तर्कशील लोकतंत्र और तर्कातीत चुनाव में आयुधीकृत अर्धसत्य का विष-प्रभाव

युवाओं का सभ्यता के विकसित होने में बड़ा योगदान रहा है। कहना न होगा कि ‎‘विकसित भारत’ ‎में भी युवाओं का महत्व कोई कम नहीं है। इस लिहाज से युवाओं का मन टटोलना स्वाभाविक है। मीडिया इस काम को बहुत सावधानी और संवेदनशील लहजे में संपन्न करता है। उनके सामने कोमल विकल्प और स्वस्थ सवाल रखा जाता है।

‘फर्स्ट टाइम वोटर’ ‎को ‎‘विकसित भारत’ से जोड़ने की चुनौती मीडिया के सिर पर है। अचानक ‘मीडिया स्टार’ सवाल पूछने के लिए बिल्कुल सामने आ जाये तो अच्छे-अच्छे ‘आम खाने का तरीका’ बताने लग जायें। ‎‘मीडिया स्टार’ के रुझान और ‘सरकार के समाधान’ से अवगत कोई भी युवा भला कह भी क्या सकता है?

आंदोलन में दिखे की फोटो से पहचान हासिल कर उन्हें किस प्रकार ‎‘सरकार के समाधान’ का सामना करना पड़ा उस से ‎‘फर्स्ट टाइम वोटर’ अवगत न हो तो, अचरज और सावधान न हों तो दुखद! ईमान की बात कहकर कौन अपना कैरियर के बिगाड़ का जोखिम उठायेगा भाई! लाइव प्रसारण करते हुए ‎‘मीडिया स्टार’ ‎का लक्ष्य हवा बनाने की कोशिश करना होता है। कैरियर बिगाड़ना नहीं, न अपना और न ‎‘फर्स्ट टाइम वोटर’ का!

आजादी के आंदोलन में युवाओं की क्रांतिकारी भूमिका को यह देश बहुत याद करता है। इस देश के युवा भी बहुत याद करते हैं। डिबेट वगैरह में काम आते हैं। उनके सामने कोर्स का तहखाना और विश्व ज्ञान का खजाना खुला होता है। इन में से कुछ तहखाना और खजाना के बीच आवाजाही करते हुए सपनों के पंख से फिसलकर अंधकार में गुम हो जाते हैं। सपनों के पंख से फिसलकर अंधकार में गुम हो जानेवाला साथी कब किस को याद रह जाता है! रहना चाहिए। ‎

‘मीडिया स्टार’ ने ‎बनारस हिंदू विश्वविद्यालय की एक छात्रा से सवाल पूछा तो उसने सामान्य कानून व्यवस्था को संतोषजनक बताया! कैमरा और वाणी को इस संतोषजनक जवाब को अपनी झोली में झट से डालकर हट जाना ही स्वाभाविक था! क्या सचमुच ‎‘फर्स्ट टाइम वोटर’ ‎ की मनःस्थिति उतनी संतोषजनक है, जितनी मीडिया में परिलक्षित हो रही थी! क्या पता! हो सकता है, ऐसा ही हो। ऐसा हो तो कितनी खुशी की बात है!

यह सच है कि ‎‘फर्स्ट टाइम वोटर’ ‎का चुनाव के नतीजों पर जो भी प्रभाव पड़े, उन के भविष्य पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ना चाहिए। ‎‘मीडिया स्टारों’ ‎के सवालों पर ‎‘फर्स्ट टाइम वोटर’ या सामान्य मतदाताओं की जो भी प्रतिक्रिया होती है, उसे महत्वपूर्ण तो माना जा सकता है लेकिन अंतिम मान लेना ठीक नहीं। यह जरूर है कि इस बार का चुनाव बहुत कठिन है। सत्ता के शिखर से सत्य-विलोपन के प्रयास में झूठ का प्रसार, अपप्रचार, कुप्रचार, आरोप, प्रत्यारोप बिना किसी चुनौती के बेरोक-टोक जारी है उस से स्थिति अधिक भयावह हो गई है।

