ग्राउंड रिपोर्ट: सुप्रीम कोर्ट से बंधी बनभूलपुरा के 50 हजार लोगों के भविष्य की डोर

बनभूलपुरा, हल्द्वानी। नैनीताल जिले के मैदानी शहर हल्द्वानी का सबसे पुराना कस्बा बनभूलपुरा। यह वही बस्ती है, जिसके समानान्तर हल्द्वानी शहर बसा हुआ है। नया बसा शहर बेशक लगातार समृद्धि की ऊंचाइयों तक पहुंचने का प्रयास कर रहा हो, लेकिन उसका सबसे पुराना हिस्सा यानी बनभूलपुरा अनिश्चितता के दौर से गुजर रहा है। देखने में बेशक यहां जिन्दगी सामान्य नजर आ रही हो, यहां के बाशिन्दे बेशक अपने रोजमर्रा के कामों में व्यस्त नजर आ रहे हों, लेकिन जरा सा टटोलो तो उनके भीतर का गुबार फट पड़ता है। सौ साल से भी ज्यादा पुरानी इस बस्ती के बाशिंदे पूछते हैं कि आखिर जिस जमीन में उनके दादा और परदादा के जमाने से उनका घर है, वह अचानक कैसे रेलवे की जमीन हो गई।

लोगों के पास इस जमीन के खाता-खतौनी भी हैं और लीज के कागजात भी। ये कागजात उन्हें सरकार की ओर से समय-समय पर मिले हैं, लेकिन रेलवे कह रहा है कि जमीन तो उसकी है। यह बात अलग है कि रेलवे के पास कोई कागजात हैं ही नहीं। कोर्ट में कागजात दिखाने के लिए रेलवे लगातार वक्त मांग रहा है। बहरहाल इस बस्ती में रहने वाले 5 हजार से ज्यादा लोगों की उम्मीदें सुप्रीम कोर्ट पर टिकी हुई हैं, जहां इस जमीन के मालिकाना हक को लेकर सुनवाई चल रही है।

बीते वर्ष यानी 2022 के आखिरी दिनों की बात है जब भारी पुलिस बल और प्रशासनिक अधिकारियों की मौजूदगी में इस घनी और पुरानी बस्ती को तोड़ने के लिए रेलवे के बुलडोजर और पोकलैंड मशीनें तैनात कर दी गईं थीं। 5 जनवरी को सुप्रीम कोर्ट से स्टे ऑर्डर न मिलता तो यह बस्ती नेस्तनाबूत हो चुकी होती और इसके साथ ही 5 हजार लोग बेघर हो गये होते।

‘जनचौक’ ने ताजा स्थिति जानने के लिए करीब 3 किलोमीटर लंबाई और आधा किमी से ज्यादा की चौड़ाई में रेलवे लाइन के समानान्तर फैली इस बस्ती का जायजा लिया और दर्जनों लोगों से बातचीत की।

यहां के ज्यादातर लोग मानते हैं कि बस्ती को सिर्फ इसलिए तोड़ा जा रहा है कि यहां ज्यादातर घर मुसलमानों के हैं। वरना क्या वजह हो सकती है कि 1905 में बने प्राइमरी स्कूल सहित आधा दर्जन स्कूल, सरकारी अस्पताल, मंदिर, मस्जिद, मजार, धर्मशाला और 5 हजार से ज्यादा घर होने के बावजूद इस बस्ती को नेस्तनाबूत करने का फरमान जारी किया गया है। फिलहाल जो मोहलत है, वह सुप्रीम कोर्ट से मिली है, लिहाजा सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर यहां के एक-एक बाशिंदे की नजर लगी हुई है।

बनभूलपुरा की एक गली में लोगों के घर।

बनभूलपुरा के मौजूदा हालात देखने और यहां रहने वालों से बातचीत करने से पहले इस बस्ती को लेकर चल रहे विवाद पर एक नजर डालते हैं। 1900 के आसपास जब हल्द्वानी एक बड़ी मंडी के रूप में विकसित हो रहा था तो यहां कामगारों की जरूरत पड़ी। अंग्रेजों ने अलग-अलग जगहों से कामगारों को बुलाकर इस जमीन में बसाना शुरू किया। ज्यादातर को जमीन पट्टे पर दी गई।

