लेफ्ट की नाकामियां हैं, लेकिन नाउम्मीदी की वजह नहीं

यूरोप में इसी महीने जारी हुई दो अध्ययन रिपोर्टों ने वहां लिबरल डेमोक्रेसी- यानी उदार लोकतंत्र के लिए बढ़ते खतरों पर रोशनी डाली है। इनमें पहले से कही जा रही इस बात को दोहराया गया है कि यह खतरा पॉपुलिज्म, धुर-दक्षिणपंथ या धुर-वामपंथ की तरफ मतदाताओं के बढ़ते रुझान से पैदा हो रहा है। दोनों रिपोर्टों का निष्कर्ष है कि परंपरागत लेफ्ट पार्टियों का समर्थन काफी घट गया है। इसके बावजूद एक रिपोर्ट कहती है कि लेफ्ट के लिए नाउम्मीदी की कोई वजह नहीं है।

कारण यह कि जो वंचित श्रमिक वर्ग है, वह अब भी उसे ही वोट देता है। यह जरूर है कि श्रमिक वर्ग का नेचर (प्रकृति) बदल गया है। वैसे अगर पहली रिपोर्ट में भी जो तथ्य बताए गए हैं, अगर हम उनका निहितार्थ समझने की कोशिश करें, तो उनमें हम वास्तविक लेफ्ट के लिए नए अवसरों के संकेत देख सकते हैं।

बहरहाल, इस विमर्श में जाने से पहले उचित यह होगा कि ऊपर इस्तेमाल हुए शब्दों का अर्थ (कम-से-कम यूरोप में) अब कैसे समझा जा रहा है, उस पर एक नजर डाल लें। सबसे पहले पॉपुलिज्म या पॉपुलिस्ट शब्द को लेते हैं। पश्चिमी शासकवर्गीय विमर्श में इस शब्द का इस्तेमाल उन ताकतों की पहचान के लिए होता है, जो वहां काबिज शासक-तंत्र को चुनौती देती नजर आती हैं। इस विमर्श में उदार लोकतंत्र का मतलब वित्तीय पूंजीवाद के आर्थिक दायरे में रहते हुए चुनावी व्यवस्था को बरकरार रखने से है। उनकी अपेक्षा यह रहती है कि उदार लोकतांत्रिक ताकतें इस व्यवस्था, इससे नियंत्रित मीडिया विमर्श, और इससे जुड़ी संस्थाओं को चुनौती ना दें।

यानी पश्चिमी मीडिया या थिंक टैंक या नव-उदारवादी ताकतें जब लोकतंत्र कहते हैं, तो उसका मतलब वर्गीय यथास्थिति के संचालन की व्यवस्था से होता है। जो शक्तियां दक्षिणपंथ या वामपंथी की तरफ से इस व्यवस्था पर सवाल उठाती हैं या इसे चुनौती देती हैं, उन्हें पॉपुलिस्ट करार दिया जाता है।

नव-उदारवादी व्यवस्था ने बड़ी संख्या में लोगों को बुनियादी सुविधाओं से वंचित किया है, जिससे उनके जीवन स्तर में भारी गिरावट आई है। इसलिए तथाकथित पॉपुलिस्ट नेताओं या पार्टियों को समर्थन देने वाले लोग बड़ी संख्या में इकट्ठे होते चले गए हैँ। जाहिर है, ऐसे नेता या पार्टियां लोक-लुभावन वादे करके और जारी व्यवस्था की वैधता को चुनौती देते हुए अपने लिए समर्थन जुटाते हैँ।

लिबरल डेमोक्रेसी के तहत पिछले पांच दशकों में लेफ्ट और राइट (वामपंथ और दक्षिणपंथ) के बीच आर्थिक मसलों पर मतभेद कम होते हुए अब लगभग समाप्त हो चुके हैँ। इसलिए उनका राजनीतिक एजेंडा सामाजिक और सांस्कृतिक दायरों में सिमट गया है।

