धर्मांतरण के नाम पर हंगामा कर गायब किए जा रहे उत्तराखंड वासियों के असली मुद्दे

Estimated read time 1 min read

देहरादून। दशकों तक चली अलग उत्तराखण्ड राज्य की मांग के पीछे एक प्रमुख कारण इस हिमालयी क्षेत्र की सांस्कृतिक पहचान बनाये रखना भी था। इसी आधार पर उत्तराखण्ड के पड़ोसी हिमाचल प्रदेश के अस्तित्व की मांग को मान्यता मिली थी और शुरू में 28 रियासतों के पहाड़ी क्षेत्र को हिमाचल प्रदेश के रूप में भारत सरकार ने मान्यता देने के साथ ही उसे पंजाब से जोड़ने का इरादा त्याग दिया था। 1971 में पूर्ण राज्य के अस्तित्व में आने के बाद फिर पहाड़ी राज्य की सांस्कृतिक पहचान का सवाल जब अनुत्तरित रहा तो आधुनिक हिमाचल के निर्माता डॉ यशवन्त सिंह परमार के नेतृत्व में गठित सरकार ने ‘हिमाचल प्रदेश लैंड टेनेंसी एण्ड रिफार्म एक्ट 1972’ बनाया जिसकी धारा 118 के अनुसार गैर कृषक को हिमाचल में कृषि योग्य भूमि की खरीद प्रतिबंधित कर दी गयी।

उत्तराखण्ड राज्य की मांग के पीछे भी सबसे बड़ी चाह पहाड़ की संस्कृति को अक्षुण्ण रखने की थी। इसके लिये जनसांख्यिकी के संरक्षण के लिये संविधान के अनुच्छेद 171 की मांग तो थी मगर व्यवहारिक पक्ष हिमाचल प्रदेश की तरह भूमि कानून की ओर था। वजह यह कि भारत का संविधान जाति और धर्म के आधार पर संपत्तियों की खरीद फरोख्त पर रोक की सोच भी नहीं सकता था।मगर गैर कृषकों को कृषि योग्य भूमि की खरीद फरोख्त पर नियंत्रण अवश्य कर सकता था। इसलिये उत्तराखण्ड में भी हिमाचल प्रदेश की तरह भू-कानून की मांग उठी और प्रदेश के पहले निर्वाचित मुख्यमंत्री, जो कि उस दौर में भारत के सबसे अधिक अनुभवी मुख्यमंत्री थे, नारायण दत्त तिवारी ने हिमाचल की तर्ज पर जमींदारी विनाश एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम में संशोधन कर नया भू-कानून बनाया था।

हालांकि विधानसभा द्वारा पारित भू-कानून और उससे पहले हिमाचल की तर्ज पर बने भू-कानून के अध्यादेश में अंतर आ चुका था। फिर भी राज्य की जनता ने उसे स्वीकार कर लिया था। तिवारी जी के हस्ताक्षर से उस कानून की प्रस्तावना में साफ लिखा गया था कि यह एक पहाड़ी और सीमान्त क्षेत्र है इसलिये यहां जमीनों की खरीद फरोख्त को नियंत्रित करना राष्ट्रीय सुरक्षा और सांस्कृतिक पहचान को बनाये रखना और उसके लिये जनसांख्यिकी को पूर्ववत् बनाये रखना जरूरी है।

लेकिन जब तिवारी के इस कानून पर 2017 के बाद छेद किये गये तो पहाड़ों में जमीनों की खरीद फरोख्त आसान कर दी गयी। उसका नतीजा यह हुआ कि पहाड़ की प्राइम लैंड बिक चुकी है और पहाड़ की सांस्कृतिक पहचान अस्तव्यस्त हो गयी है। सांस्कृतिक पहचान केवल धर्म बदलने के कारण नहीं बल्कि मैदानी संस्कृतियों के कारण गड़बड़ा रही है।