घोषणापत्र कहें या संकल्प-पत्र कहें, नाम में क्या रखा है! किसी के मकान पर किसी अन्य के द्वारा अपनी नामपट्टी झुला देने से मकान नामपट्टी झुला देनेवाले का थोड़े न हो जाता है, यही उत्तम ज्ञान हमारे काम का है! यह उत्तम ज्ञान शेक्सपियर के ज्ञान से भिन्न किस्म का है। बहुत ही स्वाभाविक है कि भारत ने चीन द्वारा अरुणाचल प्रदेश के ग्यारह स्थानों ‎के नाम बदले जाने पर अपनी आपत्ति जताई और कड़ी प्रतिक्रिया दी। भारत के ‎विदेश मंत्रालय ने कहा कि इस तरह की घटनाएं पहले भी हुई हैं। जाहिर है, भारत ‎ने पहले भी आपत्ति जताई होगी और कड़ी प्रतिक्रिया भी दी होगी। लेकिन सिलसिला ‎रुका नहीं। सिलसिला का न रुकना, भारत के कूटनीतिक रुआब में किसी कमी का तो संकेत नहीं है न! ‎नहीं है तो फिर कोई बात नहीं, हमें मानकर चलना चाहिए कि ‘न किसी ने कुछ ‎बदला था, न बदला है और न बदलेगा’!‎

चुनाव में विभिन्न राजनीतिक दल अपना-अपना घोषणापत्र जारी करते हैं। अगले पांच साल में शासन और सेवा के बारे में अपना-अपना नजरिया सामने रखते हैं। अगले पांच साल के लिए जनादेश की मांग करते हुए ये दल पचास साल का खाका खींचते हैं। ऐसा करते हुए अपने स्वप्न का व्यापक प्रसार करते हैं। अब सपनों का कोई सबूत तो होता नहीं है! ‘स्व-प्रमाणित’ सपनों के प्रसार में ‘सत्ता रक्षण’ की ही आकांक्षा छिपी रहती है। घोषणापत्र के संदर्भ में एक प्रवृत्ति यह भी है कि ‘लिखतम’ और ‘बकतम’ में तात्विक फर्क देखने में आता है। रैलियों में कही गई बातों का बाद में कोई मोल नहीं रह जाता है। रैलियों कही गई बातों का घोषणापत्र में लिखित तथ्य से मिलान की कोई व्यवस्था नहीं है। जनता शब्द से नहीं चित्र से पहचानती है। चित्र की कथा विचित्र है, हर जगह चित्र-ही-चित्र है, चित्र ही चरित्र है।

जनविद्वेषी बयानबाजी (Hate Speech) से कम खतरनाक भ्रामक वाग्मिता (Misleading Rhetoric)‎ नहीं होती है। भ्रामक वाग्मिता के भ्रम निवारण का काम मीडिया कर सकता है, लेकिन मीडिया तो खुद तथ्यों के भ्रमाच्छादन के खेल में रात-दिन एक किये रहता है! चुनाव आयोग कुछ कर सकता है! हां कर सकता है, बहुत कुछ कर सकता है। करेगा क्या! क्या पता!

नागपुर में हाई कोर्ट बार एसोसिएशन के शताब्दी वर्ष समारोह‎ के भव्य कार्य-क्रम ‎में भारत के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने जीवंत और तर्कशील लोकतंत्र में ‎कानून और संविधान के शासन की रक्षा और नैतिक कवच की उत्साहवर्धक बात ‎कही। उन्होंने कानूनी पेशे में डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर की दीक्षा के सौ साल पूरे ‎होने के ‎सम्मान की भी बात कही।