सिर्फ इसी तरह के मुद्दों पर उनके बीच मतभेद होता है, जिन्हें हवा देते हुए ये पार्टियां चुनाव मैदान में उतरती हैं। इस परिघटना को इस रूप में भी कहा जा सकता है कि आर्थिक नीति और विचारधारा को लिबरल डेमोक्रेसी के तहत बहस से बाहर कर दिया गया है। तो जो यूरोप या अमेरिका में बहस होती है, वह नस्लवाद से जुड़े मुद्दों, लैंगिक (जेंडर) सवालों, यौन अल्पसंख्यकों (समलैंगिक- ट्रांसजेंडर-बाइसेक्सुअल व्यक्तियों- एलजीबीटीक्यू) के अधिकारों, या जलवायु परिवर्तन को एक वैज्ञानिक सच के रूप में मानने या ना मानने जैसे मुद्दों पर सिमटी रहती है।

जैसे-जैसे नव उदारवादी नीतियों से वंचित होने वाले लोगों की संख्या बढ़ी है, इन बहसों को और तीखा रूप देने की कोशिश शासक वर्ग की तरफ से हुई है। उसका परिणाम धुर-दक्षिणपंथी/ नव-फासीवादी पार्टियों के मजबूत होने के रूप में सामने आया है। दूसरी तरफ अभी तक अपेक्षाकृत कमजोर- लेकिन संभावनापूर्ण ऐसी लेफ्ट पार्टियां भी उभर कर सामने आई हैं, जो लेफ्ट के असली एजेंडे- यानी आर्थिक मुद्दों और उससे जुड़े वर्गीय प्रश्नों को अपनी राजनीति का आधार बना रही हैं। इसके लिए उन्होंने अनेक प्रयोग किए हैं, जिनमें कई विफल रहे, लेकिन कुछ में उन्हें आंशिक सफलता भी मिली है।

पश्चिमी अर्थ में लेफ्ट एक व्यापक शब्द है। 20वीं सदी में (जब तक सोवियत संघ कायम था) लेफ्ट का मतलब मोटे तौर पर कम्युनिस्ट और सोशलिस्ट पार्टियों से समझा जाता था। सोशलिस्ट पार्टियां सोवियत प्रकार के ढांचे की आलोचना करती थीं, लेकिन कुल मिलाकर आर्थिक मुद्दों के आधार पर ही अपनी राजनीति को संगठित करती थीं।

मगर सोवियत बाद के काल में तमाम किस्म की ताकतों को लेफ्ट शब्द के दायरे में रखा जाने लगा। मसलन, पर्यावरणवादी, नारीवादी, ब्लैक जैसे किसी खास वंचित समुदायों के बीच सक्रिय संगठन, आव्रजनक समर्थक और अल्पसंख्यक समर्थक आदि जैसी ताकतों को भी लेफ्ट कहा जाने लगा।

मतलब यह कि किसी संगठन की वर्ग समझ (class understanding) या आर्थिक विचार क्या हैं, यह लेफ्ट की श्रेणी तय करने का पैमाना नहीं रह गया। वैसे इसको लेकर चली बहस के दौरान आर्थिक रूप से यथास्थितिवादी, लेकिन उपरोक्त अन्य मुद्दों पर उदार नजरिया रखने वाली ताकतों के लिए न्यू-लेफ्ट शब्द भी प्रचलन में आया।

आज स्थिति यह है कि पश्चिमी देशों में इसी प्रकार के संगठनों को लेफ्ट कहा जाता है, जबकि जो संगठन समाज की वर्ग संरचना, आर्थिक विचारों आदि को प्राथमिकता देते हैं, उन्हें फार-लेफ्ट यानी धुर दक्षिणपंथी कहा जाता है।

तो शब्दों पर स्पष्टता बनाने के बाद अब हम इस पर गौर करते हैं कि ताजा अध्ययनों ने बताया क्या है?