बाद के दौर में हल्द्वानी एक प्रमुख शहर की शक्ल लेता रहा और कामगारों की बस्ती बनभूलपुरा का दायरा भी बढ़ता चला गया। इसी बीच यहां से काठगोदाम तक रेलवे लाइन बिछाई गई। जमीन को लेकर पहली बार विवाद 2007 में सामने आया। जब रेलवे ने दावा किया कि हल्द्वानी स्टेशन से लगती गफूरबस्ती वाली जमीन उसकी है। मामला सुप्रीम कोर्ट में गया और सुप्रीम कोर्ट से गफूरबस्ती को स्टे मिला। गफूरबस्ती बनभूलपुरा का ही एक हिस्सा है।

2016 में अचानक रेलवे ने दावा किया कि रेलवे लाइन से लगती 29 एकड़ भूमि, जिस पर बनभूलपुरा बसा है, वह उसकी है। प्रशासन की मौजूदगी में रेलवे ने पिलर लगाकर डिमार्केशन भी कर दिया। बताया जाता है कि यह डिमार्केशन 29 एकड़ के बजाय 81 एकड़ जमीन में किया गया। यहां के निवासी एक बार फिर सुप्रीम कोर्ट पहुंचे। सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट को आदेश दिया कि पीड़ित पक्ष की सुनवाई की जाए। हाईकोर्ट ने यह काम रेलवे कोर्ट को सौंप दिया। रेलवे कोर्ट में 4,365 मकानों का मामला सुनवाई के लिए पहुंचा। वर्ष 2021-22 में रेलवे कोर्ट ने पीड़ित पक्ष से आने वाली आपत्तियों को खारिज करना शुरू कर दिया। इसी के साथ कुछ लोग जिला अदालत जाने लगे।

रेलवे कोर्ट में हुए फैसलों के आधार पर रेलवे ने जिला प्रशासन से बस्ती को हटाने के लिए मदद मांगी। ऐसा पत्र दो बार डीएम को लिखा गया, लेकिन डीएम ऑफिस की ओर से जवाब नहीं मिला। रेलवे के पत्र को आधार बनाकर एक स्थानीय व्यक्ति रवि शंकर ने हाईकोर्ट में जनहित याचिका दायर कर दी। इस बिना पर कि प्रशासन बस्ती को हटाने में मदद नहीं कर रहा है। हाईकोर्ट ने कुछ सुनवाइयों के बाद 20 दिसम्बर 2022 को वह फैसला दिया, जिससे न सिर्फ बनभूलपुरा, बल्कि पूरे हल्द्वानी और राज्यभर में उबाल आ गया। हाईकोर्ट ने अखबार में विज्ञापन देने और मुनादी के माध्यम से लोगों को 8 दिन का वक्त देने और 8 दिन बाद पूरी बस्ती को ध्वस्त करने के आदेश दे दिये।

बनभूलपुरा में मस्जिद और दुकानें।

रेलवे और प्रशासन मानों फैसले का इंतजार कर ही रहे थे। बनभूलपुरा में बुलडोजर और पोकलैंड मशीनों के साथ भारी संख्या में पुलिस बल तैनात कर दिये गये। दूसरी तरफ स्थानीय लोग भी लामबंद होकर धरना-प्रदर्शन करने लगे। हाईकोर्ट के फैसले के विरोध में दर्जनों याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट में लगाई गईं। 5 जनवरी तक लोग तोड़-फोड़ रोकने में सफल रहे। इसी दिन सुप्रीम कोर्ट ने तोड़फोड़ पर तीन महीने के लिए रोक लगा दी। इसी के साथ रेलवे और राज्य सरकार को जमीन संबंधी दस्तावेज पेश करने के लिए कहा।

सुप्रीम कोर्ट ने साथ ही यह भी कहा कि 50 हजार लोगों को रातों-रात बेघर नहीं किया जा सकता। लोगों के पुनर्वास के लिए सरकार के पास क्या प्लान है, उसे भी कोर्ट में पेश करने के आदेश दिये गये। अगली सुनवाई पर रेलवे ने 8 हफ्ते का वक्त मांगा। 8 हफ्ते बाद राज्य सरकार ने 4 हफ्ते की मोहलत मांगी। अब सुप्रीम कोर्ट ने अंतिम फैसला होने तक बस्ती को तोड़ने पर रोक लगाई है और अगस्त में अगली सुनवाई तय की है। फिलहाल न तो रेलवे जमीन अपनी होने का दस्तावेज पेश कर पाया है और न राज्य सरकार पुनर्वास प्लान बता पाई है।