एक बार फिर मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने ‎‎न्यायपालिका‎ के ‘चौड़े कंधे’ की ‎बता कही है। आम जनता तो यही चाहती है कि ‎लोकतंत्र में जब राजनीति की ‘छाती ‎चौड़ी’ हो जाये तब न्यायपालिका के साथ-‎साथ सभी संवैधानिक संस्थाओं के ‘कंधे ‎चौड़े’ हो जाने चाहिए। संवैधानिक ‎संस्थाओं का निष्पक्ष और स्वतंत्र रहना ही उसका ‎न्यायपूर्ण होना होता है। भारत का संविधान हर न्यायपूर्ण कर्तव्य निर्वाह के लिए संवैधानिक और नैतिक कवच प्रदान करता है। इसलिए चुनाव आयोग से आम भारतीय उम्मीद है कि वह भ्रामक वाग्मिता (Misleading Rhetoric)‎ की न्याय संगति पर थोड़ी गहराई से सोचे। हां, बिल्कुल ठीक सोचे ही नहीं कुछ करे भी जरूर।‎

ध्यान देने की बात है कि 1924 में बाबासाहेब ‎ने दलितों को समाज में बराबरी का स्थान दिलाने ‎के लिए बहिष्कृत हितकारिणी सभा की स्थापना की। 2024 बहिष्कृत हितकारिणी सभा की ‎स्थापना ‎का भी शताब्दी वर्ष है। यह सच है कि ‘पचकेजिया नागरिक’ में न्याय का ग्राहक बनने की आर्थिक और बौद्धिक क्षमता ‎नहीं होती है। उसे न्याय उसी तरह मिलता है, जैसे गरीब किसान के खेत को पटवन का पानी मिलता है। जैसे गरीब किसान के खेत की प्यास बरसात के पानी से मिटती है, वैसे ही गरीब को न्याय मिलता है।

शक्ति संपन्न राजनीतिक दल स्वाभाविक रूप से सुरक्षा कवच से सज्जित और रक्षित‎ होता है। सर्वसत्तावादी और एकाधिकारवादी व्यक्ति एक बार भी सत्ता पर काबिज हो जाये तो लोकतंत्र के लिए बहुत बड़ा संकट खड़ा हो जाता है। सत्ता के हजार दृश्य-अदृश्य हाथ होते हैं। सत्ता एकाधिकारवादी हो तो फिर क्या कहने! ‎‘सहस्रबाहु सत्ता’ से किसी भी राजनीतिक दल के लिए मुकाबला बहुत कठिन होता है। सत्ता का हितपोषक बन गये मीडिया की भूमिका भी बहुत खतरनाक होती है। सत्ता पक्ष के प्रति अतिरिक्त झुकाव और विपक्ष के प्रति हिकारती दुराव के प्रसार में ऐसा मीडिया राजनीतिक सहयोगी (पॉलिटकल पार्टनर) की भूमिका में आ जाता है।

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एक प्रमुख लोकतांत्रिक मूल्य है। कोई भी मूल्य चाहे वह जितना भी महत्वपूर्ण हो उसके व्यवहार में निष्पक्षता का स्थाई अभाव उसे अनिवार्य रूप से जहरीला बना देता है। स्थाई पक्षपातपूर्ण रवैया ‎‘अमृत में विष’‎ की नामुमकिन स्थिति को मुमकिन कर देता है। विषाक्त हितैषिता ‎के मारे का कोई इलाज नहीं होता है। मूर्खों का स्वर्ग हो या ज्ञानियों का नरक, दोनों काल्पनिक हैं।

लेकिन चुनाव प्रचार में मूर्खों के स्वर्ग और ज्ञानियों के नरक की काल्पनिकताओं के बीच वास्तविक स्नायु युद्ध और संघर्ष होता है! कभी-कभार चुनाव संघर्ष के लिए समान अवसर (Level Playing Field)‎ सुनिश्चित हो जाने से वास्तविक मुद्दों के आधार पर भी चुनाव का क्रिया-कलाप स्वस्थ तरीके से संपन्न होता है। बाकी बेमेल अवसरों पर जनता खुद अपने-अपने मोर्चे पर पूरी ताकत से डट जाती है।