धर्मान्तरण से सांस्कृतिक पहचान जरूर बिगड़ती है लेकिन इसका सर्वाधिक लाभ राजनीति को मिलता है। इसीलिये आज उत्तराखण्ड के सभी ज्वलन्त मुद्दे पीछे छोड़ कर केवल धर्मान्तरण पर हल्ला हो रहा है। भारत हजारों संस्कृतियों का एक गुलदस्ता है और जरूरी नहीं कि धर्म बदलने से संस्कृति पूरी तरह बदल जाय।

पहाड़ों में गढ़वाली/कुमाऊंनी गीतों से अधिक पंजाबी गाने ज्यादा लोकप्रिय हो रहे हैं। पहाड़ी लोग अपने त्योहार और बोलियों के बजाय मैदानी क्षेत्र के त्योहारों और रिवाजों को अपना रहे हैं। फिर भी अभी तक वे पांच बार की नमाज तो नहीं अपना रहे हैं। पूर्वोत्तर के राज्य नागालैंड, मिजोरम और मेघालय जैसे राज्यों में 80 प्रतिशत के लगभग आबादी इसाई बन चुकी है लेकिन उनकी संस्कृति नहीं बदली। उत्तराखण्ड के चकराता के एक पादरी का नाम आज भी सुन्दर सिंह चैहान ही है।

धर्मान्तरण एक स्वभाविक प्रक्रिया है और उत्तराखण्ड भी इसका अपवाद नहीं है। इतिहास गवाह है कि यहां धर्मान्तरण के लिये सबसे अधिक संवेदनशील अनुसूचित जातियां और जनजातियां रही हैं। वह इसलिये कि उनको समाज में बराबरी का दर्जा नहीं मिला। पहाड़ी भू-भाग होने के कारण औरंगजेब जैसे मुगल शासक उत्तराखण्ड के पहाड़ों में धर्मान्तरण नहीं करा सके। लेकिन अंग्रेजों के द्वारा उत्तरखण्ड को कब्जे में लिये जाने के बाद से ही मिशनरियां यहां सक्रिय हो गयी थीं और सबसे पहले उनके निशाने पर सीमान्तवासी भोटिया ही रहे। क्योंकि भारत के बाद उनके निशाने पर तिब्बत ही था।

इसलिये सबसे पहले 1862 में धारचूला में मिशनरी स्कूल खुला। 1873 में डॉ ग्रे को धर्म प्रचार के लिये पिथौरागढ़ भेजा गया। 1877 में एन्नी बुड्डेन ने भटकोट और उसके आसपास इसाई धर्म का प्रचार किया। 1878 में प्रतिष्ठित जोहारी नागरिक उत्तम सिंह रावत ने धर्म परिवर्तन किया। जबकि जोहारी भोटिया स्वयं का श्रेष्ठ राजपूत मानते हैं। 1893 में डॉ शेल्डाॅन मिशनरी प्रचार के लिये धरचूला पहुंची। मिशनरियों को लगता था कि ब्राह्मणों का धर्म परिवर्तन मुश्किल होगा, इसलिये उनका जोर जनजातियों और अनुसूचित जातियों पर था। (पुस्तक बदलते दौर से गुजरती जनजातियां) लेकिन उत्तराखण्ड के महान स्वाधीनता सेनानी और पत्रकार विक्टर मोहन जोशी के पिता एक प्रतिष्ठित नागरिक होते हुये भी इसाई बन गये थे।

इन दिनों समाज में विद्वेष फैलाने के लिये भले ही साम्प्रदायिक तत्वों द्वारा धर्मान्तरण के फर्जी आंकड़े सोशल मीडिया पर प्रसारित किये जाते रहे हैं। मगर असली स्थिति जनगणना से ही सामने आ सकती है। वही प्रमाणिक आंकड़े भी होंगे। अभी तक 2011 की जनगणना के आंकड़े ही उपलब्ध हैं। इन आकड़ों के अनुसार धर्मान्तरण लगभग सभी धर्मों में हुआ है। अनुसूचित जातियों के साथ सदियों से भेदभाव होता रहा है। इसलिये उन्होंने अस्पृष्यता से मुक्ति के लिये धर्मान्तरण किया है। स्वयं बाबा सहेब अम्बेडकर बौद्ध बन गये थे।