बनभूलपुरा में 4200 परिवार मुस्लिम हैं, जबकि करीब 800 हिन्दू परिवार हैं। हमने यहां दोनों समुदायों के लोगों से बातचीत करने का प्रयास किया। मुस्लिम समुदाय के लोगों का साफतौर पर कहना है कि बीजेपी जानबूझकर यह सब करवा रही है। उनका तर्क है कि हल्द्वानी विधानसभा क्षेत्र में मुस्लिम वोटर निर्णायक स्थिति में हैं। पिछले चुनाव में 50 हजार मुस्लिम वोट कांग्रेस को पड़े थे। मुस्लिम वोटों के कारण बीजेपी यहां कभी भी चुनाव नहीं जीत पाई। इसलिए बीजेपी एक ही झटके में बड़ी तादाद में मुस्लिम वोटर्स को यहां से हटाना चाहती है। हिन्दू समुदाय के लोग भी किसी न किसी रूप में इस तर्क से सहमत नजर आ रहे हैं।

बनभूलपुरा को लेकर लगातार कवरेज करने वाले स्थानीय पत्रकार सरताज आलम बनभूलपुरा के सरकारी अस्पताल का उदाहरण देते हैं। वे बताते हैं कि करीब 20 वर्ष पहले इस अस्पताल की जमीन को लेकर विवाद हुआ था। नगर निगम ने इस जमीन को अपनी बताकर एक व्यक्ति से केस लड़ा था, और केस जीतकर यह जमीन अस्पताल को दी गई थी। लेकिन आज जब रेलवे जमीन को अपना बता रहा है तो नगर निगम चुप बैठा हुआ है। वे इसे राजनीतिक साजिश का हिस्सा मानते हैं।

बनभूलपुरा में बैंक।

सरताज आलम कुछ समय पहले एक पेड़ काटने को लेकर हुए विवाद का भी जिक्र करते हैं। वे बताते हैं कि कुछ वर्ष पहले बनभूलपुरा में एक व्यक्ति ने अपने घर में एक पेड़ काट दिया था। यह घर रेलवे लाइन से करीब 100 मीटर दूर है। रेलवे ने पेड़ को अपना बताते हुए रेलवे कोर्ट में मुकदमा दायर किया। कोर्ट ने फैसला किया कि पेड़ रेलवे की जमीन में नहीं है। लेकिन आज वही रेलवे कोर्ट पूरे बनभूलपुरा को रेलवे की जमीन बता रहा है।

बनभूलपुरा में हमें मोहम्मद नाजिम सिद्धिकी मिले। वे कहते हैं कि हमारे पिताजी यहां आये थे। हमारा जन्म भी यहीं हुआ। अब अचानक कहा जा रहा है कि यह जमीन हमारी नहीं है। वहीं नईम का कहना है कि रेलवे लाइन से लगती गौला नदी में हर साल बाढ़ आती है। हर बाढ़ के बाद रेलवे लाइन कुछ मीटर खिसक जाती है। वास्तव में रेलवे की जमीन तो अब गौला नदी का रौखड़ बन गई है। रेलवे लाइन कई मीटर भीतर आ चुकी है और अब भी रेलवे लाइन से ही जमीन की पैमाइश की जा रही है। वे कहते हैं कि यह साजिशन किया जा रहा है।

हकीक आलम के पिता स्वतंत्रता सेनानी थे। वे कहते हैं कि यह जमीन केन्द्र सरकार ने स्वतंत्रता सेनानी कोटे में उनके पिता को दी थी। लेकिन अब इसे रेलवे की बताया जा रहा है। वे कहते हैं कि उन्हें जानबूझकर टारगेट किया जा रहा है। वे दूसरी जगह जाने के लिए तैयार हैं, लेकिन सरकार कहीं बसाना नहीं चाहती। वे सवाल करते हैं कि स्वतंत्रता सेनानी को आवंटित की गई जमीन क्या सरकार वापस ले सकती है? वे यह भी जानना चाहते हैं कि क्या देश में इससे पहले कहीं कोई ऐसा मामला सामने आया है।

बनभूलपुरा में लेन नंबर 17 में बड़ी मस्जिद के पास ही लड़कियों का सरकारी इंटर कॉलेज है। यहां कुछ चाय और अन्य चीजों की दुकाने हैं। दुकानों के बाहर करीब दो दर्जन बुजुर्ग और युवा बैठे हैं। सभी के चेहरों में चिन्ता की लकीरें हैं। शुरू में कोई बात करने के लिए तैयार नहीं होता। लेकिन, जब उन्हें विश्वास दिलाया जाता है कि हम आपके हक की लड़ाई में शामिल हैं तो धीरे-धीरे लोग बात करने लगते हैं और फिर इस मामले के हर पहलू पर खुलकर बातचीत होती है।