लेकिन, मुश्किल और मुसीबत भारत जैसे तर्कशील लोकतंत्र में है। यहां, ‘पढ़े-लिखे’ लोगों में राजनीतिक समझ मंद और राजनीतिक बकवास की प्रवृत्ति उग्र है। हां, यह भी सच है कि आज की राजनीतिक जटिलताओं और सामाजिक अंतर्विरोधों की असंवैधानिक चोटिलताओं के बीच राजनीतिक समझ की दुर्लभता और असंगतियों का होना बहुत अस्वाभाविक नहीं कहा जा सकता है। सब से बड़ी बाधा स्व-हित की भ्रामक समझ से उत्पन्न लाइलाज स्वार्थंधता होती है।

सार्वजनिक स्थलों पर लोगों की मनःस्थिति को टटोलते हुए कैमरा और वाणी का कमाल ऐसा कि उस के निष्कर्षों की विश्वसनीयता पर कोई सवाल ही न खड़ा हो सके। सावधानी यह कि एक तरफ से यह कहना कि 1-2 प्रतिशत के इधर-उधर से भी नतीजों में भारी उलटफेर हो सकता है। दूसरी तरफ अपने निष्कर्षों पर यह कहना कि सर्वेक्षण में 5 प्रतिशत इधर-उधर हो सकता है। ऐसा है तो, फिर सर्वेक्षण को मीडिया में लाकर उस पर ‎‘गंभीर चर्चा’ ‎ की जरूरत ही क्या हो सकती है!

चुनाव में महाभारत की घटनाओं की बार-बार याद आती है। महाभारत के न्याय युद्ध में ‎ सत्य को खंडित कर अर्धसत्य का आयुधीकरण नहीं हुआ था क्या हुआ था! ‘नरो वा कुंजरो’ आयुधीकृत अर्धसत्य ही तो था न! खंडित आत्मीयता और विभक्त निष्ठा के आयुधीकरण की भयावह परिस्थिति, लोकतंत्र के गर्भगृह में! महाभारत में यदा-कदा आयुधीकृत अर्धसत्य‎ का इस्तेमाल मिलता है। तर्कशील लोकतंत्र और तर्कातीत चुनाव में आयुधीकृत अर्धसत्य‎ का इस्तेमाल ‎बार-बार और बेरोक-टोक हो रहा है!

सभी अपने हैं, लेकिन आत्मीयता खंडित है। सभी निष्ठावान हैं, लेकिन निष्ठा विभक्त है। सभी सत्य के पुजारी हैं, लेकिन सत्य भ्रमाच्छादित है। भ्रष्टावतार के हाथ में भ्रमास्त्र का लीला कमल है। लोकतंत्र की लाचारी है, तथ्यों के भ्रमाच्छादन का खेल जारी है। खंडित आत्मीयता और विभक्त निष्ठा के आयुधीकरण और भ्रामक वाग्मिता (Misleading Rhetoric)‎ के दौर में मतदाताओं के मन और मंतव्य ‎के सारांश को मत-सर्वेक्षण के माध्यम से मीडिया कुछ इस तरह से सामने लाने की कोशिश करता है, कि पलड़ा वर्तमान सत्ता पक्ष की तरफ झुकता हुआ प्रतीत हो।

परिवर्तन प्रकृति का अपरिवर्तनीय नियम है और परिवर्तन भीरुता मनुष्य का स्वाभाविक गुण है। मनुष्य की इस स्वाभाविक मनोवृत्ति से सत्तापक्ष को शुरुआती बढ़त मिल जाती है। इन सब के बावजूद लोकतंत्र में सत्ता परिवर्तन होता है। जीवन की स्वाभाविकता पर छाये हुए शासकीय संकटों का दबाव अंततः मनुष्य की परिवर्तन भीरुता और जड़ता को तोड़ देता है। इस बार चुनाव नहीं, चुनौती है! उम्मीद है, इस चुनौती का मुकाबला भारत का लोक अपनी अंतरात्मा के बल पर सफलतापूर्वक कर लेगा। उम्मीद से लोकतंत्र है।

(प्रफुल्ल कोलख्यान स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं)

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