पूर्वाेत्तर भारत की ही तरह उत्तराखण्ड में भी मिशनरियों का ध्यान जनजातियों पर ही है। चकराता, मोरी और खटीमा विकासखण्डों में धर्मान्तरण मिशनरियों द्वारा भी कराया जा रहा है। पिछले साल क्रिसमस के दो दिन पहले उत्तरकाशी के पुरोला में बड़ी संख्या में धर्मांतरण के आरोप में दो गुटों में तनाव हो गया था। जिसके बाद एक पादरी पर केस दर्ज कर लिया गया था। पुरोला तहसील के अलग-अलग गांवों में सेब के बगीचों में रह रहे नेपाल मूल के लगभग 27 परिवारों का धर्मान्तरण करा कर उनके द्वारा मिशन आगे बढ़ाने का प्रयास किया जा रहा था।

करीब 11 साल पूर्व भी विकासखंड मोरी के आराकोट बंगाण पट्टी के कलीच गांव में भी दर्जनों परिवारों पर मतांतरण का आरोप लगा था। उस समय दोनों पक्षों के 69 व्यक्तियों के विरुद्ध ठडियार पटवारी चौकी में मारपीट और गालीगलौज का मुकदमा दर्ज हुआ था। लोगों ने रोहडू व त्यूणी से आने वाले मिशनरी के दो पादरियों के बार-बार आने की शिकायत प्रशासन से की थी। लेकिन शोर केवल लव जेहाद का ही है। मोरी ब्लाक में कलीच, आराकोट, ईशाली, जागटा, मैंजणी, थुनारा, भुटाणु, गोकुल, माकुडी, देलन, मोरा, भंकवाड़, बरनाली, डगोली एवं पावली आदि दर्जनों गांवों में हिमाचल से आए कुछ लोग सभाएं कर और पैसे का लालच देकर धर्म परिवर्तन के प्रयास करते रहे हैं।

2011 की जनगणना के आकड़ों पर गौर करें तो उत्तराखण्ड की पांचों जनजातियों के लोगों में से 2,87,809 ने स्वयं को हिन्दू बताया है। शेष 437 ने इसाई, 364 ने सिख, 1141 ने बौद्ध और 7 ने स्वयं को जैन बताया है। जबकि मूल रूप से सभी हिन्दू ही थे। भोटिया जनजाति के 30 लोगों ने स्वयं को इसाई, 45 ने मुसलमान और 6 ने सिख बताया है। इसी प्रकार बुक्सा समुदाय में 5 ने स्वयं को इसाई और 23 ने सिख बता रखा है। पिछली जनगणना में 53 थारुओं ने स्वयं को इसाई और 25 ने सिख के साथ ही 124 ने मुसलमान बता रखा है।

ऊधमसिंहनगर जिले के खटीमा ब्लाक के मोहम्मदपुर भुड़िया, जोगीठेर नगला, सहजना, फुलैया, अमाऊं, चांदा, मोहनपुर, गंगापुर, भक्चुरी, भिलय्या, टेडाघाट, नौगवा ठगू, पहनिया, भूड़िया थारू आदि गांवों के कई थारू परिवार धर्म परिवर्तन कर इसाई बन गए हैं। तराई क्षेत्र ही नहीं बल्कि जनजाति क्षेत्र जौनसार बावर के दलितों और खास कर कोल्टा जाति के लोगों पर भी मिशनरियों की नजर टिकी हुयी है।

चकराता में सुन्दर सिंह चैहान को मिशनरियों ने धर्मान्तरण करा पादरी तो बना दिया मगर उसका नाम और जाति नहीं बदली। वास्तविकता यह है कि जौनसार में कोल्टा और अन्य अनुसूचित जाति के लोग मिशनरियों द्वारा सम्मान की जिन्दगी देने और अस्पृस्यता से मुक्ति दिलाने के वायदे से काफी प्रभावित हो रहे हैं। अस्पृस्यता वास्तव में बहुत बड़ा सामाजिक कलंक है, और इस दाग़ से मुक्ति पाये बिना मिशनरियों का विरोध बेमानी है।

(जयसिंह रावत वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments

You May Also Like

More From Author