एक अध्ययन इस निष्कर्ष पर पहुंचा है कि अब यूरोप के एक तिहाई मतदाता पॉपुलिस्ट, धुर दक्षिणपंथी या धुर-वामपंथी पार्टियों को वोट दे रहे हैं। यानी परंपरागत दक्षिणपंथी, वामपंथी और मध्यमार्गी पार्टियों से उनका मोहभंग हो गया है। यह अध्ययन यूनिवर्सिटी ऑफ एम्सटर्डम ने किया। बताया गया है कि इस अध्ययन के लिए 31 देशों में सर्वे कराया गया। उससे प्राप्त आंकड़ों का विश्लेषण 100 से ज्यादा राजनीति-शास्त्रियों ने किया। इससे सामने आया कि यूरोप में पिछले साल हुए चुनावों के दौरान 32 प्रतिशत मतदाताओं ने ‘व्यवस्था विरोधी’ (anti-establishment) पार्टियों को वोट दिए। 2000 के दशक में यह संख्या लगभग 20 प्रतिशत थी। 1990 के दशक में यह संख्या महज 12 फीसदी थी।

अध्ययनकर्ताओं के मुताबिक अब ‘व्यवस्था विरोधी’ मतदाताओं में से लगभग 50 प्रतिशत धुर-दक्षिणपंथी पार्टियों के पक्ष में मतदान कर रहे हैं। ऐसे दलों के लिए समर्थन तेजी से बढ़ा है। इस अध्ययन का नेतृत्व करने वाले राजनीति-शास्त्री मैथिजिस रुडुयिन ने ब्रिटिश अखबार द गार्जियन से बातचीत में कहा कि यह निष्कर्ष बेहद अहम है, क्योंकि जब धुर-दक्षिणपंथी पार्टियां सत्ता में आती हैं, तो ‘लिबरल डेमोक्रेसी की गुणवत्ता घट जाती है।’

उन्होंने कहा कि यूरोप में मूलवासी समर्थक, धुर-दक्षिणपंथी अधिनायकवादी ताकतों का उदय यूरोप की राजनीति को दक्षिणपंथ की तरफ ले गया है। नतीजतन, कई ऐसी पार्टियां अब धुर-दक्षिणपंथी हो गई हैं, जो पहले आम दक्षिणपंथी (सेंटर राइट) पार्टियां मानी जाती थीं।

अध्ययन रिपोर्ट में लिखने में शामिल रहीं राजनीति-शास्त्री आंद्रिया पिरो ने इसी अखबार से बातचीत में इस परिघटना की नब्ज पर अंगुली रखी। उन्होंने कहा कि इस परिघटना के उभार के लिए परंपरागत सेंटर राइट और सेंटर लेफ्ट पार्टियां जिम्मेदार हैं। वे समाज से कटती चली गईं। इससे यह धारणा बन गई कि ये पार्टियां सत्ता लोभी हैं, जो जनता की चिंताओं के प्रति असंवेदनशील हैं। दूसरी तरफ Anti-establishment पार्टियां खुद को जनता के प्रति संवेदनशील बताती हैं, और लोगों में उन्हें एक मौका देने की सोच मजबूत होती चली गई है।

इस परिघटना के कारण जहां लगभग सभी यूरोपीय देशों (अमेरिका में भी) धुर-दक्षिणपंथी पार्टियां और नेता उभरे हैं, वहीं कई आम दक्षिणपंथी पार्टियां चरम दक्षिणपंथ की तरफ झुक गई हैं। लेकिन पंररागत लेफ्ट पार्टियां व्यवस्था के चंगुल में फंसी हुई हैं और इस तरह उनमें से कई का तो अब अस्तित्व ही खत्म हो रहा है। इस बात की सबसे बेहतर मिसाल फ्रांस की सोशलिस्ट पार्टी है, जो 2017 तक सत्ता में थी, लेकिन अब उसका वोट गिर कर आठ प्रतिशत से भी नीचे चला गया है। चूंकि लगभग तमाम यूरोपीय देशों में परंपरागत लेफ्ट के समर्थक बड़ी संख्या में उसका साथ छोड़ रहे हैं, इसलिए लेफ्ट राजनीति और विचारधारा के ढह जाने की धारणा अधिक मजबूत होती गई है।