चाय की दुकान पर बैठे बनभूलपुरा के बाशिंदे।

नदीम बताते हैं, कि यहां लोगों के पास 1900 से 1990 तक के सरकार की ओर से दिये गये जमीन के पट्टे हैं। यदि जमीन रेलवे की थी तो दो-दो इंटर कॉलेज कैसे बन गये। रेलवे ने अपने जमीन पर सरकारी अस्पताल कैसे बनने दिया। नफीस अहमद बात को आगे बढ़ाते हैं, वो कहते हैं कि 20 मस्जिदें हैं पूरे बनभूलपुरा में और दो मंदिर। दो प्राइमरी स्कूल हैं। 20-22 मदरसे हैं, सरस्वती शिशु मंदिर भी है। क्या सरकार ये नहीं समझ पा रही है कि इस बस्ती को उजाड़कर पढ़ाई करने वाले इतने बच्चों के भविष्य का क्या होगा?

मोहम्मद शरीफ और इत्तेफाक अहमद जो अब तक चुप बैठे थे, वे भी अब चर्चा में शामिल हो जाते हैं। वे फिर से उस पेड़ का उदाहरण देते हैं, जिस पर रेलवे कोर्ट ने फैसला दिया था कि पेड़ रेलवे की जमीन में नहीं है। वे कहते हैं कि दरअसल उस समय समाज में हिंन्दू-मुस्लिम का जहर इतनी बुरी तरह नहीं फैला था। कोर्ट कचहरी में सभी को न्याय मिलता था। लेकिन पहले सौ मीटर दूरी की जमीन को भी रेलवे की जमीन न मानने वाला रेलवे कोर्ट अब 500 मीटर की दूरी तक को अपनी जमीन बता रहा है।

चर्चा आगे बढ़ी तो 20 दिसम्बर को नैनीताल हाईकोर्ट के फैसले पर बात शुरू हुई। इस फैसले पर अफसोस जताया गया। यहां तक बताया गया कि हाईकोर्ट का फैसला आने से पहले ही बुलडोजर और पोकलैंड मशीन के लिए टेंडर निकाल दिये गये थे। हालांकि इसका कोई पुख्ता सबूत नहीं मिल पाया। एक बात जो खासतौर पर इस बातचीत में सामने आई, वह यह कि यदि हल्द्वानी सहित राज्यभर का हिन्दू समुदाय इस लड़ाई में साथ नहीं देता तो लड़ाई आगे नहीं बढ़ पाती।

इस बातचीत के बाद हम बनभूलपुरा में रहने वाले हिन्दू समुदाय के लोगों से मिलने के लिए आगे बढ़ते हैं। घर के बाहर परचून की दुकान चलाने वाले विक्रम साहू मिलते हैं। बातचीत के दौरान उन्हीं के परिवार के मेवालाल साहू और दिलीप कुमार साहू भी आ जाते हैं। उन्हीं की दुकान के पास सड़क के किनारे आशा गुप्ता की सब्जी की रेहड़ी है। ये सभी लोग भी बस्ती को तोड़े जाने के खिलाफ हैं।

बनभूलपुरा में लोगों के घर।

वो कहते हैं कि हम सब हिन्दू और मुसलमान मिलकर लड़ेंगे और जब तक पुनर्वास की व्यवस्था नहीं हो जाती, तब तक अपने घर नहीं छोड़ेंगे। बेशक हमारे ऊपर ही सरकार बुलडोजर क्यों न चलवा दे। एक अन्य हिन्दू दुकानदार राजाराम केसरवानी कहते हैं कि हम वर्षों से यहां हैं। रेलवे बिना बात के आतंक का माहौल बना रहा है। यह जमीन रेलवे की है ही नहीं। यदि है तो इतनी बड़ी बस्ती बनने से पहले क्यों नहीं रोका गया।

हल्द्वानी में हमने बनभूलपुरा को बचाने के संघर्ष में शामिल सामाजिक कार्यकर्ता संजय रावत से मुलाकात की। संजय रावत ने बस्ती तोड़ने के खिलाफ अपने एक अन्य साथी के साथ सिर मुंडवा लिया था। संजय कहते हैं पहाड़ी समाज में पिता की मृत्यु पर सिर मुंडवाते हैं, लेकिन पिता की मृत्यु पर उन्हें ऐसा करना जरूरी नहीं लगा था। लेकिन, अब जबकि 50 हजार लोगों की छत का सवाल है तो उन्होंने सिर मुंडवाया। यह उनका विरोध का एक तरीका था। संजय कहते हैं कि बनभूलपुरा को किसी भी सूरत में तोड़ने नहीं दिया जाएगा।

(हल्द्वानी के बनभूलपुरा से त्रिलोचन भट्ट की ग्राउंड रिपोर्ट।)

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