिंग की जा रही है। (दिल्ली के सीमाओं पर चले 13 महीने का किसान आंदोलन इन्हीं नीतियों के खिलाफ केंद्र था।) लेकिन धरती तो 80 के दशक के मध्य से ही हिलने लगी है। और स्वामी सहजानंद जी के किसान आंदोलन के बाद 80 के दशक में नए तरह का किसान आंदोलन खड़ा हो‌ने लगा।

स्वामी सहजानंद जी द्वारा खड़े किए गए पहले दौर के किसान आंदोलन के बाद यह दूसरे दौर का किसान आंदोलन अपने में अनेक तरह के सवालों को समेटे हुए है। कॉर्पोरेट नियंत्रित सरकार का भी कहना है कि जमीन के मालिकाने में बुनियादी बदलाव के बिना कृषि संकट को हल नहीं किया जा सकता। इसलिए सरकार कानून बनाकर किसानों के हाथ से जमीन लेना चाहती है और कम्पनियों को देना चाहती है।

चूंकि सत्ता की बागडोर कॉर्पोरेट हिंदुत्व गठजोड़ के हाथ में है। ये ताकतें आजादी के दौर से ही गरीब, छोटे, मझौले किसानों में जमीन के वितरण के खिलाफ थी। इसलिए आज सत्ता हथियाने के बाद ये कानूनों में संशोधन कर भूमि कंपनियों पास स्थानांतरित करने का राह आसान कर रही हैं। इसीलिए तो स्वामी जी ने कहा था कि ‘जो अन्य वस्त्र उपजाएगा वहीं कानून बनाएगा’।

आज किसान आंदोलनकारियों को यह सोचना होगा कि भारतीय राज्य पर उनका नियंत्रण कैसे स्थापित हो और राज्य की बागडोर किसानों मजदूरों और उत्पादक वर्गों के हाथ में आए। जिससे वह अपने लिए कानून बना सके। 21वीं सदी के तीसरे दशक में भारतीय लोकतंत्र और समाज विकास के उस मंजिल पर पहुंच गया हैं। जहां कॉरपोरेट कंपनियों और व्यापक भारतीय जन गण के बीच का अंतर विरोध शत्रुतापूर्ण हो गया हैं। इसलिए वे एक दूसरे से टकरा रहे हैं।

यही कारण है कि भारतीय राष्ट्र -राज्य में चारों तरफ अफरा तफरी टकराव के मंजर दिखाई दे रहे हैं। संकट को हल करने को लेकर भारतीय शासक वर्ग दो खेमों बट चुका है। 75 वर्षों से चला आरहा सत्ताधारी वर्गों का आपसी समन्वय भंग हो गया है। मोदी सरकार द्वारा विपक्ष पर किए जा रहे हमले इस बात का स्पष्ट संकेत है कि भारतीय राष्ट्र राज्य संकट में फंस गया है। इस संकट से मुक्त होने के लिए कॉर्पोरेट हिंदुत्व गठजोड़ के नेतृत्व में भारतीय शासक वर्ग लोकतांत्रिक ढांचे को समाप्त कर फासिस्ट राज कायम करने की तरफ बढ़ रहा है। अगर ऐसा होता है तो यह 140 करोड़ भारतीयों के लिए त्रासदी होगा।

आज का किसान आंदोलन इसी संकट की उपज है। अब यह संकट विस्तारित होते हुए समाज के अन्य वर्गों भी अपने दायरे में लेने लगा है। मणिपुर से लेकर लद्दाख तक विभिन्न समुदायों समूहों वर्गों में फैल रहा संतोष इस बात का संकेत है कि भारतीय राज्य के संरचनात्मक बदलाव के बिना अब जनगण के समस्याओं को हल नहीं किया जा सकता।

स्वामी जी नेअपनी आखिरी पुस्तक “संयुक्त मोर्चा और क्रांति” नाम से लिखी थी। इसमें उन्होंने उन सभी प्रगतिशील लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष वैज्ञानिक समाजवादी तत्वों से अपील की थी कि वे साझा मोर्चा बनाएं और भारतीय जनता के सुखमय भविष्य के लिए एक मंच पर आकर भारतीय राज्य की बागडोर अपने हाथ में ले लें।

जब स्वामी जी ने किसान को भगवान माना था। तो उनका कहना यही था कि अन्न उत्पादक समाज को समाज के सबसे ऊंचे आसन पर बिठाया जाना चाहिए और उसे राजसत्ता की बागडोर देकर सम्मानित किया जाना चाहिए। लेकिन आज भारतीय समाज में किसान सबसे उपेक्षित और कॉर्पोरेट पूंजी की लूट का शिकार उत्पादक समाज है। जो कर्ज के जाल में फंसे हुए आत्महत्या करने को मजबूर है।

स्वामी सहजानंद के जन्मदिन पर आज इस अधूरे कार्यभार को पूरा करने का ऐतिहासिक दायित्व इस देश के समस्त देशभक्त, प्रगतिशील, लोकतांत्रिक जनगण के कंधे पर आ पड़ा है। उन्हें यह दायित्व निभाना ही होगा। नहीं तो इतिहास उन्हें क्षमा नहीं करेगा। स्वामी सहजानंद और उनका संघर्ष अमर रहे।

(जयप्रकाश नारायण किसान नेता और स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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