लेकिन फ्रांस में हुए एक अन्य अध्ययन ने इस विमर्श को एक दूसरा फ़लक प्रदान किया है। इस अध्ययन रिपोर्ट ने इस समझ को चुनौती दी है कि लेफ्ट का समर्थन आधार पूरी तरह ढह गया है और दक्षिणपंथ की तरफ झुकाव की मौजूदा दिशा अपरिहार्य है। यह अध्ययन मशहूर अर्थशास्त्री थॉमस पिकेटी और समाजशास्त्री जुलिया केज ने किया। दोनों विद्वानों ने 1789 से 2022 तक फ्रांस में हुए चुनाव में कम्युन स्तर रहे मतदान के रुझान का अध्ययन किया। फ्रांस में कम्युन सबसे स्थानीय स्तर की इकाई को कहा जाता है। इस अध्ययन की रिपोर्ट भी इसी महीने जारी हुई है।

दोनों विद्वानों ने एक लेख में कहा है ‘हमने फ्रांस की क्रांति के बाद के सभी चुनावों के वोट आंकड़ों का अध्ययन किया। इससे आने वाले वर्षों में क्या संभव है, उस बारे में आशावादी संकेत मिलते हैं। इससे लेफ्ट के संभावित वोट आधार पर रोशनी पड़ती है और यह संकेत मिलता है कि आव्रजन को निशाना बनाकर श्रमिक वर्ग का वोट हासिल करने की रणनीति अपने अंतिम बिंदु (dead end) पर पहुंच रही है।’

पिकेटी और केज ने इस अध्ययन के दौरान आमदनी, धन, शिक्षा के स्तर और पेशा किस तरह मतदान व्यवहार को प्रभावित करते हैं, इस पर गौर किया गया। उन्होंने दावा किया है कि उन्होंने जो अध्ययन किया, वैसा आम जनमत सर्वेक्षणों के दौरान करना संभव नहीं होता है। दोनों विद्वानों ने कहा है कि यह धारणा दक्षिणपंथी मीडिया ने फैलाई है कि श्रमिक वर्ग पूरी तरह से लेफ्ट से दूर हो गया है।

इस अध्ययन में 1848 के बाद से फ्रांस की कम्युनिस्ट पार्टी और सोशलिस्ट पार्टी को मिले वोटों का विश्लेषण किया गया। साथ ही हाल के वर्षों में ज्यां लुक मिलेन्शॉ के नेतृत्व वाले ला फ्रांस इनसोमाइज पार्टी को मिले वोटों का भी विश्लेषण किया गया, जिसे फ्रेंच मीडिया धुर वामपंथी कह कर संबोधित करता है।

अध्ययनकर्ता निष्कर्ष पर पहुंचे कि सबसे गरीब कम्युन आम तौर पर आज भी लेफ्ट के पक्ष में मतदान करते हैँ। उधर शहरों में जो नया श्रमिक वर्ग अस्तित्व में आया है, अधिकांश मामलों में उसका रुझान भी लेफ्ट की तरफ रहा है। इस श्रमिक वर्ग में वे लोग शामिल हैं, जो सुपर मार्केट्स और रेस्तरां में काम करते हैं, जो क्लीनर एवं केयर वर्कर (सेवाकर्मी) के रूप में, और सर्विस सेक्टर के अन्य क्षेत्रों में काम करते हैं। ऐसे तमाम कर्मियों की वास्तविक आय में पिछले डेढ़ दशक में लगातार गिरावट आई है। 

बहरहाल, शहरी औद्योगिक श्रमिक वर्ग जरूर लेफ्ट से दूर हो गया है। धुर-दक्षिणपंथी पार्टियां- खासकर मेरी ली पेन की नेशनल रैली पार्टी बड़ी संख्या में इस तबके को अपनी तरफ खींचने में सफल रही है। लेकिन यह वो तबका है, जो संगठित श्रमिकों की श्रेणी में आता है और जिसकी आदमनी मोटे तौर पर स्थिर रहती है। ऐसे मतदाताओं के लिए सामाजिक-सांस्कृतिक मुद्दे अहम होते चले गए हैं।   

पिकेटी और केज इस नतीजे पर पहुंचे कि 1990 के दशक से फ्रांस में राजनीतिक टकराव मुख्य रूप से दो पहलुओं से तय हुआ है। शहरी और ग्रामीण विभाजन और विभिन्न समुदायों का सामाजिक-आर्थिक स्तर (आमदनी, धन, शिक्षा, गृह स्वामित्व की स्थिति ये निर्णायक पहलू रहे हैं)। इस टकराव के बीच लेफ्ट के लिए शहरों में सबसे गरीब तबकों और अपेक्षाकृत अधिक गरीब ग्रामीण कम्युन वासियों का समर्थन बरकरार रहा है।

