सरकार से भरोसा उठने के बाद संदेशखाली के लोगों के पास क्या है विकल्प?

संदेशखाली के लोगों का सरकार पर से भरोसा उठ गया है। अब सवाल है कि भरोसा करें तो किस पर करें। भाजपा संदेशखाली की आग को जिंदा रखने पर आमादा है। हाल ही में बंगाल के दौरे पर आए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी इसमें थोड़ा सा घी डालते गए। कांग्रेस और वाममोर्चा भी इस आग को बुझने देने को तैयार नहीं है।

तो अब सवाल है कि संदेशखाली के लोग किसका हाथ थामेंगे। भाजपा का या वाममोर्चा और कांग्रेस का। कहते हैं कि दिल से जो आवाज निकलती है वही सच होती है। संदेशखाली के पूर्व माकपा विधायक निरापद सरदार को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया था। हाई कोर्ट से उन्हें जमानत मिली तो पूरा संदेशखाली ही लाल झंडों से पट गया था। यह एक अजीब दृश्य था क्योंकि 2011 के बाद से लोगों ने संदेशखाली में लाल झंडा नहीं देखा था। तो उस दिन जो हुआ क्या वही दिल की आवाज है।

भाजपा भी संदेशखाली को मुद्दा बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ रही है। विधानसभा में विपक्ष नेता शुभेंदु अधिकारी अभी तक हाई कोर्ट की अनुमति से दो बार संदेशखाली की यात्रा कर चुके हैं। पर संदेशखाली के मामले में सत्तारूढ़ दल के सवाल का जवाब तो सिर्फ निरापद सरदार के पास है। सत्तारूढ़ दल का सवाल है कि पहले आवाज क्यों नहीं उठाई थी। भाजपा के पास इसका कोई जवाब नहीं है।

इसका जवाब निरापद सरदार के पास है। उन्होंने 2012 और 2013 में विधानसभा में इस सवाल को उठाया था पर स्पीकर ने अनुमति नहीं दी थी यहां एक सवाल और भी है। निरापद सरदार की गिरफ्तारी के बाद संदेशखाली का लाल झंडों से पट जाना अचानक हुआ था या फिर माकपा ने इसके लिए जमीन तैयार की थी। यानी वामपंथी शेख शाहजहां और उसके गुर्गों के खिलाफ जमीन तैयार कर रहे थे और यही वजह है कि संदेशखाली में हजारों की संख्या में महिलाएं हाथ में बांस और झाड़ू लेकर मैदान में उत्तर आई थीं।

सरकार बचाव की मुद्रा में है भाजपा और कांग्रेस व वाममोर्चा के नेता सरकार को घेरने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं। संदेशखाली के खलनायक शेख शाहजहां को मजबूरन गिरफ्तार करना पड़ा है। जमीन लौटाने के लिए सरकार की तरफ से एक कमेटी बनाई गई है। यौन उत्पीड़न की शिकार महिलाओं की शिकायत सुनने के लिए हाई कोर्ट सख्त कदम उठाने जा रहा है। जब सत्तारूढ़ दल के खिलाफ इतने मसाले हो तो उसे उलझाने की कोशिश विपक्ष भला क्यों नहीं करेगा।

ममता बनर्जी कोलकाता में महिलाओं की रैली निकाल रही हैं। यह सरकार की धूमिल छवि को साफ करने का एक प्रयास है। अब सवाल यह है कि सरकार की इस लाचारगी का फायदा कौन उठाएगा। भाजपा या वाममोर्चा और कांग्रेस। इसका जवाब हम 2019 के लोकसभा और 2021 के विधानसभा चुनाव के परिणाम के आधार पर नहीं तलाश कर सकते हैं।

2021 के बाद बंगाल के सियासी माहौल में भारी बदलाव आया है। टीचर नियुक्ति घोटाले में सरकार के एक पूर्व वरिष्ठ मंत्री जेल में हैं, विधायक सहित कई आला अफसर भी जेल में हैं। राशन घोटाले में एक मंत्री जेल में हैं। मवेशी तस्करी मामले में तृणमूल कांग्रेस के जिला के एक बाहुबली नेता दिल्ली की तिहाड़ जेल में हैं। दूसरी तरफ युवा नेता मीनाक्षी मुखर्जी के नेतृत्व में युवाओं ने ब्रिगेड को भर दिया था। करीब एक माह तक चली इंसाफ यात्रा पश्चिम बंगाल के सभी जिलों से गुजरी थी।

अब माकपा के जुलूस में थके मांदे चेहरों के बजाय युवा नजर आने लगे हैं। ऐसे में सवाल उठता है क्या वामपंथी अपनी जमीन को मजबूत करने में कामयाब हुए हैं। यह सही है कि बंगाल में भाजपा का कोई वजूद नहीं था। माकपा के समर्थकों ने ही भाजपा में नाम लिखा कर उसे मजबूत बनाया है, क्योंकि उनके पास तृणमूल के हमले से बचाव के लिए और कोई विकल्प नहीं रह गया था। मसलन 2014 में माकपा को 24 फ़ीसदी और भाजपा को 17 फीसदी वोट मिले थे। फिर 2019 में माकपा का वोट 10 फीसदी घट गया और भाजपा के वोट में 14 फीसदी की वृद्धि हुई। यानी माकपा कार्यकर्ताओं का 2019 तक भाजपा से जुड़ने का सिलसिला जारी रहा था।

लिहाजा 2024 की तस्वीर कैसी होगी, यह कुछ सवालों के जवाब पर निर्भर करता है। क्या संदेशखाली का असर पूरे राज्य पर पड़ेगा। क्या माकपा कार्यकर्ताओं की भाजपा से वापसी होगी। क्या भाजपा और तृणमूल के संबंधों को लेकर बना घना कोहरा छट जाएगा या बना रहेगा। जैसे प्रधानमंत्री ने आरामबाग की सभा में तो ममता बनर्जी पर जमकर हमला बोला था लेकिन दो दिन बाद बारासात की एक सभा में उन्होंने ममता बनर्जी का नाम तक नहीं लिया। यह घटना राजनीतिक गलियारों में चर्चा का विषय बनी हुई है। यह इस संदर्भ में उल्लेखनीय है कि ममता बनर्जी ने इंडिया गठबंधन से अपना नाता तोड़ लिया है।

(कोलकाता से जेके सिंह की रिपोर्ट।)

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