तो इन दोनों अध्ययनों का भारत जैसे देश में लेफ्ट राजनीति के लिए क्या सबक है? सबक यह है कि सिर्फ वर्ग आधारित राजनीति करके ही लेफ्ट संगठन अपना अस्तित्व बचा सकते हैं। यूरोप से लेकर भारत तक में लेफ्ट के जिस हिस्से ने अपनी राजनीति को वर्गीय विश्लेषण और वर्ग संगठन (class analysis and class organization) से दूर किया, वह न सिर्फ संकटग्रस्त हुआ, बल्कि उसके सामने अस्तित्व का संकट भी खड़ा हुआ है। सामाजिक-सांस्कृतिक मुद्दों पर अपने को केंद्रित कर लेफ्ट असल में उन रुझानों को मजबूत करने में सहायक बना है, जिसे अपने विमर्श में वह बुर्जुआ राजनीति कहता था।

लेफ्ट का जो हिस्सा यह समझने में अभी तक अक्षम बना हुआ है कि सामाजिक-सांस्कृतिक पहचान आधारित राजनीति को शासक वर्ग ने प्रोत्साहित किया है ताकि आर्थिक मुद्दों पर वर्ग चेतना के प्रसार रोका जा सके, कहा जा सकता है कि उसका कोई भविष्य नहीं है। लेकिन जो नया या पुराना लेफ्ट इस बुनियादी बात को समझने में सक्षम है, वह अवश्य ही अपनी राजनीति का पुनर्आविष्कार कर सकता है।

प्रमुख चुनौती श्रमिक वर्ग के बदले नेचर के मुताबिक अपनी समझ विकसित करने और उस आधार पर विमर्श खड़ा करते हुए संगठन की दिशा में बढ़ने की है। फ्रांस में 72 वर्षीय ज्यां ल्युक मेलेन्शॉ की सफलता इस बात की मिसाल है।

उपरोक्त दोनों अध्ययनों ने इस बात का ठोस संकेत दिया है कि परंपरागत लेफ्ट, राइट और सेंटर की राजनीति का कोई दूरगामी भविष्य नहीं है। राजनीति लगभग हर जगह धुर-दक्षिणपंथ (जिसका प्रमुख एजेंडा नफरत और अवैज्ञानिक सोच का प्रसार है) और श्रमिक वर्ग की नुमाइंदगी का प्रयास करने वाली लेफ्ट ताकतों के बीच बंटती जा रही है। चूंकि भारत में दूसरी श्रेणी वाली ताकतों का अभाव है, इसलिए पहली श्रेणी वाली ताकत अपराजेय अवस्था में दिखती है। श्रमिक वर्ग के नजरिए यही परिघटना रोग का बुनियादी निदान (diagnosis) है, जिसे अगर ध्यान में रखा जाए, तो उपचार के रास्तों की तरफ बढ़ना संभव हो सकता है।

(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं।) 

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अरुण माहेश्वरी
अरुण माहेश्वरी
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7 months ago

पश्चिम में वाम और दक्षिण के बारे में जन-अवधारणाओं के बारे में हुए सर्वेक्षणों की सत्येंद्र जी की यह टिप्पणी इस अर्थ में बेहद महत्वपूर्ण है कि इससे हमारे देश में भी मतदाताओं के रूझानों में बदलाव के लक्षणों को जाना जा सकता है । बंगाल और त्रिपुरा में वाम की पराजय के बाद उसकी पुनर्वापसी का दुष्कर प्रतीत होने की घटना की इससे जहां एक व्याख्या मिल सकती है, वहीं बीजेपी के धुर दक्षिणपंथ की ओर लोगों के झुकाव को भी कुछ समझा जा सकता है । यह परंपरागत वाम और उदार राजनीति के संस्थानों के जागने का समय है । राहुल की बढ़ती हुई लोकप्रियता की भी इससे एक व्याख्या मिलती है । कांग्रेस अपने पुराने शासक रूप के साथ उभर कर नहीं आ सकती है ।